आज शैलेश मटियानी का जन्मदिन है. यह लेख 1996 में शैलेश मटियानी से हुई बातचीत का एक हिस्सा है जिसमें वह एक बड़ा उपन्यास को लिखने के विषय में बता रहे हैं. उपन्यास का शीर्षक उन्होंने तय कर लिया है ‘मरुत’. यह लेख साल 2001 में ‘पहाड़’ पत्रिका के ‘शैलेश मटियानी के मायने’ अंक से साभार लिया गया है. प्रकाश मनु, शैलेन्द्र चौहान और रमेश तैलंग की शैलेश मटियानी से हुई एक अनौपचारिक बातचीत को ‘शैलेश मटियानी के मायने’ अंक में हू-ब-हू छापा गया है. यह लेख उसी बातचीत का एक हिस्सा है- सम्पादक
(Remembering Shailesh Matiyani Birthday)
प्रकाश– आप जिस बड़े उपन्यास की बात कह रहे हैं, वह आप लिखते तो कैसा होता? और क्यों उसे लिखने की उत्सुकता आप में है?
मटियानी– (उत्साहित होकर) असल में मेरा सोचना यह है कि अब तक जो उपन्यास मैंने लिखे हैं, उनमें मुझे जूझना नहीं पड़ा. ऐसा नहीं कि वे तल्लीनता से नहीं लिखे गये, पर वे मेरे लिए ऐसे थे, जैसे बच्चों का खेल हो… हद से हद पन्द्रह बीस दिन या महीने भर में उपन्यास लिख कर मैंने छपने दे दिया. अक्सर मेरे साथ यही हुआ… और उसके पात्र, स्थितियां, परिवेश चाहे कैसा भी हो, लेकिन मेरे लिए इस कदर चुनौती भरा नहीं था कि मुझे अपनी सारी शक्ति और ऊर्जा के साथ जूझना पड़ा हो. मैंने कई बार कहा है कि बड़े उपन्यास के बारे में मेरी दृष्टि यह है कि उसमें कथानक ऐसा होना चाहिए जिसमें लेखक को बुरी तरह जूझना पड़े. तभी बड़ी रचना संभव है… और जूझना ऐसा है कि आप कहाँ बैठे हैं या कहाँ पड़े हैं, क्या खा-पी रहे हैं. कुछ भी होश आपको न हो… पर मेरे जिन उपन्यासों की बहुत चर्चा भी होती है या आपको जो पसंद हैं ‘बावन नदियों का संगम’, ‘मुठभेड़’, ‘गोपुली गर वगैरह, उन्हें लिखते समय भी मुझे जूझना पड़ा हो, ऐसा नहीं है…
तो एक बड़ा उपन्यास मुझे लिखना है, यह सपना तो मेरा बहुत पहले से था और उसके लिए अपने बहुत से कीमती अनुभव में बचा कर रखता जाता था कि वह उपन्यास लिखा गया तो ये उसमें आयेंगे… और फिर यह जो धुंधली सी कल्पना थी, कुछ आगे चल कर एक पक्के इरादे में बदल गई. उसके पीछे एक घटना है जिसे आप चाहें तो घटना कह सकते हैं, नहीं भी… असल में हुआ यह कि बरसों पहले में खंडवा जाने के लिए ट्रेन से सफर कर रहा था. रास्ते में किसी जगह एक प्रचण्ड आंधी सी आयी… में ठीक-ठीक बता नहीं सकता कि यह अनुभव कैसा था. मुझे लगा कि जैसे वह आंधी पूरी की पूरी मेरे भीतर से गुजर गई हो… यानी बाहर एक आंधी है, एक भीतर और दोनों की एक ही लय बन रही है. उन दिनों में घरेलू स्थितियों से बहुत परेशान और मर्माहत रहता था… तो शायद इसी कारण यह लगा हो कि उस आंधी का एक बड़ा हिस्सा मेरे अंदर समा गया है… यह कोई छह वर्ष पहले की बात है. एक बड़े उपन्यास का ख्याल भी तभी आया और उसी क्षण मैंने उसका नाम भी रख लिया था ‘मरुत’.
शैलेन्द्र– क्यों? ‘मरुत’ क्यों…?
मटियानी- असल में ‘मस्त’ एक प्रवाह है जो हम बाहर देखते हैं, उसे भीतर भी देखा जा सकता है यह एक बात तभी पहले-पहल मेरे मन में आई… तो उस उपन्यास के बारे में मेरा सोचना तभी से निरन्तर जारी है… उसमें मुझे स्वतंत्रता से लेकर अब तक का भारतीय समाज का खाका एक बड़े कैनवस पर लिखना है. उसके लिए मुझे बहुत मेहनत और अभ्यास करने की जरूरत है. ‘मुठभेड़’ या ‘बावन नदियों का संगम’ में यह स्थिति नहीं थी. वहां तो हालत यह थी कि बहुत से पात्र मेरे जेहन में कहीं थे ही नहीं, जो उपन्यास लिखते समय ख़ुद-ब-ख़ुद आ गए और ठीक से निभ ही गये. यहां तक कि खूब प्रशंसा भी मुझे मिली पर इस बड़े उपन्यास के लिए मुझे नये सिरे से जूझना और कला के गहरे स्तरों पर उतरना होगा इसमें में चाहता हूँ कि देश की सामाजिक, राजनीतिक स्थिति का एक विराट दर्शन तो हो ही, साथ ही साहित्य, संस्कृति, न्याय और धर्म जैसे विषयों को खूब खंगाला जाए…
(Remembering Shailesh Matiyani Birthday)
मोटे तौर पर ‘मरुत’ के केंद्र में एक परिवार की कहानी है जो अपने आंतरिक कष्टों के साथ-साथ परिस्थितियों के दबाव में जी रहा है… और उसके कारण उस परिवार के सदस्यों में किस तरह का विचलन आता है, उसके प्रवाह में मनुष्य कैसे प्रवाहित होता है. यह सब में दिखाना चाहता हूँ… अब होता यह है कि उस परिवार में एक लड़के की हत्या हो जाती है. उसके बाद कानून की लड़ाई शुरू होती है और वह लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक जाती है… देश के कानून की जो हालत है, जो अपराधी को हर तरह से छूट देने वाली और यातनाग्रस्त को और यातना देने वाली है, वह इसमें कई स्तरों पर खुल कर आती है…
रमेश– आपको डर नहीं लगता कि खुले तौर पर यह लिखने से आप पर न्यायालय की मान-हानि का मुकदमा चल सकता है.
मटियानी– नहीं, बिल्कुल नहीं… इस तरह का डर होता तो मैं लेखन कब का छोड़ चुका होता.
प्रकाश– लगता है, यह उपन्यास आपका काफी कुछ आत्मकथात्मक होगा… नहीं?
मटियानी– हां, आप कह सकते हैं… और हो सकता है, मेरे जीवन का सारा इकट्ठा हुआ अनुभव इसमें आए. मैं आपसे कई बार कहता था कि जैसे नियति मेरा पीछा कर रही है तो वह यही है जिसे इस उपन्यास में लाना चाहता हूँ. मैं अखबारों में पहले इस तरह की घटनाओं या हिंसा के बारे में पढ़ता था. मेरे मन में तभी से हौल पैदा हो गया था और कानून की हालत इस देश में तिलमिला देने वाली है. गोष्ठियों में अक्सर में यह बात कहता ही था कि देश में कानून की हालत ऐसी है कि वह खुलेआम अपराधियों को बचाने का काम कर रहा है और तो और, उसका मकसद भी यही है, चाहे वह छिपे तौर से प्रकट होता हो. यह बात मैंने आपने पढ़ा ही होगा- ‘मूठभेड़’ तथा ‘बावन नदियों का संगम’ में भी उठाई है, पर वहां वह पूरी तरह से नहीं आई. उसी को मैं बड़े उपन्यास में उतारना चाहता हूँ- अगर यह लिखा गया तो वैसे, इसकी अब बहुत कम ही संभावना बची है तो भी अभी पूरी तरह निराश तो मैं नहीं हुआ हूँ.
(Remembering Shailesh Matiyani Birthday)
(कुछ देर रुककर) हां, तो ‘मरुत’ के केन्द्रीय विचार या आयडिया की में चर्चा कर रहा था. इसे में एक उदाहरण से समझाना चाहूंगा. मान लीजिए किसी परिवार में एक व्यक्ति की हत्या हो जाती है और परिवार के सदस्यों को कानूनी झंझटों से गुजरना पड़ता है और इन पंद्रह वर्षों में कानून की प्रक्रिया से गुजरते हुए सुप्रीम कोर्ट तक गए. अब मान लीजिए, सुप्रीम कोर्ट में फांसी की सजा बहाल भी हो गई, लेकिन फिर राष्ट्रपति ने याचिका पर क्षमा कर दिया तब? उस फैसले से उस पूरे परिवार को जितनी यातना से गुजरना पड़ा, उसका अंदाजा लगा सकते हैं? यह तो उस परिवार को तबाह कर देने के बराबर है. पंद्रह वर्षों तक एक परिवार झूठी, उम्मीदों पर लटका रहा, और फिर? ‘ मरुत ‘ के केंद्र में यही त्रासदी है.
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