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एक कटी फटी परियोजना बन कर रह गया सेक्रेड गेम्स सीजन 2

कहानी से भागता, बिखरता और टूटता सेक्रेड गेम्स सीजन 2 : बेशक सेक्रेड गेम्स भाग दो, गायतोंडे, सरताज, परोलकर, माजिद, राव, बत्या, गुरुजी जैसे किरदारों की तरह ही अपनी गहन छटपटाहटों, हिंसाओं, अपराधों और अपने रास्तों की तलाश के लिए भटकती हुई एक निरर्थक सी ज़िद से भरा हुआ है. दुनिया बचाने लायक है या नहीं से ज़्यादा ये सवाल अपने अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई का है. लेकिन जितना किरदार टकरा रहे हैं उतना ही इसके निर्माता, उत्पादक, निर्देशक, पटकथा लेखक, उपभोक्ता आदि भी टकरा रहे हैं. लगता है कि वे बंबई के साथ साथ बॉलीवुड को भी बचाना चाहते हैं या कह सकते हैं कि नेटफ़्लिक्स में बॉलीवुड के अंदाज़ में बचाव अभियान दिखाना चाहते हैं. सेक्रेड गेम्स में सेक्स, हिंसा, अभिचार, अध्यात्म के मसालों के बीच एक ऐसे व यथार्थ की रचना की गई है जो एक हाइपर-रोमांच की ओर ले जाता है. विचलित किरदार हैं लेकिन विचलित कर देने वाले सवाल नहीं हैं. यहां तक कि मुसलमानों को पकड़ने के लिए भला कोई वजह चाहिए वाला संवाद भी जैसे औपचारिकता निभाता हुआ गुम हो जाता है. (Sacred Games Season Two Review)

हार स्वीकार कर चुकी बंबई और उसकी पुलिस से अलग सरताज सिंह  हांफता हुआ अपने शहर को बचाने की भागमभाग में तरबतर  है.  लेकिन जैसे सब मिलकर इस तरह भाग रहे हैं जैसे शहर को नहीं सीरिज़ को बचा रहे हों, जैसे कहानी को बचा रहे हों- जबकि वो तो किसी कटी पतंग की तरह आसमान में और इमारतों और बस्तियों के घटाटोप में गुम होने की ओर रवाना है, गिरती हुई सी- किसी के हाथ न आती हुई. जैसे गायतोंडे के बाप के यहां से हासिल गुरु जी का ग्रंथ और उनकी कारगुजारियों का आध्यात्मिक रहस्यवाद में लिपटा वर्णन- चिंदी चिंदी हो रहा हो- गाड़ियों के परखच्चे उड़ रहे हों और खोपड़ियां खुल रही हों- सेक्रेड गेम्स 2 इस तरह अनियंत्रित होकर दर्शकों के सामने पेश हुआ. (Sacred Games Season Two Review)

बेशक आतंकवाद के नाम पर सांप्रदायिक तनाव बनाने और सद्भाव को ध्वस्त करने वाली ताकतों के असली खेल को दिल खोलकर दिखाया गया है. एक दुष्चक्र है- अध्यात्म और आतंक का- मुक्ति और नये विश्व की परियोजना का- और बदला लेने के लिए भीषण उतावले आतंकवादी और  इस दुनिया को नेस्तनाबूद कर नई दुनिया का रचयिता और रखवाला बनने को उतावले प्रकांड गुरुजी का. एक गोली सिर्फ़ एक बंदूक से नहीं निकलती- वो सेक्स, अध्यात्म, बाज़ार, फ़ैक्ट्री, राजनीति और धर्म के कई कई चक्कर काटकर तब बंदूक की नली में दाखिल होती है. उसका एक अंतरराष्ट्रीय कुनबा है एक भूमंडलीय ग्राम उसका भी है. इस दुष्चक्र की गहरी छानबीन से पहले ही इसे न जाने क्यों बॉलीवुडीय प्रताप में तोड़ दिया जाता है.

मानो गुरूजी की भयानकता ही काफ़ी न हो इस दुनिया और देश को बरबाद करने को- तो एक संतुलन जैसा साधते हुए पाकिस्तान, आईएसआई और नफ़रत से भरा आतंकवादी हमलावर का एक डिज़ाइन समातंर तौर पर बनाया गया है. गरज ये कि अगर हिंदु गुरु की गंदगी दिखानी है तो मुसलमान का दोजख़ भी दिखाना है. लेकिन गुरु के यहां ये गंदगी आध्यात्मिक ऐश्वर्य के भीतर जमा है, जबकि बदला लेने पर उतारू ख़ान खंडहरों, जर्जर इमारतों, धूल भरे किनारों पर कहीं छिपा हुआ, हर खड़क पर उचकता हुआ, घबराया हुआ है. गुरु शांतचित्त है, आतंकी अशांत और असहज. गुरु परिवारविहीन होकर भी भक्तों, शिष्यों और श्रद्धालुओं के एक बड़े और मोहक परिवार से घिरा है, वहीं आतंकी अपनी बेटी और परिवार के लिए तड़पता हुआ, फ़ोन करता हुआ, अपने हिंदुस्तानी अतीत को याद करता हुआ अवसाद को गटकता है. गुरु अपने ऐंद्रिक परिहास में है तो वो एक तीव्र संत्रास में.  “संतुलन” सिनेमा से लेकर साहित्य और राजनीति तक खिंचा चला आया है. हॉलीवुड की प्रेरणाओं, अमेरिकी खुफ़िया तंत्र, द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर बाइनरी, वियतनाम, खाड़ी आदि में इसके बीज देखे जा सकते हैं. ये भय और उसका बाज़ार है. हो सकता है इसे तटस्थता कहा जाए. पहले भाग में गायतोंडे भीषण उत्पात मचाता हुआ गुज़रा, दूसरे भाग में गुरुजी वाकई उसका बाप निकला, हिंसा हत्या और सनक में.  पहले भाग में मुसलमान ताबड़तोड़ मारे गए, दूसरे भाग में भी वे जहां तहां थे, बिखरे हुए इधर उधर मारे गए. जब पुलिस की गोलियों और गैंगवार में नहीं मरे तो उन्हें गुरु के अध्यात्म ने मारा. वे ख़ुदकुश हुए. (Sacred Games Season Two Review)

सेक्रेड गेम्स को वास्तविकता दिखानी थी. उसने दिखाई. छल-प्रपंच और घात-प्रतिघात की राजनीति कैसे और कितने बहुआयामी स्तरों पर काम करती है, उसने दिखाया. उसने बताया कि देखिए ये हाल है. कौन शिकारी है कौन शिकार. कौन शोषक और कौन शोषित. कौन निर्माता है और कौन उपभोक्ता. मादकता, हिंसा और सनसनी के बीच वेब उत्तेजनाएं कुछ और डरावनी छायाओं की ओर इशारा कर रही थीं. आंतरिक विंडबना में से अजीबोगरीब चीज़ें, व्यक्ति और वाकये एक दूसरे से रगड़ खाते हुए, चिंगारियां फेंकते हुए निकले और निर्वात में थोड़ा भटककर फुस्स हुए. इतना पलायनवादी अप्रोच क्यों रहा इस सीरिज़ का- ये जानना कठिन नहीं है. स्त्रियां जमीन पर गिरी हुई हैं या घिसट रही हैं खून में लिथड़ती हुई या स्मृतियों के यातनाकारी जाल में उलझी हुई. पुरुष निरीह हैं या क्रूर हत्यारे या दोगले. आमिर बशीर का किरदार अपने दबंग बॉस की नाइंसाफ़ियों और भ्रष्टाचारों के आगे खुद को नतमस्तक कर चुका है और चूंकि वो मुसलमान है तो उसका कहना है कि इस पहचान से होने वाले खतरों से बचे रहने का एक उपाय ये भी है कि बॉस के पीछे छिपा रहे. सामने की इमारत पर ऐटमी धमाके का रिमोट हाथ में लिए कुर्सी मेज लगाए बैठे आतंकी की गोली का पहला निशाना भी वही बनता है. इस तरह सेक्रेड गेम्स अपनी ही कहानी के संवेदनशील कठिन बिंदुओं को ठिकाने लगाता रहा है. ठीक हैं आशाएं छलती हैं और आशावाद ढकोसला है लेकिन सेक्रेड गेम्स की नाउम्मीदियां और निराशाएं भी असामान्य और कृत्रिम हैं. वो मनुष्य संघर्ष की निराशा नहीं है. उसमें प्रकाश का अभाव है. (Sacred Games Season Two Review)

एक वेब सीरिज़ के लिए सिर्फ अभिनय या संवाद अदायगी या सिलसिलों के रहस्य और ज़माने की बेरहमियों और क़ातिल क्रूर यथार्थ का उछाड़पछाड़ वर्णन ही काफ़ी नहीं हैं. क्या इतना सारा बोझ लेकर कलाकार थक चुके हैं और सिवाय दोहराव के उनके पास कोई और अभिनय औजार नहीं बचा रहा है. पंकज त्रिपाठी गुरु के लिजलिजेपन और काइंयापन को बखूबी उभारते हैं लेकिन वे जैसे डोर से बंधे हुए चल रहे हैं. उनका आखिरकार करना क्या है- ये किसी को नहीं पता लिहाज़ा अविश्वसनीय तरीक़े से उनकी सांस जाती है जब एक तकिया लेकर उनका मुंह दबाते हुए नशेड़ी और कमज़ोर और अपने से ही टकराता हुआ घायल गायतोंडे उन पर चढ़ जाता है. गायतोंडे भी ऐसे ही मरता है, सब इतने भयानक विध्वंसकारी खलनायक हैं लेकिन बहुत आसानी से मारे जाते हैं अपनी ही चुनी हुई जगहों पर. ये एक सूत्र है जो ध्यान खींचता है. 

सेक्रेड गेम्स भाग एक की कई उदासियां और विलाप और इंतज़ार और अंधेरे- भाग दो में या तो भुला दिए गए या उनकी जगह किन्हीं और हलचलों ने ले ली. हिंसा, अध्यात्म, नशा, हथियार, भारत-पाकिस्तान, आतंकवाद, सिरफिरे इरादे- इस भाग दो से सेक्रेड गेम्स के किरदार जितने भौंचक्के हैं, दर्शक भी हैं. सेक्रेड गेम्स के पहले भाग की कमर्शियल सफलता से उत्साह की जगह हड़बड़ी मिली. हैरानी नहीं कि इस सीज़न के संवादों और दृश्यों को लेकर सोशल मीडिया पर मीम बनाने वालों ने ख़ूब मज़ा उठाया.

क्या सेक्रेड गेम्स 2 की कुछ हिस्सों में उज्जवल और सामर्थ्य भरी लेकिन अधिकांशतः निराश करती थुलथुल सी प्रस्तुति में समकालीन समय की विडंबना और निराशाओं का कोई संकेत लें. क्या सेक्रड गेम्स 2 की थकान दरअसल हमारे समकालीन जीवन की थकान है – आज का नैराश्य- अपने समाज संस्कृति और राजनीति की झपटती हुई लालसाओं और लिंचिंग से घिरा हुआ. अपने लिए कुछ जगह कुछ राहत कुछ पानी मांगता हुआ.  हत्याओं की व्यर्थता, साज़िशों का एक के बाद एक भंडाफोड़ और अध्यात्म के जाली घेराव में फंस जाने की बात नहीं थी उस दुर्दांत मरसीनरी का खुद को अपनी पिस्तौल से यकायक उड़ा देना- वो कहानी में आगे कुछ न कर पाने और कुछ न दे पाने के कारण मारा गया. संयोगवश सेक्रेड गेम्स के पहले भाग में राधिका आप्टे के किरदार को इसी हत्यारे ने ऐन माथे पर बीचोंबीच गोली मारी थी- न जाने उस जासूस जैसा निर्भय और स्वतंत्र सोचने वालों को कोई संदेश देती हुई. भाग दो में रॉ की लेडी जासूस को भी कहानी से इसी तरह निकाल बाहर किया गया. ऐन अपने ऐक्शन के समय. तो ये पटकथा का थ्रिल नहीं है- जैसा कि बताया जाता है- ये सीधे सीधे कहानी को इधर उधर गिराते रहने की मजबूरी है. जैसे बारिश में कोई लता जमीन पर रेंगती हुई हजारों मुंह बनाती हुई बढ़ी जा रही है और नेटफ्लिक्स का बाजार अपनी ही उगायी बेल से उकता सा गया है. काटो. यहां से काटो और वहां से भी.

सेक्रेड गेम्स 2, एक कटीफटी परियोजना क्यों बनी- ये सवाल भी बना हुआ है. शायद सेक्रेड गेम्स तीन आएगा. हो सकता है उसमें बम को निष्क्रिय करने वाले कोड को खोलने के लिए बिंदुओं को मिलाने वाली लाइन का पैटर्न दिखेगा और शहर का बचना भी और पिता की पोल भी बेटे सरताज के सामने खुलेगी.  पोल भी क्या कहें. लेकिन एक बात स्पष्ट है- नशीले वेब आनंद के लिए एक बहाने के तौर पर ये श्रृंखला देखने के लिए उपयुक्त है- इसका यही काम है. ड्रग की खुराक गुरुजी के पास है. गुरुजी के भी गुरुजी हैं. नेटफ्लिक्स महागुरु है. अपनी सारी समस्या मुझे दे दो. कहते तो गुरुजी थे लेकिन उनके कंठ में ये स्वर किसी और का है.

शिवप्रसाद जोशी

इसे अवश्य पढ़ें: हत्यारे ही सूत्रधार हैं ‘सेक्रेड गेम्स’ में

शिवप्रसाद जोशी
‘शिवप्रसाद जोशी ‘वरिष्ठ पत्रकार हैं और जाने-माने अन्तराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों जैसे बी.बी.सी और जर्मन रेडियो में लम्बे समय तक कार्य कर चुके हैं. वर्तमान में शिवप्रसाद देहरादून और जयपुर में रहते हैं.

संपर्क: joshishiv9@gmail.com 

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