एक साल पहले वे शारदीय नवरात्र के दिन थे भास्कर मैंने कुछ तस्वीरों वीडियो के साथ मैसेज किया था.
(Smita Vajpayee Travelogue)
“यहां आओ स्मिता “
” बहुत सुंदर जगह है मैम”
कालीमठ !
“यहां आओ और खुद महसूस करो दिव्य ऊर्जा को !”
“जी !”
“संकेत समझो ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी बस आगे तुम स्वयं आ कर जानो”
फिर कोई मैसेज नहीं. फोन भी नहीं उठाया. और मुझे कालीमठ जाने की ऐसी लगन लगी कि जैसे साक्षात माता काली ने ही भास्कर मैम से कहवाया है कि जैसे वह खुद ही मुझे बुला रही हैं.
पूरे एक साल बाद भास्कर मैम के साथ ही जाना तय हुआ नवरात्रों में. मगर मेरे पापा बाइक से गिर गये. उनका एक हाथ टूट गया और बहुत चोट भी आई. मुझे पापा के पास ही रहना था फिर.
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आखिरकार दो महीने बाद हम अपने माँ-पापा के साथ दिल्ली आए उनके रूटीन चेकअप के लिए और फिर वहाँ से हरिद्वार. पापा दिल्ली से वापस गाँव चले गये और माँ को ले कर हरिद्वार आ गयी. हरिद्वार से ही हमें कालीमठ जाना था.
मां दीदी के पास हरिद्वार रहीं. मैं बाईस अप्रैल की सुबह साढ़े छः बजे भास्कर मैम की कार से अपने सामान के साथ निकल पड़ी. एक दिन पहले शालिनी की शादी की एनिवर्सरी थी पच्चीसवीं. जिस में देर रात तक पार्टी चलती रही. शालिनी मेरे बचपन की सहेली!
दूसरे दिन दीदी ने ही मेरी तैयारी की भाग-भाग के. वहां क्या चाहिए, क्या मिलता है, क्या नहीं मिलता, उस हिसाब से कॉलेज से आने के बाद वही सब में परेशान रही, देर रात तक.
अगली सुबह हम निकल गये. वहां रुकने की व्यवस्था, भास्कर मैम और दीदी ने कर दी. मैं जाने को लेकर इतनी रोमांचित थी कि बाकी जानकारी भी मुझे फोन से मिली वह भी गुप्तकाशी पहुँचने पर. श्रीनगर तक तो मैं उल्टियां करते गई. श्रीनगर में ही फिर दवा ली और सो गई. आँखें फिर गुप्तकाशी में ही खोली या कहूं कि खोलनी पड़ी. फोन देखने, सुनने और कालीमठ के कुछ लोगों के नंबर सेव करने के लिए और उनसे बात करने और उनकी बात बताने (भास्कर मैम ,दीदी को) के लिए.
हालत खराब थी मेरी मगर मैं बेहद रोमांचित भी थी. आखिर दिन के बारह बजकर चार मिनट पर हमारी गाड़ी वहाँ रुकी जहाँ सामने बोर्ड लगा था – शक्तिपीठ कालीमठ में आपका स्वागत है.
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मैं कई-कई भाव से भरी हुई उस बोर्ड को पढ़ रही थी, निहार रही थी, उस जगह को देख रही थी. सिर उठा के पहाड़ों को, लोगों को और लगातार बजती घंटियों की आवाज को सुनकर रोमांचित हो रही थी जैसे यह सब कुछ मेरे स्वागत में हो रहा है! मैं बेहद खुश हूं!
राणा जी किसी के साथ आ गए थे. ड्राइवर ने उन्हें गुरुजी प्रणाम कहा. रास्ते में भी एक दो लोगों ने उन्हें गुरु जी कहकर प्रणाम किया. उनके प्रति लोगों की ये विनम्रता मुझे अच्छी लगी.
राणा जी, ड्राइवर और वह साथ में आया लड़का सब ने मेरा एक-एक सामान उठाया और चल दिए. मैं भी राणा जी के पीछे-पीछे. सीढ़ियाँ उतरते ही लोहे के पुल पर थी. जिस पर कतार से घंटियां टंगी हुई थीं और जिसे आते-जाते लोगों में से कोई ना कोई बजा रहा था. और नीचे नदी बड़ी ऊँची आवाज के साथ बह रही थी.
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चारों ओर पहाड़ और उन पर दिखते छोटे-छोटे घर! आसमान साफ था पर धूप नहीं थी. हवा में ठंडक थी जो अपने ढंग से मेरा स्वागत कर रही थी. पुल पर चढ़ते ही मारे खुशी के मैं उसके रेलिंग में कतार से टंगी घंटियों को छूने, बजाने लगी और उनकी आवाज की कंपन को अपने भीतर महसूस करते हुए पुलक से भर गयी. यह वही पुल है जिसकी फोटो वीडियो मुझे भास्कर मैम ने भेजी थी. आज उसी जगह, उसी पुल पर खड़ी हूँ.
पुल के आगे फिर कुछ सीढ़ियाँ और हम मंदिर परिसर में. मंदिर के आगे रुकने का मन होते हुए भी नहीं रुक सकी. राणा जी के साथ सभी लोग मुझसे बहुत आगे थे. और पता नहीं था कि कहाँ है मेरा कमरा.
मंदिर पार करके फिर सीढ़ियां और फिर एक पहाड़ी ढंग से बने मकानों के भीतर से एक गली. फिर से सीढ़ियाँ खड़ी और घुमावदार. अपने वजन पर बेहद कोफ्त हुई. हफ्फ- हफ्फ करते, धौंकनी बने आखिर हम उस गुफानुमा रहस्यमय सीढ़ियाँ पार करके एक खुले बरामदे में थे जिसके एक रूम का ताला खोलकर चाबी मेरे हाथ में दी गई.
उखड़े पलास्टर, झड़ते नीले रंग के पेंट वाला कमरा साधारण ठीक-ठाक था. एक चौकी , बिछावन,चादर सहित दो काठ की मेज और एक दीवार अलमारी के साथ. जिसमें एक कंबल, एक रजाई और दो तकिया रखा था. तकिए के कवर को देखकर बचपन में देखा अपने गांव का सिरहानी का खोल याद आ गया, पुरानी साड़ी का, किनारे से चुन्नट वाला. सिरहानी का खोल कुछ-कुछ उसी तरह का था.
रसोई और टॉयलेट का ताला भी खोला गया और चाबी मुझे दे दी गयी. रसोई में एक बड़ा पतीला अल्मुनियम का, एक लोहे की कड़ाही थी. गैस के सिलेंडर के साथ लकड़ी की मेज पर चूल्हा था.और एक लकड़ी का रैक था बगल में जिसका आखिरी रैक दो-दो ईंटो पर रखा एक लकड़ी के पटरे से पूरा होता था. इसी रसोई के सीध में बाथरूम, टायलेट था.
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कमरों के सीध में दो कमरे और थे पर वे खाली थे. और बंद थे. बरामदे में आओ तो नदी बहती दिखाई दे रही थी कमरे में जाओ तब बहती सुनाई दे रही थी. यह बेहद रोमांचित कर रहा था मुझे!
राणा जी ने मेरी कॉफी के लिए एक छोटे से कपनुमा गिलास में दूध मंगवा कर दे दिया था मुझे. “और कुछ जरूरी हो तो फोन पर बोल देना” कह कर चले गये.
साथ में लाया खाना ड्राईवर को दिया. वह भी खा कर कार को लेकर चले गये. मुझे भूख नहीं थी. जबकि घर से मैं कुछ भी खा कर नहीं चली थी पहाड़ी रास्तों और उल्टियों को सोचकर. मैं अनेक भाव से भरी हुई थी. इस समय मुझे बिल्कुल भी भूख नही थी. मैंने कॉफी भी नहीं बनाई.
सब के जाने के बाद मैंने अपना सामान लगाया. राणा जी, ड्राइवर और साथ में सामान लेकर आया लड़का सब चले गए. मैंने चादर के ऊपर अपनी चादर बिछाई और लेट गयी. लेकिन दस पन्द्रह मिनट बाद ही बिना चिटकिनी के सटाया हुआ दरवाजा धड़ाम से खुल गया. बाहर अचानक से मौसम बदल गया था. बहुत तेज और ठंडी हवा चल रही थी. मैंने मौसम का आनंद लेना चाहा और बरामदे में रेलिंग के पास आकर खड़ी हो गयी लेकिन तुरंत ही अंदर आकर शॉल निकालकर लपेटा और फिर बरामदे के एक कोने से नदी का तेज बहाव देखने लगी खड़ी हो कर. फिर कुछ ही देर में वापस आ कर स्वेटर पहनना पड़ा. बाहर खड़े रहना मुश्किल था.
भीतर दरवाजा लकड़ी की ही छिटकनी से बंद कर के, लाइट जला कर बैठना पड़ा. करीब पाँच बजे जा कर यह तेज हवाएं रुकीं. कुछ सामान जैसे दूध सब्जी के लिए राणा जी को बुला कर उनके साथ बाजार के लिये अपने कमरे से नीचे उतरी. बाहर आ कर देखा कि बाजार के नाम पर मुश्किल से दस दुकानें हैं. हर दुकान में पूजन सामग्री. हर दुकान में इन पूजन सामग्री के साथ ही कॉफी, दूध के पैकेट भी मिल रहे हैं. सिर्फ दो दुकानों पर सब्जी और फल थे. सब्जियां सूखी और सड़ी हुईं. कई दुकानों पर से दुकानदार नदारद!
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राणा जी ने साथ रहकर मुझे आलू ,प्याज ,टमाटर, अदरक ,दूध और चाय की छन्नी खरीदवाई. गिनती की दुकानों में भी कई दुकानों के शटर गिरे हुए थे. जो खुली दुकानें थीं और उनमें जो सामान थे वह लुढ़के हुए से धूल-धूसरित से पड़े हुए थे. और दुकानदार फोन पर! दुकानदार अगर दुकान में थे तो फोन पर गढ़वाली गीत सुनने या विडियो देखने में मस्त थे. जो खुली दुकानें थीं और उन में जो दुकानदार थे वह यूँ ही से पड़े हुए थे. सामान के लिए जवाब देने में भी कोई हां है या नहीं है, उन्हें कोई जल्दी नहीं थी. उनकी मंथर गति और बिक्री के प्रति उदासीन भाव देखकर मुझे हंसी भी आई पर हर जगह जहाँ भी कोई फोन पर था वहाँ से गढ़वाली गीत ,गढ़वाली में ही कोई कार्यक्रम की आवाज आ रही थी. यह मुझे बहुत अच्छा लगा. उनका अपनी भाषा से प्रेम देख कर खुशी हुई. हालाँकि स्त्री पुरुष गढ़वाली वेशभूषा में तो नहीं थे मगर बाकी और बातों से उनका पहाड़ी होना , गढ़वाली होना दिख रहा था.
कुछ दुकानों पर महिलाओं ने जरूर गढ़वाली ढंग से माथे को स्कार्फ से बांध रखा था. पूजा की थाली, चूनर, घंटी वाली दुकानें ही यहाँ चमकदार थीं. बाकी दुकानों की चमक फीकी और दुकानदारों का व्यवहार ढीला था और जैसा कि पहाड़ों में होता है और जो पहाड़ों का सच भी है, ज्यादातर दुकानों पर महिलाएं थीं. पुरुषों के मुकाबले सजग, हंसमुख, मिलनसार और मेहमानवाज!
मैं अपना सामान ले कर लौट रही थी. मुझे इस बात का ताज्जुब भी था और थोड़ी सी खीज भरी हँसी भी कि मुझे किसी भी दुकान पर हरी मिर्च नहीं मिली. पूछने पर वह बोलते अब सामान तो सोमवार को ही आएगा. तब तक वही सूखी सड़ी हुई सब्जियां बेचेंगे शायद. मुझे हँसी आई. मैंने पूछा भी था कि और जिसको जरूरत हो वह कहां से लाएगा हरी मिर्च या दूध? तो बोलते हैं कि उसके अपने घर में होगा. हरी मिर्च के लिए तो और दूध के पैकेट के लिए तो अब आपको सोमवार तक इंतजार करना पड़ेगा और यह जरूरी नहीं है कि आपको मिल ही जाए क्योंकि अब यात्रा शुरू हो गई है. यात्रा यानी केदारनाथ की यात्रा, चार धाम यात्रा तो अब चीजें ज्यादा महंगी होंगी. और यहाँ कालीमठ में भी मुश्किल से ही मिलेंगी. मुझे इस पर ताज्जुब हुआ.
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हरी मिर्च को सोचती हुई अपना सामान ले कर लौट रही थी तो मेरे सामने से एक वृद्धा गुजरी. दोहरी हुई और पीठ पर लकड़ियों का ढेर लादे, लाठी के सहारे चलती हुई. किनारे से लड़कों ने उससे कुछ चुहल की और उसने भी हंसकर कोई गाली दी गढ़वाली में. लड़के हंस रहे थे ताली बजा के. वृद्धा भी हंस रही थी लकड़ियों का गट्ठर लादे. पुल की ओर से घंटियों की आवाज आ रही थी लगातार. और अब नदी की भी. मैं पुल के पास तक आ गई थी.
बाजार जो कहने भर का बाजार था उसमें कहीं भी कोई भीड़ नहीं थी. वह हमारे इधर के गाँव-देहात के बाजार जैसा ही था. बस कभी-कभी गाड़ियाँ आ-जा रही थीं. बाकी जीवन की गति यहाँ देखने को नहीं मिल रही थी. यहाँ पर इस बाजार में जो कि गुप्तकाशी की ओर से आते हुए सड़क के किनारे था, इस कालीमठ के बाजार में अगर कुछ गतिशील था तो वह आती या जाती हुई यात्रियों की, पर्यटकों की गाड़ियाँ. महसूस होती, तेज चलती हवा! और सामने से बहती दिखती नदी! बाकी सब शांत, मंथर गति से. जीवन और जीवनचर्या.
पुल पर उतरने से पहले मैं रुकी और मैंने चारों ओर सर उठाकर पहाड़ों को देखा. तीन तरफ गाँव सी बसाहट है. एक ओर के पहाड़ से एक स्त्री अपनी पीठ पर गैस का सिलिंडर बाँधे उतर रही थी नीचे. मेरी आंखों की सीध में जो सड़क जा रही थी उस पर वह वृद्धा लकड़ियों का बड़ा सा गठ्ठर लादे जा रही थी. चारों और पहाड़ों से घिरा, पुल के उस पार माता काली का मंदिर दिख रहा था और नदी मेरे सामने पहाड़ों की ओर से झूमती-नाचती पुल के नीचे से मुड़कर मंदिर के आगे से निकलकर बह रही थी जैसे काली मंदिर की अर्द्ध परिक्रमा कर रही हो.
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मैंने जोर से सांस खींची और मुस्कुराई. मन हुआ पास खड़े राणा जी से कहूं – आपके पहाड़ों की शक्ति और सौंदर्य स्त्रियों से है. पहाड़ों को भी जैसे स्त्रियों ने ही उठा रखा है.
” सात बजे आरती होती है आप आ जाना नीचे. अब मैं चलता हूँ अपने गाँव. “
” आपका गाँव कहां है राणा जी. “
” वह ऊपर”
मंदिर के पीछे के पहाड़ पर मैंने देखा मुझे ज्यादा घर नहीं दिखाई दिए. शाम हो रही थी और मैंने अब तक कुछ भी नहीं खाया था और ना ही मुझे भूख लगी थी. लेकिन इस समय खाना बनाने की, पानी भरने, उबालने, सामान रखने की व्यवस्था समझनी थी तो घूमने देखने का मन रहते हुए भी मैं राणा जी के पीछे-पीछे सीढ़ियां उतरने लगी पुल पर जाने के लिए. अभी मुझे कुछ अंदाजा नहीं था और कालीमठ का यह मेरा पहला दिन था. अब शाम हो रही थी. कमरे में पहुंचकर देखा लाइट बार-बार आ-जा रही है. तुरंत बाजार लौटी मोमबत्ती, माचिस के लिए. अब मैं बिना आदत के सीढ़ीयाँ, चढ़ाई उतराई करते थक गई थी. शाम भी हो गई थी लौटते-लौटते.
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लौटकर महाकाली मंदिर में ही बैठ गई आरती के लिए. सात बजे शाम को आरती शुरू हुई – ओम जय अंबे गौरीss मंदिर के बाहर इस आरती के साथ कोई ढोल बजा रहा था. मंदिर के पुजारी ने भीतर आकर भीतर के पट खोले. इस समय उस स्थान की धूप, कपूर से आरती की. एक हाथ से लगातार एक बड़ी घंटी बजाते रहे. आरती पूरी हुई. ढोल बंद! आरती बंद! लाउडस्पीकर बंद! शांति! मंदिर भी इसी समय बंद हुआ. इसके पहले भी कोई भजन, आरती का शोर था ना इसके बाद. यह बहुत अच्छा लगा मुझे.
मंदिर के पास की पूजा सामग्री की दुकानें भी बंद हो रही थीं जब मैं अपने कमरे में जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ रही थी. लाइट फिर चली गई. अनजान अंधेरी गली पार कर के, घुमावदार बारह खड़ी सीढ़ियां मैंने मोबाइल की रोशनी में चढ़ीं. रात भर लाइट आती-जाती रही. दिन भर जो मन रोमांचित था वह इस समय अनमना हो रहा था. रात सोते जागते बीती. बंद कमरे में हवा और नदी के बदलते स्वरों के साथ करवट बदलते बीत रही थी. सुबह के तीन बजे थे जब नदी का स्वर हवा के साथ लयबद्ध सुनाई दे रहा था. यह सुखद था. मैंने उठकर लाइट ऑफ की और सो गई.
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जारी…
बिहार के प.चम्पारन में जन्मी स्मिता वाजपेयी उत्तराखंड को अपना मायका बतलाती हैं. देहरादून से शिक्षा ग्रहण करने वाली स्मिता वाजपेयी का ‘तुम भी तो पुरुष ही हो ईश्वर!’ नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है. यह लेख स्मिता वाजपेयी के आध्यात्मिक यात्रा वृतांत ‘कालीमठ’ का हिस्सा है. स्मिता वाजपेयी से उनकी ईमेल आईडी (smitanke1@gmail.com) पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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