पर्यावरण

क्या सातताल की खासियत उसकी बर्बादी का सबब बन रही है?

हम जब कॉलेज में थे तो एक बार पिकनिक में सातताल गये. धूपचैड़ से आगे बढ़ते ही ऊँचाई से घने बांज के जंगलों के बीच गहराई में बसी झील का जो पहला दृश्य मैंने देखा वह मेरी स्मृति में अभी तक बसा है. ये कोई सन् 1975 की बात होगी. ऐसे दृश्य कभी-कभी हॉलीवुड की फिल्मों में दिखते थे. सातताल को अगर सही सही मायनों में देखा जाय तो खूबसूरती और जैव विविधता की दृष्टि से यह एक प्रकृति का एक अजूबा है. इसके आस पास की भू स्थिति बताती है शायद यहां कभी सात झीलें रही हों. पर धीरे-धीरे कुछ झीलें मलवे से पट गयीं. अभी भी यहां पर करीब पांच झीलें बची हैं.
(Sattal Lake Redevelopment Plan Problems)

सातताल में करीब चार हजार फिट की ऊँचाई पर घना बांज का जंगल है और आबोहवा में गर्माहट भी है. ऐसा संयोग देखने में कम मिलता है. नैनीताल, मुक्तेश्वर और गागर जैसे प्राकृतिक वनों के कारण संभवतः यहां पर झीलों को जलापूर्ति होती है और बांज का जंगल उस झील की नमी से खुद पनप कर सहजीवन के सिद्धांत पर उस झील को भी संरक्षित रखता है. बांज का जंगल न केवल हरियाली बढ़ाता है बल्कि उसके जल संरक्षण की प्रवृत्ति उसे बृहद जैव विविधता का जनक व पोषक बनाती है. इस तरह की जलवायु को इकोलॉजी में “माइक्रो क्लाइमेट” कहा जाता है. इस तरह की परिस्थितियां प्रकृति का दुर्लभ संयोग मानी जाती हैं. इसी कारण यहां पर 500 से अधिक किस्म के पक्षी, जिनमें कई प्रवासी हैं, इतनी ही तितलियां जिनमें कई दुर्लभ प्रजाति की हैं, ऑर्किड, जलचर, किंग कोबरा जैसे सरीसृप, लाइकेन, मॉस और ब्रायोफाइट आदि हैं. निस्संकोच कहा जा सकता है कि सातताल प्रकृति का एक दुर्लभ संग्रहालय है.

दुर्लभ होती जा रही प्रकृति में इस तरह के इलाके पर अनियंत्रित पर्यटन का ध्यान खिचना स्वाभाविक है. लेकिन राष्ट्रीय पार्कों, अभयारण्यों का विचार हमें यह बताता है कि दुर्लभ प्राकृतिक आवासों का प्रबंध विशेष नियमों व प्रतिबंधों की सहायता से ही किया जा सकता है, हालांकि इस प्रकार के प्रतिबंधों से स्थानीय लोगों की आजीविका तक बर्बाद हो जाती है. इसलिए दुर्लभ प्राकृतिक इलाकों के प्रबंध के लिए कम्युनिटी रिजर्व का विचार विकसित हुआ, ताकि इनके संरक्षण और विकास में स्थानीय समुदायों का सक्रिय सहयोग सुनिश्चित किया जा सके. इस तरह के व्यावहारिक संरक्षणात्मक आवश्यकताओं से सरकारों को न जाने क्यों परहेज होता है. वे इन इलाकों का तथाकथित विकास प्रकृति और दीर्घकालीन संरक्षण के बजाय चालू नोएडा मॉडल से करती है. बेशक नोएडा जैसी जगहों में, जहां प्रकृति उजड़ चुकी हो वहां पर बनावटी-सजावटी कंक्रीट के निर्माण, पार्कों की जरूरत हो. पर प्राकृतिक इलाकों में ऐसा हस्तक्षेप विशुद्ध रूप से केवल प्रकृति से आत्मघाती छेड़छाड़ की श्रेणी में आता है.

कहने को तो हमारे संविधान के अनुच्छेद 51 क (छ) में लिखा है कि- प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि प्राकृतिक पर्यावरण, जिसके अंर्तगत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, की रक्षा करे और उसका संर्वद्धन करें. साथ ही अनुच्छेद 48 (क) में लिखा है कि- राज्य देश के पर्यावरण का संरक्षण और संवर्द्धन तथा वन्यजीवों की रक्षा करने का भरसक प्रयत्न करेगा. ऐसे प्रावधान न भी हों तो भी एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी जानता है कि प्रकृति से छेड़छाड़ मनुष्य के लिए हमेशा देर सबेर नुकसानदायक ही होती है. इसलिए प्रकृति का संरक्षण मनुष्य के दीर्घकालीन हितों के लिए जरूरी है.

कुछ दिन पहले एक दिन सातताल के स्थानीय लोगों ने देखा कि सातताल में तालाब के किनारे भारी जेसीबी मशीनों के साथ निर्माण कार्य शुरू हो गया है. कुछ स्थानीय अखबारों में छपी खबरों से पता चला कि यहां पर 6 करोड़ रूपये की लागत से सौंदर्यीकरण हो रहा है. इस सौंदर्यीकरण में चिल्ड्रन पार्क, लैंड स्केपिंग, व्यू प्वाइंट, पौधारोपण, सेल्फी पॉइंट जैसे चालू पर्यटन आकर्षण की चीजें बनायी जा रही हैं. तथाकथित सौंदर्यीकरण जिसे स्थानीय विधायक संजीव आर्य सातताल में पर्यटन के विकास का आधार बताते हैं के संबंध में प्रशासन का कहना है कि उसने 60 संबंधित व्यक्तियों (स्टेक होल्डर) से राय ली थी.

सातताल आज अपनी प्राकृतिक वन्यता के कारण व्यापक कारोबार की संभावनाओं का केन्द्र बन चुका है. निश्चित रूप से इस इलाके पर दावा पेश करने वाले (स्टेक होल्डर) भी बहुत बड़ गये होंगे. दिल्ली का ट्रेवल ऐंजेसी वाला भी स्टेक होल्डर होने का दावा पेश कर सकता है लेकिन अधिकांश स्थानीय निवासी इसे सातताल की बर्बादी की शुरूआत मानते हैं. हमें यह समझना चाहिये कि विज्ञान को बहुमत या अल्पमत के आधार पर नहीं बल्कि तर्कों और तथ्यों के आधार स्वीकारा या अस्वीकारा जाना चाहिये है.
(Sattal Lake Redevelopment Plan Problems)

सातताल के स्थानीय सरोकारों में सक्रिय गौरी राणा बताते हैं कि हमारी सबसे बड़ी उलझन यह है कि हमें पता ही नहीं है कि ये विकास कार्य कौन कर रहा है? कितना होना है? क्या इसके लिए पर्यावरण की स्वीकृति ली गई है? संबंधित अधिकारियों से कई बार पूछने पर भी उन्होंने ने कुछ नहीं बताया है. केवल स्थानीय विधायक से उन्हें आश्वासन मिला है कि सभी संबंधित विभागों के साथ उनकी एक बैठक करवा दी जायेगी. शंकायें इसलिए पैदा होती हैं कि आखिर इसमें पारदर्शिता क्यों नहीं रखी जा रही है?

गौरी राणा बताते हैं कि सातताल का मुख्य आकर्षण बर्ड वाचिंग है. पक्षियों के भोजन रहन-सहन में यहां के प्राकृतवास ही आधार है. यहां की घनी झाड़ियों इस प्राकृतवास का मुख्य हिस्सा है. यहां पर झाड़ियां बेकद्री से काटी जा रही हैं. जिससे कई वन्यजीवों के साथ पक्षियों का प्राकृतवास नष्ट हो रहा है. गौरी राणा के नेतृत्व में कुछ लोग प्रदेश के वन प्रमुख राजीव भरतरी से भी देहरादून में मिल कर इस पूरे प्रकरण को समझा चुके हैं. लेकिन अभी तक कोई सफलता नहीं मिल पायी है. इस इलाके से संबधित पांच ग्रामसभाऐं अब संयुक्त रूप से इस क्षेत्र के पर्यावरण को बचाने के लिए एकजुट हो रही हैं. उनके संघर्षों की रणनीति में हाईकोर्ट में याचिका दायर करना भी है.

कुछ स्थानीय लोग जो यहां पर बाहर बसे हैं और उन्होंने यहां पर एक सातताल कंजरवेशन क्लब बना रखा है, वे भी इन कामों का विरोध कर रहे हैं. अग्नेय बुधराज ने “चेंज डॉट ओआरजी” के माध्यम से एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया है, जिसे व्यापक समर्थन मिला है.

करीब 6 वर्ष पूर्व सिंचाई विभाग ने यहां के एक ताल हनुमानताल में भी इसी तरह के सौंदर्यीकरण के नाम पर पूरे प्राकृतिक तालाब को कंक्रीट का टैंक बनाने की मुहिम शुरू कर दी थी. उसका भी व्यापक विरोध हुआ. बाद में सरकार को झुकना पड़ा और प्रदेश सरकार ने तालाब की पूर्व स्थिति बहाल करने के आदेश दिये. आज हनुमानताल पूरी तरह पहले की स्थिति में आ चुका है. संयोग से उस समय संबंधित अधिकारी विवेक रखते थे और उन्होंने स्थिति को समझते हुए उन्होंने एक बड़ी प्राकृतिक झील को बर्बाद करने की भूल होने से रोका. पर आज एक बहुत बड़े इलाके को कंक्रीट के जंगल में बदला जा रहा है. तब एक विभाग था आज कम से कम पांच विभाग काम में जुटे हैं. जाहिर है बजट भी बड़ा होगा और कई अदृश्य खिलाड़ी भी हो सकते हैं, जिनके हितों के लिए ये सब कुछ हो रहा हो. अब तक 6 करोड़ का बजट भी आ चुका है. सरकारी विभागों को सबसे बड़ा लालच बजट का ही होता है. यदि बिना कंक्रीट और जेसीबी के किसी जगह को प्राकृतिक रूप से सुंदर बनाना है तो उसमें बहुत ही कम बजट लेकिन प्रकृति की सही समझ की जरूरत होती है. पर बजट-ठेकेदारी के दुष्चक्र से उपजे लालच से ये समझ ही खत्म हो गयी है.
(Sattal Lake Redevelopment Plan Problems)

यदि मान भी लें कि इस तथाकथित विकास से सातताल में पर्यटन बहुत बढ़ जाता है. तो इसका अर्थ है कि वहां पर लोगों की भीड़ बढ़ेगी, मोटर गाड़ियों की आवाजाही बढ़ेगी, जिससे पैदा होने वाले शोर और प्रदूषण से सबसे ज्यादा सशंकित-आतंकित पक्षी समूह होंगे. वहां अब तक आने वाला पक्षी प्रेमियों का समुदाय नहीं आयेगा.

सातताल आज विश्व पक्षी अवलोकन की सूची में शामिल है. पक्षियों के पलायन का अर्थ केवल उनका पलायन नहीं मानना चाहिये. बल्कि ये पक्षी यहां के ईको तंत्र का भी अभिन्न भाग हैं. निश्चित रूप से ईको तंत्र भी लड़खड़ायेगा. बांज जंगल भी बहुत शर्मीला जंगल होता है. लोगों के हस्तक्षेप से सबसे पहले इसके सहयोगी विलुप्त हो जाते हैं और उनके विलुप्त होने से बांज और सहयोगी वनस्पतियों का पुनर्जनन रूक जाता है. कुल मिलाकर जैव विविधता पूरी तरह बर्बाद होने लगती है, जिसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती है.

कोरोना की आड़ और प्रशासन के रूख से दिखता है कि इस विनाश को रोकना आसान नहीं है. तमाम दबावों के बावजूद अगर प्रशासन अड़ जाये कि पर्यावरणीय स्वीकृति ले ली गई है या किसी प्रावधान के अंर्तगत ऐसी स्वीकृति की आवश्यकता न हो तो ऐसी पर्यावरण समस्याओं के हल की उम्मीद अदालतों से ही की जा सकती है. लेकिन अदालतें अपना समय लेती हैं. क्योंकि अभी तक पर्यावरण की जटिलताओं के कारण इसके प्रति हमारी समझ अपूर्ण है इसलिए इसके नियम कानून भी अपूर्ण हैं, जिनमें हमेशा व्याख्या के अलावा कानून और वैज्ञानिक तथ्यों की बीच की लड़ाई है. प्रकृति संरक्षण में कई बार ऐसी दुविधाऐं आती हैं कि भले ही विज्ञान ने सिद्ध किया हो पर कानून में तो नहीं लिखा है. इसलिए विवेकानुसार भले ही इस तरह के काम अनुचित लगें परन्तु कानूनन अवैध सिद्ध करना कठिन हो जाता है. इसीलिए कई बार हाईकोर्टों ने नदियों, तालाबों, वृक्षों आदि को व्यक्ति की मान्यता दी है परन्तु कानूनी व्यवस्था न होने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इन निर्णयों पर रोक लगा दी. दरअसल हमें प्राकृतिक विवादों के लिए एक नये सिद्धांत की आवश्यकता है.

हमें यह समझना चाहिये कि भले ही हम कह रहे होते हैं कि हम प्रकृति को बचा रहे हैं पर सच ये होता है कि हम अपने दीर्घकालीन हितों को बचा रहे होते हैं. इसलिए सातताल जैसी विशुद्ध प्राकृतिक संरचना के संबध में अप्राकृतिक संरचनाओं को विकास के नाम पर रोका ही जाना चाहिये और साथ ही इस इलाके को सामुदायिक संरक्षित क्षेत्र घोषित कर देना चाहिये. इसके लिए नियम कानून बनाते समय स्थानीय निवासियों, जिनके परंपरागत हित हैं, की सहमति और पूर्ण पारदर्शिता के साथ निर्णय लिये जाने चाहिये, ताकि इस तरह की दुर्लभ प्राकृतिक संरचनाओं को उनके नैसर्गिक स्वरूप में सुरक्षित रखा जा सके और इस तरह के इलाकों को सड़क छाप पर्यटन से रोकने के लिए कदम उठाये जायं.

सड़क छाप पर्यटन ने नैनीताल, भीमताल और नौकुचियाताल की प्राकृतिकता को तो नष्ट कर ही दिया है, अब कम से कम सातताल जैसे दुर्लभ प्राकृतिक स्थलों को तो ऐसे मॉडल से बचा लिया जाये.
(Sattal Lake Redevelopment Plan Problems)

विनोद पाण्डे

सातताल से संबंधित विनोद पाण्डे की यह रिपोर्ट नैनीताल समाचार से साभार ली गयी है.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

17 hours ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

7 days ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

1 week ago

इस बार दो दिन मनाएं दीपावली

शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…

1 week ago

गुम : रजनीश की कविता

तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…

1 week ago

मैं जहां-जहां चलूंगा तेरा साया साथ होगा

चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…

2 weeks ago