Default

पहाड़ों की अति कठिन जिंदगी में सहृदयता

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये क्लिक करें – Support Kafal Tree

पिछली कड़ी : जब नायिकाओं का पहाड़ पर जाना रोगी हो कर ही होता था

कालीमठ के छोटे से बाजार से लौटते हुए मन में मीनाक्षी की बात चल रही है. मेरी उत्सुकता और लोगों से बातचीत देखकर मीनाक्षी को लगा मैं यूट्यूबर हूं.
(Smita Vajpayee Travelogue Kalimath)

– अरे नहीं बच्चे यूट्यूबर नहीं हूं मैं.

– फिर आप जो इतना पूछ रहे हो?

– लिखूंगी

– आव्व! राइटर हो!! अरे वाह आज तो कैसे लोग मिल रहे हैं.

हंसते हुए मीनाक्षी के चेहरे पर जो भाव था ‘राइटर’ कहते हुए उससे लिखने ,पढ़ने वाले लोग तसल्ली रखें.अभी पढ़ने वाले और लिखने पढ़ने वालों को इज्जत देने वाले लोग हैं धरती पर. खासकर मीनाक्षी जैसे बच्चे अगर खुश होते हैं किसी राइटर से मिलकर तो यह सबसे अच्छी आश्वस्ति है कि लिखने पढ़ने का भविष्य अब भी है.

मीनाक्षी कालीमठ से नीचे जाकर पड़ रही है अभी. मैं इसी बात से खुश थी कि उसका यूँ राइटर कह कर चहकने ने मुझे अंदर तक भिगा दिया खुशी से. अपने कस्बे के रेलवे स्टेशन के एकमात्र ए. एच. व्हीलर बुक स्टॉल के बंद होने के दर्द में थोड़ी कमी आई.

बचे हुए हैं लोग अभी. बच रहे हैं हम भी!

मीनाक्षी की दुकान से अब कुछ सामान खरीदा गया  बेजरूरत ही. उसके बाद कालीमठ की कर्मठ महिलाओं के संग फोटो खिंचवाई गयी. 

अपनी-अपनी दुकान पर डटी सभी महिलाओं के “आदमी और लड़के” चार धाम यात्रा तक दुकान लगाने चले गए हैं. चार महीनों तक अब घर बाहर यही महिलाएं संभालेंगी. वैसे विना शक पहाड़ महिलाओं ने संभाल के रखा है सैल्यूट!
(Smita Vajpayee Travelogue Kalimath)

वापस पुल पर, यह घंटियों वाला पुल गजब जादुई असर करता है. नीचे नदी बेहद तेज आवाज में बह रही है और ऊपर पुल पर कि यह घंटियां बजा दो तो जैसे अद्भुत समां बंध जाता है. मेरे अंदर की लड़की मचल गई और खूब जोर जोर से घंटियां बजाने लगी पुल की. आहा! कितना मजा आया! खाने से पहले मन तृप्त हो गया. दो बार, तीन बार, चार बार मैंने दौड़-दौड़ के पुल की घंटियां बजाईं. अपनी धुन निकाली. कभी ऊपर की लाइन तो कभी नीचे की लाईन. कभी बड़ी कभी छोटी घंटियां बजा कर और खूब आनंद ले कर-मन ही मन मुनक्का मन ही मन छुहारा होते बताए हुए पते पर पहुंच गए भोजन करने.

यह मंदिर के पीछे नए बने गेस्ट हाउस के पीछे बल्कि कई सीढ़ी नीचे (फिर सीढ़ियां उफ्फ!) सामान से खचाखच भरे  दो कमरे थे. जिसके बरामदे में बेंच और लाल प्लास्टिक की कुर्सियां एक पर एक फंसा कर कई जगह रखी हुई थीं. बरामदे में ही एक छोटा सा बेसिन लगा था. बाहर बड़े-बड़े देग और कड़ाह रखे थे धोने के लिए. उनमें प्लास्टिक के पाइप से पानी गिर रहा था.

आवाज लगाने पर रसोई से वीरेंद्र सिंह  राणा आए और दरवाजा खोल कर अपने जुगाड़ू डाइनिंग हॉल में बिठा दिया.

यह आटे, चावल की बोरियों, डिस्पोजेबल गिलास कटोरी और प्लेटों से भरा हुआ कमरा था. पांच कुर्सी एक बड़ी काठ की चौकी जिस पर प्लास्टिक बिछा हुआ है, के किनारे लगाई गयी थी. चौकी पर एक कटोरी में नमक के साथ कुछ हरी मिर्ची रखी हुई है.

खाना ले आए. दो सब्जी, एक दाल, रोटी, पापड़. पानी भी लाकर रख दिया. छोटे से लोटे में झाग झाग हो रहा था. पूछने पर पता चला पानी साफ करने को कुछ डाला है. पानी तो खैर वैसे भी नहीं पिया जा रहा मुझसे पहाड़ का. भोजन बहुत ज्यादा मात्रा में और बेहद स्वादिष्ट था. मैंने सोच लिया अब नहीं बनाऊंगी मैं खुद से. भोजन बर्बाद ना हो इसलिए मैं किसी तरह उसे पेट में डाल रही थी. जबकि दो रोटी पहले ही अलग रख दी थी फिर भी भात  बहुत ज्यादा था. मैं अभी हिल डुल के खा रही थी कि खूब लंबी सुंदर विदेशी महिला आती है. उन्हें भी कुर्सी दी जाती है पर वे उस टेबल बनी चौकी पर एक तरफ बैठ जाती हैं, खालिस भारतीय ठेठ अंदाज में. वहाँ, जहां खिड़की पर आटे की बोरी रखी हुई है. हमने एक दूसरे को देखा, मुस्कान के साथ अभिवादन हुआ. और फिर जैसा कि होता है बातों, उत्सुकता की गठरी खुलने लगी.
(Smita Vajpayee Travelogue Kalimath)

नोवा! यही नाम है उनका. स्वीडन से हैं. भारत, भारत की संस्कृति, योग अध्यात्म और ज्ञान वाली बातें उन्हें बहुत पसंद हैं.

– आप कहां से हैं

-स्वीडन! मुझे यह कहना पड़ता है. जबकि मेरी इच्छा होती है कि मैं खुद को भारत का कहूं. मैं क्या बताऊं पर मैं ऐसा नहीं कर सकती.

-क्यों नहीं! आप बिल्कुल हैं! यही  हमारे भारत में वसुधैवकुटुंबकम कहते हैं.

-यह क्या है

फिर उसे टूटी-फूटी काम भर की अंग्रेजी में वह सब बताया गया जो  अब तक पढ़ा था या जाना था. बहुत सवाल थे नोवा के. बहुत भोली उत्सुकता!

साफ दिल सुंदर प्यारी नोवा के दाल भात खा लेने के बाद भी भरे पेट कॉफी पी गयी. अब हमारी बातों में वीरेंद्र राणा भी शामिल हो गए. कुर्सी लगा कर बैठ गये. उनकी गढ़वाली लय की अंग्रेजी, मेरी अटकती हुई और नोवा की ढेर सारी साइलेंट लेटर वाली अंग्रेजी समा बना रहे थे. हम बीच-बीच में खूब हँसते.

नोवा दूसरी विदेशी थी जिन्होंने मेरी अंग्रेजी को गुड कहा. (हा हा हा हा) और इनको भी ‘स्मिथा’ बहुत स्प्रिचुअल ,स्ट्रांग और बहुत पावरफुल इंडियन लेडी लगी. (सब माया है!)

माता काली,  उनके रूप ,उनकी सवारी पर उनके सवाल थे. पूजा विधि पर थे.
(Smita Vajpayee Travelogue Kalimath)

-सब प्रतीक हैं हम सिंबल्स को एनर्जी देते हैं इस तरह कर के.

इंडियन वुमन को ले कर, उनके पहनावे, उनकी स्वतंत्रता, उनकी शक्ति, उनकी डेयर पर सवाल थे उनके भी. उसे भी शांत किया गया. उस समय सामने वाली वुमन के अंदर की कोई सोई हुई टीचर की आत्मा जाग गई थी.

बातें! बातें! और बातें!

मुस्कुराते हंसते हुए होती रहीं.

-तुम्हारी तरफ तुम्हारे चेहरे की तरफ मैं नहीं देख पा रही हूं.

-अरे ऐसा क्यों?

– तुम्हारी आंखें मेरे गुरु की तरह हैं, देखो

फिर उसने अपने फोन में अपने गुरु की फोटो दिखाई मुझे और राणा जी को भी. राणा जी ने हामी भरी कि हां ऐसा ही है. नोवा को इंडियन वुमन के डेयर और पावर की बात करते हुए वैदिक काल से लेकर अभी तक का इतिहास बता दिया गया. (जितना पढ़ कर जाना था अब तक) पर बीच में टेंट फंसा अभी के कुछ दारूण स्थितियों पर उसके ‘व्हाय’ पर. कहा कि क्या कारण है कि इन सारी न्यूज़ की जो वह देखती सुनती है. जबकि वह खुद ही महसूस कर रही है इंडियन वूमेन डेयरिंग , केयिंगर , लविंग और पावरफुल हैं!

उसके ढेरों सवाल, ढेरों जानकारियां और हैरतअंगेज रूप से उसका संस्कृत मंत्रों के उच्चारण ने मुझे प्रभावित किया. हमें काफी वक्त हो चुका था उस जुगाड़ भोजनालय में. हमने याद के तौर पर फोटो खिंचाई और मुस्कुराते हुए एक दूसरे से विदा ली अपने अपने कमरों के लिए.

बाहर बारिश हो रही थी पर भीगते हुये भी मेरे मन में उसका सवाल जल रहा था – इंडियन वूमेन गायत्री मंत्र की तरह शापित तो नहीं है? क्या तुम्हें नहीं लगता? ये शाप, वरदान का तो किस्से कहानी, गाथा जो कह लो, पढ़ा है. पर ये कहां उंगली रख दी तुमने नोवा…
(Smita Vajpayee Travelogue Kalimath)

उस जुगाड़ू भोजनालय से लौटते हुये सीढ़ियों पर दो महिलायें मिलीं. जिनसे आते हुये भी मुस्कुराहटों का परिचय हुआ था. अभी बारिश तेज हो गयी तो थोड़ा रुकना पड़ा उसी बरामदे में जहाँ से हो के मुझे अपने कमरे के लिये निकलना था. फिर तो – कां से आये

-बिहार

-ओ बाब्बा रे! इत्ती दूर पटना से!!

-पटना से भी बहुत दूर है.

-कैसा लग रहा है याँ तुमको?

मैं मुस्कुराई. फिर बात शुरू हो गई कितने बच्चे, पति का काम, तुम्हारा.. और इस तरह मैं उन्हें भी जॉब करने वाली लगी.

-कुछ नहीं करती मैं दाल भात बनाती हूं.

-पढ़ाती हो

-ना, पढ़ती हूं.

-अच्छा तो वही लिक रही थी क्या ऊप्पर को

-ए रोज में देखती इनको सारा दिन लिकती है या फिर चलती रैती है ऊप्पर को!

मेरी हंसी छूट गई उनके इस अंदाज से.

गुड्डी! यही नाम है उस छोटी वाली महिला का.

वह चंचल और उत्सुक हो गयी मेरे लिये. कमरे तक आई. उधर से एक छोटा रास्ता भी बता दिया आज. बातों बातों में उसे मालूम हुआ कि अपना एक छोटा सा ब्यूटी पार्लर है. फिर तो भ्रू मोचन भी हुआ गुड्डी का. अपने अब्रू की कटार देखकर प्रसन्न हुईं गुड्डी.
(Smita Vajpayee Travelogue Kalimath)

बोत सही हाथ है आपका.

लपक-लपक कर कमरा, रसोई देखा और हैरत में पड़ी कि यह सारा सामान में इतनी दूर से ले कर आई.  फिर उसे बताया मैंने कि मैं बस अपने कपड़े ही ले के आई. बाकी सामान तो मेरी दीदी और भास्कर मैम का है. उन्होने किया सब मेरे लिये. उसने हर चीज खोल, उठाकर देखा. स्वेटर की तारीफ की. उसे ताज्जुब हुआ कि स्वेटर मेरी दीदी ने बनाया है जो कि प्रोफेसर है. बहुत देर तक आसपास की जगहों के बारे में बताती रही फिर कहा – मैं रोज चा री थी तुमसे बात करना पर तोड़ा सरम करती थी.

-क्यों

तुम लिकती पड़ती रहती थी ना तो डिस्टरब कैसे करते, यह कहते हुए वह बहुत गंभीर हो गयी. मैं बस मुस्कुरा दी उसके भोलेपन पर. कल फिर आने को बोल गई है.

-कॉफी नहीं पीती बल तुम्हारे साथ पी ली

-मैं चाय नहीं पीती

-ओ बाब्बा कुजाण कैसे नी पीती च्चा!

गुड्डी कुछ देर और रहकर फिर चली गयी, बातों की गुड्डी उड़ा के. उसे हैरत थी मेरी हर बात पे.

अपने किसी रिश्तेदार की शादी में जाना था उसको. मुझे भी आमंत्रित किया कि चलो आंखों से देख लेना इधर के रीति रिवाज. वीडियो बना लेना. तो यह भी मुझे यूट्यूब पर समझ रही है! उसके जाने के बाद मैं देर तक मुस्कुराती रही.

शाम के चार बज रहे थे जब मैं यूं ही बरामदे में अपना पाठ समाप्त कर के टहल रही थी. छोटा सा पतला सा बरामदा रसोई की खिड़की से दूरी (बरामदे के इस कोने से रक्तशिला पर कुछ दूर से आई हुई सरस्वती की तेज घुमावदार धार दिखती थी और दूसरे कोने से एक हिस्सा महाकाली मंदिर का) पूरे बरामदे की मुश्किल से तीस पैंतीस कदम. टहलते हुए चिता जलने की चिरायंध गंध सी आई. मैं टहलती रही. यह एक बार फिर आई. मैंने रक्तशिला वाले बरामदे के कोने से उचक कर दाएं बाएं देखा कि कहीं दाह संस्कार हो रहा है लगता है पर नदी के किनारे कहीं से भी धुआं उठता नहीं दिखा. मैं फिर टहलने लगी लेकिन यह गंध फिर उतनी ही स्पष्ट और तीव्रता से आई. मुझे लगा मुझे गलतफहमी हो रही है क्योंकि यह गंध ऊपर ही से, उधर ही से आ रही थी जिधर मंदिर है. मैंने गायत्री मंत्र पढ़ते हुए टहलना जारी रखा.
(Smita Vajpayee Travelogue Kalimath)

अबकी जब मंदिर की ओर गयी तो  गंध  नहीं आई. गलतफहमी ही थी मेरी. अब बिना गायत्री पढ़े टहलने लगी. मंदिर की ओर यह फिर मेरा दूसरा चक्कर था कि फिर वही बेहद तीव्र चिता की गंध! मुझे ताज्जुब हुआ कि गंध मंदिर की ओर से आ रही है! मैंने फिर गायत्री पढ़ते हुए टहलना जारी रखा. लौटते हुए मंदिर की ओर गंध  नहीं थी. गायत्री पढ़ना छोड़कर फिर टहलती हुई गयी रसोई की खिड़की और फिर मंदिर की ओर, बरामदे के छोर तक आते-आते फिर वही तीव्र मृत्यु गंध! (चिरायंध, मांस जलने की बदबू) अब मैं आंखें फाड़े हैरान अपने कमरे में आ कर बैठ गई. डरी तो नहीं मगर मुझे हैरानी थी कि यह गंध मंदिर की ओर से ही क्यों आ रही थी! जबकि उधर से अगरबत्ती धूप और हवन की सुगंध आती रहती है दिनभर. मुझे इसका कोई जवाब नहीं मिला लेकिन यह एक रहस्यात्मक अनुभव रहा मेरे लिए.

शाम को आरती के समय झमाझम बारिश हो कर रुकी थी. रास्ते, सीढ़ियां, गलियों में पानी अभी भी बह रहा था. मौसम में ठंडक बढ़ गई थी. मैंने ऊनी मोजे पहन लिए और सूती चुन्नी से कान गला अच्छे से बांधकर गरम शॉल ओढ़ कर नीचे आरती में गई. पर आरती होने भर में कंपकपी छूटती रही, इस जाते अप्रेल के महीने मे. बारिश और ठंड के बाद भी आज आरती में बहुत लोग थे. आज विदेशियों की संख्या ज्यादा थी जिनके बीच में नोवा किसी देवमूर्ति की तरह खड़ी मुस्कुरा रही थी मुझे देख कर. आँखें मिली और आरती गाते हुए हम एक दूसरे के पास आ कर खड़े हुए. नोवा शुद्ध उच्चारण में और लय के साथ गा रही थी.
(Smita Vajpayee Travelogue Kalimath)

आरती के बाद लौटते हुए आज पहली बार मैंने उस चाय की बहुत पुरानी दुकान में चूल्हा जलता देखा और दो बुजुर्गों को चूल्हे के पास बैठे देखा. एक आटा गूंथ रहे थे और  दूसरे जो उनसे कम उम्र के थे बहुत बड़े मिट्टी के चूल्हे पर छोटी सी लोहे की कड़ाही में सब्जी बना रहे थे. पास वाले चूल्हे पर एक बहुत बड़ी सी केटली रखी थी.

मैं वहां रुकी. हालांकि रोज ही कुछ देर रुक कर इस बहुत पुराने ढंग के मिट्टी के मकान और कमरों को देखती थी. बाहर से यह दुकान जिसका मिट्टी का चूल्हा छोड़ सब कुछ बहुत पुराना और काला है. इसको रोज ही रुक के देखती थी मैं. लकड़ी के पुराने शैली के दरवाजे, दुकान के शेल्फ जैसे एक पर एक लकड़ी के जमाए हुए काले तेलियाए पटरे. लकड़ी की ही काली तेल से चीकट छत और बाहर में लगी टूटी फटी हुई वह तख्ती जिस पर भूखे, रोगी, वृद्ध और साधु सन्यासियों को एक समय का कच्चा अनाज देने की बात लिखी गई थी. इन्हें मैं रोज ही देख पढ़ रही थी और आज मौका मिल गया इस बाबत जानने का.

बातों का सिलसिला चला तो पता चला जिसे मैं दुकान समझ रही थी वह इस पूरे घर की बाहरी रसोई है जिसमें कुंवर सिंह राणा के पिताजी कालीमठ पहुंचने वाले यात्रियों को (जो ज्यादातर साधु सन्यासी ही होते थे क्योंकि 1994 तक यहां तक पहुंचने के लिए दुर्गम चढ़ाई वाले रास्ते थे यात्रा कठिन. पानी सड़क बिजली की व्यवस्था बहुत बाद में आई है) श्रद्धा से भोजन पानी कराते थे. जिसे इन दोनों भाइयों ने पिता के जाने के बाद तक जारी रखा था. पर जॉब की व्यस्तता से अब कच्चा अनाज देते हैं पर यह सिलसिला अभी भी जारी है. जरूरतमंद पहुंच ही जाते हैं अब भी.

पहाड़ों की अति कठिन जिंदगी में यह सहृदयता

जहां अभी पाँच दिन पहले हरी मिर्च नहीं मिली थी मुझे. वहां आज से साठ साल पहले का जीवन कितना दुष्कर होगा. पता चला जिन्हें मैं अपनी तरह का एक यात्री समझ रही थी और कोई साधक  वह राणा जी के छोटे भाई हैं. सत्तर साल के कुंवर सिंह राणा हाईस्कूल के रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं. और यह उनका अपना घर है जिसे उनके पिता ने बनवाया था.
(Smita Vajpayee Travelogue Kalimath)

साथ वाले बुजुर्ग 2009 से यहां किराए पर रहते हैं. पहले उन्हीं कमरों में, जहां मैं रुकी हूं. और अब ऊपर कालीमठ गाँव में किराए से रहते हैं. राजस्थान के हाईस्कूल के टीचर रहे हैं. रिटायर हो कर यहां आए और फिर यहीं के होकर रह गए. जाड़े के चार महीने दिल्ली चले जाते हैं और पुनः अप्रैल में आ जाते हैं. वे अठहत्तर बरस के हैं. अकेले रहते हैं. अपना खाना स्वयं बनाते हैं. उनके शब्दों में वह हिमालय घूमते रहते हैं और तरह-तरह की साधना में रहते हैं. बात-चीत इतनी देर तक चली कि मैं बाहर गली में खड़ी-खड़ी कांपने लगी. दोनों बुजुर्ग को रोटी बनाते, सब्जी बनाते नमस्कार कर के, मैं ठंड से कांपती अपने कमरे में आई.

 जारी…

स्मिता वाजपेयी

बिहार के प.चम्पारन में जन्मी स्मिता वाजपेयी उत्तराखंड को अपना मायका बतलाती हैं. देहरादून से शिक्षा ग्रहण करने वाली स्मिता वाजपेयी का ‘तुम भी तो पुरुष ही हो ईश्वर!’ नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है. यह लेख स्मिता वाजपेयी के आध्यात्मिक यात्रा वृतांत ‘कालीमठ’ का हिस्सा है. स्मिता वाजपेयी से उनकी ईमेल आईडी (smitanke1@gmail.com) पर सम्पर्क किया जा सकता है.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

भूत की चुटिया हाथ

लोगों के नौनिहाल स्कूल पढ़ने जाते और गब्दू गुएरों (ग्वालों) के साथ गुच्छी खेलने सामने…

16 mins ago

यूट्यूब में ट्रेंड हो रहा है कुमाऊंनी गाना

यूट्यूब के ट्रेंडिंग चार्ट में एक गीत ट्रेंड हो रहा है सोनचड़ी. बागेश्वर की कमला…

2 hours ago

पहाड़ों में मत्स्य आखेट

गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो…

1 day ago

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी हम…

1 day ago

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

2 days ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

2 days ago