कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है. मानव सभ्यता ज्यों-ज्यों विकास के सोपान चढ़ती गयी, वैज्ञानिक सोच और तकनीकी कौशल ने हमारी जिन्दगी आसान तो जरूर बना दी, लेकिन शारीरिक श्रम के प्रति हमारा मोहभंग होता गया. जो हुनर व कौशल हमें कदाचित् स्वावलम्बी बनाता आया था मशीनीकरण के फलस्वरूप हम उसे गंवाते चले गये. (Self-Supporting Hill life of the Past)
सच कहा जाय तो महात्मा गांधी के सपनों का स्वावलम्बी भारत अतीत में पहाड़ के ग्रामीण परिवेश में देखा जा सकता था. एक शताब्दी पूर्व पहाड़ के लोग केवल नून (नमक) और कपड़ों के लिए शहरों का रूख करते थे. आवश्यकताऐं सीमित थी और उनमें उ़द्यमिता का हुनर इतना था कि अपने दैनिक प्रयोग की सारी वस्तुऐं घर पर ही तैयार कर लिया करते. अपनी आवश्यकता के अनुरूप अनाज तो पहाड़ के हर घर में पैदा हो ही जाता था, भले ही वह मोटा ही अनाज क्यों न हो. कूटने, पीसने के लिए भी घर-घर में हाथ से चलने वाली चक्की व हर घर के आंगन में ही ओखली होती थी. यहां तक कि बरसात के मौसम में कुटाई के लिए घर के अन्दर चाक में भी ओखली बनी होती. घर के बाहर के कमरे में चाक् (हाथ से पिसाई करने की चक्की) होने के कारण ही इस कक्ष का नाम ही चाक पड़ गया. ग्रामीण चाक् में न केवल ताजे आटे को पीसते बल्कि दालों को भी चाके में भी दला जाता. जिन पहाड़ी गांवों में पानी की प्रचुरता होती, वहां घट (घराट) से आटा पिसाई होती. जो लोग व्यावसायिक रूप में घराटों का संचालन करते, उनको भी पिसाई नकद नहीं दी जाती थी, बल्कि पीसे गये अनाज की मात्रा के अनुसार हिस्सा घराट संचालक को दिया जाता – जिसे ’भाग’ कहा जाता. किस्सा ही बन गया – ‘त्यर घट पिसियो नी पिसियो, ल्या म्यरी भाग.’ मुद्रा का लोगों के पास अभाव था, इस कारण इसका प्रयोग सीमित सेवाओं के लिए होता था. नाई, औजी (दर्जी), लोहार आदि दस्तकारों को भी उनसे काम लिये जाने पर नकद भुगतान नहीं होता, बल्कि हर होने वाली फसल में उनका हिस्सा उन्हें दिया जाता. तीज त्योहारों पर भी इनको भुलाया नहीं जाता.
तब आज की तरह पिसे-पिसाये मसालों का चलन नहीं था. घर पर ही सिलबट्टे पर ताजे स्वादिष्ट मसाले पिसे जाते, जो शुद्धता व गुणवत्ता में कहीं अधिक अच्छे थे. जो काम आज मिक्सी से हम करते हैं वे सारे काम सिलबट्टे से किये जाते. चाहे डुबके के लिए भट्ट या गहत पीसने हों अथवा तिल का पिन (पिठा) बनाना हो. घर पर बनाया जाने वाला पिठ्या भी सिलबट्टे पर ही पिसा जाता. इससे शुद्धता तो रहती ही शारीरिक व्यायाम भी साथ साथ हो जाता था.
तिलहनों के अन्तर्गत लाही, सरसों व तिल प्रत्येक पर्वतीय किसान अपने उपयोग लायक पैदा कर लेता और घर पर ही तेल निकालने का हुनर उनमें खूब था. यहां तक कि गन्ने को भी घर-घर में उगाकर स्थानीय स्तर पर तैयार किये गये कोल्हू से गन्ने की पिराई कर गुड़ तैयार किया जाता था.
धातु के बर्तनों में पीतल, कांसा तथा तांबा ही ज्यादा चलन में था. तांबे के बर्तनों को बनाने में भी टम्टा समुदाय को महारत हासिल थी. पानी के लिए तथा शादी ब्याहों में तांबे के फौलों (गगरी) तथा दाल-भात बनाने के लिए कसेरे उपयोग में लाये जाते. लेकिन काष्ठ के बर्तन ग्रामीण गेठी अथवा अन्य उपयुक्त लकड़ी से तरासकर खुद ही तैयार कर लेते. ये बर्तन लकड़ी के होने की वजह से खाना पकाने के काम तो नहीं लिये जा सकते थे, लेकिन दूध, दही, छांछ व घी आदि रखने के लिए इन्हें उपयोग में लाया जाता. मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए बाहर से आये कुम्हार लोग गांवों में डेरा डालकर गांव के लोगों की जरूरत के अनुसार घड़ा, सुराही, ठेकी आदि बनाकर बदले में ग्रामीणों से अनाज, दालें आदि ले जाते.
लगभग सौ वर्ष पूर्व की सामाजिक व्यवस्था पर अगर नजर डालें तो पहाड़ के गांवों में सरकारी नौकरियों का प्रायः अभाव था और लिखत-पड़त का अधिकांश काम ब्राह्मणों द्वारा ही ज्योतिष तथा जन्मकुण्डली एवं जन्मपत्री बनाने के लिए किया जाता था. कागज का वर्तमान स्वरूप चलन में तो था, लेकिन पहाड़ के ग्रामीण, विशेष रूप से पुरोहिती का कार्य करने वाले तब भी भोजपत्र की छाल ही कागज के रूप में इस्तेमाल करते थे. भोजपत्र को संस्कृत भाषा में बहुवल्कल कहा गया है यानि बहुत सारे वल्कल या छाल वाला वृक्ष. इसकी छाल के परतों को ही कागज के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, जो काफी टिकाऊ होता था. यहां तक कि तब पुरोहित लोग स्वयं ही स्याही भी वनस्पतियों से तैयार करते थे. पुराने लोगों की जन्मपत्रियां आज भी भोजपत्र की छाल पर स्वयं निर्मित स्याही से लिखी गयी मिल जाया करेंगी.
रस्सी, झाड़ू आदि भी खरीदने की उन्हें कभी जरूरत नहीं पड़ती. पहाड़ में सहजता से उपलब्ध बाबिल घास, भांग व बिच्छू घास के रेशे से रस्सी, तथा बाबिल घास से कूची-झाड़ू स्वयं ही बना लिया करते तथा बाबिल घास घर की झोपड़ी को छाने के काम भी आती, जिसमें पानी रोकने की क्षमता होती थी. बांस तथा रिंगाल से अपनी जरूरत के अनुसार टोकरी, डाले, छापरी, कण्डी, बच्चों के चंवर आदि बनाये जाते. इस कार्य को विशेष वर्ग के दक्ष लोग बनाते, जिन्हें बारूड़ी कहा जाता.
घर बनाने के लिए सीमेंट, ईट, टिन, चादर जुटाने की उन्हें की जरूरत नहीं पड़ी. स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पत्थरों, मिट्टी से तैयार गारे, स्थानीय इमारती लकड़ी व पहाड़ों में उपलब्ध पाथरों से छत ढकने का कार्य हो जाता. जो इस कला में प्रवीण नहीं होता तो गांव के ही राज व बढ़ई का सहयोग लिया जाता.
पुराने जमाने के लोग आज के प्रसाधन सामग्रियों से कोसों दूर थे. यहां तक की साबुन का विकल्प भी वे घरों में ही खोज लेते. भीमल के पेड़ की राल से सिर धोया जाता और कभी-कभी रीठा का पाउडर बनाकर इसे भी साबुन के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता. इससे बाल शैम्पू की तरह चमकदार व मुलायम हो जाते. कपड़े धोने के लिए रीठे के पाउडर के अलावा मुलायम राख को पानी में खौलाया जाता और उसमें धोने वाले कपड़े डाल दिये जाते. फिर मुंगरे (हत्था बनी लकड़ी) से उनको सपाट पत्थर पर चूटा (पीटा) जाता. खौलती राख में डूबे कपड़े कीटाणु नाशक होने के साथ-साथ ज्यादा साफ व उजले होते, लेकिन एक नुकशान भी था कि राख में पकाने व चूटने से कपड़े ज्यादा टिकाऊ नहीं रहते थे.
शुद्ध खान-पान व स्वस्थ पर्यावरण के कारण पहाड़ के ग्रामीण स्वस्थ एवं चिरायु होते थे. इसके पीछे शारीरिक श्रम भी एक मुख्य कारक था. आज की तरह अस्पतालों का अभाव था, इसके बावजूद पहाड़ों पर पायी जानेवाली बहुमूल्य जड़ी-बूटियां ही उपचार का एक मात्र साधन हुआ करती और इसकी थोड़ी बहुत जानकारी हर एक परिवार को रहती. इन आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों का उपयोग रोग के उपचार में कारगर होने के साथ ही इसके विपरीत प्रभाव की आशंका भी नहीं थी. हर रोग के उपचार के लिए जड़ी-बूटियों से लेकर टोने-टोटके, झाड़-फूंक तथा विविधमंत्रों के माध्यम से उपचार किया जाता. जांच के लिए वैज्ञानिक उपकरणों के अभाव में केवल लक्षण व अन्दाजे से रोग का उपचार करना कभी जानलेवा भी साबित होता, लेकिन सुविधाओं के अभाव में, बच्चों को जोंक लगने का मंत्र, नजर झाड़ने का मंत्र, सांप व बिच्छू के काटने पर विष झाड़ने का मंत्र पीलिया झाड़ने का मंत्र आदि के सहारे ही उपचार सुविधाओं के अभाव में उनकी मजबूरी थी. आज के दौर में भले ही हम इन्हें अन्धविश्वास मानें, लेकिन कुछ लोगों के मंत्रों में इतनी सिद्धि होती कि प्रत्यक्ष परिणाम नजर आते.
एक ऐेसे ही परिणाम ने मुझे तब अचम्भे में डाल दिया, जब मवेशियों के खुरपका रोग के उपचार के लिए किसी के द्वारा बुझे कोयले पर इधर मंत्र पढ़ा गया और उधर जानवर के खुर से कीडे़ खुद-ब-खुद गिरने लगे और खुर पकना बिल्कुल ठीक हो गया. पीलिया होने पर तो अब भी लोग दवा छोड़कर झाड़फूक में ही ज्यादा विश्वास करते हैं. मेरा आशय यह नहीं है कि आज के उन्नत चिकित्सा विज्ञान के बजाय हम पुराने उपचार को अपनायें, आशय सिर्फ ये है कि समय की आवश्यकता के अनुरूप उन्होंने उपचार के ये विकल्प अपनाकर स्वावलम्बी जीवन जिया.
घरों में शादी-ब्याह के मौंको पर गांव-देहात के लोग बाजार पर बहुत कम ही निर्भर होते. ऐसे मौंको पर गांव के जिस घर में दूध, दही, घी, सब्जी आदि जो भी उपलब्ध होता वह शादी वाले घर लेकर जाता. परस्पर लोगों में एक दूसरे को सहयोग करने की भावना रहती. शादी-ब्याह में रसोई में उपयोग में लायी जाने वाली लकड़ी एकत्र करने से लेकर रसोई तैयार करने, बारातियों व घरातियों को भोजन परोसने तथा उनकी सेवा-सुश्रुषा में गांव के लोगों का परस्पर अटूट सहयोग रहता.
ज्यों-ज्यों सेवाओं का बाजारीकरण हुआ और वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप नये-नये उत्पाद बाजार में आने लगे, पहाड़ के ग्रामीणों का हुनर छिनता गया. आज भले ही पैसे के बूते हम हर सुविधा एवं सेवा लेने में सक्षम हों, लेकिन पैसे के दम पर वस्तुओं व सेवाओं के लिए दूसरों पर आश्रित होकर रह गये हैं. हम अपने पारंपरिक कौशल व हुनर खोते जा रहे हैं. इसमें संशय नहीं कि जब बाजार के रेडीमेड खाने ने हमारे कीचन पर तक हमला बोल दिया है, वह दिन दूर नहीं जब हम घर पर खाना बनाने के हुनर को भी भूल चुके होंगे.
पहाड़ी तकिया कलाम नहीं वाणी की चतुरता की नायाब मिसाल है ठैरा और बल का इस्तेमाल
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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