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कहो देबी, कथा कहो – 12

लेखकों की संगत

भूखी पीढ़ी आंदोलन 1965 के आसपास शांत हुआ तो दिल्ली में अकविता के स्वर मुखर हो उठे. हिंदी के अकवि एक लघु पत्रिका ‘अकविता’ प्रकाशित कर रहे थे जिसमें प्रायः सौमित्र मोहन, मणिका मोहिनी, जगदीश चतुर्वेदी और मोना गुलाटी जैसे नाम दिखाई देते थे. उस दौर के सशक्त कथाकारों के बीच नई कहानी आंदोलन चल निकला था. मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर नई कहानी के तीन स्तंभों के रूप में स्थापित हो चुके थे. कुछ लेखक अकहानी की चर्चा भी खूब करने लगे.

उन्हीं दिनों मैं शांत स्वभाव के कवि-लेखक प्रयाग शुक्ल के संपर्क में आया. दो-एक बार उनके बड़े भाई, कथाकार-संपादक रामनारायण शुक्ल के साथ भी भेंट हुई. रामनारायण शुक्ल कभी-कभी इलाहाबाद से दिल्ली भी आते थे. तब ‘कहानी’ पत्रिका में मेरी कहानियां छप रही थीं. उन्हें मेरी कहानियां अच्छी लगती थीं और वे कहते थे कि मेरी कहानियां कुछ अलग तरह की हैं. प्रयाग शुक्ल देवनगर में रहते थे. मैं कभी-कभी उनसे मिलने वहां जाया करता था. वे अकेले रहते थे. उनके पड़ोसी एक चित्रकार मित्र थे जिनकी बड़ी-बड़ी पेंटिंग कमरे में और उसके आसपास सीढ़ियों पर रखी हुई दिखाई देती थीं. एक बार चिलचिलाती गर्मी में प्रयाग जी और मैं दोनों बीयर ले आए. प्रयाग जी ने अपने कांच के जग में बर्फ डाल कर उसमें बीयर भरी और दरी पर बैठ कर हम लिखने-पढ़ने की बातें करते-करते सिगरेट के कस लेकर बीयर पीते रहे. हां, तब कुछ समय तक मैंने सिगरेट भी पी थी. मैं दाहिने हाथ की दो अंगुलियों पर सिगरेट रख कर, बाएं हाथ से कलाई पर मारता, सिगरेट उछल कर सीधे होंठों पर चली जाती! यह कला मैंने काफी अभ्यास करके सीखी थी. बहरहाल, उस दिन बातें करते पता नहीं कब आंख लग गई और हम दरी पर ही सो गए. ऐश-ट्रे से न जाने कब जलती सिगरेट लुढ़क कर दरी में गिर गई. जगे तो जलती सिगरेट से आग पकड़ कर दरी में एक बड़ा गोलाकार छेद बन चुका था. कभी-कभी कलकत्ता से उनसे मिलने उनके प्रिय मित्र अशोक सेक्सरिया भी आते रहते थे.

करोलबाग में ही गंगा प्रसाद विमल भी रहते थे. दो-चार बार उनसे भी मिलने गया. नैनीताल में उनसे और उनकी श्रीमती जी से भेंट हो चुकी थी. घर जाने पर खाने के लिए पूछते तो मैं मना कर देता. पहली बार मना किया तो कहने लगे, “मेरा एक दोस्त है- रवींद्र कालिया. उसी समय खाना खाकर आया होगा, तब भी पूछने पर बिना औपचारिकता के कह देता है- हां, हां भाभी जी जरूर खाऊंगा बनाइए!”

शैलेश मटियानी (गूगल से साभार)

एक बार जब इलाहाबाद से प्रसिद्ध लेखक शैलेश मटियानी जी मेरे कमरे में आए तो मैं चकित रह गया. मेरे लिए वे जीवन संघर्ष के प्रतीक थे. उनके पास टीन का एक बड़ा और मजबूत बक्सा होता था. मैंने पूछा तो कहने लगे, “यह केवल बक्सा नहीं है देबेन, इसमें मेरी पूरी गृहस्थी और कार्यालय है.” वे मुझे देबेन कहते थे. लत्ते-कपड़े, किताबें, पत्रिका की प्रतियां, डाक टिकट, लोटा, गिलास, लिखने के लिए पेन, पेंसिल, कागज, चादर, तौलिया, साबुन, तेल, शेविंग का सामान, कंघा, सब कुछ. कमरे में आकर उन्होंने एक ओर दीवाल से सटा कर बक्सा रखा और बोले, “दरी है तुम्हारे पास?”

मैंने दरी निकाल कर दी. उन्होंने फर्श पर बीच में दरी बिछाई और बोले, “मैं जमीन का आदमी हूं. मुझे जमीन पर ही आराम मिलता है. इन फोल्डिंग चारपाइयों पर तो मैं सो ही नहीं सकता.” कमरे में इधर-उधर मेरी और मेरे साथी कैलाश पंत की फोल्डिंग चारपाइयां थीं. उन्होंने बक्सा खोला. उसमें से ब्रुश और पेस्ट निकाल कर बु्रश किया. हाथ-मुंह धोया. मेरे पास पंप से जलने वाला कैरोसीन का पीतल का स्टोव और पैन था. उसमें चाय बनाई. चाय पीते-पीते बोले, “बंबई जाना है. सोचा, दो-चार दिन तुम्हारे पास रुकता चलूं. यहां भी लोगों से मिल लूंगा.”

वे जितनी देर कमरे में रहते, किस्से सुनाते रहते. इलाहाबाद के, बंबई के, अपने जीवन के, तमाम किस्से. सुबह जल्दी निकल जाते और लहीम-शहीम शरीर लेकर दिन भर पैदल और बसों-रिक्शों में यहां-वहां साहित्यकारों, मित्रों से मिलते, अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘विकल्प’ के लिए विज्ञापन जुटाते. इस भाग-दौड़ के बाद थकान से चूर होकर शाम को लौटते.

एक दिन शाम को लौटे तो हाथ में खरौंच थी. पूछा तो कहने लगे, “मामूली चोट है. थोड़ा बंद चोट लग गई.”

“क्यों क्या हुआ?” मैंने पूछा.

“अरे कुछ नहीं. रिक्शा पलट गया था. लेकिन, रिक्शे वाले की कोई गलती नहीं थी. सामने से गाड़ी आ गई. अंसारी रोड वैसे ही संकरी है, ऊपर से गाड़ी, रिक्शा, टैम्पो की भीड़. रिक्शे वाला बचाता रहा. एक जगह गड्ढा था. रिक्शा पलट गया. उसकी वास्तव में कोई गलती नहीं थी. लेकिन, राजेंद्र यादव अड़ गए. कहने लगे- रिक्शे वाले की गलती थी. मैंने कहा, बिना देखे कैसे कह सकते हो कि रिक्शेवाले की गलती थी?”

मैंने पूछा, “क्या राजेन्द्र यादव भी आपके साथ थे?”

“नहीं. मैं उनसे मिलने गया था, उनके ऑफिस में.”

“तो उन्हें क्या पता?”

“वही तो. लेकिन, वे नहीं माने. यही कहते रहे कि रिक्शेवाले की गलती थी. जब मैंने कहा, “कैसे? तो राजेंद्र यादव ने उत्तर दिया- उसने इस भारी-भरकम ट्रक की सवारी को अपने रिक्शे में बैठाया ही क्यों? उसी की गलती थी!” कह कर मटियानी जी हंसने लगे.

एक दिन कहने लगे, “बनारस में मैंने एक बार बहुत ही मार्मिक दृश्य देखा. उसे मैं कभी नहीं भूल सकता.”

“कैसा दृश्य?” मैंने पूछा.

“जिंदगी और मौत साथ-साथ. बहुत दुख हुआ उसे देख कर. रिक्शे, तांगों और गाड़ियों की उस भारी भीड़ में एक आदमी साइकिल के कैरियर पर कफन में रस्सी से कस कर लपेटा हुआ एक शव ले जा रहा था. पहले वह आदमी ज़िंदा रहा होगा. शायद मेहनत-मजूरी करता होगा. प्राण पखेरू उड़े तो इतने बड़े शहर की, हजारों की भीड़ में बस एक वही साइकिल वाला संगी-साथी रह गया, घाट तक पहुंचाने के लिए. सड़क पर भीड़ चली जा रही थी. किसी का किसी से कोई मतलब नहीं. मरने के बाद साइकिल पर लदा आदमी…..बहुत दुखदायी दृश्य था. पता नहीं घाट पर जाकर उस संगी-साथी ने उसका दाह संस्कार कराया होगा या कौन जाने पैसों के अभाव में शव गंगा में प्रवाहित कर दिया हो. साइकिल के कैरियर पर खत्म हो गई थी उस आदमी की जीवन यात्रा. उस घटना ने मुझे झकझोर कर रख दिया और कई दिनों तक मन बहुत अशांत रहा. याद आने पर मन अब भी हिल जाता है.

उनके संघर्ष की लंबी दास्तान मैं विद्यार्थी जीवन में उनकी ‘मेरी तैंतीस कहानियां’ की तैंतीस पृष्ठ लंबी भूमिका में रोते-सिसकते पढ़ चुका था. लंबे संघर्ष में से तप कर निकले उस स्वाभाविभानी लेखक को देख कर बड़ी प्रेरणा मिलती थी. मुसीबतों से मुकाबला करके किस तरह हिम्मत के साथ आगे बढ़ा जा सकता है, यह उनकी जीवन-गाथा से सीखा जा सकता था. उनके स्वाभिमान के कई किस्से कहे जाते थे.

एक दिन मैंने उनसे कहा, “आपकी तो इतनी किताबें छपती हैं- उपन्यास, कहानी संग्रह. प्रकाशक तो पैसे देते होंगे?”

बोले, “देते हैं. किताब की पांडुलिपि लेकर जाता हूं. वे मोल-भाव करते हैं. जो पैसा मिलता है, लेकर आ जाता हूं. अच्छा पैसा मिल गया तो घर आते समय बच्चों के लिए कपड़े, जूते, किताबें, मिठाई और बढ़िया गोश्त ले आता हूं. गोश्त खुद पकाता हूं.”

“इतनी चीजें एक साथ, एक दिन में?”

वे बोले, “हां, हमारा मनोविज्ञान होता है. सच कहता हूं देबेन, बचपन के अभावों को आदमी जीवन भर नहीं भूलता. मन में वह भूख बैठी रहती है और कभी नहीं मिटती. कभी भी नहीं. समझ रहे हो?”

एक बार वे साहित्यिकार डा. लक्ष्मीनारायण लाल से मिलने गए. मुझे भी साथ ले गए. मुझे देख कर डा. लाल बोले, “कद-काठी और हाव-भाव से यह लड़का तो रंगमंच के लिए बना है. इसे शनिवार को मेरे पास भेजिए. मेरे नए नाटक की रीडिंग शुरू हो रही है. पात्र चुने जाएंगे.”

मटियानी जी तुरंत बोले, “यह तो बहुत अच्छा हो जाएगा. इसकी कोई प्रेमिका भी नहीं है. लड़कियों से शरमाता है.” फिर हंस कर मुझसे कहा, “वहां नाटक की रिहर्सल में लड़कियों से घुल-मिल जावोगे और तुम्हारा संकोच दूर हो जाएगा. यही ठीक रहेगा!”

वे कई बार यह भी कहते थे कि तुम कभी व्याख्यान जरूर देना देबेन. तुम्हारी कद-काठी और हाव-भाव व्याख्यान देने के लिए बहुत उपयुक्त हैं. तुम्हें संकोच छोड़ कर बोलने का अभ्यास करते रहना चाहिए. लेकिन, मैं हकीकत जानता था. व्याख्यान की बात सुन कर ही हाथ-पैर कांपने लगते थे. इसलिए हर जगह चुप्पा श्रोता ही बना रहता था.

मिलने पर वे सदा कहा करते थे, “निरंतर लिखा करो. देखो, पहले तक लोग कहते थे कि कठिन तपस्या करने से एक दिन सिद्धि मिल जाती है. ऋषि-मुनियों को इसी तरह सिद्धि मिलती थी. जानते हो, क्या थी वह सिद्धि? बिना डिगे लगातार की गई तपस्या का फल. लेखन भी ऐसी ही तपस्या है, सरस्वती की तपस्या. मन और लगन से लगातार लिखते-लिखते एक दिन सिद्धि मिल जाती है. सरस्वती प्रसन्न होकर कलम को छू लेती हैं, अपना वरदान दे देती हैं. फिर जो लिखा जाता है, उसे पढ़ कर कई बार स्वयं को ही आश्चर्य होने लगता है कि क्या यह मैंने लिखा है?…

उस दिल्ली में मैं अक्सर वरिष्ठ पत्रकार कैलाश साह के यहां भी जाया करता था. वे अपने परिचय में लिखा करते थे ‘हिंदी-अंग्रेजी के लगभग दर्जन भर अखबारों में नौकरी’, लेकिन उन दिनों पहले ‘समाचार भारती’ समाचार एजेंसी में और उसके बाद सोवियत संघ के सूचना विभाग में काम कर रहे थे. उन्हें मैं नैनीताल से ही जानता था जब वे ‘पर्वतीय अखबार’ में नौकरी कर रहे थे. दिल्ली में वे राजेंद्र नगर की एक दो कमरों की बरसाती में परिवार के साथ रहते थे. पहली बार उनसे मिलने गया तो उन्होंने कहा, बीच-बीच में मिलने के लिए आते रहना. मैं वहां जाता रहता था. वे कई बार खाना खिला कर ही जाने देते थे. मैं अपने साथी के.सी. के साथ भी वहां जाता था. कैलाश साह जी से मेरी विभिन्न विषयों पर बातें होती थी. वे बड़े भाई और मित्र की तरह मुझसे स्नेह करते थे.

मनोहरश्याम जोशी जी से उनका अच्छा परिचय था और वे अक्सर उनसे मिला करते थे. नई नौकरी से पहले के खाली दिनों की मुफ़लिसी में जोशी जी ने उनकी रचनाएं छाप कर, उनकी काफी मदद की थी. पत्रकार होने के कारण वे प्रायः किसी भी विषय पर लिख सकते थे. एक बार मैं उनके घर गया तो वे एक लंबी और गंभीर भूत कथा लिख रहे थे! उन्होंने बताया था कि जोशी जी ने कहा है, कि ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ का अगला अंक भूत-प्रेत विशेषांक होगा. लेकिन, उसके लिए तुम क्या लिखोगे? इसलिए यह भूत कथा लिख रहा हूं. बाद में विज्ञान में उनकी बहुत रूचि हो गई. जोशी जी से भी विज्ञान के विषयों पर चर्चा किया करते थे. उन्होंने बहुत अच्छी विज्ञान कथाएं लिखीं और डाक्टरों के इंटरव्यू लेकर चिकित्सा विज्ञान पर भी कुछ पुस्तकें लिखीं.

साथी कैलाश पंत और मैं रविवारों को कई बार पटेल नगर के विवेक सिनेमा हाल में सुबह के शो की अंग्रेजी फिल्म देखने चले जाते थे. पंत कहा करता था, “अंग्रेजी सुधारनी है भाआआई!” तब पुरानी, अच्छी फिल्में लगा करती थीं. हमने ‘ब्रिज ऑन द रिवर क्वाय’ और ‘बर्निंग ट्रेन’ जैसी फिल्में उन्हीं दिनों देखी थीं. कई फिल्मों का हीरों रॉक हडसन होता था.

एक दिन मैंने कनाट प्लेस में अकेले घूमते समय देखा, ओडियन सिनेमा हाल में ‘एगोनी एंड द एक्सटेसी’ फिल्म लगी है. फिल्म इर्विंग स्टोन के उपन्यास पर आधारित थी, जो फ्रांस के सिस्टाइन चर्च की भीतरी छत पर माइकेल एंजेलो के प्रख्यात चित्रों के सृजन की कहानी कहती है. दिन के शो के टिकट बिक रहे थे. मैंने भी टिकट खरीदा और हाल में जाकर बैठ गया. फिल्म शुरू हुई. माइकेल एंजेलो बने चार्टन हेस्टन और चर्च के पोप जूलियस-2 बने रैक्स हैरीसन का अभिनय देखने लायक था. फिल्म में प्रख्यात मूर्तिकार माइकेल एंजेलो के चित्रकार बनने की मानसिक प्रक्रिया को अद्भुत ढंग से दिखाया गया था. वह भाग कर एक पहाड़ी में पहुंचता है और थकान से चूर होकर लेट जाता है. उसे नींद आ जाती है. और, जब नींद से जागता है तो क्षितिज से ऊपर उमड़ रहे बादलों को देखता है. सहसा उसे उन उमड़ते बादलों में नाना रूपाकार दिखाई देने लगते हैं. उसके मन में सृष्टि की रचना के बिंब तैरने लगते हैं.

मैं मचान के ऊपर पीठ के बल लेटे, सिस्टाइन चर्च की छत को पेंट करते माइकल ऐंजेलो को देखता ही रह गया. उसकी आंखों में पेंट की बूंदें गिरती हैं, फिर भी वह जुनून के साथ पेंटिंग बनाता रहता है. रात के सन्नाटे में चर्च का विशाल द्वार धीरे से खुलता है और उसकी दरार से पोप जूलियस-2 की नीली आंख दिखाई देती है जो समर्पित भाव से पेंट कर रहे माइकेल ऐंजेलो को चुपचाप देखती है. बहुत अच्छी लगी थी मुझे वह फिल्म. मैंने इंटरवल में ही दूसरे दिन के लिए भी उसकी बुकिंग करा ली थी.

उन्हीं दिनों मेरा एक प्यारा दोस्त भी मेरे पास रुकने के लिए आ गया. सबसे अलग तरह का था मेरा वह दोस्त…

“अलग तरह का मतलब?”

“बताऊं?”

“ओं”

(जारी है)

पिछली कड़ी – कहो देबी, कथा कहो – 11

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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  • साथियो, 'कहो देबी, कथा कहो-12' में एक त्रुटि रह गई है। उसे सुधारना चाहता हूं। मैंने लिखा है 'जो फ्रांस के सिस्टाइन चर्च की भीतरी छत पर'। उसे 'रोम की वैटिकन सिटी में सिस्टीन चर्च की भीतरी छत पर।'
    इस त्रुटि की ओर मेरा ध्यान लेखिका और 'कथन' की संपादक संज्ञा उपाध्याय ने आकर्षित किया। बहुत आभार संज्ञा जी।

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