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ह्यूमर और भाषा का अद्भुत संयोजन है ऋषिकेश मुखर्जी की ‘चुपके चुपके’

ऋषि दा को मिडिल क्लास सिनेमा का बड़ा क्राफ्टमैन यूँ ही नहीं कहा जाता. लीक से हटकर विषय उठाने में तो उन्हें महारत सी हासिल थी. भव्यता और टीमटाम के बिना उन्होंने इंडस्ट्री को सफलतम श्रेणी की फिल्में दीं, जिनमें से एक सदाबहार फिल्म चुपके-चुपके अप्रैल 1975 में प्रदर्शित हुई, शोले से ठीक चार महीने पहले. शोले के हीमैन-एंग्री यंगमैन की जोड़ी, यहाँ एकदम सुकोमल भाव लिए किरदारों में नजर आई. श्रेष्ठ फिल्मकार वही कहा जाता है, जो आर्टिस्ट के अंतर्निहित कला-पक्ष का खूबसूरती से प्रकटन कर सके. उसे ऐसा अवसर दे सके कि, उसकी कला का उच्चतम रूप निखरकर सामने आ जाए . फिल्म में शुरू से आखिर तक संजीदा हास्य उभरता है, नपा-तुला, संयत और शालीन हास्य. इस फिल्म में बिना लाउड हुए ‘इंटेलिजेंट ह्यूमर’ का सतत प्रवाह बना रहता है. परिहास को युक्ति और तर्क के साथ प्रस्तुत करना ऋषि दा बखूबी जानते थे. कई दृश्यों में तो यह स्वतः उमड़ने लगता है, जिसे सरस हास्य या विट में से कुछ भी कहा जा सकता है. ऋषि दा बुद्धिमत्ता और स्तरीय सूझबूझ का अचूक सम्मिश्रण परोसने में निपुण थे. फिल्म देखते हुए दर्शकों के चेहरों पर आद्यांत हँसी खिलखिलाती हुई दिखाई पड़ती है.

यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि ‘हीमैन’ छवि के बाद, धर्मेंद्र का यह शिष्ट-शालीन और सौम्य स्वरूप आगे नहीं दोहराया जा सका. थोड़ा बहुत जो दिखा, वो दिल्लगी (बासु चटर्जी) तक ही दिख सका. हालांकि अमित जी के हिस्से ऐसे किरदार कमोबेश आते रहे. याराना, नमकहलाल, डॉन, नटवरलाल, अदालत, दो और दो पाँच, कालिया, कुली और (दीवार, मोहब्बतें और कुछ चरित्र भूमिकाओं को छोड़कर) आगे की लगभग सभी फिल्मों में.

‘चुपके-चुपके चल री पुरवइया’ शीर्षक गीत के साथ फिल्म की स्टारिंग चलती है. किसी हिल स्टेशन के डाक बंगले का बुजुर्ग चौकीदार, प्रोफ़ेसर परिमल त्रिपाठी से कहता है, “आप तो घास-फूस खोदने में व्यस्त रहते हैं.” इस पर परिमल कहता है, “घास-फूस नहीं काका! कम-से-कम फूल-पत्ती ही कह दो.”

इस दृश्य में परिमल का बड़ा ही मानवीय पक्ष उकेरा गया है, जो आगे के कथानक से कंट्रास्ट स्थापित करने के लिए जरूरी जान पड़ता है. वे बॉटनी में बड़े नामवर हैं, ख्यातिप्राप्त प्रोफ़ेसर. इस विद्वान् को शेष फिल्म में छद्म-जीवन की भरपूर शरारतें करनी हैं. इसीलिए उसका असली रूप आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया जाता है. चौकीदार का पौत्र बीमार है. इधर एक शैक्षणिक दल आने वाला है. चौकीदार पशोपेश में है कि, अगर टोली पहले आ गई, तो उसकी नौकरी चली जाएगी. इस भय से वह बीमार पोते को देखने नहीं जा सकता. इस पर परिमल जिम्मा संभालता है और उसे पोते को देखने को भेज देता है. वह जाते हुए चौकीदार से उसकी ‘मंकी कैप’ और शॉल लेना नहीं भूलता. साथ ही बंगले की चाबी का गुच्छा भी माँग लेता है.

चौकीदार का जाना और  ‘एकेडमिक एक्सकर्शन’ वाली बस का आना, एक साथ घटित होता है. बिल्कुल ‘व्हाट ए कोइंसिडेंस’ वाले प्रारूप में.  छद्म-चौकीदार टोली को ठहराने-टिकाने का पूरा इंतजाम करता है. वह दौड़- दौड़कर सब की खिदमत करता है, स्वतः स्फूर्त ढंग से उनके आदेश लेता है. सेवा करने को उतावला सा दिखता है और हर सेवा के एवज में बख्शीश माँगता है. खाने का प्रबंध कर देने पर जब खुश होकर, महिला शिक्षिका उसे उम्मीद से बढ़कर बक्शीश देती है, तो वह विस्मय-भाव से कहता है, “भगवान ने जितना बड़ा जिस्म दिया है, उतना बड़ा दिल भी दिया है.”

सुलेखा और उसकी सखियाँ प्रो. परिमल की नेमप्लेट देखकर चौक जाती है. सुलेखा तो अभिभूत होकर रह जाती हैं, क्योंकि वे सभी बॉटनी की छात्राएँ हैं और परिमल त्रिपाठी बॉटनी के नामीगिरामी प्रोफेसर. जब लड़कियाँ छद्म चौकीदार से प्रोफेसर त्रिपाठी के बाबत जानकारी लेना चाहती हैं, तो वह उनके वृद्ध होने की सूचना देता है. सुलेखा के अनुसार वे ‘यंग आदमी हैं’, लेकिन चौकीदार उन्हें भरमा देता है. सुलेखा के ‘क्या वे सचमुच बूढ़े हैं’ सवाल पर वह उन्हें मनगढ़ंत जवाब देता है, “बूढ़े तो है, पर बहुत बूढ़े नहीं. प्रोफेसर की जवानी भी तो पचास साल से शुरू होती है. ये अक्किल की जवानी होती है, शक्किल कि नहीं.” वह जानबूझकर ‘मिसलीडिंग इंफॉर्मेशन’ देता है, क्योंकि वह जान लेता है कि, इधर सुलेखा की प्रोफ़ेसर में रुचि जाग्रत हो रही है. इसीलिए वह मनोवैज्ञानिक बढ़त लेते हुए पूछता है, “उनके बूढ़े होने से आप क्यों निराश हैं.”

असली चौकीदार गाँव से वापस आ चुका है. जब सुलेखा ‘चौकीदार-चौकीदार’ कहकर पुकारती है, तो दोनों आवाज की दिशा में दौड़ लगाते हैं. इधर सुलेखा को अंदेशा तो पहले से ही था, अब वह भाँप जाती है, कुछ तो गड़बड़ है. ‘ये क्यों दौड़े चले आए’ के सवाल पर परिमल किसी तरह से बात संभालता है. वह औचित्य स्थापित करते हुए बड़ा ही नायाब जवाब देता है,  “एक जात है न दोनों. चौकीदार हमारी जात है.” किसी तरह जान छुड़ाकर दोनों चौकीदार कोने में गुफ्तगू कर रहे होते हैं, तभी सुलेखा छुपकर उनका वार्तालाप सुन लेती है. इस तरह से वह रंगे हाथों पकड़ा जाता है. ‘टिप क्यों मांगते थे’ के सवाल पर वह अब तक ली गई बारह रुपये की टिप चुपचाप लौटा देता है. सुलेखा उसे मंकी कैप उतारने का आदेश देती है. कैप उतारने पर स्वस्थ और सुंदर नौजवान का चेहरा सम्मुख नजर आता है. प्रोफेसर परिमल के सुदर्शन रूप को देखकर वह मुग्ध होकर रह जाती है और लज्जा से नजरें नीची कर लेती है. प्रतीकों की यह खूबसूरती दर्शकों को मोहकर रख देती है. प्रेम- प्रदर्शन का बड़ा ही शालीन खाका खींचा गया है.

चट मँगनी पट ब्याह शैली में दोनों का विवाह तय हो जाता है. हरिपद भैया (डेविड) फोन पर किसी को डाँट लगाते हुए नजर आते हैं- ‘शादी के कार्ड में हरि को ‘हरी’ क्यों छाप दिया.’

इधर सुलेखा अपने जीजा जी (ओम प्रकाश) के व्यक्तित्व से बुरी तरह आच्छादित नजर आती है. वह उन्हें अपना आदर्श मानती है और दावा करती है कि, उन्हें कोई बुद्धू नहीं बना सकता. परिमल उनकी प्रशंसा सुन-सुनकर ऊब जाता है. उसे अनुभव होने लगता है कि, ‘अफलातूनी जिज्जाजी’ के बारे में सुन- सुन कर उसमें हीनग्रंथि विकसित हो गई है. सुलेखा बताती है कि “जीजाजी पहले बैरिस्टर थे. मिनिस्टर बन सकते थे, लेकिन अब साबुन फैक्ट्री चलाते हैं.” इस पर परिमल तंज कसते हुए कहता है, “अच्छा! मिनिस्टर बन सकते थे. अब साबुन बेचने लगे हैं.”       
इस पर वह तुनककर कहती है, “इतना जलते क्यों हैं.”

“इतने दिनों से एक ही नाम तो सुन रहा हूँ.”

सुकुमार (अमिताभ बच्चन) के घर पर युगल पहुँचता है. सुलेखा के आग्रह पर दोनों गीत गाते हैं, सारेगामा…     मासारेगा … गीत पहले बना था … या बनी थी ये सरगम … तकनीकी रूप से इस गीत में किशोर कुमार ने एक पद ज्यादा गाया है. इसके मूल में बताया जाता है कि, रिकॉर्डिंग के तुरंत बाद रफी साहब स्टूडियो से घर चले गए थे.                       

इधर जीजाजी को शुद्ध भाषा बोलने वाले ड्राइवर की दरकार है. वे हरिपद भैया से ड्राइवर भेजने को कहते हैं. उन्हें आशंका है कि, वर्तमान ड्राइवर जेम्स डिकोस्टा (केस्टो मुखर्जी) की भाषा सुनकर बच्चों के भविष्य का सत्यानाश हो जाएगा. जेम्स ‘आएंगा -जाएंगा’ ‘खाएंगा;पिएंगा’ जैसी भाषा बोलता है. जीजाजी का आग्रह रहता है कि, जबान जो भी बोलो शुद्ध बोलो. इसलिए उन्हें ‘ड्राइवर चाहिए तो सिर्फ इलाहाबाद से चाहिए. शुद्ध भाषा बोलने वाले बॉम्बे में कहाँ मिलते हैं.’ परिमल एहसास-ए-कमतरी का शिकार है. वह चालक बनकर उन्हें चुनौती देना स्वीकार करता है. वह हरिपद भैया से गुजारिश करता है, “मैं अवश्य एक ऐसा वाहन चालक दे सकता हूँ.”

‘खानदानी ड्राइवर पेश-ए-खिदमत है.’ कहकर वह स्वयं को प्रस्तुत करता है. साथ ही वह पत्नी से कहता है कि, मैं दिखा देना चाहता हूँ कि, मैं किसी भी स्थिति में उनसे कमतर नहीं हूँ. इसके विपरीत सुलेखा को पूरा विश्वास है कि, ‘आप एक सेकंड में पकड़े जाओगे.’ परिमल, हरिपद भैया से एक मौका देने का अनुरोध करता है, ताकि “पत्नी की नजर में स्थान बना सकूँ.” हरिपद भैया सहमत नजर आते हैं. वे ट्रंक कॉल करके राघव (ओमप्रकाश) से सिफारिश करते हैं- “कह-सुनकर राजी किया है. आदमी अंदर से खरा सोना है.”

वे फोन पर ऊँची आवाज में चीख-चीखकर बोलते हुए दिखाई पड़ते हैं. तब ट्रंक कॉल बाकायदा बुक कराया जाता था.

परिमल ड्राइवर के भेष में जिज्जाजी के घर पहुँच जाता है. वह ‘भित्तर आ सकते हैं साहेब’ कहकर अंदर आने की अनुमति माँगता है तथा स्वयं का परिचय प्यारे मोहन इलाहाबादी के रूप में देता है. वह राघव को चरण स्पर्शकर, उनकी पत्नी का अभिवादन करते हुए पूछता है, “ये आपकी ज्येष्टा सुपुत्री रूपाजी है ना.”

जब राघव उससे पूछते हैं, “तुमने खाना खाया”, तो प्यारे मोहन भाषाई आतंक की शुरुआत कर देता है, भोजन तो हमने लौहपथगामिनी स्थल पर ही कर लिया था.” वह अधिक स्पष्ट करते हुए कहता है, “हम लौहपथगामिनी अग्निपथ से आए हैं ना.” इसे अपना सौभाग्य मानते हुए वह नए मालिक राघव से कहता है, “अब आपके चरणों में आ गया हूँ. सीखने का अवसर मिलता रहेगा.”

कहाँ तो राघव, सामने वाले को पहली ही नजर में परास्त कर देने वालों में गिने जाते थे. इधर प्यारे मोहन की एंट्री से वे पहली ही मुलाकात से ‘अंडर प्रेशर’ नजर आते हैं.

मालिक पर प्रभाव जमाने के इरादे से प्यारे मोहन कहता है, “घर पर दो गाड़ियाँ हैं- फिएट और मर्सिडीज. फिएट 1969 निर्मित है और मर्सिडीज 1973 निर्मित.”

इस पर मालकिन अपने पति को समझाइश वाले अंदाज में बताती है, “निर्मित माने मॉडल.”

राघव झुँझलाकर कहते हैं, हाँ-हाँ, मुझे पता है.”

फिर वे परेशान होकर कहते हैं, “ये मुझे पागल करके छोड़ेगा.”

किंतु पत्नी प्यारे का पक्ष लेते हुए कहती हैं, “लेकिन हिंदी बहुत अच्छी बोलता है.”

आते ही वह काम पकड़ लेता है. मालिक की गाड़ी खराब है. जेम्स के अनुसार, गाड़ी के ‘डिफरेंशियल’ में लफड़ा है. इस पर प्यारे मोहन कहता है, “डिक्की तो ठीक है न. हम डिक्की से गाड़ी चलाएंगे.” सो वह मालिक से गाड़ी के ‘निरीक्षण-परीक्षण’ की अनुमति माँगता है. यह सुनकर मालकिन पति से कहती है, “एक लफड़ा कहता है, तो दूसरा निरीक्षण-परीक्षण. लगता ही नहीं कि, दोनों एक ही गाड़ी के बारे में बात कर रहे हैं.”

इस पर राघव चिंतित होकर कहते हैं, “यहाँ तो भाषा नष्ट हो रही है.”

यह सुनकर प्यारे मोहन संशोधन देता है, “भाषा नष्ट नहीं, भ्रष्ट हो गई है साहेब.” इस संवाद में हास्य तो उपजता ही है, सिनेकार का चिंतक और नागरिक बोध भी सामने आकर रह जाता है.

प्यारे मोहन गाड़ी दुरुस्त कर के मालिक को खबर देता है, “तेल छन्नी अर्थात् ऑयल फिल्टर में खराबी थी, अब ध्वनि आनी बंद हो गई है.”

आज, दफ्तर से वापस लौटते हुए मालिक से वह फिर से जिज्ञासा करता है, “थाइसिस और निमोनिया पी से क्यों शुरू होते हैं. कल आप क्लांत थे, आज तो व्याख्या कर दीजिए.” यह सुनकर राघव माथा पीटकर रह जाते हैं.                       

वे पत्नी से कहते हैं, “अब मुझे क्या मालूम. अंग्रेजी मैंने तो बनाई नहीं.”

प्यारे मोहन सुलेखा के दूल्हे के विषय में टिप्पणी करते हुए कहता है, “यह विवाह कुछ अच्छा नहीं हुआ. ये अपना नया दूल्हा है ना, आपके दाएं पैर की बायीं उंगली के नाखून के बराबर  भी नहीं.” इस टिप्पणी पर राघव प्यारे मोहन से कहते हैं, “देखो सुलेखा के सामने ऐसा मत कहना.” लेकिन वह दंपत्ति के मन में संदेह के बीज बोने में सफल हो जाता है. सुलेखा के आने की खबर सुनकर प्यारे मोहन प्रसन्नता से उछलता हुआ दिखाई देता है. वह ऐसे जताता है, मानो कि ये खबर बहुत जोरदार हो. वह उसे रिसीव करने को उतावला सा दिखता है. स्टेशन पहुँचने को आतुर सा दिखता है. अपने हाव-भावों से वह दंपत्ति के मन में फिर से संदेह उजागर करने में सफल हो जाता है. यहाँ से ‘प्रैंक’ का जोरदार सिलसिला शुरू होता है. वह दंपत्ति के सामने-सामने सुलेखा से ‘अपनी पत्नी’ की कुशल-क्षेम पूछता है और कहता है, “हमारी पत्नी हमें कितना स्मरण करती है.” इस पर राघव उसे उछलती  निगाहों से देखते हुए पूछते हैं, “तुम इतना खुश क्यों हो.”

प्यारे फिर से वाक् जाल फेंकता है, “सुलेखा जी हमारे देश से आई हैं. हमारी पत्नी के देश से आई हैं.” वह राघव की छोटी बेटी को बाग में घुमाने ले जाता है और साथ में सुलेखा को भी. बगीचे में दोनों इरादतन एक युगलगीत गाते हैं- “बागों में… कैसे ये फूल खिलते हैं… भंवरों से जब फूल मिलते हैं.”

प्यारे मोहन, राघव को खबर देता है कि श्रीवास्तव पीके आए हैं. राघव सोच-विचारकर अनुमान लगाने में सफल हो जाते हैं कि पीके श्रीवास्तव (असरानी) आए होंगे. इस पर प्यारे, मालिक से पूछता है, “आप निम्नावतरण करेंगे या वे ऊर्ध्वगमन करेंगे.”

यह सुनकर मालकिन कहती है, “यह कितनी कठिन हिंदी बोलता है.”

राघव चिढ़कर पत्नी पर ही दोष मढ़ देते हैं- “तुम्हारे ही मैके से आया है.”

श्रीवास्तव दंपत्ति के आग्रह पर सुलेखा गीत गाती है- ‘अब के सजन सावन में …’ प्यारे मोहन पर्दे की ओट में खड़ा रहता है. इस गीत के फिल्मांकन में शानदार ह्यूमर बनता है.

‘दो दिलों के बीच खड़ी इतनी दीवारें… चोरी-चुपके से तुम करो लाख जतन…’ जैसे बोल परिस्थिति से हू-ब-हू सादृश्य जताते हुए नजर आते हैं. राघव को संदेह होता है, तो वे उचक-उचककर पर्दे की तरफ देखते हैं. उठ-उठकर पर्दे तक जाते हैं, लेकिन ऐन मौके पर प्यारे मोहन सीढ़ियाँ चढ़कर उड़नछू हो जाता है.

आखिर राघव जोर की आवाज लगाते हैं, “कौन हो वहाँ पर. खड़े-खड़े क्या कर रहे हो.”

प्यारे मोहन मालिक को सहज भाव से जवाब देता है, “खड़ा-खड़ा कुछ नहीं कर रहा हूँ. मैं तो अभी- अभी, आके-आके खड़ा हुआ हूँ.”

इस जवाब पर राघव कुढ़कर रह जाते हैं,

“ये आके-आके खड़ा होना क्या होता है. दो बार आके- आके का क्या मतलब.” प्यारे मोहन मौलिक सा जवाब देता है, “साहेब, आपने खड़े-खड़े का दो बार प्रयोग किया, तो हमें बहुत अच्छा लगा. आपने जिस छंद में सवाल किया, हमने भी उसी छंद में जवाब दिया. आके-आके बोलकर कविता का रस ले लिया.” राघव झुँझला उठते हैं. फिर उसे डाँटते हैं, “आइंदा आप छंद में बात करेंगे, हमसे.”

प्यारे प्रसन्न होकर कहता है, “यदि आप अनुमति दें तो.”

राघव खीझकर रह जाते हैं. वे भड़कते हुए कहते हैं, “प्यारे मोहन, तुम पागल तो नहीं हो.”

वह गंभीरता से जवाब देता है, “अब तो बिल्कुल पागल नहीं हूँ.”

इस पर राघव शब्दों पर जोर देकर कहते हैं, “अब तो नहीं का क्या मतलब. पहले पागल थे क्या.”

प्यारे सँजीदा होकर कहता है, “नहीं-नहीं. लोग पहले मजाक में कहते थे, लेकिन मैंने कभी मना नहीं.”

“कितने दिन पहले कहते थे.”

प्यारे शरमाते हुए बताता है, “लज्जा आती है. विवाह से पहले कहते थे. विवाह के पश्चात् सब कहते हैं कि, मुझमें पागलपन के कोई लक्षण नहीं. और कोई दोष हो तो बताएँ साहेब.”

राघव यह वार्तालाप सुनकर पक चुके होते हैं. वे चीखकर कहते हैं, “हाँ हैं. तुम बकबक बहुत करते हो.”

इस पर प्यारे अपने बचाव में कहता है, “चंद्रमा में भी तो कलंक है.”

राघव उसे डाँटकर बाहर भेज देते हैं.

शूटिंग के दौरान असरानी और जया भादुड़ी को दृश्य समझाते ऋषिकेश मुखर्जी

मालिक अजीब से असमंजस में फँसे हुए हैं. वे प्यारे को रखना भी नहीं चाहते, लेकिन विवश हैं. निकाल भी तो नहीं सकते. प्यारे मोहन, जेम्स के साथ गैराज में रहता है. जेम्स के खर्राटे शुरू होते ही वह मध्य रात्रि में सुलेखा के कक्ष में पहुँच जाता है. इस दृश्य में अद्भुत ह्यूमर उभरता है.  सुलेखा अर्धनिद्रा में रहती है. तभी एक चोर खिड़की कूदकर उसके कमरे में पहुँच जाता है. आहट सुनकर, सुलेखा उसे प्यारे मोहन मान बैठती है. वह अलसाए स्वर में कहती है, “आ गए तुम! आओ इधर बैठो!” चोर भौच्चका होकर रह जाता है. वह सकपकाते हुए वार्डरोब में जाकर छिप जाता है. जब सुलेखा की नजर उसके पैरों पर पड़ती है, तो वह आलस भरे स्वर में उसे उलाहना देती है, “नंगे पैर क्यों आए. चुप क्यों गए.”

चोर सिटपिटाकर रह जाता है और डर के मारे और अंदर की ओर खिसक जाता है. वह उठकर उस दिशा में जाती है. तभी प्यारे मोहन दरवाजा खोलते हुए अंदर जा जाते हैं. यह देखकर सुलेखा भयभीत होकर रह जाती है. वह शीघ्र ही इस निष्कर्ष पर पहुँच जाती है कि, इस कमरे में कोई दीगर आदमी घुसा चला आया है. वह उंगली से वार्डरोब की ओर संकेत करती है, तो प्यारे पर्दा खिसकाकर चोर को पकड़ लेता है. वह फुसफुसाते हुए चोर से पूछता है, “कौन है तू.”

चोर भी उसी स्वर में कहता है, “चोर.”

“क्या करने आया था.”

“चोरी.”

“कहाँ से आया.”

चोर उंगली के इशारे से बताता है, “पाइप से चढ़कर.”

“तुझे डर नहीं लगता.”

चोर आत्मविश्वास के साथ जवाब देता है, “रोज की आदत है.”

इस पर प्यारे उसे कम हानिकर रास्ते अर्थात् सीढ़ियों से जाने की सलाह देता है. जाते-जाते चोर प्यारे मोहन की किस्मत पर रश्क जताकर रह जाता है. मजे की बात है कि, यह समग्र वार्तालाप ‘अघोष स्वरों’ में है, जिससे यह वार्तालाप अत्यंत ही रोचक बन पड़ा है, जो दर्शकों को अंदर से हंसने को विवश करता है. यह परिस्थितिजन्य हास्य का एक उत्कृष्ट नमूना बन जाता है. चोर तो चौर्य-कर्म के उद्देश्य से गृहभेदन करके आता है. जब प्यारे मोहन उसे पकड़ लेता है, तो वह निरूपाय सा दिखता है, निरीह सा. उसका अवाक् स्वर में जवाब देना औचित्यपूर्ण दिखाई पड़ता है. इधर प्यारे भी मध्यरात्रि में आया है. वह घर और समाज की नजरों से बचकर आया है. यहाँ पर कोई नहीं जानता कि, वह उसकी ब्याहता है. इसलिए समाज की दृष्टि में यह भी तो एक गर्हित कर्म ही है, इसीलिए उसे चोरों की तरह फुसफुसाहट भरे स्वर में सवाल-जवाब करना पड़ता है. इस स्थिति का लाभ उठाकर चोर उससे दस रुपये माँगकर उसे ब्लैकमेल भी करना चाहता है. सुबह-सुबह प्यारे सुलेखा के कमरे से बाहर निकलता है, तो जेब से रुमाल निकालकर फेंक देता है. उसी क्षण दर्शक भाँप जाते हैं कि, अवश्य ही यह अब कोई नया गुल खिलाने वाला है. तभी राघव दौड़ते हुए बाहर आते हैं. वे इधर-उधर झाँकते हुए उस रुमाल को उठा लेते हैं. रुमाल पर कढ़ाई से ‘पी’ अक्षर उकेरा गया है. मालिक की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक सा लगता है. वे रेलिंग से उचककर झाँकते हैं, तो उन्हें दौड़ लगाते प्यारे मोहन की एक झलक सी दिख जाती है. तत्पश्चात् संबंध स्थापित करने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगता.

इस विस्मयकारी घटना को  पत्नी के साथ साझा करना निहायत जरूरी हैं. वे रुमाल पर उकेरा गया प्रथमाक्षर ‘पी’ पत्नी को दिखाते हुए कहते हैं, “यह रुमाल सुलेखा के कमरे के बाहर मिला.”

इस पर पत्नी सवाल खड़ा करती है, “किसका हो सकता है.”

राघव क्षुब्ध होकर कहते हैं, “तुम्हारा नाम भी पुमित्रा नहीं है, तुम्हारी बहन का नाम भी पुलेखा नहीं. मेरा नाम भी पाघवेंद्र नहीं. इस घर में यह रूमाल, प्यारे मोहन के सिवा और किसका हो सकता है.”

पत्नी के पूछने पर वे कहते हैं, “हाँ, मैंने रुमाल को तो जाते नहीं देखा, प्यारे मोहन को जाते जरूर देखा है.” यह सुनकर उनकी पत्नी किसी अनहोनी को लेकर भयग्रस्त होकर रह जाती है. राघव के चैंबर में प्यारे की पेशी लगती है. वह दातुन चबाते हुए कमरे में चला आता है. साक्ष्य के रूप में मेज पर वह रुमाल रखा हुआ है. रुमाल पर नजर पड़ते ही प्यारे मोहन उछल पड़ता है, “मेरा रुमाल यहाँ कैसे आया.” राघव बात पकड़ते हुए कहते हैं, “चलो तुमने ये तो मान लिया कि, रुमाल तुम्हारा है.”

फिर वे झल्लाकर कहते हैं, “वहाँ क्या करने गए थे.” प्यारे मोहन दाँत पीसकर कहता है, “इस कमबख्त चुगलखोर रुमाल को वहीं गिरना था.”

राघव गुस्से में पूछते हैं, “तुम बरामदे में क्या करने गए थे.”

वह सफाई में कहता है, “हम बरामदे में गए नहीं थे. बरामदे से होकर गए थे.” यह सुनकर राघव का पारा सातवें आसमान पर चढ़ जाता है, लेकिन वह वाक् पटुता से मालिक को आश्वस्त कर देता है,

“पत्नी का हाल-समाचार लेने सुलेखा जी के कमरे में अवश्य गया था.”

इस पर मालिक उसे डाँटते हुए कहते हैं, “रात के बारह बजे हाल-समाचार पूछने गया था.”

प्यारे इस बात का खंडन करते हुए नजर आता है, “बारह बजे नहीं साहेब, पौने बारह बजे गया था.”

इस गलती के लिए वे प्यारे पर पाँच रुपये का जुर्माना ठोक देते हैं. प्यारे मोहन शॉल के अंदर बनियान की जेब से पाँच रुपये निकालकर मालिक को देते हुए कहता है, “इसकी रसीद दे दीजिए.”

राघव क्रोध में पागल हो जाते हैं, “ठीक है, ठीक है. तुम्हारी तनख्वाह से काट लिए जायेंगे.”

तनख्वाह काटने को लेकर प्यारे मोहन सैद्धांतिक एतराज जताता है, “तनख्वाह तो हम पूरी लेंगे.” राघव उसे डाँटकर भगा देते हैं. वह जाते-जाते कहता है, “ठीक है, ठीक है. मनीऑर्डर से भिजवा दूँगा.” इस एपिसोड के बाद घर में तनाव चरम पर उभर आता है. अगले दिन भोर में चौकीदार को ऊँघता छोड़कर, प्यारे मोहन सुलेखा को लेकर भाग जाता है. सुलेखा चिट्ठी छोड़ जाती है, जो उसकी दीदी के हाथ लगती है. वह रोते-कलपते हुए पति राघव को बताती है, “सत्यानाश हो गया.”

जीजा जी चिट्ठी पढ़ रहे होते हैं, तभी चौकीदार लेटर बॉक्स में से दूसरी चिट्ठी लेकर हाजिर हो जाता है. स्वाभाविक रूप से यह चिट्ठी प्यारे मोहन की है. राघव चिट्ठी का मजमून पढ़ते हैं,

“जय बजरंगबली.

पूजनीय मेरे साहेब के चरणों में चरण स्पर्श कर मेरा प्रणाम. आज सुबह उषाकाल में सुलेखा जी को जाते देखकर मन बहुत चिंतित हुआ. मैंने कारण जाने की बहुत चेष्टा की, किंतु उन्होंने कुछ नहीं बताया. स्थान भी नहीं बताया. इस घोर पापी संसार में उन्हें छोड़ना उचित नहीं था. सो मैं भी उनके साथ जा रहा हूँ. उनकी यात्रा समाप्त होते ही मैं उनके समाचार सहित हाजिर हो जाऊँगा. तब तक के लिए आज्ञा दें. पाँच रुपये काटकर मेरा वेतन सुरक्षित रखिएगा. हम दोनों की रक्षा के लिए भगवान से प्रार्थना करिएगा.

आपका अति नीत सेवक प्यारे मोहन इलाहाबादी.”

यह सुनकर दीदी चैन की साँस लेती है, “चलो अच्छा हुआ. कम-से-कम अकेले तो नहीं गई है. किसी आफत में तो नहीं पड़ेगी. इस पर राघव चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं, “आफत में पड़ने की क्या जरूरत है. आफत तो साथ ही गई है.”

इधर खबर मिलती है कि, हरिपद भैया के साथ आज परिमल भी पहुँच रहा है. इस खबर से घर में बड़ी उहापोह मचकर रह जाती है. “सुलेखा ड्राइवर के साथ भाग गई है. अब परिमल को क्या जवाब देंगे.”

राघव काफी सोच-विचारकर कहते हैं, “हम दोनों भी घर छोड़कर भाग जाते हैं.”

प्रशांत खबर लेकर आता है कि, परिमल आज ही स्टेशन पहुँचने वाला है. ‘प्यारे मोहन एपिसोड’ का अद्यतन विवरण सुनकर वह अचानक गंभीर हो जाता है. परिमल उसके बचपन का दोस्त है, इसलिए वह जानता है कि, परिमल थोड़ा ‘टची’ किस्म का आदमी है. स्टेशन पर ‘दादर टर्मिनस’ पर ‘सगीना’ फिल्म का पोस्टर लगा हुआ नजर आता है. उधर ट्रेन के अंदर छद्म परिमल (सुकुमार) नर्वस हो जाता है, तो हरिपद भैया उसे एक्टिंग का गुरुमंत्र देते हुए कहते हैं, “एक्टिंग में आठ आना गुस्सा, चार आना दिमाग, दो आना शांति, एक आना ‘हम्बलनेस’ और एक आना गुरूर होना चाहिए.”

दीक्षित होकर वह स्टेशन पर उतरते ही वितंडा खड़ा करके रख देता है, “आज ही आया हूँ और आज ही पत्नी किसी ड्राइवर के साथ चली गई.”

वह स्वयं को सिद्धांतवादी बताता है. इस वजह से वह बिना अधिकार के किसी के घर नहीं जा सकता.

इधर, राघव तो प्यारे मोहन का नाम सुनते ही भड़क उठते हैं.

सुकुमार-वसुधा (जया) का प्रेम परवान चढ़ने में एक इल्लत पड़ती है, क्योंकि वसुधा तो उसे परिमल के रूप में जानती है. अतः उसके नैकट्य की कोशिशें देखकर, वह उसके करैक्टर पर शुबहा करने लगती है. सुकुमार बुरी तरह उलझकर रह जाता है. वह परिमल को इस प्रहसन का पटाक्षेप करने का भय दिखलाता है. इस पर प्रशांत स्थिति संभालते हुए कहता है, “ऐक्टिंग जारी रखो. लास्ट में अवॉर्ड न मिला तो रिवॉर्ड जरूर मिलेगा.”

मजे की बात यह है कि, उनकी मंडली इस प्रहसन की नियमित ब्रीफिंग-डिब्रीफिंग करती हुई नजर आती है.    

योजना के मुताबिक, जेम्स प्यारे मोहन-सुलेखा को राघव के सामने हाजिर करके रख देता है. प्यारे को देखते ही राघव आपे से बाहर होने लगते हैं. इस पर प्यारे, सुलेखा की आड़ लेकर हकलाते हुए उर्दू में जवाब देता है. उसके मुताबिक, “गुस्से में नाचीज हकलाने के साथ-साथ उर्दू भी बोलने लगता है.”

मंदिर में सुकुमार-वसुधा का विवाह संपन्न हो जाता है. काफी हंगामे के बाद इस प्रहसन का पटाक्षेप होता है. इस मौके पर राघव की पत्नी पूछती है, “क्या आपको ये मालूम पड़ गया था.”

राघव स्वीकार करते हैं, “मंदिर में खड़ा हूँ, तो झूठ कैसे बोलूँ.”

यह सुनकर प्यारे मोहन (परिमल) हकलाते हुए कहता है, “तो बैठकर बोल दीजिए.”

इस तरह से इस नाटक का सुखांत समापन होता है.

फिल्म में मजाक के रिश्ते को विषय बनाया गया है. छोटे-छोटे दृश्य चलचित्र की खूबसूरती को बढ़ा देते हैं. संवाद संक्षिप्त हैं और बेहद चुटीले. सरल और सरस हास्य का इससे अनूठा मेल नहीं बन सकता था. एक दृश्य में परिमल को आत्मग्लानि होती है कि, वह भाषा का मजाक बना रहा है. इस पर हरिपद भैया उसे इस अपराध-बोध से बाहर निकालते हैं, भाषा इतनी महान होती है कि, उसका कोई मजाक नहीं बना सकता. यही इस फिल्म का डिस्क्लेमर है. वह राघव के ‘मैं सूँघकर बता देता हूँ’ जैसे अतिरंगी दृष्टिकोण का मजाक बनाता हुआ नजर आता है और इसे चुनौती के रूप में लेता है. प्यारे मोहन बड़ी सफाई से राघवेंद्र को छकाते हुए नजर आता है. उसका भोलापन, कोमलकांत शब्दों का प्रयोग और स्पीच पेटर्न दर्शकों को सम्मोहित करता नजर आता है. कुल मिलाकर, यह फिल्म संयमित और सुगठित फिल्म का शानदार नमूना पेश करती है. इस फिल्म की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, फरवरी 1980 में खग्रास सूर्य ग्रहण के दौरान, लोगों को बाँधे रखने के लिए दूरदर्शन को चुपके-चुपके फिल्म टेलीकास्ट करनी पड़ी. फिल्म, बांग्ला फिल्म ‘छद्मोभेषी’ से प्रेरित बताई जाती है.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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