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वनवासियों की व्यथा : समाधान अनुत्तरित

पिछली क़िस्त वनवासियों की व्यथा : बेदखली

वन संरक्षण कानून बनने तक आदिवासियों को अतिक्रमण करने वाले या अवैधानिक रूप से कब्जा करने वालों के रूप में देखा जाता था पर इस नए कानून ने उन्हें उनके कब्जे वाली वन भूमि पर खेती का अधिकार, उसका मालिकाना हक, संग्रहण, छोटे-मोटे उत्पाद का प्रयोग व विक्रय, वनों में पशुओं की चराई व पारंपरिक काम की छूट देकर उनके पारंपरिक वन अधिकारों को कानूनी मान्यता दी. वन संसाधनों में व्यक्तिगत व सामुदायिक दायित्व तय करने का अधिकार ग्राम सभा को दिया गया. भूमि पर स्वामित्व, वहां रहने, लकड़ी के साथ ही अन्य वन उत्पादों का एकत्रण, प्रयोग व बिक्री के साथ ही वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदलने तथा वन क्षेत्रों से हटाए जाने की दशा में उचित पुर्नवास का अधिकार भी इसमें निहित है.

ग्रामसभा दावों को प्राप्त कर उनका मूल्यांकन करेगी. इलाके का मानचित्र बनाएगी फिर एक प्रस्ताव पारित कर उसकी एक प्रति उपमंडल स्तर की समिति को देगी. यदि कोई ग्राम सभा के प्रस्ताव से असहमत है तो वह 60 दिन के भीतर उपमंडल स्तर की समिति में अपील कर सकता है. इससे भी संतुष्ट न होने पर वह जिला स्तरीय समिति के सामने अपनी समस्या रख सकता है. वन अधिकार की पहचान करने और लाभार्थी तक उसे पहुंचाने के क्रम में राज्य स्तरीय निगरानी समिति भी बनेगी. इन विभिन्न समितियों में राज्य सरकारों के राजस्व, वन और आदिवासी मामलों के विभागीय अधिकारी व पंचायती संस्थानों के तीन सदस्य सम्मिलित होंगे. वन अधिकार समिति का गठन ग्राम सभा के द्वारा किया जाएगा. इसके सदस्यों की संख्या 10 से कम और 15 से अधिक नहीं होनी चाहिए. इसका चुनाव ग्राम सभा अपनी पहली बैठक में करेगी जिसके कम से कम एक तिहाई सदस्य अनुसूचित जनजाति के होंगे और उनमें महिलाओं की सदस्यता एक तिहाई से कम नहीं होनी चाहिए.

फोटो : मृगेश पाण्डे

वन अधिकार समिति के द्वारा अध्यक्ष और एक सचिव का चुनाव किया जाएगा तथा इसकी सूचना उपमंडल स्तर की समिति को दी जाएगी. इसका कार्य मुख्यतः ग्राम सभा की सहायता करना है जिसके अंतर्गत दावों को निर्धारित प्रारूप पर प्राप्त करना, प्राप्ति पत्र देना दावों के समर्थन के लिए साक्ष्य जुटाना होगा. सभी आवेदनों हेतु पावती दी जाएगी. नक्शों के साथ दावों व सबूतों का रिकार्ड व वन अधिकारों पर दावेदारी की सूची बनाना भी इसका कार्य होगा. संक्षेप में, सामुदायिक अधिकारों हेतु ग्राम सभा की ओर से दावे तैयार करना मुख्य बात है.

अब ऐसे वनवासी जो इस कानून को क्रियान्वित होने से पूर्व गैरकानूनी रूप से हटाए गए या जिन्हें पुर्नवास नहीं मिला वह भी समुचित हक पाएंगे. जिसमें वैकल्पिक भूमि को प्राप्त करना शामिल है. इस प्रकार केवल वन अधिकार ही नहीं बल्कि वनवासियों के जीवन स्तर में सुधार हेतु व्यक्तिगत व सामुदायिक आवश्यकताओं की पूर्ति की संरचना उपलब्ध कराना भी अनिवार्य है. इसके लिए केंद्र सरकार स्कूल, दवाखाना, पेयजल, सड़क, विद्युत दूरसंचार लाइने, पानी की टंकियां, लघु जला से, जल वर्षा संचयन प्रबंध, लघु सिंचाई नहर के साथ ही कौशल उन्नयन व व्यवसायिक प्रशिक्षण व सामुदायिक केंद्रों के लिए वांछित वन भूमि की व्यवस्था करेगी.

वन अधिकारों की पहचान में ग्राम सभा व पारंपरिक ग्राम संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है. साथ ही इसमें ग्राम सभा के सभी वयस्क युवा महिलाओं की पूर्ण भागीदारी होगी. राज्य सरकारें उपमंडल, जिला व राज्य स्तर पर समिति का गठन करेगी. नियत तिथि पर ग्राम सभा की बैठक करेगी. वह वन अधिकार समिति का गठन ग्राम पंचायत द्वारा होगा. वह ब्लॉक तहसील स्तर की पंचायत के तीन सदस्यों को उपमंडल स्तर की समिति के लिए मनोनीत करेगी. उपमंडल स्तर की समिति राज्य सरकार द्वारा गठित होगी इसमें उपमंडल अधिकारी, वन अधिकारी, जिला पंचायत द्वारा मनोनीत ब्लॉक तहसील की पंचायतों के 3 सदस्य व उपमंडल के आदिवासी कल्याण विभाग का अधिकारी होगा. संक्षेप में इसका मुख्य कार्य हर ग्राम सभा को उसके दायित्व के बारे में समझ देने के साथ वन अधिकार प्राप्त करने वालों वन्य जीव संरक्षण व जैन संपदा के प्रति उनके दायित्व से संबंधित होगा.

फोटो : मृगेश पाण्डे

जिला स्तर की समिति राज्य सरकार द्वारा जिला कलेक्टर, डी. एफ. ओ. जिला पंचायत द्वारा मनोनीत जिला पंचायत के तीन सदस्यों व जिले के आदिवासी कल्याण के प्रभारी अधिकारी से बनी कोर टीम होगी. मूल आदिवासी जातियों, चरवाहों व घुमंतू जातियों की याचिकाओं की कानूनी वैधता को इसके द्वारा तय किया जाएगा. इस प्रकार ग्राम सभा सभी दावों के लिए प्रस्ताव पारित करेगी व अग्रिम कार्यवाही के लिए उपमंडल की समिति को भेजेगी. उपमंडल स्तर की समिति यह तय करेगी कि ग्राम सभा को उनकी भूमिका व जिम्मेदारियों का भान हो. साथ ही दावे के लिए निर्धारित प्रपत्र सुविधा उपलब्ध हो. यह ध्यान रखेगी कि ग्राम सभा की सभी बैठक पूरे कोरम के साथ स्वतंत्र निष्पक्ष रुप से संपन्न हों. जिला स्तरीय समिति स्वीकृति के दावों पर अंतिम रूप से विचार करेगी व अधिकार के रिकॉर्ड में स्वीकृत दावों का प्रकाशन करने के साथ ही दावा करने वालों को उसकी प्रति उपलब्ध कराएगी.

अनुसूचित जनजाति व अन्य वनवासी विधानों को लागू करने का दायित्व राज्य सरकारों का है. पंचायती राज्य मंत्रालय के अनुसार राज्यों द्वारा जागरूकता व प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भागीदारी, एक निर्धारित तिथि पर देश में सभी ग्राम सभाओं की बैठक, पात्रता के लिए मान्य अनुसूचित जनजाति व अन्य पारंपरिक वनवासियों से दावे आमंत्रित करने के लिए ग्राम सभाओं को निर्देश प्राप्त अधिकारों के अंतर्गत कार्य करने के साथ ही अदालत में दायर याचिकाओं के तुरंत फैसले की व्यवस्था करनी होगी. वर्ष 2008 के फैसले के अनुसार सरकार वन पारिस्थितिकी प्रणाली को मजबूत व व्यवहारिक बनाए रखने के लिए पारंपरिक वनवासियों का हित पोषण करती है. यह संकल्पना ली गई कि आदिवासियों के अधिकारों के साथ पर्यावरण के पक्ष के तालमेल से अनुसूचित जनजातियों व अन्य वनवासियों की वन पारिस्थितिकी को बचाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका बनेगी.

फोटो : मृगेश पाण्डे

वनों में निवास कर रही अनुसूचित जनजातियों व अन्य परंपरागत वनवासियों जो ऐसे वनों में पीढ़ियों से निवास कर रहे हैं पर उनके अधिकार अभिलिखित नहीं है. वनवासियों के अधिकारों व वन भूमि के उपयोग को मान्यता देने व निहित वन अधिकारों को अभिलिखित करने के लिए अनुसूचित जनजाति व अन्य पारंपरिक वनवासी अधिनियम का निर्माण हुआ. इस अधिनियम के अध्याय 2 के अंतर्गत मुख्य अधिकार निम्न थे:

• निवास हेतु व जीविका हेतु स्वयं खेती करने तथा व्यक्तिगत या सामूहिक अधिभोग के अधीन वन भूमि को धारित करने व उसमें रहने का अधिकार. गोंड वन उत्पादों का संग्रह उपयोग तथा घुमंतु समुदायों के मछली व जलाशयों के उत्पाद व उन पर हकदारी.

• उन राज्यों में जहां दावे विवादग्रस्त हैं. वन भूमि पर हकदारी के लिए किसी स्थानीय प्राधिकरण या राज्य सरकार द्वारा जारी पट्टे या अनुदानों के संपरिवर्तन के अधिकार. सभी वनग्रामों, पुराने आवासों, असर्वेक्षित ग्रामों व अन्य ग्रामों के बसाव व संपरिवर्तन के अधिकार चाहे वह राजस्व ग्रामों में लेखाबद्ध हों,अधिसूचित हो या नहीं.ऐसे किसी भी सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण हो या प्रबंधन. साथ ही राज्य की विधि या स्वशासी जिला परिषद या क्षेत्रीय परिषद के द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकार जिन्हें किसी राज्य की परंपरागत विधि के अंतर्गत जनजातियों के अधिकारों के रूप में मान्यता दी गई हो.

• जैव विविधता तक पहुंचने के अधिकार के साथ ही सांस्कृतिक विविधता से संबंधित बौद्धिक संपदा व परंपरागत ज्ञान का सामुदायिक अधिकार. साथ ही ऐसी कोई अन्य पारंपरिक अधिकार जिनका रुढ़िगत रूप से उपयोग किया जा रहा है. पर किसी प्रजाति के वन्य जीव का आखेट करने, उसे फसाने या उसके शरीर का कोई अंग निकालने को पारंपरिक अधिकार में नहीं रखेंगे.

साथ ही 13 दिसंबर 2005 से पहले किसी वन भूमि से पुर्नवास कर अवैध रूप से बेदखल या विस्थापित कर दिया गया हो में यथावत पुर्नवास का अधिकार.

फोटो : मृगेश पाण्डे

अधिकार कहां मिलेंगे किसको मिलेंगे?

सभी प्रकार की वन भूमि पर यह अधिकार मिलेंगे जैसे संरक्षित वन, सेंचुरी नेशनल पर. कोई विवादास्पद भूमि जिस पर वन विभाग हक जता रहा हो वहां भी अधिकार मिलेंगे. यह सबूत देना होगा कि वह तीन पीढ़ी अर्थात 75 वर्षों से वहां रहते हैं. अधिकार प्राप्ति आवेदन के साथ निम्न में से कोई दो सबूत देने होंगे, किसी भी प्रकार का सरकारी कागज, रिकॉर्ड, नोटिस पट्टा, कोर्ट कचहरी का कोई वैधानिक कागज, परंपरा एवं रूढ़ि पर किए गए अध्ययन के तथ्य एवं रिपोर्ट, मतदाता पहचान पत्र, मूल निवास प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, पंचायत पंचायत की टैक्स रसीद, बिजली का बिल. मौके पर बने मकान, झोपड़ी, कुआं, भूमि समतलीकरण जैसे कागज, पूजा की जगह, चबूतरे, मंदिर, शमशान, कब्रिस्तान के साथ ही पुरखों के पुराने रिकॉर्ड, वंशावली, गांव की बुजुर्ग के लिखित बयान एवं राजाओं, मालगुजारों का कोई कागज, नक्शा या रिकार्ड या अन्य दस्तावेज.

अधिकार कौन देगा?

अधिकार प्राप्ति के लिए ग्राम सभा में दावा पेश करना होगा जिसकी सुनवाई वन अधिकार समिति करेगी. ग्राम सभा के ऊपर उपखंड ( सबडिवीजन या तहसीलदार) स्तर पर एक समिति होगी. इसके अलावा एक राज्य स्तरीय निगरानी समिति होगी.

अधिकार पाने के लिए क्या करना होगा?

अधिकार पाने के लिए निर्धारित आवेदन पत्र ग्राम सभा वन अधिकार समिति में पेश करना होगा. साथ में दो सबूत भी देने होंगे. यदि ग्राम सभा में किसी को अधिकार नहीं मिलता तो 60 दिन के अंदर उपखंड समिति में अपील करनी होगी. यदि उपखंड समिति में भी अधिकार नहीं मिलता तो 60 दिन के भीतर जिला समिति में अपील कर सकते हैं. इस प्रक्रिया के दौरान जब तक इस कानून के अंतर्गत अधिकारों का फैसला नहीं हो जाता तब तक किसी को बेदखल नहीं किया जा सकता. कानून के अंतर्गत अधिकार मिलने पर आदिवासियों, वनवासियों को वन्य जीव, जैव विविधता, जल ग्रहण क्षेत्र, जल स्त्रोत का संरक्षण यथा पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में सहयोग देना होगा.

सब कुछ लिए विधिविधान के बावजूद अचूक आखिर कहां?

1 जनवरी 2008 से लागू वनाधिकार कानून के नाम की पहचान लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के परे यह राज्य मैं अभी तक पूरी तरह पहुंच ही नहीं पाया. विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त होने से यह कानून जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं हुआ तो देश की बाकी सभी राज्यों की सरकारें इस वनाधिकार में अनुसूचित जनजाति व अन्य परंपरागत वनवासियों की अवधारणा को जमीन में नहीं उतार पाई हैं.

हिमालयी राज्यों में भी जहां 60% से अधिक वन भूमि है वहां वनवासी की परिभाषा संदेह के घेरे में ला दी गई हैं. उत्तराखंड में वन भूमि दो तिहाई है जिस पर परंपरागत खेती है, जंगल है, आबादी बसती है पर वन विभाग की दृष्टि में यहां नगण्य से वनवासी हैं जबकि यहां की तहसीलों में वनवासियों ने वनाधिकार के अनुसार व्यक्तिगत व सामूहिक दावे किए हैं.

फोटो : मृगेश पाण्डे

2008-09 में अकेले हिमाचल में 5692 निजी दावे किए गए जिनमें केवल 346 दावेदारों को मात्र 0.354 एकड़ भूमि पर अधिकार पत्र मिले. वर्ष 2015 तक उड़ीसा में 5,98.179 निजी व 7,688 सामूहिक दावे किए गए जिनमें से 3,44,541 निजी और 2910 सामूहिक दावे स्वीकृत हुए. मात्र 5,46,330 एकड़ भूमि पर वनवासियों को मालिकाना अधिकार मिले. मध्य प्रदेश में भी वर्ष 2014 तक 4,30,000 दावों में 1,80,000 दावों को स्वीकृत किया गया. राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी वनवासियों को मालिकाना हक प्राप्त करने के लिए भटकना पड़ रहा है. वर्ष 2013 में महाराष्ट्र के पालघर जिला के कलेक्टर के दफ्तर में 15 अनुसूचित जनजाति के किसान, वन अधिकार कानून अधिनियम 2006 के अंतर्गत मिली भूमि को इनकी जोत की जमीन से बहुत कम होने पर लंबी लाइन बनाकर सत्याग्रह की शुरुआत करते हैं. शिकायत के 2 महीने के भीतर आवंटित जमीन की दोबारा बात करनी होती है पर 3 साल तक कुछ नहीं होता. बिना सत्यापन के कम जमीन की अनुशंसा कर दी जाती थी जिससे जिला स्तरीय समिति व उपस्तर समितियां बिना वनवासी को सूचित किए स्वीकार करतीं गईं.

वन क्षेत्र में जनजाति कल्याण के लिए काम कर रही गैर सरकारी संस्थाओं के समूह सी एस आर एल ने निष्कर्ष निकाला है कि सरकारें समाज की सबसे वंचित तबकों से वादे करती है, कानून भी पारित कर दी हैं और खुद ही उन कानूनों की धज्जियां उड़ा देती है. 2006 में पारित अधिनियम के बाद भी क्षेत्र में रहने वाले लोगों को अधिकार नहीं दिए गए हैं. 30 करोड़ अनुसूचित जनजाति के लोगों में 19 करोड़ लोगों के अधिकारों का सम्मान अभी तक नहीं किया गया है.केंद्र सरकार और इस अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार मंत्रालय के साथ राज्य सरकारें भी इसके लिए जिम्मेदार हैं. उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और केरल जैसे राज्य इस अधिनियम के क्रियान्वयन में सबसे आगे रहे हैं तो असम, बिहार, गोवा, हिमाचल व उत्तराखंड सबसे पीछे.

सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति मदन बी लोहुर ने 18 अप्रैल 2018 को कर्नाटक,केरल,उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, असम, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश व तेलंगाना के उन वनवासियों के आवेदन खारिज कर दिए जिन्होंने कई अवसरों के बावजूद अपने दस्तावेज जमा नहीं किए थे. न्यायपालिका का तर्क था कि जनजाति अधिकार से संबंधित इन मुद्दों को राज्य सरकारों द्वारा गंभीरता से लिया जाना चाहिए जैसा वह नहीं कर पा रही हैं.

राज्य जिनके दावे ठुकराये गए

 

राज्य

अनुसूचित जनजाति अन्य घुमंतू

मध्य प्रदेश

2,04,213

1,50,664

पश्चिमी बंगाल

50,288

35,858

उत्तर प्रदेश

20,494 38,167

उत्तराखंड

35

16
त्रिपुरा

34,438

33,774

तेलंगाना

82,075

तमिलनाडु 7,148

1,881

राजस्थान 36,492

577

उड़ीसा

1,22,250 26,620
महाराष्ट्र

13,712

8,797

केरल

894

कर्नाटक 35,521

1,41,049

झारखंड

27,809

298

आसाम 22,398

5,136

छत्तीसगढ़ 20,095 (दोनों सम्मिलित)

अब सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों के मुख्य सचिवों को निर्देशित किया है कि वह एफेडेविड के बारे में उन कारणों को बताएं इससे उन के आदेशों का क्रियान्वयन सुनिश्चित नहीं हुआ. यह भी पूछा गया कि जो विलंबित मामले हैं उनके बारे में राज्य सरकारें क्या कर रही हैं. एक बार जब बेदखली का आदेश दे दिया जाता है तो संबंधित अधिकारी जिसमें मुख्य सचिव भी शामिल हैं को अगली सुनवाई के पूर्व ही इसे लागू कर देना अनिवार्य होगा. यदि बेदखली की कार्यवाही संपन्न नहीं हुई है तो इस मामले को न्यायपालिका गंभीरता से लेगी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यों के एफेडेविड स्पष्ट नहीं होता कि एक व्यक्ति द्वारा किया गया दावा या एक व्यक्ति द्वारा किया एक से अधिक दावा प्रस्तुत किया गया. ऐसे में प्रश्न यह है कि ऐसे व्यक्तियों की संख्या या परिवार कितने होंगे जो फरवरी 13, 2019 को प्रस्तुत किए गए न्यायालय के आदेश से प्रभावित होंगे.

फोटो : मृगेश पाण्डे

बिजनेस स्टैंडर्ड के अनुसार अब अन्य राज्यों को भी अदालत का आदेश क्रियान्वित करने की मजबूरी व बाध्यता होगी.प्रश्न फिर वही है कि अपनी जड़ों से बेदखल परिवार कहां और कैसे जीवन यापन करेंगे. उस परिवेश से कटकर जिसे वह पुश्तों से अपने थात समझते आए और जिससे प्राप्त नैसर्गिक साधनों से उन्होंने अभी तक अपने परिवार व कुनबे को पाला पोसा.

न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और इंदिरा गणेश जी की पीठ ने सभी 16 राज्यों के मुख्य सचिवों ने पूछा है कि जुलाई 12, 2018 तक दर्ज एफेडेविड के प्रत्युत्तर में वनवासियों की निष्कासन की कार्यवाही अभी तक क्यों नहीं की गई. आदेश का सार यह ही है कि जब निष्कासन के आदेश राज्य के द्वारा भेज दिए जाते हैं तो कार्यवाही तो हर हाल में होनी चाहिए.

वन अधिकार अधिनियम की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाते एक वन्यजीव समूह ने याचिका दायर की कि वह सभी जिनके वन भूमि पर दावे आ रहे थे यदि वह कानून के जरिए अमान्य घोषित हो जाते हैं तो ऐसे वनवासियों को राज्य से निष्कासित कर दिया जाना चाहिए. 16 राज्यों के 11.8 लाख से अधिक वनवासियों आदिवासियों को सुप्रीम कोर्ट ने बेदखल करने का निर्णय दिया. पूर्व में 19.39 लाख दावे अमान्य घोषित किए गए.

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर केंद्र सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी जबकि इतनी अधिक संख्या में जनजातीय समुदायों को अपनी पुश्तैनी धरोहर से वंचित करने का मामला है यह. बेंगलुरु के ‘वाइल्ड लाइफ फर्स्ट’ जैसे गैर सरकारी संगठन यह संकल्पना लेते हैं कि यह कानून संविधान के खिलाफ है.

एक तरफ जंगलों की कटाई बड़ी है तो प्राकृतिक धरोहर से निरंतर छेड़छाड़ होती रही है. भारी मात्रा में वन आदाओं का समूह नाश हुआ है. अब यदि यह कानून आता है तो दावों के अमान्य कर दिए जाने के कारण राज्य सरकारों का यह दायित्व हो जाता है कि वह जनजाति परिवारों को बाहर कर दें. जबकि वनाधिकार कानून में जरूरी शर्त यह है कि राज्य को हर स्थिति में इसे लागू करना है.पंचायती राज, समाज कल्याण, राज्य व वन विभाग को मिलकर काम करने का दायित्व सौंपा गया है. राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों के बीच बसे हुए गांव का पुर्नवास भी इस अधिनियम के अंतर्गत किया जा सकता है. अब वनवासी अपने पारंपरिक निवास वनाधिकार के बाद भी छोड़ने को मजबूर हैं.

फोटो : मृगेश पाण्डे

जनजाति समूह का दृष्टिकोण है कि अधिकांश मामलों में दावों को गलत तरीके से अस्वीकृत किया गया. इसे जनजाति मंत्रालय द्वारा लाई गई सुधार प्रक्रिया के रूप में आई मापदंडों के अधीन लाए अधिनियम के संदर्भ में नहीं देखा गया. कानूनी पेचीदगियों से उन्हें बाहर नहीं खरीदा जा सकता. ऐसे कई दृष्टांत हैं जिनमें जमीन उनके नाम नहीं है बल्कि उन्हें वह पुश्तैनी रूप से वन संपदा के रूप में प्राप्त हुई हैं. अदालत द्वारा इस मामले की सुनवाई पर कांग्रेस अध्यक्ष ने भाजपा नेतृत्व की एनडीए सरकार पर उदासीन देने का आरोप लगाया. भूमि अधिकार कार्यकर्ताओं के समूह के साथ कुछ विपक्षी राजनीतिक दलों ने आदिवासी मामलों के मंत्री को फरवरी माह 2019 के पूर्वार्ध में प्रेषित पत्र में यह चिंता जाहिर की कि भारत सरकार ने वनवासियों का बचाव नहीं किया. सन 2018 में मार्च, मई और दिसंबर में जो सुनवाई हुई उन पर केंद्रीय सरकार ने कुछ नहीं कहा. और तो और वन अधिकार कानून के संरक्षण के लिए न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, सिन्हा एवं इंदिरा की पीठ के सामने अपने वकीलों को केंद्र सरकार ने भेजा ही नहीं. इसी का नतीजा है कि पीठ ने राज्यों को सीधे यह आदेश दिया कि जिन के दावे अमान्य हो गए हैं वह उन सभी आदिवासियों को बेदखल कर दें. 20 जनवरी 2019 को पीठ ने एक लिखित आदेश दिया था जिसकी एक रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में भी जमा करने को कहा गया पर 13 फरवरी 2019 को जो सुनवाई हुई उसमें सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी अधिवक्तागण मौजूद नहीं थे. कुल 42.19 लाख दावों में से केवल 18.89 दावे नये आदेश से अमान्य हो जाएंगे. यह उन राज्यों पर लागू होता है जिन्हें सुप्रीम कोर्ट द्वारा निजी रूप से आदेश दिया गया है. अब जब अन्य राज्य भी अपना हलफनामा देंगे तो उनके लिए भी यथास्थिति को रेखांकित करता ऐसा ही आदेश लागू किया जाएगा. इससे बेदखल होने वाले लोगों की संख्या बढ़ेगी ही. जब भी बेदखली होती है तो वन विभाग व अन्य सरकारी महकमे आदिवासियों व वनवासियों के साथ किस संवेदनहीनता से पेश आएंगे और आदेश का किस प्रकार दुरुपयोग करेंगे इसकी व्यथा कथाएं हक हकूकों के लिए लड़ने वालों के खिलाफ हुए दमन चक्र में कई बार कह दी गई हैं. अंग्रेजो के द्वारा बनाए गए और बाद में बने जनविरोधी वन कानूनों में गुणात्मक सुधार तो हुआ ही नहीं. वे अभी भी हैं और वनवासी अदालतों के चक्कर काटने को अभिशप्त!

27 फरवरी को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की बैंच के सामने इस मामले को पुनः प्रस्तुत किया. जिसे बैंच द्वारा स्वीकार किया गया. अगली क़िस्त में पढ़िये वर्तमान में इस संबंध में चलने वाली कारवाई.

(जारी)

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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