समाज

सदेई : भाई-बहिन के निश्छल प्रेम की अमर गाथा

गढ़वाल में चैत के महीने गायी जाने वाली चैती गाथाओं में सदेई का विशिष्ट स्थान है. सदेई की गाथा में दाम्पत्य-प्रेम या परकीया प्रेम का कोई प्रसंग नहीं है. ये गाथा पूरी तरह सहोदर भाई-बहिन के पवित्र प्रेम पर आधारित है. ऐसा प्रेम जो चरमावस्था में भाई के प्राणों के लिए पुत्रों का बलिदान भी स्वीकार कर लेता है या आत्मोत्सर्ग भी करवा देता है.
(Uttarakhand Traditional Song Chaiti Geet)

सदेई की गाथा में सबसे पहले सिलंग के वृक्ष का वर्णन आता है. अन्य चैती गाथाओं में भी सिलंग के वृक्ष का वर्णन अक्सर आता है. सिलंग एक सुगंधित पुष्पीय पादप है जिसे अंग्रेजी में स्वीट ओज़मैनथस कहा जाता है. नारंगी रंग के इसके फूलों से पकी हुई खुमानियों की तरह खुशबू आती है.

हां, बल चैडांडा पोर होली सिलंग डाळी
स्या त डाळी पाणीन पण्यांई दूदन चारी
तैं डाळी सदेईन चैंरी चिणाई
स्या डाळी एक पत्ती होये, दुपत्ती ह्वै गए.
तैं डाळी तब आई गैन चैदिसू साईं
स्या डाळी होइगे कनी सुधर तरुणी.

लोकगीतों और लोकगाथाओं में सिलंग के समकक्ष आदर पैय्यां (पद्म) वृक्ष को ही प्राप्त हो सका है जिन्हें दूध से सींचने की बात कही जाती है और जिनके चारों ओर पथिकों के विश्राम के लिए गोल चबूतरा भी बनाया जाता है.

तैं मैत्या डाळी मू एक बैठीं होली सदेई
तैं नौनी को होलो बाबा बुढीलो, भाई बाळो.
दीनी छई कभी स्या चैडांडों पोर
करी नी छ कैन खबर न सार.
खुदेंदी छ बिबलांदी निरमैतीण सदेई.
द्यूराणी जिठाणी मैत जांदी
सदेई की जिकु़ड़ी कुरेड़ी सीं झुरांदी.

इसी सिलंग वृक्ष के नीचे बैठी हुई है सदेई. जिसका पिता वृद्ध है और भाई किशोर. सदेई मायके से बहुत दूर दुर्गम इलाके में ब्याही गयी थी. जहाँ ब्याहने के बाद उसकी कभी खबरसार ली ही नहीं गयी. कुछ दूरी की वजह से और कुछ पारिवारिक परिस्थिति के कारण. खुद से अत्यंत व्यथित रहती थी सदेई जिसे मायके वालों ने निर्मैत्या (जिसके मायके में कोई सगा न हो) बना दिया है. खासकर जब देवरानी-जेठानी मायके जाती तो उसकी खुद-नराई और भी बढ़ जाती थी. और उसके दिल में कोहरा-सा छा जाता था.

हां, बौड़ी ऐन बार मैनों की बार रितु
फूलण लैगेन डांडा की डंड्यूली
डाल्यों कफू चड़ो बासण लैगे
कफू चड़ो बासदो रितु जणौन्द.
ना बास कफू, मैं लगदी खुद मैत की.
हे उच्ची डांड्यों तुम निसी होवा
घणी बणायों तुम छांटी होवा
मैतुड़ा को मैं देस देखण देवा.
निरमैतीण सदेई रोन्दी दणमण
मेरा होन्द कुई मैती, मैं मैत बुलौन्दा
औंदौंऊं की मुखड़ी न्याल्दू जांदौऊं की फिलोड़ी.

बारह महीनों की बारह ऋतुओं के बाद बसंत लौट आया है. पहाड़ियों के आँचल में फूल खिलने लगे हैं. पेड़ों में कफू बोलने लगा है. ये कफू ही है जिसके बोलने से बसंत ऋतु का आगमन पता चलता है. पर कफू तुम चुप ही रहा करो. तुम्हारे बोलने से मुझे मायके की खुद-नराई लगती है. हे ऊँची पहाड़ियो तुम थोड़ा नीची क्यों नहीं हो जाती हो. घने जंगलों तुम थोड़ा खाली क्यों नहीं हो जाते हो. मुझे अपने मायके का देश (इलाका) देखने दो. निर्मैती सदेई आँखों से जलधारा बहाती हुई कहती है कि आते हुए लोगों के मैं मुँह निहारती हूँ और जाते हुओं की पिंडलियाँ, इस आस में कि शायद इनमें मेरे भी मायके से कोई हो. (Uttarakhand Traditional Song Chaiti Geet)

सदेई याद करती है कि उसका भी एक छोटा भाई सदेऊ है जो अब इतना बड़ा तो हो ही गया होगा कि कभी मेरी सुध लेने आए. उसी दिन सदेऊ स्वप्न में अपनी रोती-कलपती बहिन को देखता है. तब चौंककर उठता है सदेऊ और खुद से ही कहता है, आता हूँ दीदी सदेई मैं तेरे पास. गहने, कपड़े और कलेऊ (मिष्ठान्न) लेकर. तब सदेऊ अपनी माँ से सदेई के ससुराल का पता पूछता है और बताता है कि मैंने सपने में उसे सिलंग के पेड़ के नीचे बैठ कर रोते हुए देखा है.

न ले बेटा तू सुपिना को बामो
तेरी बैण रंदी वा चैगंगा पार
बरसू बटी नी पाई वी की खबर सार.
वा बिवाई दीनी छै नौ बरस की
तब लाडा तू पैदा नी ह्वै छौ.
तू होलो बेटा बाळो अलबूद.

माँ समझाती है, बेटा तू सपने का बहम मत पाल. तेरी बहिन के गाँव जाने के लिए चार-चार नदियों को पार करना पड़ता है. वर्षों से तो उसकी कोई खबरसार भी नहीं है. कुल नौ साल की तो थी जब हमने ब्याह दी थी. तब मेरे लाडले तू तो पैदा भी नहीं हुआ था. और अभी भी तो तू अबोध-मासूम ही है.

सदेऊ जिद पर अड़ जाता है कि माँ तू बस दीदी के गाँव का नाम बता दे. नहीं बतायेगी तो मैं अपनी जान दे दूंगा. माँ बहुत डराती है सदेऊ को कि दूर कई पहाड़ियों के पार है तेरी दीदी का गाँव. रास्ते में बहुत सारे खूंखार लुटेरे लोग भी रहते हैं, जंगली जानवरों का डर होता है. सदेऊ एक नहीं मानता और कहता है कि अब तो जीना हो या मरना, मैं तो दीदी के गाँव जाकर ही रहूंगा.

गाड मेरी मांजी मेरी नौरंग कापड़ी
बणौ मेरी मांजी मैं बाट को कलेऊ
कख होली मांजी मेरी घुंघर्याळि लाठी
पैरोऊ मांजी मैं मोंडुवा पागड़ी.
लौ मेरी मांजी बैणीक समोण
मैंन मरणू बचणू मांजी बैणी बैदोण जाण.

मेरी माँ मेरे नौरंगी कपड़े निकाल. रास्ते के लिए कलेवा (पाथेय) बना. मेरी वो घुंघरुओं वाली लाठी कहाँ होगी. मुझे मांडुवा पगड़ी पहना माँ और बहिन के लिए सौगात-उपहार भी रख दे. अब तो जीना-मरना कुछ भी हो, मैं तो बहिन को लिवाने जाऊंगा.

माँ समझाती है, मेरे बच्चे रास्ते में दुश्मनों का इलाका है साक्षात मृत्यु की सेज. तू तो मेरा तपस्या से प्राप्त पुत्र है, तुझे बिल्कुल नहीं जाने दूंगी. तू अबोध है, कौन तुझे रास्ता बतायेगा, कौन नदी पार करवायेगा. सदेऊ एक नहीं मानता है. कहता है कि संगी-साथी मेरा मजाक बनाते हैं. सबकी बहिन मायके आती है. मेरी दिशा सूनी हो रखी है. तू तो बस मुझे यात्रा के वस्त्र पहना, मेरे हथियार मुझे थमा. मेरी आँखें मुझे रास्ता दिखायेंगी, मेरी भुजा नदी पार करवायेंगी.

और इस तरह अपनी धुन का पक्का सदेऊ बहिन से मिलने निकल पड़ता है. कई पहाड़ों से चढ़ते-उतरते और कई नदियों को पार करते हुए वो उसी सिलंग-वृक्ष तक पहुँच जाता है जो उसने स्वप्न में देखा था.

चैंरी मा कनु देखेन्द कुई सुकिलो
धारुड़ी न्यालदी सदेई कु होलो बैख!
वीं की सौत तब कना बैन बोदी
हे सदेई, सिलंग डाली का छैल पार
देख कु नौनो होलो सुकिलो!
स्यो त होलो जनो तेरो-सी भाई
होलो वो पौणू तेरो ही अन्वारी

उधर अपने घर से सदेई देख रही है कि सिलंग-वृक्ष के चबूतरे में कोई शुभ्र वस्त्र वाला दिख रहा है. पहचानने की कोशिश कर रही है कि कौन होगा वो सुंदर दिखने वाला लड़का. तब उसकी सौतन सदेई को जलाने के लिए कैसे बोल बोलती है. हे सदेई! वो देख सिलंग-वृक्ष की छाँव में कौन है वो सफेद कपड़ों वाला. मुझे तो लग रहा है कि कहीं तेरा भाई न हो. देखो उस पाहुन की अनुहार भी तुझसे मिल रही है.

बहिन के घर पहुँच कर दोनों भाई-बहिन प्रेम से गले मिले. सदेई ने खूब आदर-सत्कार किया. सौतन को ये सब रास न आया और दिखावा करते हुए कहती है कि सदेई जैसा तेरा वैसा मेरा भाई. तू जंगल जाके घास ले आ. मैं घर पर भाई को पूरी-पकवान बना कर खिलाती हूँ. निश्छल हृदय सदेई ऐसा ही करती है और उधर निर्दयी सौतन खीर में जहर देकर सदेऊ को मार देती है.

हे मेरा राम यो क्या ह्वैलो काल!
सदेऊ को शरील नीलो पड़ीगे
गिच्चा पर लैगे कनो ललधारो
तब सौतन् इनो मंत्र गंठ्याए
इनी करे बूद, सदेऊ दीने डाळि ओबरी
सदेई जब घासीलो लीक घर बौड़ी
पूछण बैठी – कख होलो मेरो त भाई!

हे राम! ये कैसा काल आया. सदेऊ का शरीर जहर से नीला पड़ गया. मुँह से लार टपक रही थी. सौतन ने अपना षड़यंत्र छुपाने के लिए सदेऊ के शरीर को अंदर अंधेरे कमरे में डाल दिया.

घर लौटकर सदेई जब अपने भाई के बारे में पूछती है तो सौतन इधर-उधर की बातें करने लगती है कि गाँव के लड़कों के साथ खेलने गया होगा या कहीं नाच-गा रहा होगा. सदेई खुद भी उसे ढूंढने निकल जाती है. गाँव में कहीं न मिलने पर घर के ही सभी कमरों-कोनों में ढूंढने लगती है. तब अंदर उसी अँधेरे कमरे में देखती है सदेई, उसका भाई वहाँ निर्जीव होकर किसी पेड़ के तने की तरह गिरा हुआ है. रोती-बिलखती हुई सदेई सौतन का कारनामा समझ जाती है पर अब किया भी क्या जा सकता था. विलाप करते हुए सदेई बोलती है, हे मेरे भाई! तू मरने के लिए ही मेरे घर आया. आज ही तो मैंने पहली बार तेरा मुँह देखा था पर बैरियों ने वो भी जी भरके देखने नहीं दिया.

तब वा कारणा करदी  कनी वा
हे मादेव, हे झालीमाली मैत्या देवी
नी रया तुम कखी मेरी दां त!
बड़ी खैरी कैक पाई छयो भाई एक
वो भी नी रखे प्रभो देवन
हे देवी जु तू मेरा भुला बचै देली
त देवी मैं तेरो नौरातू को जग्य करलो
तेरी पूजा करलो त्वै बलि दीक तुषौलो

इंसानों से भरोसा उठ गया तो सदेई महादेव शिव और मायके की देवी झालीमाली से करुण प्रार्थना करती है कि मेरे साथ तो तुम भी नहीं रहे. कितने कष्ट झेलकर तो एक भाई पाया था और वो भी तुम देवताओं ने रहने नहीं दिया. हे देवी! जे तू मेरे भाई को जीवित कर देगी तो मैं तेरा नवरात्र-यज्ञ करवाऊंगी. तेरी पूजा करूंगी और बलि देकर तुझे संतुष्ट करूंगी.

तब कनी होई लीला देवी की अजगती
बौड़ी ऐन उड़दा पराण, सदेऊ ज्यूंदो ह्वैगे
चचड़ैक उठे वो बैणीका गळा लैगे
हे मेरी दीदी, मैं आज कनी निंद आए.

और तब देवी की कैसी लीला होती है कि सदेऊ का प्राण वापस आ जाता है, वो फिर से जीवित हो जाता है. चौंककर उठता है सदेऊ और सदेई के गले लग जाता है. दीदी से पूछता है कि मुझे कैसी निद्रा आ गयी थी. (Uttarakhand Traditional Song Chaiti Geet)

इस चमत्कार से खुश होकर सदेई देवी का यज्ञ करवाती है. बलिपशु के रूप में बकरों को जैसे ही चढ़ाया जाता है वैसे ही आकाशवाणी होती है – हे बेटी सदेई, पशुओं की नहीं, मुझे नरबलि चाहिए. तू खुद ही फैसला कर कि भाई की बलि देगी या अपने पुत्रों की.

हे देवी झालीमाली यो क्या मांगे त्वैन
भाई होलो मेरा मैत्या कुल की जोत
भाई बलि द्यूलो त दिशा सूनी होली मेरी
नौना होला मेरा जना जिकुड़ी का टुकड़ा
तौं बलि द्यूलो त कोख सूनी होली मेरी.
हे देवी! कर किरपा आज मैं पर
सबूका बदला मेरी बलि ली ले.

सदेई ये सुनकर अवाक रह जाती है और देवी की पुकार करती है कि ये क्या मांग लिया तूने देवी. भाई मायके का कुलदीपक है उसकी बलि दूंगी तो दिशा सूनी हो जाएगी और पुत्रों की बलि कैसे दे पाऊंगी वो तो मेरे दिल के टुकड़े हैं. हे देवी! मुझ पर कृपा कर इनको छोड़ते हुए मेरी ही बलि स्वीकार कर.

देवी कहती है कि तू अपना वचन नहीं निभाना चाहती है तो झूठी हो जा. सदेई कहती है कि देवी तू झूठी नहीं हुई तो तेरी ये दासी क्यों झूठी होगी. बिना देर किए सदेई ने फैसला कर लिया और अंदर जाकर दोनों पुत्रों को फुसला कर बाहर लाती है. दिल पर पत्थर रखकर भाई को जीवित रखने के लिए, यज्ञवेदी में दोनों पुत्रों का बलिदान कर देती है.

भितर जैक देखदी क्या छ सदेई
दुई नौना वींका हैंसणा छन खेलणा
तब माथो नवौंदी देवी कू सदेई
माता झालीमाली तू दैणी होली मैकू तैं.
धन्य छै तू सुफल फलाई जातरा.

बलिदान का दृश्य अपनी आँखों से न देखने से बचने के लिए सदेई अंदर जाती है और क्या देखती है कि उसके दोनों पुत्र हँसते हुए खेल रहे हैं. तब सदेई यज्ञस्थल पर आकर देवी झालीमाली का शीश नवा कर आभार प्रकट करती है. हे देवी तेरी कृपा हुई जो ये यज्ञ का सुफल मिला. मेरा भाई और मेरे पुत्र तेरी कृपा से सकुशल हैं.

धन्य होली वा बैण सदेई
धन्य होलू वो भाई सदेऊ
धन्य होली बैणी की वा पिरीत
जु हमुन गीत मा गाई.
सदेई का घर जन होई मंगल
होयान तुमकू दिशा धियाण्यों.

गाथा-गायक अंत में कहता है कि वो बहिन सदेई धन्य है. धन्य है उसका भाई सदेऊ. बहिन की वो प्रीत भी धन्य है जो हमने गीत के रूप में गाकर सुनायी. जैसे सदेई के घर में सब कुछ मंगल हुआ वैसा ही मंगल, हे दिशा-धियाणियों(बहिन-बेटी) तुम्हारे घर में भी होए.

गोविन्द चातक जी खंत्या, फूलदास से सुनी-संकलित इस सदेई गाथा के बारे में लिखते हैं कि ये सर्वाधिक लोकप्रिय गाथा है. इसके भाव-सौन्दर्य से प्रभावित होकर तारादत्त गैरोला जी ने 1921 में इस गाथा को खण्डकाव्य के रूप में प्रकाशित किया था. इसकी विशेषता यह है कि गैरोला जी ने लोकगाथा के भावपूर्ण अंशों को किंचित परिष्कार के साथ ज्यों का त्यों देने का प्रयास किया है. इसलिए उनके सदेई काव्य में लोकगाथा और परिमार्जित कविता दोनों के गुण निहित हैं. (Uttarakhand Traditional Song Chaiti Geet)

सदेई की गाथा का संक्षिप्त रूप चैती गीत में भी मिलते हैं. जिसमें कथानक कुछ परिवर्तित भी है. ऐसी ही एक चैती गीत में सदेई-सदेऊ को बचपन में ही अनाथ हो गए बच्चे बताया गया है. निकट सम्बंधी सदेऊ को किसी दूर देश भेज देते हैं और सदेई का भी कहीं दूर के गाँव में बालविवाह कर देते हैं. दोनों भाई-बहिनों को एक-दूसरे का कुछ भी पता नहीं होता है. ऐसे में एक दिन भौंरे सदेऊ को उसकी बहिन का संदेश और पता बताते हैं. सदेऊ बहिन के घर पहुँच जाता है जो सदेई की सौतन (या देवरानी-जेठानी) को सहन नहीं होता और वो सदेऊ को खीर में जहर देकर मार देती है. सदेई, भाई मिलन की इस क्षणिक खुशी के भी छिन जाने से इतनी व्यथित हो जाती है कि खुद भी ताल में डूबकर मर जाती है. इस गाथा में बताया गया है कि सदेऊ कफू पक्षी बन जाता है और सदेई म्येलुड़ी चिड़िया. हर साल बसंत में पहाड़ों में आते हैं और सबके दिलों में अपनी कूक से उदासी भरी कसक जगा जाते हैं. कुमाऊं अंचल में प्रचलित गोरीधना की गाथा का कथानक भी सदेई के जैसा ही है.

विश्व-साहित्य लोकगाथाओं से भरा हुआ है पर भाई-बहिन के निश्छल प्रेम की सदेई जैसी गाथा अन्यत्र दुर्लभ है. पहाड़ की शायद ही कोई बेटी हो जो सदेई की करुण गाथा को सुनकर भावुक न हो जाती हो. पर भावुक बनाना ही चैती गाथाओं का हेतु नहीं है वो तो बेटियों-बहनों को संवेदनशील और अधिक मानवीय बनाने के लिए गायी-सुनायी जाती रही हैं. जब तक पहाड़ों में चैत्र-बसंत लौटता रहेगा, सदेई-सदेऊ की कहानी भी गायी-सुनायी जाती रहेगी. कभी मनुष्यों, कफू-म्येलु़ड़ी के मुखर स्वर में और कभी बसंत के वनपुष्पों द्वारा मौन स्वर में. (Uttarakhand Traditional Song Chaiti Geet)

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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.

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