भारतीय स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के अवसर पर सरफरोशी की तमन्ना नाम से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी. इस महत्वपूर्ण दस्तावेजनुमा पुस्तक में भारत के स्वाधीनता संग्राम में उत्तराखण्ड के योगदान को रेखांकित करते हुए अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ संग्रहीत की गयी थीं. मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक ने इसका सम्पादन किया था. आज से पढ़िए सरफरोशी की तमन्ना के चुनिन्दा अंश:
हिमालयवासी लड़े निरन्तर
यह तथ्य सर्वविदित है कि आधुनिक यूरोपीय व्यापारिक शक्तियाँ, जो आधुनिक पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की कर्ता और वाहक थीं, समन्दर की राह भारत में आई थीं. हिमालय में उनमें से सिर्फ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन हो सका. 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद कंपनी की उत्तरी भारत में फैलाव की गति बढ़ी और अगली आधी सदी में हिमालयी क्षेत्रों में प्रत्यक्ष घुसपैठ की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी.
हिमालय में अठारहवीं सदी के अंतिम दशकों में कुछ स्थानीय सामंतशाहियों का पराभव और कम से कम दो या तीन गोरखा, डोगरा तथा अहोम-साम्राज्यों का प्रसार हुआ. मुख्य हिमालय में गोरखों, पूर्वी हिमालय में अहोम तथा कश्मीर, लद्दाख और पश्चिमी तिब्बत में डोगरा शासकों के प्रसार के समय कम्पनी शासन हिमालय क्षेत्र में आने की रणनीति बना रहा था. सन 1800 के बाद तो एक —एक कर हिमालय के विभिन्न हिस्सों में औपनिवेशिक पताका फहराने लगी और स्वाभाविक रूप से हिमालय के कबीले, समाज और इलाके प्रतिरोध के एकल और सामूहिक स्वर बुलन्द करने लगे.
कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि हिमालय के प्रतिरोधों का मिजाज एक जैसा था या उनमें कोई प्रत्यक्ष अन्तर्सम्बन्ध था लेकिन अपने —अपने क्षेत्रों में औपनिवेशिक घुसपैठ का उत्तर यह अवश्य था. यह निर्विवाद है कि हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों में हुए अधिकांश आन्दोलन मूलतः किसान अथवा कबीलाई आन्दोलन थे. जयंतिया, कूकी या मणिपुर का विद्रोह; असम का ’फूलागढ़ी आन्दोलन, उत्तराखण्ड बेगार तथा वन आन्दोलन, टिहरी रियासत के पारम्परिक ढंढक’तथा प्रजामंडल आन्दोलन, हिमाचली रियासतों (पंजाब हिल स्टेट्स) के ‘दम’ तथा प्रजामंडल आंदोलन, जम्मू के चनैनी हिमालय क्षेत्र तथा कश्मीर के नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा आयोजित आंदोलन आदि से हिमालय क्षेत्र में प्रतिरोधों का महत्व और मिजाज समझा जा सकता है.
देशी या स्थानीय सामंती व्यवस्थाओं से लड़ना अपेक्षाकृत कठिन था फिर भी हिमालय के हर हिस्से में सामन्ती तथा औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ छोटे—बड़े आन्दोलन होते रहे थे. नेपाली कांग्रेस का आंदोलन भी इस क्रम में रखा जा सकता है. भारतीय राष्ट्रीय संग्राम से भी उसे प्रेरणा और प्रोत्साहन मिला था. इस दौर में कितनी ही संग्रामी क्रांतिकारी प्रतिभाएँ हिमालय से उभरीं, जो राष्ट्रीय स्तर पर जानी पहचानी गयीं. मणिपुर के टिकेन्द्रिजित या हिजम ऐरावत, मेघालय के शिवचरन राय, नागा रानी गाईडिनल्यू, नेपाल के विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला से उत्तराखण्ड के गोविन्द बल्लभ पंत, पी.सी. जोशी, चन्द्र सिंह गढ़वाली, मोहन जोशी, श्रीदेव सुमन, नागेन्द्र सकलानी; हिमाचल के वीर रत्न सिंह, फकीर चंद थापा, यशपाल, सत्यदेव बुशहरी या यशवंत सिंह परमार और कश्मीर के शेख अब्दुल्ला आदि तक बहुत सारे नाम गिनाये जा सकते हैं. लेकिन इन नामों के साथ हिमालय के हर क्षेत्र में सैकड़ों नेता तथा हजारों कार्यकर्ता रहे जिन्होंने जड़ और जमीन पर काम किया. जिससे उक्त प्रख्यात संग्रामियों का उभरना संभव हुआ.
दुर्भाग्य से भारतीय राष्ट्रीय संग्राम के इतिहास ग्रन्थों में हिमालय के आन्दोलनों का पूरा जिक्र तक नहीं होता. स्वरूप, विश्लेषण और महत्व की ओर जाने में तो अभी और समय लगेगा. हिमालय के स्थानीय आन्दोलनों, राष्ट्रीय संग्राम या प्रजामंडलों के संघर्ष का व्यापक अध्ययन अभी होना है.
फिलहाल हम उत्तराखण्ड के बहाने एक दूरस्थ क्षेत्र में स्थानीय आन्दोलनों और राष्ट्रीय संग्राम के ताने—बाने को समझने का प्रयास कर रहे हैं. टिहरी रियासत या बाद में अस्कोट में हुए किसान आन्दोलनों के द्वारा ब्रिटिश सत्ता के साथ मौजूद भारतीय सामन्ती शासनों के विरुद्ध हुए संघर्ष को भी इसी ताने-बाने में शामिल किया गया है. उत्तराखण्ड में भी ‘नीचे’ और ‘ऊपर’ से विकसित राष्ट्रवाद को स्पष्ट देखा जा सकता हैं. इसमें प्रेस स्थानीय संगठनों और प्रवर वर्ग की भूमिका का जुड़ना तथा अन्ततः आम जागरण का इस संघर्ष में शामिल होकर इसे अहिंसक युद्ध की गहराई और शहादत की ऊँचाई देना किस तरह औपनिवेशिक तथा सामंती सत्ता को हिमालय के इस हिस्से में भयभीत और बड़ी सीमा तक ध्वस्त करता है, इसकी पड़ताल भी संक्षेप में की जा रही है.
-प्रोफ़ेसर शेखर पाठक
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