पहाड़ों में श्राद्ध के भोजन का अनोखा ही स्वाद होता था

पहले श्राद्ध का गांव में विशेष इन्तजार रहता था . सोलह सरादों में सभी घरों में सराद होता है और गांव में लगभग हर घर में एक समान भोजन बनता है. चौमास का समय हो तो गांव घरों में साग-सब्जी आदि प्रचुर मात्रा में होती है तो घर की चीजों की सब्जी वगैरह बनती है.
(Shraddh Food Uttarakhand)

लोग अपने पितरों का श्राद्ध उनकी तिथि को ही करते हैं पर किसी के मां पिताजी दोनो गुजर गये हों तो वो फिर अष्टमी नवमी तिथि को श्राद्ध करते हैं. अष्टमी को पिताजी का नवमी को माता का. श्राद्ध के बारे में अनेक लोग अपने विचार देते हैं पर मेरा मानना है कि यह हमारे पित्रों को याद करने का एक माध्यम है. उनके निमित्त भोजन बनाकर जब हम स्वयं उसको ग्रहण करते हैं तो वह पित्र प्रसाद कहलाता है. आप किसी भी प्रकार बनाओ या कुछ भी बनाओ वह जब प्रसाद का रूप ले ले तो स्वाद तो हो ही जाता है.

वैसे तो श्राद्धों में बामण व्यस्त हो जाते हैं और अष्टमी, नवमी को तो मिलने भी मुश्किल. फिर भी मैंने देखा है कि कुछ आगे पीछे करके समय निकाल सभी के यहां कर ही देते हैं. हमारे गांव में हरीश जोशीजी जिन्हें ठुल हरदा कहा जाता था नियत समय पर पहुंचकर सारी तैयारियां कर देते थे. हरदा को ठुल हरदा इसलिए कहते थे कि उनके एक ममेरे भाई भी हरदा हैं जिन्हें हम हरदा उप्रेती कहते हैं. ये हमारे सारे कुल पुरोहित हुए. गांव के कुछ परिवारों के एक अन्य जोशी जी भी पुरोहित हैं.

ठुल हरदा जब आते थे हम बच्चे कौतूहलवश उनके पास बैठकर उनकी कलाकारी देखने लग जाते. ठुल हरदा आते ही कहते- जा भुली तिमुला पात लि आ, गाज्यो क सिणुक लि आ. हम तुरन्त भागकर ले आते तब हरदा तिमूल के पत्तों को गाज्यों के सिणुक से गंछाकर विभिन्न प्रकार के पूड़े (दोने) तैयार कर लेते. फिर कुशा मंगाते और कुशा से पवित्री बगैरह बनाकर तैयार कर देते. दो चार बड़े-बड़े पत्तों से थाली जैसी बना देते.

तिमूल के पत्तों से तैयार इन्हीं चीजों से श्राद्ध सम्पन्न होता था. साथ ही हरदा एक पूड़े में तिल, एक में जौं एक में चावल, एक में तुलसी के पत्ते, एक में आवले के पत्ते, एक पूड़े में चन्दन और कुशा के तिनके पवित्री वगैरह करीने से लगाकर रख देते. ठुल हरदा मन्त्र नहीं पढ़ पाते थे और श्राद्ध कराने नान् हरदा या कोई और आता या गांव का कोई बिरादर भी करा देता. ठुल हरदा मंत्र पढ़ना या बोलना नहीं जानते थे पर उनकी एक खास बात थी कि कोई भी कर्मकाण्ड हो उसकी सामग्री लगाना और मन्त्र पढ़ने वाले बामण के साथ सार पतार में माहिर थे. कभी कोई अनाड़ी पंडित टकरा गया और कुछ आगे-पीछे कर गया तो हरदा तुरन्त सही करवा देते. कभी किसी ने शार्टकट मारने की कोशिश की तो तब भी ठुल हरदा टोक देते. हरदा टोकते भी इस अंदाज में थे कि सामने वाले पंडित को बात चुभे नही. ‘भुली पन्न पलटी गो कि’ या ‘भुली पैली यस हूंछी क्याप’. कई बार तो मैने बड़े-बड़े कर्मकाण्डी ब्राह्मणों को ठुल हरदा से सलाह लेते भी देखा है.
(Shraddh Food Uttarakhand)

इधर हरदा तैयारी करते तो अंदर सराद के लिए भोजन तैयार हो रहा होता था. एक तांबे की तौली में जमाई का भात पक रहा होता और भात की महक भूख बढ़ाने का काम कर रही होती. एक भड्डू में मास, चना, सुट राजमा रैंस की मिक्स खड़ी दाल पक रही होती. ऊपर स्वाड़ की लुटिया में पानी गरम हो रहा होता था. एक बड़े से जाम में टपकिया साग बनता था. पिनालू के नौले, गदुवे के टूके और फुल्यूड, फ्रासबीन और सुट की फलियां, मीठे करेले, गीठी (गेठी ) तुरई आदि का टपकिया. उसमें आलण डाला जाता उसके साथ जमाई का भात क्या ही स्वाद होता. खजिया के चावलों की लसपसी खीर, दाड़िम, भांग, पुदीने की खटाई, दाड़िम न होने पर काले चूख को मिलाकर खटाई बनती. करडी (पीले) ककड़ी का राई वाला रायता, उडद की दाल का सिल पिसा हुवा बिलकुल करारा कुरकुरा बड़ा बनता. बड़ा इतना कुरकुरा होता कि थाली में डालने पर टन्न की आवाज आती. कुछ पूडिया भी बनती. खाने की थाली में थोड़ा दही भी मिलता था. मूली का सलाद होता. तब बरतन कम पड़ने पर केले के पत्तों में भी परोसा जाता था.

इधर पंडितजी त्रिबद्धम-त्रिबद्धम करा रहे होते कभी जनेऊ सब्य अपसब्य या मालाकार कराते. हाथ में जौ तिल कुशा देकर पितरों के नाम का संकल्प करा रहे होते और हमारे नाक में रसोई से आ रही महक हमें बेचैन कर रही होती और हम ठुल हरदा से पूछते कि- आजि कतु देर छ. ठुल हरदा हमारी मंसा समझकर आखें मिचकाकर कहते- हैगो थ्वाड रैगो. पर ये ‘हैगो थ्वाड रैगो’ बहुत लम्बा होता.
(Shraddh Food Uttarakhand)

गाय और कौवे का हिस्सा निकालने के बाद जब भोजन का नम्बर आता तो लगता कि सब मुझे ही मिल जाता थाली में कहां से शुरु करूं हो जाती. जो चखो वही स्वादिष्ट. पेट भर जाता पर मन और आखें न अघाती थी. भात खाकर जो फौस्यैन लगती उसका भी अलग ही आनन्द था.

सराद के बाद केले में पत्तों में भोजन परोसकर एक परात में रखकर पड़ोस के बच्चों के लिए जरूर भेजा जाता था. जिस दिन किसी के घर सराद होता तो हम भी आशा लगे रहते कि भात आएगा केले के पत्तों में लगभग उपरोक्त व्यंजन ही होते लेकिन वो हमारे घर आने तक मिक्स हो जाते. बस उसमें से बड़े का टुकड़ा पूरी का टुकड़ा और खीर खाकर बाकी रैत खटाई दाल साग भात ओलकर बहिन भाई साथ ही खाने लग जाते. हां खीर के गास, बड़े के टुकड़े के लिए अक्सर भै-बैणियों में काटाकाट भी हो जाती और ईजा बाबू तक घात भी कही जाती. ‘ओ ई यैल बड़ एकलै खै है, खीर बाकि खैहै मेके कम दे… वगैरह.

आज दुनिया भर का खाना खा लिया. तरह-तरह के पकवान खा लिये पर वो सराद की थाली… अब क्या लिखा जाय, अनोखा ही स्वाद होता था.
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विनोद पन्त_खन्तोली

वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.

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