उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में चंपावत जिले में एक छोटा सा गांव है, मल्ली ग्विनाड़ा. यहां एक बड़ी नेक और जिंदादिल महिला रहती थी, नाम था गोपी देवी! प्यार से पूरा गांव उसे गोपुली आमा कहकर बुलाता था. गांव का कोई भी मौका हो, कोई पर्व हो, कोई त्यौहार हो, दुख की बेला हो या फिर शादी-बारात; कुछ ही क्यों ना हो! गोपुली आमा के बिना गांव में पत्ता नहीं हिलता था. औरतों की बैठक हो, बच्चों की ठिठोली हो या फिर बड़े बुजुर्गों की पंचायत, गोपुली आमा हर महफिल की जरूरत होती थी. (Remembering Gopuli Aama)
शादी की रतेली हो, होली की बैठक हो या फिर भजन संध्या ही क्यों ना हो, गोपुली आमा इन सब की रौनक थी. देवता के जागर और पूजा-पाठ आदि के मामलों में तो मानो डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त थी उसको! सभी शुभ-शुभ अवसरों पर गोपुली आमा मंगल-गीत गाया करती थी. खूब इज्जत और मान्यता थी गांव में उसकी. इसके अलावा किसी घर में कोई दुख-तकलीफ हो तो सबसे पहले पहुंचने वाली शख्स हुआ करती थी. (Remembering Gopuli Aama)
गंगनाथ की डंगरिया थी, तो कभी झाड़ना-फूंकना, भभूति लगाना, जहां जैसी जरूरत हो वहां उसी रूप में हाजिर होने वाली सुलभ और सहज इंसान थी वो. दुख में संवेदना, सुख में दिल खोलकर मदद और वह सदाबहार खिलखिलाती मुस्कुराहट उसके अनोखे आभूषण थे. जब हंसती थी तो थमने का नाम ही न लेती थी. ‘खीं-खी’ करते वह आधे घिसे काले दांत, आज भी मुझे याद आते हैं तो आंखें नम हो जाती हैं. उसके बिना हमारा गांव ऐसा था, मानो बिना मेट्रो के दिल्ली एनसीआर.
खूब मेहनत करने वाली कठोर परिश्रमी महिला थी वह. रोज अपनी गाय के लिए दूर-दूर के खेतों से घास काटकर सिर पर उठा कर लाया करती. कभी कबार ही चप्पल पहन कर चलती होगी वरना आंगन में नंगे पैर भागती हुई मिलती थी. इसी का नतीजा था कि फटी एड़ियों के बीच इतनी चौड़ी दरारें बन चुकी थी कि उनमें सौ-सौ के नोट फोल्ड करके रख दो तो फिट आ जाएं. एक बार मैंने कहा इसमें कुछ क्रीम लगा कर ठीक कर ले, तो बोली “ना-ना-ना इन खुरदरे तलवों से रात में पैर खुजाने में बहुत अच्छा लगता है!” ऐसी ही निराली बातें तो पूरे गांव की चहेती बनाए हुए थी उसको.
पूरा गांव उसके साथ था मगर इतनौं के साथ रहने के बाद भी अपने घर में गोपुली आमा अकेली थी. उसकी एक गाय और एक बछड़ा, यही साथी थे उसके. एक बेटा था जो दूर शहर में बीवी-बच्चों के साथ रहता था. वहीं का हो गया. सास-बहू की भला कब बनी है, यहां भी कहानी कुछ ऐसी ही थी. हां, बेटे से महीने का खर्चा बराबर आता था. उसी से गोपुली आमा का गुड़-मिश्री का खर्चा चलता था. जो घर चला जाता, चाय पिलाए बगैर उसे वापस न आने देती थी.
एक और मुसाफिर था जो गाहे-बगाहे, महीने दो महीने में उससे मिलने आ ही जाता था, नाम था मथुरा. और कोई नहीं यह गोपुली आमा का छोटा भाई था. दिमाग से बिल्कुल पैदल और कर्म से एकदम निठल्ला. यहां आता तो बैठकर खाता. पूरा गांव उसे मथुरा मामा कहकर बुलाता था. वह आता तो गोपुली आमा की तो मानो आफत आ जाती. कभी किसी के घर से चप्पलें बदल लाता तो कभी कोई और दूसरी आफत पकड़ लाता. खैर इस सबके बीच गोपुली आमा हमेशा मुस्कुराती रहती थी.
वैसे गोपुली आमा बहुत उम्र की तो न थी मगर बुढ़ापा शुरु हो चुका था. एक बार अचानक बीमार हुई. गांव वालों ने काफी तीमारदारी की. मगर जब दवाओं से भी असर न हुआ तो बेटे को खबर दी गई. बेटा आया तो अपने साथ शहर लेकर चला गया. पूरे गांव की रोती आंखों ने बगैर मन के गोपुली आमा को गाड़ी में बैठाया. वही हाल उस बेचारी का भी था, वह कहां इस गांव को छोड़ कर जाना चाहती थी. मगर क्या करती जाना मजबूरी थी.
शहर में बेटे ने डॉक्टरों से इलाज करवाया, दवा-दारु की और सेहत में सुधार होने लगा. पर उसका मन तो गाँव की गलियों में हिलोरे मार रहा था. वो चिल्लपों वाली शहरी जिंदगी उसकी आजाद प्रवृत्ति के लिए एक दमघोंटू कसरत ही थी. इधर गांव में भी गोपुली आमा के बिना बड़ी वीरानी छाई हुई थी. सबको ही ऐसा लगता था मानो कुछ छूट गया हो. गोपुली आमा के इंतजार में कोई अपनी घर की शादी रुकवा कर बैठा हुआ था तो किसी ने पूजा पाठ के कार्यक्रम होल्ड में डाल दिए थे. मथुरा मामा भी अब नहीं आता था. गांव का हर चेहरा इन दिनों उदास था. हर कोई चाह रहा था कि किसी तरह गोपुली आमा ठीक होकर वापस लौट आए. पूरा गांव उसकी सलामती की मन्नते मांग रहा था.
कुछ असर दवाओं ने किया और कुछ दुआओं ने. खबर आई कि गोपुली आमा की सेहत सुधरने लगी है. बेटे ने अच्छी दवा-दारू की. डॉक्टरों के इलाज से गोपुली ठीक होने लगी. और जहां कुछ आराम हुआ, उसने बेटे बहू की नाक में दम कर दिया कि उसे वापस गांव पहुंचा दे. डॉक्टरों ने बहुत समझाया कि कुछ दिन रुक जाए. शरीर में खून की कमी है. पर उसने एक न सुनी. मजबूर बेटा उसे गांव वापस छोड़ गया.
गोपुली आमा क्या आई गांव की तो मानो लाइफलाइन लौट आई. शादियों के मुहूर्त निकलने लगे. पूजा-पाठ की तिथियां शुरू हो गई. उधर मथुरा मामा भी पहुंच गया. अब तो हर रात गोपुली आमा के घर औरतों की चौपाल रात के दूसरे पहर तक जमी रहती थी. गांव में फिर से वही रंगत और रौनक हो गई. यूं कहो कि गांव की रुकी हुई सांसे चल पड़ी.
पर डॉक्टरों ने जो परहेज बताए थे वो वह शादी बारात और अनुष्ठानों के पकवानों की भेंट चढ़ गए. गोपुली आमा अचानक कुछ बीमार पड़ी. हाल-चाल पूछने पर पता चला कि पेट में कुछ तकलीफ है. जब दवाओं का असर नहीं हुआ तो गांव वालों ने बेटे को खबर कर दी. झुंझला कर बेटा-बहू फिर आए और कोसते हुए वापस शहर लिवा ले गए. गांव वाले यही मान रहे थे कि पिछली बार की तरह इस बार फिर फ़िर गोपुली आमा ठीक होकर लौट आएगी.
हफ्ते भर बाद शहर से महादेव बूबू के नाम से एक टेलीग्राम आया. महादेव जोशी, गोपुली आमा के देवर थे. पढ़े-लिखे नहीं थे, तो उन्होंने कुलोमनी हवलदार साहब को बुलाया. हवलदार साहब ने तार पड़ा तो उनकी आंखें नम हो गई. गोपुली आमा का देहांत हो चुका था. कोई अगले 10 मिनट के अंदर पूरा गांव आंगन में इकट्ठा हो गया. पूरे गांव की धड़कन थम चुकी थी. लोग महीनों तक दहाड़ मार-मार कर रोते रहे. महीनों क्या आज कोई 15-20 साल गुजर जाने को है, आज भी जब बात निकलती है तो दिल गमगीन हो जाता है और आंखें भर आती हैं. सच यह है कि गोपुली आमा की मौत के साथ ग्वीनाड़ा की लाइफ लाइन चली गई.
तेरी जिंदादिली और खुशमिजाजी को मेरा सलाम, गोपुली आमा तुझे प्रणाम.
कमल किशोर जोशी का यह लेख हमें काफल ट्री के फेसबुक पेज पर प्राप्त हुआ है.
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