उत्तराखंड में अब कुमाऊनी शैली के घर बनने लगभग बन्द हो गये हैं. दो दशक पहले तक गांवों में इस शैली के भवन बनते थे लेकिन अब गांव में भी सीमेंट सरिया वाले मकानों का बोलबाला है. कुमाऊनी शैली में बने इन भवनों को आज भी पाथर वाले मकान कहा जाता है.
कुमाऊनी शैली में बने भवन दोमंजिले या तीनमंजिले होते थे. इन भवनों के निर्माण के लिये पत्थर या ढुंग और लकड़ी दो महत्वपूर्ण सामग्री थी. कटौ, कामरस और सागर प्रमुख पत्थर थे जिनका प्रयोग भवन निर्माण में होता था. तुन, देवदार, चीड़, बितैण आदि इमारती लकड़ियां थी.
कुमाऊनी शैली में बने भवनों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता उनकी छत थी. छत के लिये यहां ‘पाख्’ शब्द का प्रयोग होता था.
‘पाख्’ बनाने के लिये भवन की बाहरी दीवारों को बीच से उठाया जाता था. दीवारों के बीच का हिस्सा सबसे ऊंचा होता थे. इसके ऊपर दो बराबर उंचाई की लकड़ियां समान्तर रखी जाती थी. सामान्यतः यह चीड़ के पेड़ का पूरा तना होता था. इस लकड़ी के लिये बांसा शब्द का प्रयोग किया जाता था. बांसा छत में लगी सबसे मोटी परिधि वाली लकड़ी होती थी. इसी क्रम में एक निश्चित दूरी पर अन्य बांसे दीवारों के ऊपर रखे जाते थे.
इसके बाद इनके ऊपर लम्बवत कम परिधि वाली गोलाकार लकड़ियों को रखा जाता था. इन लकड़ियों को दुनदार कहते थे. बांसों और दुनादारों को कीलों से जोड़ा जाता था इन कीलों को गुलमेख कहा जाता था.
इसतरह ‘पाख्’ की शुरुआती संरचना शतरंज के बोर्ड के चौखाने जैसी दिखती. दो दुनदारों को ढंकने के लिये लकड़ी के फट्टों का प्रयोग किया जाता था जिसे दादर कहा जाता था. दुनदारों के ऊपर दादर इस तरह बिछाया जाता कि ‘पाख्’ के नीचे से देखने पर कोई छेद न दिखे.
इसके ऊपर गारा बिछाया जाता था. गारा साधारण मिट्टी में पानी मिलाकर बनाया जाता था. सामान्यतः यह मिट्टी दोमट मिट्टी होती थी.
अब बारी आती है पाथर या पटाल बिछाने की. पहली पंक्ति में लगे पटालों को बाहरी दीवार से एक फीट बाहर की ओर रखा जाता था. पटाल के बीच में छेद कर या तो इसे दुनादारों से में गुलमेख से जड़ से दिया जाता था या पटालों के छेद में मोटी लोहे की पत्तियों को जोड़कर इसे बांसों और दुनादारों के बीच फंसा दिया जाता था.
इसके बाद अगली पंक्ति के पटाल बिछाये जाते थे. दूसरी पंक्ति के पटाल इस तरह बिछाये जाते थे कि वे पहली पंक्ति के पटालों को दबाते हुए ढाल की सीधाई में मजबूती से जम जाते. भवन के बीच के बांसे के दोनों और तक पटाल बिछाये जाते लेकिन दोनों ओर कि पटालों को आपस में मिलाया नहीं जाता.
दोनों ओर के पटालों के बीच छः इंच की जगह छोड़कर पटालों के सिरों का दबाते हुए एक छः इंच लम्बी दीवार बनायी जाती. इस दीवार को भवन की धुरी कहा जाता. धुरी वाली दीवार को भी पटाल और तुरों से ढंका जाता ताकि पानी बर्फ आदि से वह सुरक्षित रह सके.
इस तरह बनती थी कुमाऊनी शैली के भवनों की पाथर वाली छत.
मदन मोहन जोशी की पुस्तक ‘मध्य हिमालय की शिल्पकला’ के आधार पर.
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