अशोक पाण्डे

उत्तराखंड की युवा पर्वतारोही शीतल के अदम्य साहस की कहानी

उसकी स्मृति में यह बात अब तक गड़ी हुई है कि अपनी माँ की पहली संतान होने के कारण उसे तब तक घरवालों से अपने हक़ का वह स्नेह नहीं मिला जब तक कि उसके पीछे दो भाई और पैदा नहीं हो गए.
(Sheetal Uttarakhand Mountaineer)

पिता टैक्सी चलाते थे. आर्थिक-सामाजिक रूप से बेहद निचली पायदान पर खड़े उसके परिवार के पास उसे देने को तमाम तरह के ढेर सारे कष्ट थे. दुनिया भर की तकलीफों के बीच उसके पास एक माँ थी जो उसे बहुत प्यार करती थी. वही उसका सबसे बड़ा संबल थी. यह और बात कि निर्धनता की हिंसा के बीच बचपन से ही माँ को खटते देखने की तमाम स्मृतियाँ भी उसके जेहन से कभी नहीं गईं.

स्कूल जाती थी लेकिन उसे बार-बार यह अहसास दिलाया जाता कि वह एक लड़की है जिसके पढ़ने-लिखने का कोई मतलब नहीं. कई बार किताबों के लिए पैसे नहीं होते थे. वह किसी सहपाठी से याचना कर किताब उधार मांग कर लाती थी. कई बार यह भी होता कि उसे स्कूल भेजने के बजाय माँ के साथ घास-लकड़ी के लिए जंगल भेज दिया जाता. माँ घास ढोने वाली टोकरी में उसकी किताब छिपा कर ले जाया करती. माँ काम करती, वह पढ़ने की कोशिश करती लेकिन उसके आंसू निकल आते थे कि संसार की निगाह में बेटी होना इतना बड़ा अपराध कैसे हो गया. वह बहुत कुछ करना चाहती थी लेकिन सारे रास्ते या तो बंद थे या बंद करा दिए जाते थे. एक बार उसके दोस्त से उधार माँगी गई किताब आग के हवाले कर दी गई. उसे दोस्त से झूठ बोलना पड़ा कि किताब गुम हो गई. उस शर्मिंदगी की याद भी उसके मन से नहीं गई.

जब वह दस साल की हुई, उसकी माँ को आंगनबाड़ी सहायिका की नौकरी हासिल हो गई. घर की अनिश्चित आमदनी में आठ सौ रुपये माहवार की बढ़ोत्तरी हुई.  

विषमतम संभव परिस्थितियों में उसने पिथौरागढ़ जिले के सल्मोड़ा गाँव से फर्स्ट क्लास में हाईस्कूल पास करने में सफलता हासिल कर ली. उसे विज्ञान के विषय पढ़ने का मन था लेकिन गाँव के स्कूल में वह सुविधा न थी. उसके लिए पिथौरागढ़ जाना पड़ता – बीस रुपये रोज़ आने-आने के खर्च करने पड़ते जो नहीं थे. सो वहीं इंटर आर्ट्स में दाख़िला ले लिया. घर पर दादी का रुतबा चलता था. उन्होंने कहा लड़कियों को पढ़ने-पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं होती और टनकपुर में तैनात एक पुलिसवाले से उसकी शादी तय कर दी. दादी के हठ से किसी तरह उसे पिता ने बचा लिया. 

सातवीं क्लास से ही उसने एनसीसी में भी दाख़िला ले लिया था. एनसीसी का सबसे बड़ा आकर्षण उसमें लगने वाले दो-तीन हफ़्तों के कैम्प होते थे. इन कैम्पों के लिए घर से बाहर रहना पड़ता था, खाने-पीने की फ़िक्र न होती. घर से बाहर रहना एक बड़ी नेमत हुआ करती थी. जीवन ने उसे यही एक सुअवसर उपलब्ध कराया था जिसे उसने दोनों हाथों से दबोच लिया.

जैसे-तैसे इंटर करने के बाद कॉलेज में बीए में दाख़िला ले तो लिया पर फिर से शादी का दबाव बढ़ने लगा. यह 2014 का साल था जब अठारह साल की आयु में उसने अपने पिता से तीन साल की मोहलत माँगी कि उसके बाद जो चाहो कर लेना अभी मुझे कुछ कर लेने दिया जाय. उसकी बात मान ली गई.

कॉलेज में भी एनसीसी थी. रुड़की में कैम्प लगा जिसमें गणतंत्र दिवस की परेड के लिए बच्चे छांटे जाने थे. कद में छोटी होने के कारण इस परेड के लिए उसका सेलेक्शन न हो सका. उदास होकर घर वापस आना पड़ा. दो माह बाद एनसीसी की तरफ से उसके पास चिठ्ठी आई कि उसका नाम रुद्र गैरा पर्वत पर चढ़ाई करने वाले एक अभियान दल के लिए छांटा गया है. पर्वतारोहण का यह उसका पहला अनुभव था जिसमें उसके साथ पच्चीस हमउम्र लड़कियां थीं. पांच हज़ार आठ सौ मीटर ऊंची इस चोटी की मुश्किल चढ़ाई चढ़ने में दस दिन लगे. शिखर पर पहुँचने के बाद उसके मन में सबसे पहले जंगल में घास काटती अपनी मां की छवि आई जिसने कैसे-कैसे कष्ट सहते हुए उसे यहां तक पहुँचाने में हरसंभव मदद की थी. उसे यह अहसास भी हुआ कि वह इस जीवन में खुद कुछ कर सकती है.
(Sheetal Uttarakhand Mountaineer)

रुद्र गैरा अभियान में उसका प्रदर्शन देखते हुए एनसीसी की तरफ से उसे अन्य अभियानों में शामिल किया गया. 2016 में जब उसका चयन त्रिशूल चोटी के आरोहण के लिए हुआ तो स्थानीय अखबारों ने ख़बर छापी. पहली बार उसके माता-पिता को अहसास हुआ कि शीतल कुछ ऐसा करती है जो महत्वपूर्ण है. त्रिशूल अभियान के लिए उत्साहपूर्वक तैयारियों में जुटी शीतल को अचानक झटका लगा जब उसका नाम अचानक मुख्य सूची से हटाकर रिजर्व सूची में रख दिया गया और अंततः वह अभियान से बाहर हो गई.

उसने हार नहीं मानी और जम्मू कश्मीर में एक एडवांस कोर्स के लिए अप्लाई किया. सात हजार रुपये फीस थी. घर पर इतने पैसे न थे. किस्मत से उन दिनों पिथौरागढ़ में एक डांस प्रतियोगिता हुई, जिसे उसके छोटे भाई ने जीत लिया. उसे इनाम में दस हज़ार रुपये मिले जो उसने अपनी दीदी के हाथ में रख दिए.

मेरी मंशा यहां उसकी जीवनी लिखने की नहीं अलबत्ता 1996 में जन्मी शीतल की इसके बाद की कहानी एक छोटी सी लड़की के अदम्य साहस और उसकी इच्छाशक्ति की दृढ़ता की कहानी है.

शीतल ने मुझे बताया बचपन से ही उसे पहाड़ों में चेहरे दिखाई देते थे. जब उसका मन व्यथा से भर जाता वह अकेली उनसे बात करने लगती थी और अपनी पूरी आत्मा उनके सम्मुख उड़ेल देती थी. कभी वे जवाब देते थे कभी नहीं. हां उसे एक बाद निश्चित पता थी – पहाड़ और वह एक दूसरे की मोहब्बत में गिरफ्तार थे.

तस्वीर में दिख रही शीतल कोई ऐरी-गैरी लड़की नहीं. 22 साल की आयु में कंचनजंघा को फ़तह कर चुकी है और 23 की उम्र में एवरेस्ट.
(Sheetal Uttarakhand Mountaineer)

अशोक पाण्डे

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