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नैनीताल जिले के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल : घूमने आयें तो इन जगहों पर जरूर जाएँ

कुमाऊँ क्षेत्र में नैनीताल जिले का विशेष महत्व है. देश के प्रमुख क्षेत्रों में नैनीताल की गणना होती है. यह ‘छखाता’ परगने में आता है. ‘छखाता’ नाम ‘षष्टिखात’ से बना है. ‘षष्टिखात’ का तात्पर्य साठ तालों से है. इस अंचल मे पहले साठ मनोरम ताल थे. इसीलिए इस क्षेत्र को ‘षष्टिखात’ कहा जाता था. आज इस अंचल को ‘छखाता’ नाम से अधिक जाना जाता है. आज भी नैनीताल जिले में सबसे अधिक ताल हैं.
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यहाँ पर ‘नैनीताल’ जो नैनीताल जिले के अन्दर आता है. यहाँ का यह मुख्य आकर्षण केन्द्र है. तीनों ओर से घने-घने वृक्षों की छाया में ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की तलहटी में नैनीताल समुद्रतल से 1938 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है. इस ताल की लम्बाई 1,358 मीटर, चौड़ाई 458 मीटर और गहराई 15 से 156 मीटर तक आंकी गयी है. नैनीताल के जल की विशेषता यह है कि इस ताल में सम्पूर्ण पर्वतमाला और वृक्षों की छाया स्पष्ट दिखाई देती है. आकाश मण्डल पर छाये हुए बादलों का प्रतिबिम्ब इस तालाब में इतना सुन्दर दिखाई देता है कि इस प्रकार के प्रतिबिम्ब को देखने के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर से प्रकृति प्रेमी नैनीताल आते हैं. जल में विहार करते हुए बत्तखों का झुण्ड, थिरकती हुई तालों पर इठलाती हुई नौकाओं तथा रंगीन बोटों का दृश्य और चाँद-तारों से भरी रात का सौन्दर्य नैनीताल के ताल की शोभा में चार-चाँद लगा देता है. इस ताल के पानी की भी अपनी विशेषता है. गर्मियों में इसका पानी हरा, बरसात में मटमैला और सर्दियों में हल्का नीला हो जाता है.

नैनीताल के ताल के दोनों ओर सड़कें हैं. ताल का मल्ला भाग मल्लीताल और नीचला भाग तल्लीताल कहलाता है. मल्लीताल में फ्लैट का खुला मैदान है. मल्लीताल के फ्लैट पर शाम होते ही मैदानी क्षेत्रों से आए हुए सैलानी एकत्र हो जाते हैं. यहाँ नित नये खेल-तमाशे होते रहते हैं. संध्या के समय जब सारी नैनीताल नगरी बिजली के प्रकाश में जगमगाने लगती है तो नैनीताल के ताल के देखने में ऐसा लगता है कि मानो सारी नगरी इसी ताल में डूब सी गयी है. संध्या समय तल्लीताल से मल्लीताल को आने वाले सैलानियों का तांता सा लग जाता है. इसी तरह मल्लीताल से तल्लीताल (माल रोड) जाने वाले प्रकृति प्रेमियों का काफिला देखने योग्य होता है.

नैनीताल, पर्यटकों, सैलानियों, पदारोहियों और पर्वतारोहियों का चहेता नगर है जिसे देखने प्रतिवर्ष हजारों लोग यहाँ आते हैं. कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं जो केवल नैनीताल का ‘नैनादेवी’ के दर्शन करने और उस देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने की अभिलाषा से आते हैं. यह देवी कोई और न होकर स्वयं शिव पत्नी नंदा (पार्वती) हैं. यह तालाब उन्हीं की स्मृति का द्योतक है. इस सम्बन्ध में पौराणिक कथा कही जाती है.

नैनीदेवी का नैनीताल

फोटो: सुधीर कुमार

पौराणिक कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था. शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे, परन्तु यह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था. एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने यहाँ यज्ञ में बुलाया परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमंत्रण तक नहीं दिया. उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची. जब उसने हरिद्वार स्थित कनरवन में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपने पति और अपने को निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दु:खी हो गयी. यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी. आपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर किया इसके प्रतिफल-स्वरूप यज्ञ के हवन-कुण्ड में स्यवं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ.

जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सती हो गयी तो उनके क्रोध का पारावार न रहा. उन्होंने अपने गणों के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला. सभी देवी-देवता शिव के इस रौद्र-रूप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर डालें. इसलिए देवी-देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध को शान्त किया. दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी. शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया. परन्तु सती के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा. उन्होंने सती के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश-भ्रमण करना शुरू कर दिया. ऐसी स्थिति में जहाँ-जहाँ पर शरीर के अंग गिरे वहाँ-वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए. जहाँ पर सती के नयन गिरे थे वहीं पर नैनादेवी के रूप में उमा अर्थात नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया. आज का नैनीताल वही स्थान है, जहाँ पर उस देवी के नैन गिरे थे. नयनों की अप्पुधार ने यहाँ पर ताल का रूप ले लिया. तबसे निरन्तर यहाँ पर शिवपत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रूप में होती है.

यह भी एक विशिष्ट उदाहरण है कि समस्त गढ़वाल-कुमाऊँ की एकमात्र इष्ट देवी नन्दा ही है. इस पर्वतीय अंचल में नन्दा की पूजा और अर्चना जिस ढ़ंग से की जाती है वह अन्यत्र देखने में नहीं आती.

नैनीताल की ताल की बनावट भी देखें तो वह आँख की आकृति का ताल है. इसके पौराणिक महत्व के कारण ही इस ताल की श्रेष्ठता बहुत आँकी जाती है. नैना (नंदा) देवी की पूजा यहाँ पर पुराण युग से होती रही है.
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कुमाऊँ के चन्द राजाओं की इष्ट देवी भी नन्दा ही थी, जिसकी वे निरन्तर यहाँ आकर पूजा करते रहते थे. एक जनश्रुति ऐसी भी कही जाती है कि चंदवंशीय राजकुमारी ननद नन्दा थी जिसको एक देवी के रूप में पूजी जाने लगी. परन्तु इस कथा में कोई दम नहीं है, क्योंकि समस्त पर्वतीय अंचल में नन्दा को ही इष्ट देवी के रूप में स्वीकारा गया है.

गढ़वाल और कुमाऊँ के राजाओं की भी नन्दा देवी इष्ट रही है. गढ़वाल और कुमाऊँ की जनता के द्वारा प्रतिवर्ष नन्दा अष्टमी के दिन नंदापार्वती की विशेष पूजा होती है. नन्दा के मायके से ससुराल भेजने के लिए भी ‘नन्दा जात’ का आयोजन गढ़वाल-कुमाऊँ की जनता निरन्तर करती रही है. अतः नन्दापार्वती की पूजा-अर्चना के रूप में इस स्थान का महत्व युग-युगों से आंका गया है. यहाँ के लोग इसी रूप में नन्दा के ‘नैनीताल’ की परिक्रमा करते आ रहे हैं.

त्रिॠषि सरोवर

‘नैनीताल’ के सम्बन्ध में एक और पौराणिक कथा प्रचलित है. ‘स्कन्द पुराण’ के मानस खण्ड में एक समय अत्रि, पुस्त्य और पुलह नाम के ॠषि गर्गाचल की ओर जा रहे थे. मार्ग में उन्हें यह स्थान मिला. इस स्थान की रमणीयता में वे मुग्ध हो गये परन्तु पानी के अभाव से उनका वहाँ टिकना (रुकना) और रहना कठिन हो गया. परन्तु तीनों ऋषियों ने अपने-अपने त्रिशुलों से मानसरोवर का स्मरण कर धरती को खोदा. उनके इस प्रयास से तीन स्थानों पर जल धरती से फूट पड़ और यहाँ पर ताल का निर्माण हो गया. इसलिए कुछ विद्वान इस ताल को ‘त्रिॠषि सरोवर’ के नाम से पुकारा जाना श्रेयस्कर समझते हैं.

कुछ लोगों का मानना हे कि इन तीन ॠषियों ने तीन स्थानों पर अलग-अलग तालों का निर्माण किया था. नैनीताल, खुर्पाताल और चाफी का मालवा ताल ही वे तीन ताल थे जिन्हें ‘त्रिॠषि सरोवर’ होने का गौरव प्राप्त है.

नैनीताल के ताल की कहानी चाहे जो भी हो इस अंचल के लोग सदैव यहाँ नैना (नन्दा) देवी की पूजा-अर्चना के लिए आते रहते थे. कुमाऊँ की ऐतिहासिक घटनाएँ ऐसा रूप लेती रहीं कि सैकड़ों क्या हजारों वर्षों तक इस ताल की जानकारी बाहर के लोगों को न हो सकी. इसी बीच यह क्षेत्र घने जंगल के रूप में बढ़ता रहा. किसी का भी ध्यान ताल की सुन्दरता पर न जाकर राजनीतिक गतिविधियों से उलझा रहा. यह अंचल छोटे-छोटे थोकदारों के अधीन होता रहा. नैनीताल के इस इलाके में भी थोकदार थे, जिनकी इस इलाके में काफी जमीनें और गाँव थे.

सन् 1790 से 1815 तक का समय गढ़वाल और कुमाऊँ के लिए अत्यन्त कष्टकारी रहा है. इस समय इस अंचल में गोरखाओं का शासन था. गोरखों ने गढ़वाली तथा कुमाऊँनी लोगों पर काफी अत्याचार किए. उसी समय ब्रिटिश साम्राज्य निरन्तर बढ़ रहा था. सन् 1815 में ब्रिटिश सेना ने बरेली और पीलीभीत की ओर से गोरखा सेना पर आक्रमण किया. गोरखा सेना पराजित हुई. ब्रिटिश शासन सन् 1815 ई. के बाद इस अंचल में स्थापित हो गया. 27 अप्रैल, 1815 के अल्मोड़ा (लालमण्डी किले) पर ब्रिटिश झण्डा फहराया गया. अंग्रेज पर्वत-प्रेमी थे. पहाड़ों की ठण्डी जलवायु उनके लिए स्वास्थयवर्धक थी. इसलिए उन्होंने गढ़वाल-कुमाऊँ पर्वतीय अँचलों में सुन्दर-सुन्दर नगर बसाने शुरु किये. अल्मोड़ा, रानीखेत, मसूरी और लैन्सडाउन आदि नगर अंग्रेजों की ही इच्छा पर बनाए हुए नगर हैं.

सन् 1815 ई. के बाद अंग्रेजों ने पहाड़ों पर अपना कब्जा करना शुरु कर दिया था. थोकदारों की सहायता से ही वे अपना साम्राज्य पहाड़ों पर सुदृढ़ कर रहे थे. नैनीताल इलाके के थोकदार सन् 1839 ई. में ठाकुर नूरसिंह (नरसिंह) थे. इनकी जमींदारी इस सारे इलाके में फैली हुई थी. अल्मोड़ा उस समय अंग्रेजों की प्रिय सैरगाह थी. फिर भी अंग्रेज नये-नये स्थानों की खोज में इधर-उधर घूम रहे थे.

नए नैनीताल की खोज

फोटो: सुधीर कुमार

सन् 1839 ई. में एक अंग्रेज व्यापारी पी. बैरन था. वह रोजा, जिला शाहजहाँपुर में चीनी का व्यापार करता था. पी. बैरन नाम के अंग्रेज को पर्वतीय अंचल में घूमने का अत्यन्त शौक था. केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा करने के बाद यह उत्साही युवक अंग्रेज कुमाऊँ की मखमली धरती की ओर बढ़ता चला गया. एक बार खैरना नाम के स्थान पर यह अंग्रेज युवक मित्र कैप्टन टेलर के साथ ठहरा हुआ था. प्राकृतिक दृश्यों को देखने का इन्हें बहुत शौक था. उन्होंने एक स्थानीय व्यक्ति से जब ‘शेर का डाण्डा’ इलाके की जानकारी प्राप्त की तो उन्हें बताया गया कि सामने जो पर्वत हे, उसको ही शेर का डाण्डा कहते हैं और वहीं पर्वत के पीछे एक सुन्दर ताल भी है. बैरन ने उस व्यक्ति से ताल तक पहुँचने का रास्ता पूछा परन्तु घनघोर जंगल होने के कारण और जंगली पशुओं के डर से वह व्यक्ति तैयार न हुआ. परन्तु, विकट पर्वतारोही बैरन पीछे हटने वाले व्यक्ति नहीं थे. गाँव के कुछ लोगों की सहायता से पी. बैरन ने शेर का डाण्डा (2360 मी.) को पार कर नैनीताल की झील तक पहुँचने का सफल प्रयास किया. इस क्षेत्र में पहुँचकर और यहाँ की सुन्दरता देखकर पी. बैरन मन्त्रमुग्ध हो गये. उन्होंने उसी दिन तय कर ड़ाला कि वे अब रोजा, शाहजहाँपुर की गर्मी को छोड़कर नैनीताल की इन आबादियों को ही आबाद करेंगे.

पी. बैरन ‘पिलग्रिम’ के नाम से अपने यात्रा-विवरण अनेक अखबारों को भेजते रहते थे. बद्रीनाथ, केदारनाथ की यात्रा का वर्णन भी उन्होंने बहुत सुन्दर शब्दों में लिखा था. सन् 1841 की 24 नवम्बर को, कलकत्ता के ‘इंगलिश मैन’ नामक अखबार में पहले-पहले नैनीताल के ताल की खोज खबर छपी थी. बाद में आगरा अखबार में भी इस बारे में पूरी जानकारी दी गयी थी. सन् 1844 में किताब के रूप में इस स्थान का विवरण पहली बार प्रकाश में आया था. बैरन साहब नैनीताल के इस अंचल के सौन्दर्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सारे इलाके को खरीदने का निश्चय कर लिया. पी बैरन ने उस इलाके के थोकदार से स्वयं बातचीत की कि वे इस सारे इलाके को उन्हें बेच दें.

पहले तो थोकदार नूर सिंह तैयार हो गये थे, परन्तु बाद में उन्होंने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया. बैरन इस अंचल से इतने प्रभावित थे कि वह हर कीमत पर नैनीताल के इस सारे इलाके को अपने कब्ज में कर, एक सुन्दर नगर बसाने की योजना बना चुके थे. जब थोकदार नूरसिंह इस इलाके को बेचने से मना करने लगे तो एक दिन बैरन साहब अपनी किश्ती में बिठाकर नूरसिंह को नैनीताल के ताल में घुमाने के लिए ले गये. और बीच ताल में ले जाकर उन्होंने नूरसिंह से कहा कि तुम इस सारे क्षेत्र को बेचने के लिए जितना रुपया चाहो, ले लो, परन्तु यदि तुमने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया तो मैं तुमको इसी ताल में डूबो दूँगा. बैरन साहब खुद अपने विवरण में लिखते हैं कि डूबने के भय से नूरसिंह ने स्टाम्प पेपर पर दस्तखत कर दिये और बाद में बैरन की कल्पना का नगर नैनीताल बस गया. सन् 1842 ई. में सबसे पहले मजिस्ट्रेट बेटल से बैरन ने आग्रह किया था कि उन्हें किसी ठेकेदार से परिचय करा दें ताकि वे इसी वर्ष 12 बंगले नैनीताल में बनवा सकें. सन् 1842 में बैरन ने सबसे पहले पिलग्रिम नाम के कॉटेज को बनवाया था. बाद में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस सारे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया. सन् 1842 ई. के बाद से ही नैनीताल एक ऐसा नगर बना कि सम्पूर्ण देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इसकी सुन्दरता की धाक जम गयी. उत्तर प्रदेश के गवर्नर का ग्रीष्मकालीन निवास नैनीताल में ही हुआ करता था. छः मास के लिए उत्तर प्रदेश के सभी सचिवालय नैनीताल जाते थे.

नैनीताल में अनेक ऐसे स्थान हैं जहाँ जाकर सैलानी अपने-आपको भूल जाते हैं. यहाँ अब लोग ग्रीष्म काल में नहीं आते, बल्कि वर्ष भर आते रहते हैं. सर्दियों में बर्फ के गिरने के दृश्य को देखने हजारों पर्यटक यहाँ पहुँचते रहते हैं. रहने के लिए नैनीताल में किसी भी प्रकार की कमी नहीं है, एक से बढ़कर एक होटल हैं. आधुनिक सुविधाओं की नैनीताल में आज कोई कमी नहीं है. इसलिए सैलानी और पर्यटक यहाँ आना अधिक उपयुक्त समझते हैं.

नैनीताल में अप्रैल से जून और सितम्बर से दिसम्बर तक दो सीजन होते हैं. सम्पूर्ण देश के पूँजीपति, व्यापारी, उद्योगपति और सैलानी यहाँ आते हैं. इस मौसम में टेनिस, पोलो, हॉकी, फुटबाल, गॉल्फ, मछली मारने और नौका दौड़ाने के खेलों की प्रतियोगिता होती है. इन खेलों के शौकीन देश के विभिन्न नगरों से यहाँ आते हैं. पिकनिक के लिए भी लोगों का ताँता लगा रहता है. इसी मौसम में नाना प्राकर के सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं. सितम्बर से दिसम्बर का मौसम भी बहुत सुन्दर रहता है. ऐसे समय में आकाश साफ रहता है. प्रायः इस मोसम में होटलों का किराया भी कम हो जाता है. बहुत से प्रकृति प्रेमी इसी मौसम में नैनीताल आते हैं. जनवरी और फरवरी के दो ऐसे महीने होते हैं जब नैनीताल में बर्फ गिरती है. बहुत से नवविवाहित दम्पतियाँ अपनी मधु यामिनी हेतु नैनीताल आते हैं. तात्पर्य यह है कि यह सुखद और शान्ति का जीवन बिताने का मौसम है.

नैनीताल में घूमने के बाद सैलानी पीक देखना भी नहीं भूलते. आजकल नैनीताल के आकर्षण में रज्जुमार्ग (रोपवे) की सवारी भी विशेष आकर्षण का केन्द्र बन गयी है. सुबह, शाम और दिन में सैलानी नैनीताल के ताल में जहां बोट की सवारी करते हैं, वहाँ घोड़ों पर चढ़कर घुड़सवारी का भी आनन्द लेते हैं. शरदकाल में और ग्रीष्मकाल में यहाँ बड़ी रौनक रहती है. शरदोत्सव के समय पर नौकाचालन, तैराकी, घोड़ों की सवारी और पर्वतारोहण जैसे मनोरंजन और चुनौती भरे सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं.

नैनीताल में बहुत, अच्छे स्कूल भी हैं. यूरोपियन मिशनरियों के यहाँ कई स्कूल खुले हैं जिनमें से सेंट जोसेफ कॉलेज, शेरउड कॉलेज, सेन्टमेरी कॉन्वेंट स्कूल और आल सेन्ट स्कूल प्रसिद्ध है. बिरला का बालिका विद्यालय और बिरला पब्लिक स्कूल भी प्रसिद्ध है. नैनीताल में पॉलिटेकनिक है. नैनीताल में कुमाऊँ विश्वविद्यालय भी स्थापित है, जहाँ पर हर प्रकार की शिक्षा दी जाती है. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में नये-नये विषय पढ़ाये जाते हैं. जिन्हें पढ़ाने के लिए देश के कोने-कोने से विद्यार्थी यहाँ आते हैं.

यहाँ की सात चोटियों नैनीताल की शोभा बढ़ाने में विशेष, महत्व रखती हैं:

1. चीना पीक (नैनापीक)

सात चोटियों में चीनीपीक (नैनापीक) 2600 मीटर की ऊँचाई वाली पर्वत चोटी है. नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर पर यह चोटी पड़ती है. इस चोटी से हिमालय की ऊँची-ऊँची चोटियों के दर्शन होते हैं. यहाँ से नैनीताल के दृश्य भी बड़े भव्य दिखाई देते हैं. इस चोटी पर चार कमरे का लकड़ी का एक केबिन है जिसमें एक रेस्तरा भी है.

2. किलबरी

2528 मीटर की ऊँचाई पर दूसरी पर्वत-चोटी है जिसे किलबरी कहते हैं. यह पिकनिक मनाने का सुन्दर स्थान है. यहाँ पर वन विभाग का एक विश्रामगृह भी है. जिसमें बहुत से प्रकृति प्रेमी रात्रि-निवास करते हैं. इसका आरक्षण डी. एफ. ओ. नैनीताल के द्वारा होता है.

3. लड़ियाकाँटा

2481 मीटर की ऊँचाई पर यह पर्वत श्रेणी है जो नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यहाँ से नैनीताल के ताल की झाँकी अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती है.

4. देवपाटा

देवपाटा और कैमल्सबैक यह दोनों चोटियाँ साथ-साथ हैं. देवपाटा की ऊँचाई 2435 मीटर है. इस चोटी से भी नैनीताल और उसके समीप वाले इलाके के दृश्य अत्यन्त सुन्दर लगते हैं.

5. कैमल्सबैक

देवपाटा और कैमल्सबैक यह दोनों चोटियाँ साथ-साथ हैं. कैमल्सबैक की ऊँचाई 2333 मीटर है. इस चोटी से भी नैनीताल और उसके समीप वाले इलाके के दृश्य अत्यन्त सुन्दर लगते हैं.

6. डेरोथीसीट

वास्तव में यह अयाँरपाटा पहाड़ी है परन्तु एक अंग्रेज कलेक्टर ने अपनी पत्नी डेरोथी, जो हवाई जहाज की यात्रा करती हुई मर गई थी. की याद में इस चोटी पर कब्र बनाई, उसकी कब्र डारोथीसीट के नाम-पर इस पर्वत चोटी का नाम पड़ गया. नैनीताल से चार किलोमीटर की दुरी पर 2290 मीटर की ऊँचाई पर यह चोटी है.
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7. स्नोव्यू और हनी-बनी

नैनीताल से केवन ढ़ाई किलोमीटर और 2270 मीटर की ऊँचाई पर हवाई पर्वत-चोटी है. ‘शेर का डाण्डा’ पहाड़ पर यह चोटी स्थित है, जहाँ से हिमालय का भव्य दृश्य साफ-साफ दिखाई देता है. इसी तरह स्नोव्यू से लगी हुई दूसरी चोटी हनी-बनी है, जिसकी ऊँचाई 2179 मीटर है, यहाँ से भी हिमालय के सुन्दर दृश्य दिखाई देते हैं.

फोटो: सुधीर कुमार

हनुमानगढ़ी

नैनीताल में हनुमानगढ़ी सैलानी, पर्यटकों और धार्मिक यात्रियों के लिए विशेष, आकर्षण का केन्द्र है. यहाँ से पहाड़ की कई चोटियों के और मैदानी क्षेत्रों के सुंदर दृश्य दिखाई देते हैं. हनुमानगढ़ी के पास ही एक बड़ी वेद्यशाला है. इस वेद्यशाला में नक्षरों का अध्ययन कियी जाता है. राष्ट्र की यह अत्यन्त उपयोगी संस्था है.

नैनीताल की सौन्दर्य-सुषमा अद्वितीय है. नैनीताल नगर भारत के प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है. उत्तर-पूर्व रेलवे स्टेसन काठगोदाम से नैनीताल 35 कि. मी. की दूरी पर स्थित है. आगरा, लखनऊ और बरेली को काठगोदाम से सीधे रेल जाती है.

हवाई-जहाज का केन्द्र पन्तनगर है. नैनीताल से पन्तनगर की दूरी 60 कि. मी. है. दिल्ली से यहाँ के लिए हवाई यात्रा होती रहती है.

नैनीताल नगर निरन्तर फैलता ही जा रहा है. आज यह नगर 11-73 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. पर्वतारोहण, पदारोहण जैसे आधुनिक आकर्षणों के कारण, यहाँ का फैलाव नित नये ढ़ंग से हो रहा है. ‘कुमाऊँ’ विश्वविद्यालय के मुख्यालय होने के कारण भी यहाँ नित नयी चहल-पहल होती है. नैनीतान में कई संस्थान हैं. पर्ववतारोहण की संस्था भी यहाँ की एक शान है.

नैनीताल नगर सुन्दर है. परन्तु नैनीताल जिले के अन्तर्गत ही कुछ ऐसे नगर और स्थल हैं जिनकी विशिष्टता नैनीताल से किसी भी प्रकार से कम नहीं है.

काठगोदाम : पर्वतीय अंचल का द्वार

काठगोदाम कुमाऊँ का द्वार है. यह छोटा सा नगर पहाड़ के पाद प्रदेश में बसा है. गौला नदी इसके दायें से होकर हल्द्वानी की ओर बढ़ती है. पूर्वोतर रेलवे का यह अन्तिम स्टेशन है. यहाँ से बरेली, लखनऊ तथा आगरा के लिए छोटी लाइन की रेल चलती है. काठगोदाम से नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत और पिथौरागढ़ के लिए के. एम. ओ. यू. की बसें जाती है. कुमाऊँ के सभी अंचलों के लिए यहाँ से बसें जाती हैं.
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रानीबाग

काठगोदाम से तीन किलोमीटर नैनीताल की ओर बढ़ने पर रानीबाग नामक अत्यन्त रमणीय स्थल है. कहते हैं यहाँ पर मार्कण्डेय ॠषि ने तपस्या की थी. रानीबाग के समीप ही पुष्पभद्रा और गगरांचल नामक दो छोटी नदियों का संगम होता है. इस संगम के बाद ही यह नदी ‘गौला’ के नाम से जानी जाती है. गौला नदी के दाहिने तट पर चित्रेश्वर महादेव का मन्दिर है. यहाँ पर मकर संक्रान्ति के दिन बहुत बड़ा मेला का आयोजन होता है.

‘रानीबाग’ से पहले इस स्थान का नाम चित्रशिला था. कहते हैं कत्यूरी राजा पृथवीपाल की पत्नी रानी जिया यहाँ चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थी. वह बहुत सुन्दर थी. रुहेला सरदार उसपर आसक्त था. जैसे ही रानी नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही रुहेलों की सेना ने घेरा डाल दिया. रानी जिया शिव भक्त और सती महिला थी. उसने अपने ईष्ट का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई. रुहेलों ने उन्हें बहुत ढूँढ़ा परन्तु वे कहीं नहीं मिली. कहते हैं, उन्होंने अपने आपको अपने घाघरे में छिपा लिया था. वे उस घाघरे के आकार में ही शिला बन गई थीं.

गौला नदी के किनारे आज भी एक ऐसी शिला है, जिसका आकार कुमाऊँनी घाघरे के समान हैं. उस शिला पर रंग-बिरंगे पत्थर ऐसे लगते हैं मानो किसी ने रंगीन घाघरा बिछा दिया हो. वह रंगीन शिला जिया रानी के स्मृति चिन्ह माना जाता है. रानी जिया को यह स्थान बहुत प्यारा था. यहीं उसने अपना बाग लगाया था और यहीं उसने अपने जीवन की आखिरी सांस भी ली थी. वह सदा के लिए चली गई परन्तु उसने अपने गात पर रुहेलों का हाथ नहीं लगने दिया था. तब से उस रानी की याद में यह स्थान रानीबाग के नाम से विख्यात है.

रानीबाग से दो किलोमीटर जाने पर एक दोराहा है. दायीं ओर मुड़ने वाली सड़क भीमताल को जाती है. जब तक मोटर-मार्ग नहीं बना था, रानीबाग से भीमताल होकर अल्मोड़ा के लिए यही पैदल रास्ता था. बाई ओर का रास्ता ज्योलीकोट की ओर मुड़ जाता है. ये दोनों रास्ते भवाली में जाकर मिल जाते हैं.

रानीबाग से सात किलोमीटर की दूरी पर दोगाँव नामक एक ऐसा स्थान है जहाँ पर सैलानी ठण्डा पानी पसन्द करते हैं. यहाँ पर पहाड़ी फलों का ढेर लगा रहता है. पर्वतीय अंचल की पहली बयार का आनन्द यहीं से मिलना शुरु हो जाता है.

ज्योलीकोटः

काठगोदाम से 17 किलोमीटर की दूरी पर ज्योलीकोट स्थित है. यहाँ से नैनीताल की दूरी प्रायः 17 कि. मी. ही शेष बच जाती है. अर्थात् यह स्थान काठगोदाम और नैनीताल के बीचों-बीच स्थित है. कुमाऊँ के सुन्दर स्थलों में ज्योलीकोट की गणना की जाती है. यह स्थान समुद्र की सतह से 1211 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है. यहाँ का मौसम गुलाबी मौसम कहलाता है. जो पर्यटक नैनीताल की ठण्डी हवा में नहीं रह पाते, वे ज्योलिकोट में रहकर पर्वतीय जलवायु का आनन्द लेते हैं. ज्योलिकोट में मधुमक्खी पालन केन्द्र है. फलों के लिए तो ज्योलिकोट प्रसिद्ध है ही परन्तु विभिन्न प्रकार के पक्षियों के केन्द्र होने का भी इस स्थान को गौरव प्राप्त है. देश-विदेश के अनेक प्रकृति-प्रेमी यहाँ रहकर मधुमक्खियों और पक्षियों पर शोध कार्य करते हैं. सैलानी, पदारोही और पहाड़ों की ओर जाने वाले लोग यहाँ अवश्य रुकते हैं.

ज्योलिकोट से जैसे ही बस आगे बढ़ती है, वैसे ही एक दोराहा और आ जाता है. बायीं ओर मुड़ने वाला मार्ग नैनीताल जाता है और दायीं ओर का मार्ग भवाली होकर अल्मोड़ा, मुक्तेश्वर, रानीखेत और कर्ण प्रयाग की तरफ चला जाता है.
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भवाली

ज्योलिकोट से जैसे ही गेठिया पहुँचते हैं तो चीड़ के घने वनों के दर्शन हो जाते हैं. गेठिया से टी. बी. सेनिटोरियम का अस्पताल है. मुख्य अस्पताल गेठिया से आगे पहाड़ी की ओर चोटी पर स्थित है. सन् 1912 में भवाली के टी. बी. सेनिटोरियम कहलाता है. गेठिया सेनिटोरियम इसी अस्पताल की शाखा है. चीड़ के पेड़ों की हवा टी. बी. के रोगियों के लिए लाभदायक बताई जाती है. इसीलिए यह अस्पताल चीड़ के घने वन के मध्य में स्थित किया गया. श्री मति कमला नेहरु का भी इसी अस्पताल में इलाज हुआ था.

भवाली सेनिटोरियम के फाटक से जैसे ही आगे बढ़ना होता है, वेसे ही मार्ग ढलान की ओर अग्रसर होने लगता है. कुछ देर बाद एक सुन्दर नगरी के दर्शन होते हैं. यह भवाली है. भवाली चीड़ और बांज के वृक्षों के मध्य और पहाड़ों की तलहटी में 1680 मीटर की ऊँचाई में बसा हुआ एक छोटा सा नगर है. भवाली की जलवायु अत्यन्त स्वास्थ्यवर्द्धक है.

शान्त वातावरण और खुली जगह होने के कारण भवाली कुमाऊँ की एक शानदार नगरी है. यहाँ पर फलों की एक मण्डी है. यह एक ऐसा केन्द्र-बिन्दु है जहाँ से काठगोदाम हल्द्वानी और नैनीताल, अल्मोड़ा-रानीखेत भीमताल-सातताल और रामगढ़-मुक्तेश्वर आदि स्थानों को अलग-अलग मोटर मार्ग जाते हैं.

भवाली में ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं. सीढ़ीनुमा खेत है. सर्पीले आकार की सड़कें हैं. चारों ओर हरियाली ही हरियाली है. घने बांज-बुरांश के पेड़ हैं. चीड़ वृक्षों का यह तो घर ही है. और पर्वतीय अंचल में मिलने वाले फलों की मण्डी है.

भवाली नगर भले ही छोटा हो परन्तु उसका महत्व बहुत अधिक हैं. भवाली के नजदीक कई ऐसे ऐतिहासिक स्थल हैं, जिनका अपना महत्व है. यहाँ पर कुमाऊँ के प्रसिद्ध गोल देवता का प्राचीन मन्दिर है, तो यहीं पर घोड़ाखाल नामक एक सैनिक स्कूल भी है. ‘शेर का डाण्डा’ और ‘रेहड़ का डाण्डा’ भी भवाली से ही मिला हुआ है. पर्वतारोहियों को भवाली आना ही पड़ता है. भीमताल, नौकुचियाताल, मुक्तेश्वर, रामगढ़, अल्मोड़ा और रानीखेत आदि स्थानों में जाने के लिए भी काठगोदाम से आनेवाले पर्यटकों, सैलानियों एवं पहारोहियों के ‘भवाली’ की भूमि के दर्शन करने ही पड़ते हैं-अतः ‘भवाली’ का महत्व जहाँ भौगोलिक है वहाँ प्राकृतिक सुषमा भी है. इसीलिए इस शान्त और प्रकृति की सुन्दर नगरी को देखने के लिए सैकड़ों-हजारों प्रकृति-प्रेमी प्रतिवर्ष आते रहते हैं.

नैनीताल से भवाली की दूरी केवल 11 किलोमीटर है. नैनीताल आये हुए सैलानी भवाली की ओर अवश्य आते हैं. कुछ पर्यटक कैंची के मन्दिर तक जाते हैं तो कुछ ‘गगार्ंचल’ पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हैं. कुछ पर्यटक ‘लली कब्र’ या लल्ली की छतरी को देखने जाते हैं. कुछ पदारोही रामगढ़ के फलों के बाग देखने पहुँचते हैं. कुछ जिज्ञासु लोग ‘काफल’ के मौसम में यहाँ ‘काफल’ नामक फल खाने पहुँचते हैं. ‘भवाली’ 1680 मीटर पर स्थित एक ऐसा नगर है जहाँ मैदानी लोग आडू, सेब, पूलम (आलूबुखारा) और खुमानी के फलों को खरीदने के लिए दूर-दूर से आते हैं.

‘भवाली’ नगर के बस अड्डे से एक मार्ग चढ़ाई पर नैनीताल, काठगोदाम और हल्द्वानी की ओर जाता है. दूसरा मार्ग ढ़लान पर घाटी की ओर कैंची होकर अल्मोड़ा, रानीखेत और कर्णप्रयाग की ओर बढ़ जाता है. तीसरा मार्ग भवाली के बाजार के बीच में होकर दूसरी ओर के पहाड़ी पर चढ़ने लगता है. यह मार्ग भी आगे चलकर दो भागों में विभाजित हो जाता है. दायीं ओर का मार्ग घोड़ाखाल, भीमताल और नौकुचियाताल की ओर चला जाता है और बायीं ओर को मुड़ने वाला मार्ग रामगढ़ मुक्तेश्वर अंचल की ओर बढ़ जाता है.
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भीमताल

फोटो: सुधीर कुमार

भीमताल (1371 मीटर) इस अंचल का बड़ा ताल है. इसकी लम्बाई 448 मीटर, चौड़ाई 175 मीटर गहराई 15 से 50 मीटर तक है. नैनीताल से भी यह बड़ा ताल है. नैनीताल की तरह इसके भी दो कोने हैं जिन्हें तल्लीताल और मल्लीताल कहते हैं. यह भी दोनों कोनों सड़कों से जुड़ा हुआ है. नैनीताल से भीमताल की दूरी 22 कि. मी. है.

भीमताल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सुन्दर घाटी में स्थित है. इस ताल के बीच में एक टापू है, नावों से टापू में पहुँचने का प्रबन्ध है. यह टापू पिकनिक स्थल के रूप में प्रयुक्त होता है. अधिकाँश सैलानी नैनीताल से प्रातः भीमताल चले जाते हैं. टापू में पहुँचकर मनपसन्द भोजन करते हैं और खुले ताल में बोटिंग करते हैं.

नैनीताल की खोज होने से पहले भीमताल को लोग महत्व देते थे. भीमकाय होने के कारण शायद इस ताल को भीमताल कहते हैं. परन्तु कुछ विद्वान इस ताल का सम्बन्ध पाण्डु-पुत्र भीम से जोड़ते हैं. कहते हैं कि पाण्डु-पुत्र भीम ने भूमि को खोदकर यहाँ पर विशाल ताल की उत्पति की थी. वैसे यहाँ पर भीमेश्वर महादेव का मन्दिर है. यह प्राचीन मन्दिर है शायद भीम का ही स्थान हो या भीम की स्मृति में बनाया गया हो. परन्तु आज भी यह मन्दिर भीमेश्वर महादेव के मन्दिर के रूप में जाना और पूजा जाता है.

भीमताल उपयोगी झील भी है. इसके कोनों से दो-तीन छोटी-छोटी नहरें निकाली गयीं हैं, जिनसे खेतों में सिंचाई होती है. एक जलधारा निरन्तर बहकर ‘गौला’ नदी के जल को शक्ति देती है. कुमाऊँ विकास निगम की ओर से यहाँ पर एक टेलिवीजन का कारखाना खोला गया है. फेसिट एशिया के तरफ से भी टाइपराइटर के निर्माण की एक यूनिट खोली गयी है. यहाँ पर पर्यटन विभाग की ओर से 34 शैयाओं वाला आवास-गृह बनाया गया है. इसके अलावा भी यहाँ पर रहने-खाने की समुचित व्यवस्था है. खुले आसमान और विस्तृत धरती का सही आनन्द लेने वाले पर्यटक अधिकतर भीमताल में ही रहना पसन्द करते हैं.

नौकुचियाताल

भीमताल से 4 कि.मी. की दूरी पर उत्तर-पूर्व की और नौ कोने वाला नौकुचियाताल समुद्र की सतह से 1319 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है. नैनीताल से इस ताल की दूरी 26 कि.मी. है.

इस नौ कोने वाले ताल की अपनी विशिष्ट महत्ता है. इसके टेढ़े-मेढ़े नौ कोने हैं. इस अंचल के लोगों का विश्वास है कि यदि कोई व्यक्ति एक ही दृष्टि से इस ताल के नौ कोनों को देख ले तो उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है. परन्तु वास्तविकता यह है कि सात से अधिक कोने एक बार में नहीं देखे जा सकते.

इस ताल की एक और विशेषता यह है कि इसमें विदेशों से आये हुए नाना प्रकार के पक्षी रहते हैं. ताल में कमल के फूल खिले रहते हैं. इस ताल में मछलियों का शिकार बड़े अच्छे ढ़ंग से होता है. 20-25 पाउंड तक की मछलियाँ इस ताल में आसानी से मिल जाती है. मछली के शिकार करने वाले और नौका विहार शौकिनों की यहाँ भीड़ लगी रहती है. इस ताल के पानी का रंग गहरा नीला है. यह भी आकर्षण का एक मुख्य कारण है. पर्यटकों के लिए यहाँ पर खाने और रहने की सुविधा है. धूप और वर्षा से बचने के लिए भी पर्याप्त व्यवस्ता की गयी है.
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सात ताल

फोटो: सुधीर कुमार

‘कुमाऊँ’ अंचल के सभी तालों में ‘सातताल’ का जो अनोखा और नैसर्गिक सौन्दर्य है, वह किसी दूसरे ताल का नहीं है. इस ताल तक पहुँचने के लिए भीमताल से ही मुख्य मार्ग है. भीमताल से सातताल की दूरी केवल 4 कि.मी. है. नैनीताल से सातताल 21 कि.मी. की दूरी पर स्थित है. आजकल यहां के लिए एक दूसरा मार्ग माहरा गाँव से भी जाने लगा है. माहरा गाँव से सातताल केवल 7 कि.मी. दूर है.

सातताल घने बांज वृक्षों की सघन छाया में समुद्रतल से 1371 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है. इसमें तीन ताल राम, सीता और लक्ष्मण ताल कहे जाते हैं. इसकी लम्बाई 19 मीटर, चौड़ाई 315 मीटर और गहराई 150 मीटर तक आंकी गयी है.

इस ताल की विशेषता यह है कि लगातार सात तालों का सिलसिला इससे जुड़ा हुआ है. इसीलिए इसे सातताल कहते हैं. नैसर्गिक सुन्दरता के लिए यह ताल जहाँ प्रसिद्ध है वहाँ मानव की कला के लिए भी विख्यात है. यही कारण है कि कुमाऊँ क्षेत्र के सभी तालों में यह ताल सर्वोत्तम है.

इस ताल में नौका-विहार करने वालों को विशेष सुविधायें प्रदान की गयी है. यह ताल पर्यटन विभाग की ओर से प्रमुख सैलानी क्षेत्र घोषित किया गया है. यहाँ 10 शैय्याओं वाला एक आवास गृह बनाया गया है. ताल के प्रत्येक कोने पर बैठने के लिए सुन्दर व्यवस्था कर दी गयी है. सारे ताल के आस-पास नाना प्रकार के पूल, लतायें लगायी गयी हैं. बैठने के अलावा सीढियों और सुन्दर पुलों का निर्माण कर ‘सातताल’ को स्वर्ग जैसा ताल बनाया गया है. सचमुच यह ताल सौन्दर्य की दृष्टि से सर्वोपरि है. यहाँ पर नौकुचिया देवी का मन्दिर है.

अमेरिका के डा. स्टेनले को भी यह स्थान बहुत प्रिय लगा. वे यहाँ पर अपनी ओर से एक ‘वन विहार’का संचालन कर वन के पशि पक्षियों का संरक्षम करते हैं. उनका यहाँ एक आश्रम है, जहाँ बैठकर वे प्रकृति के विभिन्न अंगों का निरीक्षण, परीक्षण और संरक्षण करते हैं.
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नल -दमयन्ति ताल की सैर

सात तालों की गिनती में ‘नल दमयन्ति’ ताल भी आ जाता है. माहरा गाँव से सात ताल जाने वाले मोटर-मार्ग पर यह ताल स्थित है. जहाँ से महरागाँव-सातताल मोटर-मार्ग शुरु होता है, वहाँ से तीन किलोमीटर बायीं तरफ यह ताल है. इस तीन किलोमीटर बायीं तरफ यह ताल है. इस ताल का आकार पंचकोणी है. इसमें कभी-कभी कटी हुई मछलियों के अंग दिखाई देते हैं. ऐसा कहा जाता है कि अपने जीवन के कठोरतम दिनों में नल दमयन्ती इस ताल के समीप निवास करते थे. जिन मछलियों को उन्होंने काटकर कढ़ाई में डाला था, वे भी उड़ गयी थीं. कहते हैं, उस ताल में वही कटी हुई मछलियाँ दिखाई देती हैं. इस ताल में मछलियों का शिकार करना मना है.

रामगढ़

भवाली से भीमताल की ओर कुछ दूर चलने पर बायीं तरफ का रास्ता रामगढ़ की ओर मुड़ जाता है. यह मार्ग सुन्दर है. इस भवाली-मुक्तेश्वर मोटर-मार्ग कहते हैं. कुछ ही देर में 2300 मीटर की ऊँचाई वाले गागर नामक स्थान पर जब यात्रीगण पहुँचते हैं तो उन्हें हिमालय के दिव्य दर्शन होते हैं. गागर नामक पर्वत क्षेत्र में गर्गाचार्य ने तपस्या की थी, इसीलिए इस स्थान का नाम गर्गाचार्य से अपभ्रंश होकर गागर हो गया. गागर की इस चोटी पर गर्गेश्वर महादेव का एक पुराना मन्दिर है. शिवरात्रि के दिन यहाँ पर शिवभक्तों का एक विशाल मेला लगता है.

गागर से मल्ला रामगढ़ केवल 3 कि.मी. की दूरी पर समुद्रतल से 1789 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है. नैनीताल से केवल 25 कि.मी. की दूरी पर रामगढ़ के फलों का यह अनोखा क्षेत्र बसा हुआ है. कुमाऊँ क्षेत्र में सबसे अधिक फलों का उत्पादन भवाली-रामगढ़ के आसपास के क्षेत्रों में होता है. इस क्षेत्र में अनेक प्रकार के फल पाये जाते हैं. बर्फ पड़ने के बाद सबसे पहले ग्रीन स्वीट सेब और सबसे बाद में पकने वाला हरा पिछौला सेब होता है. इसके अलावा इस क्षेत्र में डिलिशियस, गोल्डन किंग, फैनी और जोनाथन जाति के श्रेष्ठ वर्ग के सेब भी होते हैं. आडू यहाँ का सर्वोत्तम फल है. तोतापरी, हिल्सअर्ली और गौला का आडू यहाँ बहुत पैदा किया जाता है. इसी तरह खुमानियों की भी मोकपार्क व गौला बेहतर ढ़ंग से पैदा की जाती है. पुलम तो यहाँ का विशेष फल हो गया है. ग्रीन गोज जाति के पुलम यहाँ बहुत पैदा किया जाते हैं.

रामगढ़, जहाँ अपने फलों के लिए विख्यात है, वहाँ यह अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए भी प्रसिद्ध है. हिमालय का विराट सौन्दर्य यहां से साफ-साफ दिखाई देता है. रामगढ़ की पर्वत चोटी पर जो बंगला है, उसी में एक बार विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर आकर ठहरे थे. उन्होंने यहाँ से जो हिमालय का दृश्य देखा तो मुग्ध हो गए और कई दिनों तक हिमालय के दर्शन इसी स्थान पर बैठकर करते रहे. उनकी याद में बंगला आज भी ‘टैगोर टॉप’ के नाम से जाना जाता है. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी रामगढ़ बहुत पसन्द था. कहते हैं आचार्य नरेन्द्रदेव ने भी अपने ‘बौद्ध दर्शन’ नामक विख्यात ग्रन्थ को अन्तिम रूप यहीं आकर दिया था.

साहित्यकारों को यह स्थान सदैव अपनी ओर आकर्षित करता रहा है. स्व. महादेवी वर्मा, जो आधुनिक हिन्दी साहित्य की मीरा कहलाती हैं, को तो रामगढ़ इतना भाया कि वे सदैव ग्रीष्म ॠतु में यहीं आकर रहती थीं. उन्होंने अपना एक छोटा सा मकान भी यहाँ बनवा लिया था. आज भी यह भवन रामगढ़-मुक्तेश्वर मोटर मार्ग के बायीं ओर बस स्टेशन के पीछे वाली पहाड़ी पर वृक्षों के बीच देखा जा सकता है. जीवन के अन्तिम दिनों में वे पहाड़ पर नहीं आ सकती थीं. अत: उन्होंने मृत्यु से कुछ दिन पहले इस मकान को बेचा था. परन्तु उनकी आत्मा सदैव इस अंचल में आने के लिए सदैव तत्पर रहती थी. ऐसे ही अनेक ज्ञात और अज्ञात साहित्य-प्रेमी हैं, जिन्हें रामगढ़ प्यारा लगा था और बहुत से ऐसे प्रकृति-प्रेमी हैं जो बिना नाम बताए और बिना अपना परिचय दिए भी इन पहाड़ियों में विचरम करते रहते हैं.

मुक्तेश्वर

रामगढ़ मल्ला से रामगढ़ तल्ला लगभग 10 कि.मी. है. रामगढ़ मल्ला से ही मुक्तेश्वर जाने वाली सड़क नीचे घाटी में दिखाई देती है. यह घाटी भी सुन्दर है. नैनीताल से मुक्तेश्वर 51 कि.मी. है.

मुक्तेश्वर कुमाऊँ का बहुत पुराना नगर है. सन् 1901 ई. में यहाँ पशु-चिकित्सा का एक संस्थान खुला था. यह संस्थान अब काफी बढ़ गया है. कुमाऊँ अंचल में मुक्तेश्वर की घाटी अपने सौन्दर्य के लिए विख्यात है. देश-विदेश के पर्यटक यहाँ गर्मियों में अधिक संख्या में आते हैं. ठण्ड के मौसम में यहाँ बर्फीली हवाएँ चलती हैं. पर्यटकों के लिए यहाँ पर पर्याप्त सुविधा है. देशी-विदेशी पर्यटक भीमताल, नोकुचियाताल, सातताल, रामगढ़ आदि स्थानों को देखने के साथ-साथ मुक्तेश्वर (२२८६ मीटर) के रमणीय अंचल को देखना नहीं भूलते.
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नैनीताल से तराई -भाबर : खुर्पाताल

फोटो: सुधीर कुमार

तराई-भाबर की ओर जैसे ही हम चलते हैं तो हमें कालाढूँगी मार्ग पर नैनीताल से 6 कि.मी. की दूरी पर समुद्र की सतह से 1635 मीटर की ऊँचाई पर खुर्पाताल मिलता है. इस ताल के तीनों ओर पहाड़ियाँ हैं, इसकी सुन्दरता इसके गहरे रंग के पानी के कारण और भी बढ़ जाती है. इसमें छोटी-छोटी मछलियाँ प्रचुर मात्रा में मिलती है. यदि कोई शौकीन इन मछलियों को पकड़ना चाहे तो अपने रुमाल की मदद से भी पकड़ सकता है.

इस ताल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पर्वतों के दृश्य बहुत सुन्दर लगते हैं. यहाँ की प्राकृतिक छटा और सीढ़ीनुमा खेतों का सौन्दर्य सैलानियों के मन को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता है.
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कॉर्बेट नेशनल पार्क

यह गौरवशाली पशु विहार है. यह रामगंगा की पातलीदून घाटी में 525 वर्ग किलोमीटर में बसा हुआ है. कुमाऊँ के नैनीताल जनपद में यह पार्क विस्तार लिए हुए है.

दिल्ली से मुरादाबाद-काशीपुर-रामनगर होते हुए कार्बेट नेशनल पार्क की दूरी 210 कि.मी. है. कार्बेट नेशनल पार्क में पर्यटकों के भ्रमण का समय नवम्बर से मई तक होता है. इस मौसम में की ट्रैवल एजेन्सियाँ कार्बेट नेशनल पार्क में सैलानियों को घुमाने का प्रबन्ध करती हैं. कुमाऊँ विकास निगम भी प्रति शुक्रवार के दिल्ली से कार्बेट नेशनल पार्क तक पर्यटकों को ले जाने के लिए संचालित भ्रमणों (कंडक टेड टूर्स) का आयोजन करता है. कुमाऊँ विकास निगम की बसों में अनुभवी गाइड होते हैं जो पशुओं की जानकारी, उनकी आदतों को बताते हुए बातें करते रहते हैं.

यहाँ पर शेर, हाथी, भालू, बाघ, सुअर, हिरन, चीतल, साँभर, पांडा, काकड़, नीलगाय, घुरल और चीता आदि ‘वन्य प्राणी’ अधिक संख्या में मिलते हैं. इसी तरह इस वन में अजगर तथा कई प्रकार के साँप भी निवास करते हैं. जहाँ इस वन्य पशु विहार में अनेक प्रकार के भयानक जन्तु पाये जाते हैं, वहाँ इस पार्क में 600 से लगभग रंग-बिरंगे पक्षियों की जातियाँ भी दिखाई देती हैं. यह देश एक ऐसा अभ्यारण्य है जिसमें वन्य जन्तुओं की अनेक जातियाँ-प्रजातियों के साथ पक्षियों का भी आधिक्य रहता है. आज विश्व का ऐसा कोई कोना नहीं है, जहाँ के पर्यटक इस पार्क को देखने नहीं आते हों.
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साभार : इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र

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Sudhir Kumar

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