पूज्य सोमवारी महाराज का प्रादुर्भाव उन्नीसवीं सदी के अन्त में कूर्मांचल में हुआ तथा बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक वे घर-घर प्रसिद्ध हो गए. महाराज उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के पिण्डदादन नामक स्थान के रहने वाले थे. उनके पिता ब्रिटिश शासनकाल में सीमा प्रान्त में सेशन्स जज थे. सम्पन्न परिवार में जन्म लेने पर भी उनका मन सांसारिक माया- मोह में नहीं रमा. विरक्त हो, बचपन में ही अपनी जन्म भूमि छोड़कर, गुरु एवं ज्ञान की खोज में हिमालयी गिरि कन्दराओं में भ्रमण करते हुए, भीमताल के निकट पदमपुरी नामक स्थान को इन्होंने अपना साधना-स्थल बनाया. उन दिनों यहां गहन अरण्य थे. ठंड इतनी अधिक थी कि पास में बहने वाली नदी का जल जाड़ों में जम कर ठोस हो जाता था.
(Somvari Baba Ashram Padampuri Kakrighat)
पदमपुरी में श्री सोमवारी महाराज का आश्रम घने जंगल के बीचों-बीच, ऊंचे पर्वत शिखरों की तलहटी में स्थित, तीन पहाड़ी नदियों के संगम पर था. पर्वतों से घिरे रहने के कारण यहां धूप कम रहती थी. जंगल में बाघ आदि हिंसक जानवरों का बाहुल्य था. आश्रम के ठीक ऊपर एक खेत पर एक छोटा बुर्ज था, जिस पर बैठ कर साधक को अपूर्व आध्यात्मिक शान्ति मिलती थी. इसी स्थल पर सोमवारी महाराज ने एकान्त साधना की थी.
महाराज स्वयं बतलाते थे कि पदमपुरी बहुत ही पवित्र स्थल है तथा यहां एक सिद्ध पुरुष रहते थे. एक बार जाड़ों में जब चारों ओर हिमपात हो रहा था, तो पदमपुरी आश्रम के अधिष्ठाता उस सिद्ध पुरुष ने सोमवारी महाराज को दर्शन दिए थे. सम्भवतः यही सिद्ध पुरुष उनके गुरु थे. पदमपुरी सोमवारी महाराज का प्रमुख आश्रम था. गर्मी में महाराज कोसी के तट पर स्थित काकड़ी घाट चले जाते थे, जो बहुत गर्म स्थान है. काकड़ीघाट आश्रम में भयंकर विषधर घूमते थे और बन्दरों का उत्पात मचा रहता था. कोसी में बड़ी-बड़ी मछलियां थीं, पर महाराज के कड़े आदेश थे कि उन्हें कोई न तो मारे और न ही छेड़े. प्रेम और अहिसा में महाराज का अटल विश्वास था.
सैकड़ों की संख्या में दूर-दूर से लोग सोमवारी बाबा के दर्शनार्थ आते थे. आश्रम में दो धूनियां सदा प्रज्वलित रहती थीं- एक ऊपर की ओर दूसरी नीचे की ओर. सभी भक्तजन नीचे वाली धूनी के पास बैठते थे. भक्तों के आने पर बन्दरों का समूह आस-पास के पेड़ों से उछलता-कूदता आता और उनकी चीजें उठा ले जाता. परन्तु कुछ देर बाद बन्दर स्वयं उन वस्तुओं को यथास्थान रख जाते थे. एक बार एक काला विषधर नाग आकर निचली धूनी के चारों ओर घूमने लगा. दर्शक भयभीत होकर भागने लगे. कुछ के मन में उसे मार देने का विचार याया. पर ऊपर की धूनी पर बैठे महाराज ने कहा, “इसे मत मारो”. उन्होंने सर्प से कहा, ‘जाओ, शंकर बाबा, अब बहुत हो गया’. सर्प रेंग कर जंगल की ओर चला गया.
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उन दिनों रानीखेत छावनी में ब्रिटिश सेना की एक पूरी ब्रिगेड गर्मियों में रहा करती थी. गोरे सैनिक एवं उनके अफसर अवकाश के समय कोसी नदी में मछली मारने आया करते थे. एक दिन फौज ने एक बड़े अफसर को गांव वालों ने बतलाया कि कुछ दूर आगे काकड़ी घाट में मन्दिर के पास बड़ी-बड़ी मछलियां मिलती हैं. उस अंग्रेज अधिकारी ने तुरन्त काकड़ी घाट के पास अपना पड़ाव डाला और दूसरे दिन मछली के शिकार की योजना बनाई. मन्दिर के पास वाला कोसी का क्षेत्र महाराज द्वारा वर्जित था, यह बात साहस को ज्ञात नहीं थी. सारा बिन कांटा-डोर-बलसी लिए साहब नदी किनारे बैठे रहे, पर एक भी मछली कांटे में नहीं फंसी. बड़ी-बड़ी मछलियां आतीं, चारा खा गई पर कांटे में एक भी नहीं फंसती. संध्या के समय साहब जंगल की ओर गए और एकान्त में सोचने लगे. बड़ी आश्वर्यजनक बात है. मछलियां आई, चारा खा गई, पर फंसी एक भी नहीं?
साहब विचारवान् व्यक्ति थे, अतः सोचा कि इस घटना का कोई अहैतुक कारण अवश्य है. उन्होंने आस-पास लोगों से पूछा, “क्या इस मन्दिर के पास कोई साधु बाबा रहते हैं !” लोगों ने बतलाया, “मन्दिर से पूर्व एक कुटिया में एक सिद्ध महात्मा रहते हैं.” वे उसी समय अपने कुछ आदमियों के साथ सोमवारी महाराज के दर्शन करने उनकी कुटिया में पहुंचे. एक कर्मचारी द्वारा महाराज के चरणों में भेंट रखने के लिए कुछ रुपए भिजवाए. कर्मचारी ने जब भेंट महाराज के चरणों में रक्खी तो वे बोले, “भाई, अपने साहब से कहो कि फकीर को पैसे से क्या वास्ता. इन रुपयों की मिठाई मंगवाओ और मछलियों को खिला दो”. साहब ने तुरन्त अपने आदमियों द्वारा पास की दुकान से मिठाई मंगवाई.
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एक आदमी ने कुछ मिठाई नदी में डाली, पर एक भी मछली ने उसे नहीं खाया. वे आतीं, सूंघकर चली जातीं. आदमी ने महाराज से कहा, “कोई मछली मिठाई खाने नहीं आयी.” महाराज ने कहा, “अपने साहब से कहो कि सच्चे दिल से ईश्वर का नाम लेकर खुद मिठाई डालें मछलियां जरूर ही उसे खाएंगी.” साहब ने सच्चे दिल से ईश्वर की प्रार्थना की और मिठाई नदी में डाली. तुरन्त सैकड़ों छोटी-बड़ी मछलियां बड़े वेग से मिठाई पर झपटीं. उनके झपटने का वेग इतना शक्तिशाली था कि नदी में सैलाब-सा आ गया. लहरें किनारे की ओर इतने वेग से आयी कि मिठाई की थालें डूब गयीं और किनारे खड़े हुए साहब तथा उनके आदमियों के कपड़े भीग गए. क्षण भर में मछलियां मिठाई चटकर गयी और नदी में गायब हो गयीं. महाराज के अनन्य ईश्वर प्रेम और जीवों के प्रति अगाध अनुकम्पा का साहब पर गहरा प्रभाव पड़ा. उसी समय उसने आजीवन शिकार न खेलने की प्रतिज्ञा की और जब तक रानीखेत रहा, महाराज के दर्शन हेतु नियमित रूप से काकड़ीघाट आश्रम में आता रहा.
जिन भक्तों तथा सेवकों को महाराज का सान्निध्यलाभ प्राप्त हुआ है, वे बतलाते हैं कि महाराज का तपोबल एवं योग प्रभाव अलौकिक तो था ही, उनकी दिनचर्या भी ऋषि-मुनियों की भांति थी. नित्य प्रातःकाल योग, ध्यान तथा जप से निबट कर आठ बजे महाराज कुटिया के द्वार खोलते थे. उसी समय दर्शक भी स्नान, संध्या, पूजन कर उनके आश्रम में आते थे. महाराज उन्हें तुलसीदल मिश्रित मिठाई देते थे. थोड़ी देर में आश्रम की ओर से जड़ी-बूटी मिली हुई चाय दी जाती थी. फिर महाराज स्वयं नीचे की धूनी में आते थे और दर्शकों से बात करते थे. बीच-चीच में प्रसाद की मिठाई वितरित होती रहती थी.
योग-प्रभाव से उन्हें ज्ञात हो जाता था कि कोई अतिथि आ रहा है, तो उसके लिए मिठाई एवं चाय अलग रख दी जाती थी. दिन में 10-11 बजे लोगों को नदी के तीर पर खाना बनाने का आदेश होता था. महाराज स्वयं तट पर तर्पण कर, आसन पर बैठ, माला फेरते थे. तत्पश्चात् हवन करते थे. फिर शंकरभगवानगुदड़ीकेबाबा की समाधि की आरती करते थे. वे जलपान भी नहीं करते थे. दोपहर में डेढ़-दो बजे स्नान करते थे. फिर माला फेरते थे. तब वे एक छटांक बिना दूध व चीनी की चाय लेते थे. उस समय भी भक्तों को प्रसाद वितरित होता था. इसके बाद दर्शक जहां जाना चाहें, जा सकते थे. संध्या गोधूलि के समय सब दर्शकों को संध्या वंदन करने की आज्ञा होती थी. वह आप भी माला फेरते थे. फिर वे अपनी धूनी एवं शंकर भगवान् की आरती करते थे. इसके बाद कुछ समय के लिए नीचे की धूनी में आकर भक्तों से बात करते थे. फिर दर्शकों को विभूति लगा कर विदा कर देते थे.
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आठ बजे के बाद कुटिया में किसी को रहने की आज्ञा नहीं थी. रात्रि में जब सब लोग चले जाते, तब वे अपने लिए डेढ़-दो छंटाक खिचड़ी या आटे की बाटी बनाते थे. इसके भी तीन भाग करते -एक भाग मछलियों को देते, दूसरा भाग अलग रख देते थे न मालूम किस के निमित्त और तीसरा भाग स्वयं ग्रहण करते थे. रात्रि में कितना विश्राम करते थे-कितना जप-ध्यान करते थे, किसी को कुछ पता नहीं. उस समय कोई भी वहां नहीं होता. दूसरे दिन प्रातः काल आठ बजे बाद भक्तों को महाराज के दर्शन होते थे.
एक बार बदरीनाथ यात्रा करने महाराज के पिताजी पंजाब से गए. उन्हीं दिनों सोमवारी महाराज भी बदरी विशाल के दर्शन कर ज्योतिर्मठ में टिके थे. महाराज के पिताजी को सहयात्रियों ने बतलाया कि यहां एक सिद्ध महात्मा आए हैं तो वे दर्शनार्थं उनकी कुटिया में पहुँचे. दर्शकों की अपार भीड़ थी. उनके पिताजी किसी तरह राह बनाकर भीतर गए और जैसे ही चरणों में दण्डवत् करने झुकने लगे, सोमवारी महाराज आसन से उठ गए और स्वयं प्रणाम करने लगे. लोग आश्चर्यचकित, क्योंकि महाराज ऐसा कभी नहीं करते थे. पिताजी भी आश्चर्यचकित थे. वे अपने पुत्र को पहचान न सके क्योंकि महाराज बाल्यावस्था में ही घर छोड़कर हिमालय की ओर आ गए थे. महाराज ने गौर से पिताजी की ओर देखा. कहा कुछ नहीं. उनके पिताजी को तुरन्त ज्ञात हुआ कि यह महात्मा तो मेरा वर्षों से बिछुड़ा पुत्र है. भाव विह्वल होकर उन्होंने महाराज को छाती से लगा लिया और रोने लगे. उन्होंने कहा “बेटा, मुझे तेरे घर छोड़ने का लेशमात्र भी दुःख नहीं है. तूने तो हमारी सात पीढ़ियों का उद्घान् कर दिया. आज मैं धन्य हो गया हूं.” इतना कह कर उन्होंने महाराज को साष्टांग प्रणाम किया और उसके चरणों में 100 रु. रख दिए. महाराज ने कहा, “मुझे तो आपकी भेजी भेंट मिल चुकी है. इन रुपयों से ज्योतिर्मठ में आए साधु-महात्माओं का भंडारा करा दो.” उनके पिताजी धनाढ्य थे, उन्होंने और रुपये लगा कर तीन दिन का भण्डारा करा दिया.
एक बार महाराज काकड़ीघाट में थे. दिन के समय अचानक अपनी धूनी से उठे और नदी के किनारे स्नान कर अंजलि देने लगे और तर्पण करने लगे. लोगों को आश्चर्य हुआ कि महाराज ऐसा क्यों कर रहे हैं ? थोड़ी देर में लौटकर उन्होंने बतलाया, “आज मेरे पिताजी की मृत्यु हो गई है, इसलिए तर्पण कर रहा था.” पूरे 10-12 दिनों तक उन्होंने तर्पण किया. कहां पंजाब और कहां काकड़ीघाट, पर उनके अलौकिक योग प्रभाव ने काल व स्थान की दूरी मिटा दी. कुछ समय बाद पंजाब से प्राप्त पत्र से इस घटना की पुष्टि भी हो गई.
सोमवारी महाराज नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे! वर्णाश्रम धर्म में उनकी अटूट श्रद्धा थी. नित्य हवन, संध्या-तर्पण, जप-ध्यान करते थे. प्रेम-अहिंसा पर उनका अगाध विश्वास था. जीव-जन्तुओं के अतिरिक्त, समस्त प्राणिमात्र के साथ उनका व्यवहार प्रेममय था. देश-काल के बंधन काटकर उन्होंने कूर्माचल को अपनाया था. यहां के त्यौहारों को भी वे उत्साह से मनाया करते थे. पदमपुरी आश्रम के पास एक जनजाति सौम लोगों की रहती है. ये लोग निर्धन किसान है और बड़े परिश्रम से खेती-बाड़ी कर जीवनयापन करते हैं. इनके साथ महाराज का बड़ा प्रेम था.
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अपने जीवन के अन्तिम दो-तीन वर्ष महाराज पदमपुरी आश्रम से बाहर कहीं नहीं गए. एक दिन हवन करते समय उनकी ऊंगली जल गई तो उन्होंने कहा, “अग्नि देव ने शरीर पकड़ लिया है. थोड़े दिनों में अब चोला बदल जाएगा.” इस घटना के कुछ दिनों बाद एक हिरन हांफते हुए आश्रम में आया और महाराज की ओर देखने लगा. महाराज ने कहा, “आज से इस हिरन को आश्रम से प्रसाद तथा दाना-पानी मिलता रहेगा.” सात दिन तक उसे दाना-पानी मिलता रहा. आठवें दिन अचानक हिरन ने देह छोड़ दी. महाराज के आदेशानुसार उसको विधिवत् दफना दिया गया. इस घटना के बाद, 1919 ई० की पौष शुल्क एकादशी को, मध्याह्न स्नान करके महाराज राम-राम जपते हुए अपनी कुटिया में गए और आसन पर पद्मासन लगा कर बैठ गए. जब देर तक आप की समाधि भंग न हुई तो सेवक कुटिया के अन्दर गए. देखा कि सोमवारी महाराज जी की गर्दन झुकी हुई है, शरीर निश्चेष्ट है, नेत्र भृकुटी के बीच निश्चल हैं. पतित पावन सोमवारी महाराज ने योग द्वारा निर्विकल्पक समाधि में पंचतत्व का पुतला छोड़ दिया.
प्रातः स्मरणीय श्री सोमवारी महाराज अद्भुत अलौकिक शक्ति-सम्पन्न सिद्ध पुरुष थे. तीस साल तक कूर्मांचल, गढ़वाल एवं नेपाल में सर्वत्र उनका व्यापक प्रभाव रहा. अन्य प्रान्तों से भी लोग उनके दर्शनार्थ आते थे, पर वे अपने साधना स्थलों को छोड़ कहीं नहीं गए. उनके भक्तजनों ने महाराज से जो अमूल्य थाती पाई, उसका सार-संग्रह इस प्रकार है :
प्रेम संसार का सार है. सोमवारी महाराज को समस्त प्राणिमात्र से प्रेम था. इसी परम प्रेम की पराकाष्ठा उनके अलौकिक चमत्कारों में प्रत्यक्ष थी. उनकी चुटकी भर विभूति से सैकड़ों भक्तों की उलझनें दूर हो जाती थीं. उनका जीवन मर्यादित एवं अनुशासित था. वे सदबुद्धि, सुमति द्वारा भौतिक एवं आध्यात्मिक सम्पदा अर्जन करने में सफल हुए. इसी प्रेम में उनका दूसरा सिद्धान्त अहिंसा समाया हुआ था. जहां शुद्ध प्रेम है. वहां हिंसा का क्या स्थान ? हिंसा, घृणा व द्वेष उनसे कोसों दूर थे.
कुछ लोग कहते हैं कि सोमवारी महाराज बड़े उग्र, तेजस्वी और क्रोधी थे, परन्तु यह बात दर्शकों की भावना पर आश्रित रहती थी. जो जैसी भावना लेकर जाता, वैसा ही रूप महाराज का देखता था. जिस स्तर के दर्शक आते, वे उनसे उसी स्तर की बातें करते. भक्त से भक्ति, ज्ञानी से ज्ञान, योगी से योग, सांसारिक से संसार की बातें ते करते थे. महाराज ने कुलाचार एवं वर्णाश्रम धर्म पर बहुत जोर दिया. कहते थे इसी से देश तथा समाज की रक्षा होती है. पर साथ ही यह भी कहते थे कि जो वर्णाश्रम धर्म नहीं मानते, उनसे कतई घृणा मत करो. सब धर्मों का समान आदर करो. अपने कर्तव्य को निष्काम रूप से करो. देश-काल की कमी उपेक्षा मत करो. साहस और पौरुष से कभी मुख न मोड़ो. होगा वही जो राम रचि राखा. दुख गाने के लिए योगी-तपस्वी के पास नहीं जाओं. भगवान के सामने हाथ जोड़कर खड़े रहने को अपेक्षा, उसके भक्तों की सेवा करने से अधिक लाभ होता है.
(Somvari Baba Ashram Padampuri Kakrighat)
बद्री साह ठुलघरिया का यह लेख 1987 में उत्तराखंड शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित उत्तराखंड अंक से साभार लिया गया है.
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