करीब पिछले दो दशकों से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव दुनिया भर में देखा जा रहा है. जलवायु परिवर्तन की इस प्रकिया में लगातार ग्लेशियर पिघल रहे है समुद्र के पानी का स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है ऐसे राज्य जहां पर ज्यादातर सूखा पड़ता था वहां पर अब असमान्य रूप से होने वाली बारिश के चलते बाढ़ जैसे हालात बनने लगते है गर्मी के मौसम में अत्याधिक गर्मी और सर्दी के मौसम में अचानक से बहुत ज्यादा सर्दी पड़ने लग जाती है यह सब जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हो रहा है.
(Solid Waste Management & Climate Change)
जलवायु परिवर्तन क्या है अगर इसे सरल शब्दों में कहे तो साल में अलग-अलग ऋतुएं होती है. सर्दी-गर्मी बरसात इन ऋतुओं के अनुसार ही खेती बाड़ी भी होती है कि कौन सी फसल को कितना पानी चाहिए या कम पानी चाहिए परन्तु वर्तमान स्थिति में ऐसा नहीं हो रहा है कहीं जरूरत से ज्यादा बरसात हो जाती है तो कहीं सूखा पड़ जाता है जिसका सीधा असर फसलों पर हो रहा है फसलों पर पड़ने वाले प्रभाव का सबसे ज्यादा असर मध्यम और निम्न वर्ग पर पड़ रहा है.
ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखें तो करीब 150-200 सालों तक लोगों द्वारा खेती ही की जाती थी उसी से उनका जीवन यापन होता था. जैसे-जैसे विज्ञान ने तरक्की की वैसे-वैसे तकनीक सुविधाओं ने भी रफ़्तार पकड़ी और धीरे-धीरे फैक्टरियां आनी शुरू हुई फैक्टरियां आने के साथ-साथ प्रदूषण होने लगा. विकास की इस प्रकिया के शुरूआत में प्रदूषण कम था परन्तु जैसे-जैसे देशों ने विकास की राह पकड़ी प्रदूषण ने भी अपनी गति को तेज किया. प्रदूषण से निकलने वाली गैसे वायुमंडल में ही घुमने लगी और उसके बाद से मौसम में बदलाव आना शुरू हो गया. धीरे-धीरे देश विकास के धुन में बड़े पैमाने पर पेड़ों पहाड़ों को काटने लगे बेतहाशा गाड़ियों का निर्माण होने लगा धुँआ पैदा होने लगा. इन सबका परिणाम यह हुआ कि ग्रीन हाउस गैसे हमारे वायुमंडल में फैलने लगी जिसका असर धीरे-धीरे सामने आ रहा है.
जलवायु परिवर्तन के अनेक कारण है जिसमें कोयले का जलना चाहे वो किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए जलाया जायें वाहनों से निकलने वाला धुंआ लगातार बढने लगा वनों का कटना और कूड़े के उत्पादन में वृद्वि होना. जलवायु परिवर्तन का असर जमीनी स्तर पर कितना होगा इसको समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है. इसकी चपेट में सबसे ज्यादा गरीब वर्ग और गरीब देश ही आयेगे. कुछ सालों पहले अन्तराष्ट्रीय स्तर पर क्योटो प्रोटोकॉल संधि हुई इस संधि पर करीब 150 देशों ने हस्ताक्षर किये इस संधि का उद्वेश्य था पर्यावरण की सुरक्षा हेतु ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना. क्योटो संधि के आधार पर प्रत्येक देश को एक सीमा तक इन गैसों का उत्सर्जन करने का अधिकार प्राप्त था. आगे क्योटो संधि के सेक्शन बी में यह भी कहा गया कि यदि कोई देश तय सीमा से ज्यादा उत्सर्जन करता है तो जिन देशों में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो रहा है. उन देशों से कार्बन क्रेडिट खरीद सकते है यानि जो देश तय सीमा से कम ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे है वह ज्यादा उत्सर्जन करने वाले देशों को अपना क्रेडिट दे सकते है. यह प्रवाधान क्यो रखा गया इसे समझना ज्यादा जरूरी है यदि देखा जाये तो वायुमंडल तो एक ही है बस यह एक तरीका था विकसित देशों को या कहे ताकतवर देशों को अपने अनुसार विश्व को चलाने का.
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कूड़े का लगातार बढ़ना भी जलवायु परिवर्तन मे अहम भूमिका निभा रहा है. कूड़े का उत्पादन और किस तरह का कचरा अधिक उत्पन्न हो रहा है यह विभिन्न देशों में एवं देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है. कूड़े का उत्पन्न होना किसी भी राज्य की जनसंख्या शिक्षा रहन-सहन की आदतों पर निर्भर करता है. कूड़े से कुछ जहरीली गैसों का भी उत्सर्जन होता है जैसे मीथेन डाईआक्साइन यह गैसें ग्रीनहाउस गैसों में से एक है जिसका काम वायुमंडल को दूषित करना है. मीथेन गैस एयर कंडीशनर टीवी यहां तक की फ्रिज को भी खराब कर देती है यहां से अंदाजा लगाया जा सकता है की जब यह गैस इलैक्टिनिक चीजो पर असर डाल रही है तो पर्यावरण या मानव स्वास्थय पर इसके क्या प्रभाव होगे.
आकड़ों के अनुसार विश्व के स्तर पर प्रति दिन करीब 1.7 से 1.9 अरब मीट्रिक टन कूड़ा उत्पन्न होता है. विकाशसील देशों की स्थिति ज्यादा खराब है क्योंकि वहां पर वर्तमान स्थिति कूड़े को मुनासिपालिटियों द्वारा न तो इक्ठ्ठा किया जाता है और ना ही सही से उसका निपटान किया जाता है. मुनसिपालिटी द्वारा कूड़ा निपटान की व्यवस्था को सुचारू रूप से न चलने के अनेक कारण है जिसमें से प्रमुख है कि मुनसिपालिटी लगातार बढ़ते कचरे को कम करने में असमर्थ हो रही है लोगो के अन्दर जागरूकता का अभाव है दूसरा मुख्य कारण है आर्थिक रूप से मुनसिपालिटी के पास बजट का कम होना. विकासशील देशों में कूड़ा निपटान की सुचारू व्यवस्था न होने के चलते लैडफिल पर कूड़े के पहाड़ बनते जा रहे जिसमें गर्मी के मौसम में मीथेन गैस का उत्सर्जन अन्य मौसमों के अपेक्षा ज्यादा होता है.
वतर्मान स्थिति में ज्यादातर विकासशील देशों में लैंडफिलो का निर्माण अवैज्ञानिक तकनीक से होता है, दूसरा क्योंकि कूड़े को व्यवस्थित तरीके से इक्ठ्ठा नहीं किया जाता है, कई बार ऐसा भी होता है कि कूड़े को एक जगह इक्ठ्ठा करके जला दिया जाता है जिस पर कोई कार्यवाही नहीं होती कूड़े को जलाना विकाशसील देशों में एक सामान्य सी घटना है जिसे गंभीरता से नहीं लिया जाता है तीसरा लोगो के कूड़ा निपटान को लेकर जानकारी का अभाव है जिसके चलते वह सूखे और गीले कूड़े को अलअ-अलग करने की बजाय उसे एक साथ ही डाल देते है जिससे पुर्नचक्रित होने वाला कूड़ा भी लैंडफिल पहुंच जाता है या तो वह लैडफिल से वेस्ट टू एनर्जी प्लांट मे जाता है या फिर लैंडफिल पर सड़ता रहा है और ग्रीन हाउस गैसों की उत्सर्जन प्रकिया को और तेज करता है.
2006 के आईपीसीसी के दिशा निर्देशों के अनुसार ठोस-कचरा प्रबंधन को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है- पहला ठोस कूड़े का निपटान करना कूड़े को जलाना इसमें विभिन्न प्रकार का कचरा शामिल होता है कूड़े से दूषित पानी जिसे लीचट कहते हैं का निपटान और जैविक कूड़ा या गीले कूड़े का निपटान आईपीसीसी के अनुसार इन चारों श्रेणियों की प्रक्रिया के दौरान मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है जो वायुमंडल में मिलकर जलवायु परिवर्तन में अहम भूमिका निभा रही है. जैसा की मैंने पहले लेख की शुरूआत में लिखा कि कचरा भी एक अहम कारण है जलवायु परिवर्तन के लिए परन्तु इसके अलावा भी अन्य क्षेत्र हैं जिनसे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बड़ी मात्रा में हो रहा है परन्तु अन्य क्षेत्रों के अपेक्षा कचरा प्रबधन का सुचारू निपटान करके ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जा सकता है. राष्ट्रीय एवं अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर कई अभियान चलाये जा रहे है जिससे कम से कम कूड़े का पैदा हो, जैसे घरों के स्तर पर ही सूखा और गीला कूड़ा अलग होना चाहिए, ज्यादा से ज्यादा पुर्नचक्रण की प्रकिया को अपनाना चाहिए इसके अलावा गीले कचरे को खाद बनाने के लिए लोगो को प्रोत्साहित करना चाहिए केरल का एक शहर अलापुन्जा यह एक अच्छा उदाहरण है यहां पर उत्पन्न 100 प्रतिशत गीले कचरे से खाद बनाई जाती है इस खाद का प्रयोग यहा के निवासी स्वंय और आस-पास के शहरों के लिए भी करते है.
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(लेखिका बलजीत जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर हैं)
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