सन् चौहत्तर के आस-पास की बात है. कोटद्वार में कर्मभूमि के संपादक स्व० भैरवदत्त धूलिया के घर में टिंचरी माई और पीताम्बर डेवरानी बैठे थे. माई किसी वजह से अस्थिर थीं. बातें करते-करते उठतीं और जाने के लिए उद्यत होती, धूलिया जी के अनुरोध पर पुनः बैठ जातीं. माई पुनः जाने को हुई तो धूलिया जी ने टोका : “बैठती क्यों नहीं- कहाँ जाना है?” शान्त स्वर में टिंचरी माई ने कहा : “भैरव बाबा! जहां मन नहीं बैठ रहा- वहाँ तन बैठाकर क्या होगा?” और चल दीं.
(Remembering Tinchari Mai Uttarakhand)
अन्ततः 17 जून 1993 को टिंचरी माई का मन इस दुनिया से भर गया तो तन भी साथ छोड़ गया. दुर्गम तथा घने जंगलों से घिरे हुए दूधातोली क्षेत्र के मज्यूर गाँव में दीपा का जन्म प्रथम महायुद्ध के लगभग बाद हुआ. विधि ने दो वर्ष की दीपा से माँ को छीन लिया तथा पाँच वर्ष के होते-होते पिता का साया भी सर से उठ गया. रिश्ते के चाचा ने पाला. वह इस भार को ज्यादा नहीं ढोना चाहता था, तो सात साल की दीपा की शादी उससे उम्र में सत्रह साल बड़े फौजी गणेश राम से कर दी ले गई.
सात वर्षीय दीपा के लिए उसका विवाह एक महत्वपूर्ण घटना थी. इसलिए नहीं कि वह एक नये जीवन में प्रवेश कर रही थी या नई जिम्मेदारी को उठाने वाली थी बल्कि इसलिए कि उसे पहली बार छककर गरम-गरम पूरियाँ, कद्दू की सब्जी, रायता तथा सूजी खाने को मिली थी.
मशक-बीन की आवाज पर नन्हीं दीपा हम उम्र बच्चों के साथ दौड़ कर बाहर भाग गई थी, बारात देखने. बड़ी मुश्किल से उसे अन्दर लाया गया कि “छुवोरी, ब्योली है तू.” (छोकरी दुल्हन है तू !). सुबह नयी धोती में बंडल सी लिपटी दीपा विदाई के समय दौड़कर डोली में बैठ गईसवारी के मजे लेने की गरज से.
ससुराल में पूरे पाँच जेठ थे- “छौं न करि ऊ दगड़ी’ (उन्हें छूनामत). सीख तो बहुत दी गई थी दीपा को, पर ममतालु दीपा तो उन्हीं की गोदी में खेलने लगी-रात हुई तो जिठानी के साथ चिपक कर सो गई. दूसरे दिन हवलदार पति को रावलपिण्डी जाना था तो– ‘गौड़ी का पिछनै बाछि सी’ (गाय के पीछे बछिया सी) चली गई.
पति के साथ दीपा ने कुल बारह साल गुजारे. कैसे वे दिन थे तथा कैसा वो रिश्ता था कि नहाने के लिए जब दीपा आनाकानी करती तो पति उससे कहता – “नहायेगी तो गौरी मेम बन जायेगी. फौजी हूँ, लड़ाई में मारा गया तो तुझे गोरी मेम समझ कर कोई भी शादी करेगा.” ये सुनते ही दीपा नहाने को मान जाती, साबुन भी लगाने देती मुंह पर, “चुटिया भी वो ही बनाता था”. बताते हुए माई का मोह कुछ क्षणों के लिए आंखों में आ जाता था.
सचमुच, हवलदार गणेश राम जब लड़ाई में गया तो लौट कर नहीं आया. उन्नीस वर्षीय दीपा रावलपिण्डी में अकेली रह गई. पति की नौकरी के हिसाब-किताब के बाद उसे एक अंग्रेज ऑफिसर लैन्सडाउन छोड़ आया.
कहाँ जाये दीपा? माँ-बाप तो बचपन में ही छोड़ गये थे. ससुराल वालों ने जता दिया कि “जवान विधवा की जिम्मेदारी कौन ले, असगुनी है – जाने क्या-क्या मुसीबत लाये.” दीपा का भविष्य अंधी गली बन गया.
विधवाओं को हाशिये पर डालने वाले समाज से दीपा को वितृष्णा हो गई थी. सम्मान से जीने के लिए तात्कालिक समाज ने विधवाओं के लिए एक ही रास्ता छोड़ा था- सन्यास! घर त्याग कर दीपा भटकती हुई लाहौर पहुंची. सौभाग्य से उसे एक विदुषी माई मिल गई. उससे दीक्षा ली तथा बन गई- ‘इच्छागिरी माई.’
दीपा ने सन्यास ले तो लिया था, परन्तु जिस समाज से वह आई थी – उससे मुँह नहीं मोड़ पायी. विधवाओं के दुःख, गरीबों के कष्ट तथा ताकतवरों के ढोंग उसे सालते रहे. ईश्वर से ये सवाल वह पूछती. समाज के ये हाल उसकी एकाग्रता तोड़ते रहते.
सन सैंतालीस के विभाजन ने उसे आदमी के हैवान बनने के दृश्य दिखाए- क्यों और कैसे आदमी हिन्दू या मुसलमान बन जाता है. कल तक बहन-बेटी कहने वाली औरत से वो बलात्कार करने लगता है. बेटे की तरह गले लगाने वाले बच्चों को किस कसूर से वो छुरा भोंक देता है – जीवन के आखिरी दिनों तक ये सवाल उसे सालते रहे.
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वो चुप बैठने वालों में नहीं थी. उसने अपनी भूमिका तलाशी और इस पागलपन के खिलाफ लाहौर में संघर्ष शुरु कर दिया. पर गुरु-भाई ने उसे कहा कि पगलाया आदमी कुछ नहीं सुनेगा तथा जबरदस्ती हरद्वार भेज दिया कि “इसी में तेरा हित है.”
पर क्या हरद्वार में शांति थी. वहाँ सन्तों के हाल देखे तो संन्यासी कहलाने में शर्म आने लगी, “जोगी सुबह नहाने जाते तो लंगोट में मछलियाँ छुपा कर लाते, साधु नहीं थे, वो, वो तो खादु थे खादु. सन्यास है ये सुल्फा, भाँग पीकर पड़े रहना.”
इच्छागिरी माई ने इन पाखण्डियों के खिलाफ मोर्चा खोलकर वहाँ हलचल मचा दी. लड़ाई में इस ओर वह अकेली थी – पर संघर्ष करती रही.
इसी दौरान वह किसी के साथ कोटद्वार के समीप सिगड्डी आई तो वहां महिलाओं को पीने के पानी के लिए दर-दर भटकते हुए देखा – और वह पानी की मांग करते-करते, ‘डिप्टी’ तक पहुंची, पर माई की बात सुनता कौन. वह सीधे दिल्ली पहुंची तथा तीन मूर्ति भवन के गेट पर डेरा डाल दिया. अबका सिक्योरिटी वाला जमाना होता तो माई को कब का धकेल कर पीछे फेंक दिया होता. जवाहर लाल नेहरू की कार जैसे ही गेट के बाहर निकली तो लपक कर गाड़ी के आगे खड़ी हो गई. पुलिस वाले खींच कर किनारे करने ही वाले थे कि नेहरू ने नीचे उतर कर गुस्सैल सन्यासिनी से कारण पूछा. माई ने कहा : “रे जवाहर. तेरे राज में सिगड्डी की बहू-बेटियों को पानी के लिए कितना परेशान होना पड़ रहा है तुझे मालूम है?” और नेहरू का हाथ थाम लिया. नेहरू ने माई की बात सुनी तथा बुखार से तपती माई को अस्पताल भिजवाने के लिए कहा. पर माई तो पहले जवाब चाहती थी कि “बोल पानी देगा नहीं.” नेहरू के हाँ कहने पर ही वह अस्पताल गई. नेहरू ने भी माई का ध्यान रखा – सिगड्डी में भी पानी आ गया.
पर माई सिगड्डी में भी ज्यादा नहीं रह पाई. जिस सिगड्डी के पानी के लिए लड़ने के लिए दिल्ली गई थी, वहीं के किसी प्रभावशाली ने उसकी कुटिया की जागीर पटवारी से मिलकर अपने नाम एलॉट करवा दी और माई चुपचाप मोटाढाक आ गई.
“तू अपने अधिकार के लिए लड़ी क्यों नहीं, सीधी बात माई ने कही – कुटिया मेरी थी – अपने स्वार्थ के लिए लड़ना पड़ता मुझे – अपना क्या होता है संन्यासी का – जमीन के टुकड़े से मोह कैसा! हाँ दूसरे की जमीन होती तो पटवारी का मुँह नोच लेती – माई ने जोड़ा! ऐसी सन्यासिनी थी माई.
मतलबी दुनिया से खिन्न माई ने अपना स्वभाव नहीं बदला. मोटाढ़ाक में एक अध्यापक मोहनसिंह के संपर्क में आई- मोटाढ़ाक में स्कूल नहीं था. जो खुद को न मिल पाया हो-दूसरे को मिलना ही चाहिए. घर-घर जाकर माई ने स्कूल के लिए रुपया जमा किया और तीन महीने में स्कूल की इमारत खड़ी कर दिखाई.
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भाई ने रिश्ते नाते तोड़ दिए थे . पर कहीं हृदय में उस पति के लिए कोई कोना स्पंदित था जिसने उसे एक अभिभावक की तरह स्नेह दिया था. उसने स्कूल के लिए किए गये अपने कार्यों के एवज में अपने पति के नाम का एक पत्थर स्कूल में लगाना चाहा तो बवेला मचा दिया कुछ लोगों ने.
स्कूल में पत्थर तो लग गया परन्तु लोगों के व्यवहार के पत्थर की चोट जो हृदय पर लगी उससे दुखी माई झोला उठा बदरीनाथ चली गई-पूरे नौ साल वहाँ रही. वहां भी पंडों के व्यवहार से दु:खी हो उठी माई.
माई के हिस्से अभी बहुत महत्वपूर्ण कार्य थे. वह शान्ति से बदरीनाथ भी कैसे रह सकती थी.
बदरीनाथ से एक बार पौड़ी के एक भक्त को प्रसाद देने डाकखाने गई – फिर बाहर बरामदे में सुस्ताने बैठ गई. उसने देखा कि सामने ही शराब की दुकान से एक शराबी आती-जाती महिलाओं को, जो घास-लकड़ी लेकर वहाँ से गुजर रही थी, ताने कस रहा था और अश्लील हरकतें कर रहा था. माई इसे मूक दर्शक की तरह तो नहीं सह सकती थी. अपनी थकान भूल माई सीधे कंडोलिया में डी. एम. (श्री बागची) के निवास पहुंची, जिससे माई पहले भी कभी मिल चुकी थी- और बरस पड़ी : “तू यहाँ बैठा है . देख तेरे इलाके में क्या हो रहा है” और उसका हाथ खींचकर शराब की दुकान की ओर ले चली. वहाँ पहुंची तो तब तक शराबी नशे में बेसुध नाली में पड़ा था. “अभी बंद कर इस दुकान को अभी’ माई ने डी. एम. को निर्देश दिया. डी. एम. ने सरकारी कर्मचारी की तर्ज पर ही कहा कि दुकान लाइसेंसधारी की है- इसे बंद करने में समय लगेगा. पर माई कहाँ सुनने वाली थी ये सब.
“बहुत साहब बनता है- एक दुकान बंद नहीं कर सकता” और चेतावनी दी “पर सुन अब ज्यादा तमाशा नहीं होने दूंगी- दुकान अभी बंद नहीं हुई तो आग लगा दूंगी इस पर-फिर चाहे मुझे जेल भेज देना! जान दे दूंगी, पर टिंचरी (शराब) नहीं बिकने दूंगी.”
इधर डी. एम. गया उधर माई ने एक ‘कण्टरी’ मिट्टी तेल का जुगाड़ किया तथा दुकान में पहुँची. शराबियों ने दुकान के किवाड़ बंद कर दिए थे. माई के कई बार दरबाजा खटखटाने पर जब दरवाजा नहीं खोला तो माई ने एक बड़ा सा पत्थर दरवाजे पर दे मारा और दरवाजा चरमरा गया. शराबी और शराब बेचने वाले खिड़कियों से भाग निकले – माई ने एलान किया “कोई रोक सकता है तो रोके मुझे” और मिट्टी तेल छिड़क कर दुकान में आग लगा दी और सीधे डी. एम. के घर पहुंची कि : “मैंने दुकान पर आग लगा दी है- गिरफ्तार कर मुझे,” और वहाँ बैठ गई. दिन भर तो डी. एम. ने अपने पास रखा और रात होते ही जीप में बिठा कर लैंसडाउन पहुंचा दिया.
इस घटना ने माई को एक नया मिशन दे दिया नशे के खिलाफ लड़ाई का, और इच्छागिरि माई बन गई टिंचरी माई.
उन दिनों शराबी पहाड़ में नशे के लिए टिंचरी-टिक्चर जिन्जरवाइटिस, जो कि एक दवाई है तथा सस्ते में उपलब्ध थी, पीते थे. टिचरी का गढ़वाल की महिलाओं में आतंक था. बाहर निकले तो शराबी परेशान करें. घर में पति, भाई, बेटा शराबी है तो चैन नहीं. कमाई फूंक दें. बरतन जमीन बेच दें – बच्चे भूखे मरें. इस घटना के बाद से गढवाल की महिलाओं को टिंचरी के खिलाफ जबान मिल गई. टिंचरी माई बन गई संघर्ष का प्रतीक. गाँव-गाँव से महिलाएँ टिंचरी माई से मिलने आती – टिंचरी माई जगह-जगह अवैध-वैध दुकान बंद कराने निकल पड़ती-दुकानों के आगे धरने, पिकेटिंग होने लगे. जहाँ टिंचरी माई के पहुँचने की खबर होती, शराबी या शराब बेचने वाले अपनी सलामती के लिए भागते फिरे.
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महिलाएँ माई से अनुरोध करती- “हमारे गाँव आओ- शराब भगाओ” शराबी, शराब बेचने वाले या उनका साथ देने वाले सफेद पोश कहते – “सन्यास का मतलब है- समाज से मुँह मोड़ो. सन्यास लिया है तो लड़ाई-झगड़ा क्यों करती है – शराबी-टिंचरी से क्या मतलब, जंगल में रहो.”
संघर्ष जारी रहा – छठे तथा सातवें दशक के शुरु में टिंचरी माई के आन्दोलन ने शराबखोरों व शराब बेचने वालों के हौसले पस्त कर दिए. जून की गर्मियों में भावर में घूमती तो जनवरी की बर्फ में चमोली- उत्तरकाशी नंगे पैरों से . महिलाओं को साथ लेकर संघर्षरत रहती . टिंचरी आन्दोलन के साथ-साथ समाज में महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने, उनमें आत्मविश्वास भरने के लिए वे उन्हें पढ़ने-लिखने, सिलाई-कढ़ाई सीखने के लिए प्रेरित करती उन्हें दहेज के खिलाफ तैयार करती रही.
बढ़ती उम्र, संघर्ष ने माई को शरीर से जर्जर कर दिया तो वह गूलर झाला के जंगल में कुटिया बनाकर अकेली रहने लगी . जानवरों से डर!
“शेर हाथी रोज देखती थी – प्यार से रहो तो ये जानवर प्यार करते हैं. सबसे ज्यादा खखार तो आदमी ही है – जुलम करता है – हत्या करता है, औरतों को जलाता है – किससे डरूँ – आदमियों से कि जानवरों से.” निपट जंगल में बैठी माई ने मुझसे ही प्रश्न कर दिया.
शराब संघर्ष की बात की तो दुखी माई ने कहा किससे कहें, शराब तो अब सरकार खुद ही बेच रही है कमाना है बल ! पर किसके लिए ? लोग ही नहीं रहेंगे कार पैसे का क्या करेगी- शराबी क्या आदमी रह जाते हैं ?”
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आखिरी मुलाकात उनके देहावसान मात्र के छः हीने पहले हुई थी. उस वक्त हल्का भी अहसास नहीं था कि माई इतनी जल्दी हमसे दूर निकल जायेगी- जर्जर शरीर देखा उसका – पर लाटा मन तो अपनी प्रेरणा को अमर ही मानता है न! उस वक्त उसने कहा था : “इन नेताओं-फेताओं ने तो देश को ‘चाट-फूंट’ कर रख दिया है – और डाल रहे हैं लोग इन्हीं के गले में माला.’
गले लगाकर उस वक्त उन्होंने कहा था, “पहाड़ों कू ख्यालरख्या-हो-माँ-बैण्यूँ का बारा मां सोच्या” (पहाड़ों का ख्याल रखना, मां बहनों के बारे में सोचना.) उनके पास कुछ पैसा था – संभवतः पति की पेंशन का- वे उस जमा पूंजी से महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थी. क्या करूँ के असमंजस में थी.
कुछ ही दिनों में पता चला कि वह जमा-पूंजी चुरा ली गई है. मोटाढाक में उनसे हाल पूछने गया तो वह वहाँ नहीं थी. जानकारी चाही तो एक वृद्धा ने कहा सांप और जोगी एक जगह थोड़े ही मिलते हैं.
जून 1993 के अन्तिम सप्ताह में सिगड्डी के एक परिचित ने खबर दी कि सत्रह जून को माई चल बसी. अनपेक्षित समाचार से हतप्रभ रह गया. कैसे मर गई माई. अरे कितनी वृद्ध हो गई थी- कितनी कमजोर, तुमने तो देखा ही था, परिचित ने कहा मुझसे. का पर माई तो कभी मुझे वृद्ध लगी नहीं- न कभी कमजोर. उनके मन, कर्म, वचन की आभा ने तो मुझे उनके कृश शरीर को देखने ही नहीं दिया था. एक रिक्तता काफी समय तक घेरे रही.
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टिंचरी माई से बहुत ज्यादा मिला नहीं था, पर उनकी गहरी उपस्थिति रहती थी. वह हमारे हर विचार में, संघर्ष में, हर समाजोन्मुखी कार्य में थी. और तो और निराशा में या गहन कुण्ठा के भंवर में फंसे होने पर उनकी प्रेरणा ही हमें हाथ पकड़ कर बाहर निकालती थी.
फिर सोचा-चलो मुक्ति मिली माई को. ये दुनिया उसके मतलब की नहीं थी – उसे समझने वाली भी नहीं थी- बहुत दुख झेले उसने. पर विश्वास है माई फिर आयेगी- अभी तो उसका बहुत काम बचा है.
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उत्तराखंड के सबसे प्रतिभावान फोटोग्राफर में एक नाम कमल जोशी है. कमल जोशी ने जीवन भर कुमाऊं गढ़वाल के पहाड़ों में घूम कर पहाड़ के जीवन की पीड़ा अपने कैमरे में कैद की.
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