देवेन मेवाड़ी

फिर कि भौ उर्फ उत्तरकथा

“पूरी कथा सुना दी हो देबी तुमने तो.”

“पूरी कथा? अभी कहां पूरी हुई?”

“क्यों रिटायरमेंट तो हो गया?”

“रिटायमेंट हो गया तो क्या हुआ? वह तो नौकरी से रिटायरमेंट हुआ, जिंदगी की कथा तो चल ही रही ठैरी. इसलिए मैं नौकरी की जिंदगी को अपना पूर्व जन्म कहता हूं. पूर्व जन्म में नौकरी से मेरा पूरा परिवार पल गया, है कि नहीं?”

“ठीक ही कह रहे हो, लेकिन फिर कि भौ?” (फिर क्या हुआ)

“वह तो मेरे जीवन की उत्तर कथा है, मेरी कथा के रसिको जो चल रही है. जिंदगी की किताब के पन्ने लिखे जा रहे हैं. पढ़ कर सुनाऊं?”

“होई, किलै नैं” (हां, क्यों नहीं)

“तो सुनो?”

तो, फिर हुआ यह कि रिटायर होने के बाद मैंने अपने उस पूर्व जन्म के बारे में गंभीरता से सोचा और 22 वर्षों तक मुझे और मेरे परिवार को संभालने वाले अपने अभिभावक पंजाब नैशनल बैंक को मन ही मन एक बार फिर धन्यवाद दिया. ओहो, रिटायरमेंट के बाद का वह पहला दिन! अड़तीस वर्ष नौकरी करने के बाद उस दिन मैंने पंख फैला कर मुक्त आकाश में नई उड़ान भरने को आतुर पंछी का जैसा उत्साह अनुभव किया. फिर कागज, कलम और किताबों को सीने से लगाया जो मेरे छूटे हुए बच्चों की तरह बेसब्री से, जाने कब से मेरे घर लौटने का इंतजार कर रहे थे. पूर्व जन्म से लौट कर उस दिन मेरा मैटामोर्फोसिस यानी कायांतरण शुरू हुआ.

रोज दफ्तर जाने की पुरानी आदत के कारण अगले कुछ दिनों तक काफी खालीपन लगता रहा. मैं खुद को दिलासा देता रहा कि अरे, मैं तो कुछ भी काम कर सकता हूं. उन दिनों मैंने बहुत सोचा कि अब आगे मुझे क्या करना चाहिए? मैं आसपास के पार्कों में नकली हंसी हंसते और ताली बजाते, गोल घेरे में बैठ कर धार्मिक ग्रंथों की पंक्तियां दुहराते रिटायर हुए लोगों को देखता था. मुझे सदा लगता रहा कि इस तरह मैं अपने समय का सदप्रयोग नहीं कर सकूंगा. सोचता, तो फिर क्या करूं? क्या किसी विज्ञापन एजेंसी में चला जाऊं? या जनसंपर्क की एजेंसी से जुड़ जाऊं? किसी पत्रिका या अखबार में नौकरी खोजूं या घर पर बैठ कर अनुवाद करता रहूं? या किसी प्राइवेट मीडिया एजेंसी के लिए रेडियो तथा टेलीविजन की पटकथाएं लिखता रहूं? पहाड़ में अपने गांव को लौट जाऊं या फिर हाथ में कलम लेकर लिखता रहूं, लिखता ही रहूं?

भीतर से मन ने उत्साह में भर कर कहा, “लिखो, लिखते रहो.” मैं खुश हुआ, लिखना और पढ़ना ही तो मेरा पहला प्यार था. इसलिए यही रास्ता चुना. यों भी मुझे सदा यह लगता रहा है कि बहुत पहले, मेरे अतीत में कभी मुझे दो देवियां दिखाई दीं. पता नहीं मैं जाग रहा था या स्वप्न देख रहा था. उनमें से एक लक-दक सजी-संवरी देवी ने कहा, “बेटा, मांगो तुम्हें क्या चाहिए? मैं तुम्हें खूब धन-संपत्ति दे सकती हूं. मैं लक्ष्मी हूं.”

तभी साथ खड़ी, सीधी-सरल दूसरी देवी ने कहा, “मांगो बेटा, मेरे पास यह कलम है. मैं तो बस तुम्हें यह कलम ही दे सकती हूं. इससे तुम सदा लिखते रहोगे. मैं सरस्वती हूं.”

मैंने दोनों देवियों की ओर देखा, प्रणाम किया और फिर सीधी-सरल देवी से कहा, “मां, मुझे यह कलम दे दो. मैं इससे खूब लिखना चाहता हूं.” देवी लक्ष्मी से मैंने कहा, “मां, आप बुरा नहीं मानेंगी.”

मां लक्ष्मी ने कहा, “नहीं बेटा, तुम खुश रहो. तुम्हें तुम्हारी जरूरत भर के लिए धन-संपत्ति मिलती रहेगी, लेकिन अधिक नहीं मिल पाएगी. जितनी मेहनत करोगे, उतना तुम्हें मिलता रहेगा. ठीक है?”

मैंने कहा, “ठीक है मां.” दोनों देवियों ने मुझे आशीर्वाद दिया और वे अदृश्य हो गईं. मैं सोचता रहा कि क्या वह सपना था या सच? आज भी यही सोचता हूं. अपनी कलम की ओर देखता हूं तो लगता है मुझे वह मां सरस्वती ने दी है. किस्सा-कोताह यह कि मैंने रिटायरमेंट के बाद जीवन में केवल पढ़ने और लिखने का संकल्प लिया और उसी काम में जुट गया.  

इस तरह मेरी कलम मेरे आजाद मन से, मेरे अपने समय में चलने लगी और मैं अपने मनपसंद विषयों पर विविध विधाओं में लिखने लगा, लेख भी और लेखमालाएं भी. रेडियो नाटक भी, टेलीविजन के लिए विज्ञान की पटकथाएं भी. मैंने वैज्ञानिक पुस्तकों और लेखों का अनुवाद भी शुरू किया. अमेरिकी दूतावास की पत्रिका ‘स्पैन’ के लिए कम से कम 100 लेखों का अनुवाद किया तो मुक्त आकाश में उड़ते पंछियों की आजादी का अनुभव लेने के लिए बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी, मुंबई के निदेशक डा. असद आर. रहमानी की पक्षियों पर लिखी पुस्तक का अनुवाद भी किया.

दो साल बाद एक दिन भारत सरकार के विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी मंत्रालय की संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ से फोन आया कि वे चाहते हैं, कि मैं उनकी संस्था में फैलो के रूप में काम करूं. मैंने हामी भर दी और साल भर के अनुबंध पर हस्ताक्षर करके वहां फैलो बन गया. हामी भरने का खास कारण यह था कि मेरे मन में शुरू से ही किसी विज्ञान पत्रिका का संपादन करने की बड़ी इच्छा थी. फैलो के रूप में मेरी यह इच्छा पूरी हो गई और मैं विज्ञान प्रसार की मासिक विज्ञान पत्रिका ‘ड्रीम 2047’ के हिंदी खंड का संपादन करने लगा. इसके साथ ही वहां रह कर मैंने कई पुस्तकों का भाषा संपादन और ‘कहानी रसायन विज्ञान की’ पुस्तक का हिंदी अनुवाद भी किया.  

पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल से आत्माराम पुरस्कार प्राप्त करते हुए लेखक.

उन्हीं दिनों मुझे केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की ओर से दीर्घकालीन विज्ञान लेखन के जरिए हिंदी सेवा के लिए प्रतिष्ठित ‘आत्माराम पुरस्कार’ दिया गया. यह पुरस्कार राष्ट्रपति के हाथों से राष्ट्रपति भवन में दिया जाता है, इसलिए वर्ष 2006 में पहली बार राष्ट्रपति भवन में जाने का मौका मिला और राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल से यह पुरस्कार प्राप्त किया. उसी वर्ष विज्ञान परिषद प्रयाग ने अपनी 1915 से प्रकाशित हो रही अपनी मासिक पत्रिका ‘विज्ञान’ का ‘देवेंद्र मेवाड़ी सम्मान अंक’ प्रकाशित किया जिसमें कई साथियो ने मेरे बारे में लेख लिखे. कुछ समय बाद विज्ञान परिषद प्रयाग ने अपने शताब्दी सम्मान से सम्मानित किया. जिसमें ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने मेरी पुस्तक ‘मेरी विज्ञान डायरी, भाग-1’ का लोकार्पण भी किया. इस तरह एकांत में लिखे गए मेरे विज्ञान लेखन को पहचान मिलने लगी. आगे चल कर हिंदी अकादमी दिल्ली का ‘ज्ञान प्रौद्योगिकी सम्मान’ और फिर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ का राष्ट्रीय ‘विज्ञान भूषण सम्मान’ भी मिला. उसी बीच मैंने दिल्ली और विभिन्न राज्यों के विद्यालयों में जाकर बच्चों को अपनी किस्सागोई के जरिए विज्ञान की बातें और कहानियां सुनाने की मुहिम शुरू की. कितना संतोष मिलता है यह सोच कर कि अब तक मैं कई राज्यों के दूर-दराज विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में 50,000 से अधिक बच्चों को विज्ञान की कहानियां सुना चुका हूं.

रिटायरमेंट के कुछ वर्ष बाद अपने गांव, अपने घर जाने की हिम्मत जुटाई. जहां अब मेरा कोई इंतज़ार नहीं कर रहा था. वहां सिर्फ मिट्टी-पत्थरों का घर था जिसे आशा रही होगी कि मैं किसी दिन आवूंगा. तो, सन् 2008 में बेटे मोहन की गाड़ी में गावं को चला. वहां पहुंच कर देखा, घर के नीचे खेतों तक मोटर रोड पहुंच चुकी थी. वहां से उस पार, दूर पहाड़ पर माचिस की डिबियों-सी ओखलकांडा इंटरकालेज की इमारतें दिखाई दे रही थी, उनसे ऊपर मूरा-देवस्थल का जंगल और फिर पहाड़. विश्वास ही नहीं हो रहा था कि तब कैसे यहां अपने गांव-घर के पहाड़ से नीचे उतर कर, दूसरे पहाड़ की चढ़ाई चढ़ कर ओखलकांडा इंटर कालेज और फिर उन पहाड़ों के पार नैनीताल की बस पकड़ने के लिए मनाघेर तक भी पैदल चला जाता था. सोचता रहा, क्या वह पढ़ने की धुन थी? 

जब तक बेटा मोहन गाड़ी सामने गांव की प्राइमरी पाठशाला के पास ही सड़क पर पार्क करता, मैंने सिर उठाया. सामने हमारे खेत दिखाई दिए और उनमें उगे मेरे बचपन के साथी दूदिल के पेड़ भी. अब वे बड़े हो गए थे. सोचा, अरे, कितने बड़े हो गए हैं ये! शाम के समय इन पर कितने सिटौले आकर चहकते थे! हमारी गाय-भैसों को इनका चारा बहुत पसंद था. ठुल ददा कहा करते थे, इसके चारे से दूध बढ़ता है.

खेतों से ऊपर मेरा घर दिखाई दे रहा था. मिट्टी से लिपा और पत्थरों की ढालूदार छत वाला मेरा घर. घर देखते ही मेरे भीतर-भीतर जोर से कुछ उमड़ने लगा. पीठ पर अपना रक-सैक लाद कर मैं हल्की चढ़ाई में तेज कदमों से आगे-आगे चला. पैरों के नीचे सड़क पर बचपन के वे ही कंकड़-पत्थर खसखसा रहे थे. मैं चलता रहा. अचानक दाहिने हाथ की ओर बगल में हमारे खेत आ गए. बचपन में जब कभी कालेज से घर आता था तो इन खेतों में पहले कोई न कोई मिल जाता था- ईजा, बाज्यू, भौजी या ठुल ददा. या फिर, हमारी ही भैंसें या कोई बछिया या घोड़ा. लेकिन, आज कोई नहीं था वहां. कोई भी नहीं. हमारे ही ऊपर के खेत में खरक यानी झोपड़ी बनी थी जिसके बाहर कीले पर दो बैल बंधे थे. वे अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से अपरिचय के साथ मुझे देख रहे थे. मैं समझ गया, वे मेरे चचेरे छोटे भाई जैंत सिंह के बैल होंगे. इन खेतों में अब वही खेती कर रहा था.

अपरिचय से देख रहे थे बैल.

मैं आगे बढ़ा. सामने हमारी बाखली आ गई. आंगन में दो-एक बच्चे सकपकाए से खड़े थे.  बाखली का आखिरी घर हमारा है. हमारा? यह खयाल आते ही भीतर से अचानक फिर बादल की तरह कुछ जोर से उमड़ा और गला भर आया. मैं घर के आंगन में खड़ा होकर घर की ओर देखने लगा- मेरे घर की सीढ़ियां और चबूतरा. कदम भर ऊपर घर का दरवाजा, अवाक मुंह खोले खड़ा था जैसे हपकपाल (चकित) होकर खुला रह गया हो कि हें यह सब क्या हो गया? कहां गए इस घर के लोग?

पुराने कपड़े की गठरी में बंधी स्मृतियां जैसे अचानक खुल कर मेरे सिर पर बिखर गईं. स्मृतियां ही स्मृतियां. कितनी चहल-पहल मची रहती थी इस घर में तब. बाहर-भीतर आते-जाते ईजा-बाज्यू, ददा-भौजी. या, चबूतरे या आंगन की मेंड़ पर चिलम पीते ददा. सिर पर से घास या लकड़ियों का गट्ठर उतारती ईजा या भौजी. गोठ से ‘अमांह’ की आवाज में अड़ाती हमारी कोई गाय या भैंस. इसी आंगन में कभी गर्मियों में बैलों की जोड़ी से गेहूं की दैं (दांय) मांड़ते, लंबी टेर देते बाज्यू- ”फेरो, फेरो हो, मेरो बल्दा…” या, जाड़ों में घिंघारू के टेढ़े, मजबूत सैलों से सूखे भट-माष पीटते बाज्यू. आंगन में बोलने की आवाज सुन कर अचानक घर भीतर से आकर छज्जे से पूछती ईजा या भौजी – “को छ? को यै रौ?” (कौन है? कौन आया है?)”

वहां केवल घर था.

लेकिन, आज भांय-भांय करते घर में कोई नहीं? कोई भी नहीं? केवल सन्नाटा? सह नहीं पाया यह भयानक सच और भीतर-भीतर उमड़ता हुआ बादल अचानक आंखों की राह बरसने लगा. भाई जैंत सिंह साथ खड़ा था बोला, “नैं ददा, रोवा नैं” (नहीं ददा, रोओ नहीं). लेकिन, सकसकाट करते-करते बुरी तरह रोने लगा मैं. उसने हाथ पकड़ कर मुझे आंगन की मेंड़ पर बैठाया और समझाया, “आब कि ह्वै सकॅंछ. यसै देखन लेखि राखि हुनैल. रोवा नैं.” (अब क्या हो सकता है. ऐसा ही देखना लिखा होगा. रोओ नहीं.” तब तक बेटा मोहन भी आ गया. मेरे भीतर का तूफान भी धीरे-धीरे शांत होने लगा.

मैं लुटा-पिटा, फटी आंखों से सामने देखता रहा. मन में कोहराम मचा था. वहां घर था, मेरा घर. लेकिन, जिन्होंने मेरे भविष्य के तमाम सपने देख कर मुझे पढ़ने गांव से दूर भेजा था, उनमें से अब वहां कोई नहीं था. कोई भी नहीं. मुझे सारा ब्रह्मांड खाली-खाली-सा लगने लगा. सन्नाटा कानों के भीतर भरता जा रहा था. गोठ के दरवाजे पर नजर पड़ी. कुछ वर्ष पहले घर में जब ठुल ददा और उनकी छोटी-सी बिटिया अकेले रह गए थे तो सब कुछ खत्म हुआ जान कर मैं उन्हें अपने साथ दिल्ली ले जाने के लिए आया था. तब इसी गोठ में ददा को पूरे गाय-भैंसों के बागुड़ में से शेष बची गाय की केवल एक कलोड़ी (युवा बछिया) गोधनी को पुरोहित के हाथों में सौंपते देखा था. मर्मांतक दृश्य था वह.

उस शाम चूल्हे में लकड़ियों की आग पर पका रात का खाना भाई जैंत सिंह की रसोई में ही चौकी पर खाया और उसी के कमरे में सो गए.

फिर सवा दो साल बाद गांव से भाई जैंत सिंह का फोन आया कि गांव में दस साल बाद लोहाखाम देवता की पूजा हो रही है, तुम लोग जरूर आना. मैं पत्नी लक्ष्मी के साथ गांव गया और आसपास तथा दूर-दराज गांव से आए लगभग दस हजार लोगों के बीच लोहाखाम की पूजा देखी. हुड़के और ढोल पर जगरियों से डंगरियों को नचाने वाली गाथाएं सुनीं. अपने गांव के तमाम लोगों से मिल कर हम बच्चों के पास दिल्ली लौट आए. 

लोहाखाम पूजा

उसी साल दिसंबर 2010 में मैंने दिल्ली में एक अजीब सपना देखा. देखा कि मैं गांव में आया हुआ हूं. हर बार की तरह सुबह-सबेरे अपने बचपन के दोस्त काफल के पेड़ से मिलने नीचे खेतों में गया. लेकिन यह क्या, उसके बाईं ओर की लंबी, मोटी जो शाखा सूखने लगी थी, उसे भाई जैंतुवा ने काट दिया है. देख कर बहुत दुख हुआ. अब दाहिनी ओर की ही शाखा बची है. लगता रहा, मेरा काफल का वह पेड़ बहुत उदास है. यह भी लगा जैसे अब उसका एक ही हाथ रह गया है. उससे मिल कर अखरोट और नाशपाती के पेड़ों को देखा. सोच रहा था, ये नाशपाती कभी जंगली मेहल के पौधे थे जिन पर बाज्यू ने अपने हाथ से नाशपाती की कलम लगाई थी. घर की ओर आते हुए भी बार-बार नीचे काफल की ओर देखता रहा. फिर नींद खुल गई.

काफल का पेड़ मन में घूमता ही रहा. यह भी सोचता रहता था कि सपने भी कहीं सच होते हैं? मेरा काफल का पेड़ अभी वही खड़ा होगा और मुझे याद करता होगा. अगली बार जब बेटे मोहन के साथ गांव गया तो भाई जैंत सिंह के साथ खाना खाने के बाद बगल में जाकर नीचे अपने खेत के किनारे काफल के पेड़ की ओर देखा. देख कर दिल धक्क से रह गया. वहां मेरा वह दोस्त काफल का पेड़ था ही नहीं. मैं भाग कर, खेतों से नीचे उतरते हुए उस जगह गया. गौर से देखा तो जमीन पर उसके तने का हलका लाल गोल ठूंठ दिखाई दिया. मेरी आंखें भर आईं. मैंने अपने दोनों हाथों से उसे छुआ और मन ही मन कहा, “अलविदा मेरे बचपन के दोस्त. तुम भी चले गए. इस जगह अब किसे देखूंगा?”

भारी मन से लौटा. भाई जैंतुवा से पूछा, “काफल का पेड़ नहीं है वहां?”

उसने कहा, “द कहां, सूख गया था ददा. उसे काट कर लकड़ियां बनाईं. जाड़ों में उसकी खूब आग तापी.”

विदा हो गया काफल.

काफल के लिए मेरे भीतर दुख उमड़ता रहा. लेकिन, क्या कर सकता था? मेरा वह दोस्त तो एक मूक पेड़ था. मन को समझाया- शायद सूख ही गया होगा. हरे पेड़ को तो जैंतुवा भया (भाई) भी काटेगा नहीं. बचपन से ही वह भी मेरे साथ उसकी दोनों शाखों पर खेलता रहता था. बड़े-बड़े, रसीले काफल लगते थे उस पर. कभी वर्षों बाद ससुराल से आई दीदी भी उसके रसीले काफल तोड़ा करती थी. गर्मियों में जब उसके फल पकते तो ऊपर हमारे धूरे के जंगल में भी खूब काफल पकते थे. तब हम बच्चे गेहूं के नौल से बुनी छापरियों (टोकरियां) में पेड़ों से पके काफल तोड़ कर लाया करते थे. राह में कोई काफल मांगता तो टोकरी में किनारे से हाथ डाल कर मुट्ठी भर कर काफल निकाल कर दे देते थे. जंगलों में तब दिन भर काफल पाक्को चिड़िया बोला करती थी- काफल पाक्को… काफल पाक्को!   

परिवार में ले-दे कर अब हमसे बड़ी भाभीमां श्रीमती लक्ष्मी मेवाड़ी ही थीं. लेकिन, 23 जून 2012 की सांध्य वेला में वे भी स्मृति शेष हो गईं. छप्पन वर्ष पहले 1956 में पांचवीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए ददा श्री दीवान सिंह मेवाड़ी के साथ भेजते हुए बीमार ईजा (मां) ने मेरा मुंह मुसारते हुए कहा था, “द जा इजू, अपने ददा-भौजी के पास जा. मेरी तरह अब तेरी नानी (छोटी) भौजी तुझे पालेगी, पढ़ाएगी. वह भी मां ही हुई, उनका कहा मानना और खूब पढ़ना पोथी.” कुछ ही समय बाद बीमार ईजा दुनिया से विदा हो गई थी और चौदह वर्षीय भाभी मां ने मुझ ग्यारह वर्ष के बच्चे की परवरिश की जिम्मेदारी संभाली थी.

मुझे उच्च शिक्षा के लिए नैनीताल भेजने के बाद भाभी-मां के आंगन में किलकारियां गूंजीं थीं और छह बच्चों का भरा-पूरा परिवार बना. तीन बेटियां, तीन बेटे. लेकिन, जब तक बच्चे बड़े होते, ददा विदा हो गए. भाभी-मां और छह बच्चे. जीवन की उस सबसे कठिन घड़ी में उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सभी बच्चों को पढ़ा-लिखा कर उन्हें उनके पैरों पर खड़ा किया. हर बच्चे को स्वयं हर काम करने का सबक सिखाया और जो कुछ अपने पास है उसमें संतुष्ट रहने और उस पर गर्व करने की सीख दी.

छह बच्चों में बड़ी तीनों बेटियां आज सम्मानित शिक्षिकाएं हैं. वे विवाहित हैं और अपने बच्चों को उन्हीं उसूलों के साथ शिक्षा की राह पर आगे बढ़ा रही है. बड़ा बेटा हर कक्षा में सर्वश्रेष्ठ स्थान हासिल करके कम्प्यूटर इंजीनियर बन कर आज देश की एक शीर्षस्थ कम्प्यूटर कंपनी में वरिष्ठ प्रबंधन का उच्चाधिकारी है. उसका बेटा यू.के. की लीड्स यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा है. दूसरा बेटा एक जाने-माने निजी टेलीविजन चैनल में जिम्मेदार पद पर काम कर रहा है. तीसरा बेटा स्वरोजगार कर रहा है.

आत्मनिर्भर बच्चों के इस भरे-पूरे परिवार में अब भाभी-मां के विश्राम के दिन आ गए थे लेकिन पता ही नहीं लगा कि कब उन्हें गंभीर बीमारी ने जकड़ लिया. बच्चों ने उन्हें हर संभव चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराईं लेकिन उनकी जीवन की डोर ढीली पड़ती चली गई. विदा होने से पूर्व, संध्या बाती की वेला में अस्पताल के बिस्तर पर लेटी भाभी-मां से मिलना मेरे लिए जैसे किसी बेहद शांत महासागर से मिलना था. मैंने उनके पैर छुए, पैरों पर सिर रखा और फिर उनके बार-बार उठते हाथ की हथेली को अपनी दोनों हथेलियों में लिया. उनके शांत चेहरे को देख कर मेरी आंखें भर आईं. मैंने उनसे कहा, “भाभी-मां आपने तो अपना पूरा जीवन बच्चों के लिए न्योछावर कर दिया. वे सभी बच्चे आज अपने पैरों पर खड़े हैं. आपने यही तो चाहा था और आपका यह सपना पूरा हो गया है. मैं भी आपका ही बच्चा हूं. आपने मुझे पाला-पोषा, पढ़ाया-लिखाया. आज जो कुछ हूं, आपके कारण हूं. भाभी-मां आप शांत मन से आराम कीजिए.” बहुत देर तक उनकी हथेली अपने हाथों में लेकर दबाता रहा. उन्होंने धीरे से आंखें खोलीं और शांत भाव से मेरी ओर देखा. वे चरम शांति की ओर बढ़ रही थीं. सायंकाल 5: 50 बजे वे उस चरम शांति के अनजाने लोक में समा गईं.

रिटायर होने के बाद के दौर में मैंने पत्नी और बच्चों के साथ देश में कई छोटी-बड़ी यात्राएं भी की हैं. ये यात्राएं जारी रहेंगी. वर्ष 2018 में विदेश मंत्रालय ने 11 वें विश्व हिंदी सम्मेलन, मॉरीशस में भाग लेने के लिए मुझे भारतीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल करके चकित ही कर दिया. वहां जाकर मैं बाल साहित्य और संस्कृति विषय पर व्याख्यान दे आया. वर्ष 2019 में हमारे विवाह को पचास वर्ष पूरे हुए तो इस मौके पर पत्नी लक्ष्मी और मैं अपनी हनीमून यात्रा पर एक सप्ताह के लिए बाली द्वीप हो आए. इसी वर्ष मई में मैंने भी उम्र के पचहत्तर पड़ाव पूरे कर लिए हैं. समय मेरी जिंदगी की किताब को लिखने में और मैं अपने लेखन में व्यस्त हूं. समय जो चीजें लिखेगा, उनकी कथा आपको सुनाऊंगा. 

“जरूर, लेकिन किस तरह की चीजें?”

“यह तो समय ही जानता है ईजू, लेकिन जो कुछ लिखता जाएगा, वह मैं पढ़कर सुनाऊंगा जरूर. सुन रहे हो?”

“ओं” 

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और भी थे इम्तिहां
समय के थपेड़े
देबी के बाज्यू की चिट्ठियां

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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  • नि:शब्द हूं आपके सरल व शानदार लेख पर कुछ कहने के लिए। आपने जाे सम्मान जनक मुकाम हासिल किया है वह अापकी मेहनत,लगन , समर्पण,सरलता ,शालीनला ,धैर्य का परिणाम है। गर्व का अनुभव हाेता है कि जिस व्यक्ति काे पिछले 30 साल से जानता हूं इतना कुछ हासिल करने पर भी अभी वैसा ही सरल व शालीन हैं। अभी ताे कई मंजिलें हैं जाे आपकी वाट जाेह रही हैं। गांव जाने में सूनेपन का जाे दर्द आपकाे हुआ वह एक संवेदनशील इंसान, जाे जमीन से जुड़ा हाे, काे हाेना स्वाभाविक है। आज ताे हर गांव की हालत ऐसी ही हाे गई है पर बहुत कम लाेग हाेते हैं जिंन्हें गांव का दर्द सालता हाे।

  • नि:शब्द हूं कि कुछ कह सकू। यह सच है कि आपने जाे सम्मान जनक मुकाम हासिल किया है व अापकी मेहनत,लगन , समर्पण,सरलता ,शालीनला ,धैर्य व परिस्थियाें से डठ कर मुकावला कर अपनी राह खुद तलाशने का ही परिणाम है। गर्व का अनुभव हाेता है कि जिस व्यक्ति काे पिछले 30 साल से जानता हूं, इतना कुछ हासिल करने पर भी अभी वैसे ही सरल व शालीन हैं। अभी ताे कई मंजिलें आपकी वाट जाेह रही हैं। गांव जाने में सूनेपन का जाे दर्द आपकाे हुआ वह एक संवेदनशील इंसान, जाे जमीन से जुड़ा हाे, काे हाेना स्वाभाविक है। आज ताे हर गांव की हालत ऐसी ही हाे गई है पर बहुत कम लाेग हाेते हैं जिन्हें गांव का दर्द सालता हाे।

  • मेवाड़ राजस्थान से आपका कोई संबंध है क्या? आपकी कथाएं अद्भुत हैं?

  • कुछ समझ नही आ रहा है क्या कहु.....सवेरे 10 बजे से पढ़ना शुरु किया रात का 10:30 कब हुआ पता ही नही चला !

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