भारत में अंग्रेज़ लोग लगभग दो सौ साल तक रहे जिसमें कि ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन काल सौ वर्षों तक— 1757-1858 व ब्रिटिश क्राउन किंगडम का शासन नब्बे वर्षों— 1858.1947 तक रहा. ब्रिटिश शासनकाल के उस दौर में सर्वाधिक काबिल और प्रतिभा संपन्न अंग्रेज़ ऑफिसर्स को कुमाऊँ रीजन में नियुक्तियां मिली.
कुमाऊँ में बतौर कमिश्नर सर्वप्रथम एडवर्ड गार्डनर तत्पश्चात जी. डब्लू. ट्रेल, सी. टी. लूसिंग्टन, जे. एच. बैटन, हेनरी रैमजे व अंत में पर्सी विंडहम क्रमशः रहे. परन्तु उस दौर के सभी प्रशासकों में सर रैमजे सर्वाधिक प्रतिभाशाली और लोकप्रिय शासक रहे. उन्होंने कुमाऊँ में लगभग सैंतालीस (47) साल तक विभिन्न पदों पर रहते हुए अपने सम्पूर्ण जीवन के सतहत्तर (77) सालों में से पचपन साल (55) यहीं पर व्यतीत किये. उन्होंने कुमाऊँ में विभिन्न पदों यथा कनिष्ठ सहायक कमिश्नर (1840-1850,) वरिष्ठ सहायक कमिश्नर (1851-1855,) डिप्टी कमिश्नर (1855-1856) व अंततोगत्वा पूर्ण कमिश्नर (1856-1884) के पद पर रहते हुए कार्य किया. कुमाऊँ कमिश्नर के रूप में उन्होंने अठाईस बेमिसाल वर्ष व्यतीत किये. अपने आकर्षक व्यक्तित्व, सर्वहित शुभचिन्तक, परोपकारी स्वाभाव व दयालु प्रवृत्ति के कारण वह हर कुमाँऊनी के दिल में राज़ करते थे. उनकी दरियादिली, परोपकारी स्वभाव व मददगार प्रवृत्ति के कारण ही लोग उन्हें कुमाऊँ के बेताज बादशाह की उपाधि से विभूषित करते थे. अपनी सहृदयता, करिश्माई व्यक्तित्व व परोपकारी स्वाभाव से सर हैनरी रैमजे ने स्थानीय निवासियों के दिल में अपनी एक ख़ास जगह बनायीं हुई थी.
सरकारी सेवानिवृत्ति के पश्चात भी लगभग आठ साल तक सर रैमजे कुमाऊँ में ही रहे. हालांकि उनका यही पर बस जाने का विचार था पर कुछ घरेलू अपरिहार्य कारणों से उन्हें वापस स्कॉटलैंड जाना पड़ा. सर हैनरी रैमजे के कुमाऊँ कमिश्नर रहते हुए उन्होंने इस क्षेत्र में अनेक सुधार व विकास के कार्य किये. उनके द्वारा कुमाऊँ में किये गये कुछ चुनिंदा विकासोन्मुक्त मुख्य कार्य इस प्रकार रहे.
उस दौर में समाज से तिरष्कृत कोड़ियों को बसाने व उनकी चिकित्सा के लिए एक अस्पताल, जिसमें कि प्रारम्भ में इकत्तीस बैड थे जो बाद को पचास कर दिए गये, कर्बला, अल्मोड़ा में स्थापित किया गया.
तराई-भाभर को पूर्णरूपेण बसाना.
तराई-भावर में दो प्रमुख टाउनशिप की स्थापना.
हालांकि हल्द्वानी कुमाऊँ के पहले कमिश्नर श्री गार्डनर के समय बहुत मामूली रूप से बसा था. कुछ झोपड़ियों और कच्चे मकानों के अतिरिक्त वहाँ कुछ भी नहीं था. चारों ओर हल्दू के वृक्ष थे. जिनकी देखभाल के लिए वन-विभाग के कुछ कर्मचारी रहते थे और यहां पर उस दौर में केवल साप्ताहिक बाजार ही लगा करता था जो कि हर मंगलवार को मंगल पड़ाव क्षेत्र में लगता था जहाँ कि व्यापारी हल्द्वानी के चुनिंदा स्थानीय वासिंदो व आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों के लोगों की आवश्यकता पूर्ति के लिए सामान आदि का विक्रय करते थे.
तराई-भाभर में पानी की बेतहासा कमी थी अतः उनके कार्यकाल में यहां पर 137 मील लम्बी-चौड़ी नहर प्रणाली (कैनाल सिस्टम) के झुरमुट को विकसित किया गया. जगह-जगह पर बेशुमार गड्ढे थे जिनमे कि अक्सर बरसाती पानी जमा रहता था कारणवश मलेरिया का भयंकर प्रकोप रहता था अतः उनको भरा गया ताकि मलेरिया के प्रकोप को कुछ कम किया जा सके.
पीने का पानी भी दूषित था जिससे आंत्र की बीमारी बहुदा लोगों में रहा करती थी अतः जगह-जगह प्राथमिक उपचार केंद्र खोलकर लोगों को मुफ्त में दवा का प्रबंध किया गया.
चिलकिया गावं को रामनगर टाउन में परिवर्तित करना— हालांकि स्थानीय बाशिंदों ने सर रैमजे के सम्मान में शुरू में रामनगर को रैमजेनगर कहना शुरू किया था पर सर रैमजे ने अपने इस सम्मान को न मानते हुवे लोगों से हिन्दू देवता राम के सम्मान में रामनगर रखने का सुझाव दिया तब से यह नगर रामनगर कहलाया.
हालांकि नैनीताल को इंग्लिश व्यापारी बैरन ने सन 1841 में खोज निकाला था व सन 1842 में पहला बंगला पिलग्रिम लौज बनाकर इसे बसा दिया गया था. सन 1845 में यहां पर कुल मिलाकर छह बंगले व कौटेज थे जो कि ब्रितानी लोगों व उनके अतिथियों को यहां के नैसर्गिक सौंदर्य का लुत्फ़ उठाने के लिए आवंटित किये जाते थे पर नैनीताल के विकास में सर रैमजे का बहुत बड़ा हाथ रहा. उन्होंने नैनीताल को भारत का एक प्रमुख हिल स्टेशन बनाने व अंग्रेज़ तथा स्थानीय लोगों के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के केंद्र के रूप में विकसित किया.
एच. आर. नेविल द्वारा सन 1916 में लिखे गए नैनीताल गज़टियर के अनुसार भारत का प्रथम मेथोडिस्ट चर्च, जो कि आज एक धरोहर के रूप में है, भी नैनीताल में ही सन 1860 में रैमजे द्वारा बनवाया गया.
सन 1862 में नैनीताल भारत के उत्तरी प्रदेशों की एक संयुक्त ग्रीष्म कालीन राजधानी बनायी गयी और सन 1902 में यह आगरा व अवध संयुक्त राज्य (आज के उत्तर प्रदेश) व उत्तराखंड, की ग्रीष्म कालीन राजधानी बनायी गयी. सन 1867 में आये विनाशकारी भूस्खलन, जिसने कि मल्लीताल बाजार को अपनी चपेट में ले लिया था, तत्पश्चात सन 1880 में दुबारा आये प्राणघाती भू-स्खलन जिसमे कि 43 यूरोपीय व 118 स्थानीय निवासी हताहत हुए थे, ने सर रैमजे को नैनीताल की सुरक्षा के लिए एक सक्षम कार्य योजना बनाने को विवश कर दिया अतः उन्होंने झील के चारों ओर की पहाड़ियों को दस से बारह फ़ीट चौड़े पत्थरों से निर्मित ड्रैनेज सिस्टम को विकसित किया जो आज भी मौजूद है.
हालांकि भारत में फारेस्ट एक्ट 1878 के बाद ही बनाया गया और लागू हुआ पर सर रैमजे ने तराई-भावर में साल के वृक्षों के विनाशकारी विनाश को देखते हुवे व उन्हें अभय प्रदान करने हेतु सन 1855 में ही कुमाऊँ में इसे लागू कर दिया था.
उनके समय में यहां के अनेक कार्ट रोडों (संकरी, कच्ची सड़कों) को बनवाया गया जिसमें कि बैलगाड़ी व इक्का-तांगा सुगमता से आ-जा सकें. उससे पहले यहां पर केवल संकरे पैदल व घोड़िया मार्ग ही मौजूद थे.
जिनमें प्रमुख रूप से सर्वप्रथम रामनगर व रानीखेत के मध्य सड़क बनी थी क्योंकि रानीखेत में कुमाऊँ रेजिमेंट का हेडक्वार्टर था और मिल्ट्री ट्रूप के लिए अबाधित खाद्य सुरक्षा मुहैया करायी जानी थी. दूसरी मुख्य सड़क सन 1871-72 में काठगोदाम में रेल ट्रैक आने के बाद काठगोदाम-नैनीताल के मध्य बनी थी तत्पश्चात रानीखेत-अल्मोड़ा के मध्य कार्ट रोड बने. पहले इन सभी जगहों के मध्य केवल घोड़िया सड़कें थी जिनका चौड़ीकरण रैमजे के समय उनके प्रयत्नों और दिलचस्पी से हुआ था.
सर रैमजे ने कुमाऊँ में आलू की फसल की खेती आरम्भ करवाई हालाकि भारत में आलू सर्व प्रथम पुर्तगालियों द्वारा सन 1615 में ही इंट्रोड्यूस किया जा चुका था. आलू की फसल को उगाने के लिए उन्होंने कुमाऊँ में कृषकों को प्रोत्साहित किया व इसकी खेती को करने का प्रसार किया.
चाय बागानों को विकसित करने के लिए भी उन्होंने यहां बहुत काम किया. इस काम का श्रीगणेश उन्होंने हवालबाग में चाय बागान लगाकर किया.
उक्त सारे कामों के अलावा उन्होंने अनेक पुलों, डाक बंगलों विशेषकर रानीखेत, रामगढ़, भीमताल व प्योरा के डाक बंगलें उन्ही की देन है. उनके समय में गावों के लैंडमैप्स आदि भी बनाये गये.
सर रैमजे के कार्यों व उनके योगदान व नाम को अमर रखने के लिए यहां के लोगों ने सम्मान पूर्वक अनेक विद्यालयों, अस्पतालों व सड़कों आदि के नामकरण उन्हीं के नाम से किया है जिनमें प्रमुख रूप से रैमजे हाई स्कूल, अल्मोड़ा जिसे आज भी गांव के लोग या तो अपभ्रंशवश या फिर सर रैमजे के सम्मानवश प्यार से रामजी कॉलेज भी कहते हैं. तब यह उत्तर भारत के गिने-चुने स्कूलों में था. अल्मोड़ा में सन 1844 में इंग्लैंड की मिशनरी की सहायता से रैमजे हाई स्कूल को बनाया गया.
नैनीताल में रैमजे अस्पताल कुछ स्थानीय सक्षम साह लोगों व कुछ यूरोपियनों द्वारा आर्थिक मदद से सन 1892 में बनाया गया. ये दोनों स्मारक कुमाऊँ के किंग सर रैमजे को समर्पित हैं.
सर रैमजे को कुमाऊँ बेइंतिहा पसंद था और उन्हें इस देवभूमि से बेतहाशा प्यार था. सन 1884 में सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त होने के उपरांत भी उन्होंने यहीं पर बसने की ठान ली अतः अपनी प्रिय जगह बिनसर में अल्मोड़ा निवासी जय लाल शाह जी से जमीन खरीद कर उस पर बंगला बनवायाए आज जो खाली स्टेट के नाम से जाना जाता है, बिनसर में अपना खुद का बगीचा लगाया और ईश्वर प्रार्थना के लिए अपनी ज़मीन पर चैपल भी बनाया. वो यहां पर इतने लम्बे अर्से रहते हुए यहां की भाषा (कुमाँऊनी) भी सीख चुके थे और अपने मातहतों से कुमाँऊनी में बोला करते थे. वो सन 1892, अपनी मृत्यु के ठीक एक साल पहले, तक यहीं रहे पर कुछ पारिवारिक कारणों से उनका बेटा हेनरी लूसिंग्टन रैमजे उन्हें ज़बरन इंग्लैंड ले गया.
जब सर रैमजे कुमाऊँ में अपनी ज़िन्दगी के अनमोल पचपन साल बिताकर न चाहते हुए भी इंग्लैंड को प्रस्थान कर रहे थे तो कुमाऊँ की इस नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण देवभूमि से विदा होते समय वे बड़े भारी मन से बेइंतहा रोये थे. बेशक सर रैमजे सशरीर नॉर्वुड, इंग्लैंड चले गये थे पर उनकी आत्मा यहीं थी और शायद आज भी यहीं-कहीं है.
मूल रूप से अल्मोड़ा के रहने वाले डा. नागेश कुमार शाह वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं. डा. नागेश कुमार शाह आई.सी.ए.आर में प्रधान वैज्ञानिक के पद से सेवानिवृत्त हुये हैं. अब तक बीस से अधिक कहानियां लिख चुके डा. नागेश कुमार शाह के एक सौ पचास से अधिक वैज्ञानिक शोध पत्र व लेख राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं.
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बहुत सारगर्भित तथ्यपरक आलेख। धन्यवाद।
काठगोदाम तक रेल की शुरुआत कब हुई, इस पर kafaltree.com में दो रिपोर्ट्स प्रकाशित हुई हैं। जिसमें से पहली 'काठगोदाम का गौरवशाली इतिहास' में सुधीर कुमार ने बताया है कि '1884 में अंग्रेजों ने हल्द्वानी और इसके बाद काठगोदाम तक रेलवे लाइन बिछाई' (https://kafaltree.com/kathgodam-railway-station-ner/)। जबकि इस आलेख 'कुमाऊँ के बेताज बादशाह सर हेनरी रैमजे' में डॉ. नागेश कुमार शाह का कहना है कि 'सन 1871-72 में काठगोदाम में रेल ट्रैक आने के बाद काठगोदाम-नैनीताल के मध्य (सड़क) बनी थी।'
डॉ. नागेश कुमार लिखते हैं कि 'कुमाऊँ में बतौर कमिश्नर सर्वप्रथम एडवर्ड गार्डनर' नियुक्त हुए थे और यह भी कि 'हल्द्वानी कुमाऊँ के पहले कमिश्नर श्री गार्डनर के समय बहुत मामूली रूप से बसा था।'
इन दोनों प्रकरणों की ऐतिहासिकता इस प्रकार है―
एडवर्ड गार्डनर कुमाऊँ में बतौर कमिश्नर नहीं रहा। वह 27 अप्रैल, 1815 को गोरखाओं के आत्म-समर्पण व निष्क्रमण की संधि पर ब्रिटिश शासन के प्रतिनिधि के रूप में हस्ताक्षर करने के बाद कुछ समय तक यहां का प्रशासक रहा था।
कुमाऊँ का पहला कमिश्नर जॉर्ज विलियम (जी. डब्लू.) ट्रेल था जिसने सन् 1834 में हल्द्वानी बसाया और फिर मल्ली बमौरी के उत्तर-पूर्वी कोने पर लकड़ी पड़ाव (काठगोदाम) बसाया। ट्रेल ने 1935 में अपना कार्यभार जे. एच. बैटन को सौंपा (कुमाऊँ का इतिहास―यमुना दत्त वैष्णव, पृ―243 )। बैटन ने ही 1852-53 के आसपास कौसानी, बेडनाग, मैगड, डुंगलोट आदि कई स्थानों में चाय के बाग लगवाये। सी. टी. लूसिंग्टन 1845 में तीसरा कुमाऊँ कमिश्नर बना था। जबकि जनरल सर हेनरी रैमजे को 1856 में कुमाऊँ का चौथा कमिश्नर बनाया गया (वही, पृ―251)।
इस प्रकार 1856 में हेनरी रैमजे द्वारा कुमाऊँ का कमिश्नर का पदभार ग्रहण करने से पहले जॉर्ज विलियम (जी. डब्लू.) ट्रेल, जे. एच. बैटन और सी. टी. लूसिंग्टन कुमाऊँ के कमिश्नर हो चुके थे।
24 अप्रैल, 1884 के दिन बरेली से पहली ट्रेन हल्द्वानी पहुंची थी। इसके अगले साल यानी 1885 में काठगोदाम तक रेल लाइन पहुंचाई गई थी। जिसे शिमला व दार्जिलिंग की तर्ज पर मेजर जनरल सीएम. थॉमसन द्वारा रानीबाग, दोगांव, गजरीकोट, ज्योलीकोट, बेलुआखान होते हुए नैनीताल तक 'माउंटेन ट्रेन' पहुंचाने की योजना बनाई गई थी। इसके तहत खुर्पाताल में रेल की पटरियां बनाने के लिए लोहा गलाने का कारखाना खोल दिया गया था लेकिन इस पहाड़ की कमजोर भू-संरचना के कारण योजना स्थगित कर दी गई।