जैसे कल की ही बात हो. गोपेश्वर के भूगोल के बिम्बों से प्रेमिका का नख-शिख वर्णन करता एक लम्बी दाढ़ी वाला हँसमुख कवि ध्यान आकर्षित करता है. यहीं हेड पोस्ट ऑफिस में कार्यरत हैं, बहुत अच्छे चित्रकार भी हैं. एक वरिष्ठ साथी ने परिचय कराया था, बी. मोहन नेगी का.
(B. Mohan Negi)
फिर तो जैसे वो पोस्ट ऑफिस के भी पर्याय हो गए थे. साहित्यिक-रचनात्मक आयोजनों के भी. उन्हें कलम या कूची से कैनवास पर आकृति और अक्षरों को उकेरते देखना एक दिव्य अनुभव होता था. बिना भाषण दिए, बिना लम्बे-चौड़े लेख लिखे भी उन्होंने सैकड़ों-हजारों युवाओं को रचनात्मकता की राह दिखायी थी, लत लगायी थी. कर्तव्यनिष्ठ ऐसे कि एक बार गौचर पोस्ट ऑफिस में मैंने उनसे कला सम्बंधी कुछ चर्चा करनी चाही तो विनम्रता से टाल गए ये कह कर कि शाम को चाय पर मिलते हैं. ये कहना भी नहीं भूले कि अभी तो कर्म ही पूजा भी है और कला भी. लगभग 32-33 साल पुरानी ये मुलाकात फिर एक रिश्ते में तब्दील हो गयी. वो बड़े भाई हो गए. उम्र और सृजन दोनों हिसाब से.
सुरुचि, सौन्दर्य और संस्कृति के अनोखे पारखी थे वे. आत्मीयता उनके सृजन के साथ-साथ उनके व्यवहार में भी खूब झलकती थी. किसी आयोजन की यादों को आप जैसे ही भूलने लगते हों तो अचानक एक लिफाफा याद तरोताजा कर देता था. पते की लिखावट ही बता देती थी कि किसी अज़ीज ने कुछ खास भेजा है. और अंदर खास होता भी था. आयोजन में आपकी उपस्थिति की गवाही देता सुंदर फोटोग्राफ या ग्रीटिंग कार्ड. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कोई रचना उन्हें अच्छी लगती तो फोन कर रचनाकार से चर्चा करना कभी नहीं भूलते थे.
(B. Mohan Negi)
कविता पोस्टर, कोलाज़, पेपरमेसी, भोजपत्र का कैनवास ये सब मेरी जानकारी और शब्दावली में बजरिए बी. मोहन नेगी ही आए. मॉडर्न (अमूर्त) आर्ट में भी वे सिद्धहस्त थे. इस विधा की उनकी कृतियां लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं का अंग हुआ करती थी. व्यक्ति-रेखाचित्र उन्होंने कम बनाए पर जो बनाए बेमिसाल बनाए.
चंद्रकुंवर बर्तवाल पर उनकी कविता पोस्टर सीरिज तो इतनी जीवंत और आकर्षक है कि बस देखते ही कविताएं मन में गहरे उतर कर छप-सी जाती हैं. सृजन में निरंतर प्रयोगधर्मी नवीनता उनका प्रिय शगल था. आप जिक्र भर कर दो या कोई क्लू दे दो वो हफ्ते भर में आपको सुंदर आउटपुट दे देते थे. एक बार मेरे आग्रह पर उन्होंने आकर्षक वैवाहिक कार्ड डिजाइन कर भेजा था जिस पर गढ़वाल चित्रकला शैली में गणेश और खोळी चित्रित किए गए थे.
सिर्फ सृजन ही नहीं, सहेजने और संरक्षित करने का भी उनका सलीका अद्भुत था. गढ़वाली साहित्य की लगभग समस्त दुर्लभ कृतियों का उनके पास न केवल संग्रह था बल्कि उनके वे गंभीर अध्येता भी थे. गढ़वाली गीतिकाव्य की भूमिका के लेखन के दौरान जब कुछ कृतियों के बारे में जानकारी के लिए स्थापित साहित्यकार भी हाथ खड़े कर देते थे तब बी. मोहन नेगी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराते थे. समकालीन उत्तराखण्ड की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं का भी उनके पास सुव्यवस्थित संग्रह था. संग्रह के शौक के चलते ही उन्होंने अपने घर के एक कमरे को भी संग्रहालय में तब्दील कर दिया था.
(B. Mohan Negi)
गढ़वाल चित्रकला शैली का अगर मौलाराम को संस्थापक, बैरिस्टर मुकंदीलाल को प्रमाणिक शोधकर्ता कहा जाए तो बी. मोहन नेगी को पुनर्प्रतिष्ठापक कहना सर्वथा उचित होगा. गढ़वाल चित्रकला शैली की उन्हें गहरी समझ थी. अपनी सीमाओं में उन्होंने इस पर भरपूर कार्य भी किया और प्रयोग भी किए. अपने लेटरपैड में तक वे मौलाराम के चित्रों की स्वनिर्मित रेखानुकृति का प्रयोग करते थे. हमारा दुर्भाग्य कि हम उनके लिए सिर्फ वाह-वाह ही करते रहे. न ही उन्हें आर्थिक संबल दे पाए और न ही सरकारी सहयोग दिला पाए. अगर ऐसा हो पाता तो पौड़ी में सांस्कृतिक आर्ट गैलरी का उनका स्वप्न उनके जीवनकाल में ही पूरा हो जाता.
बीसवीं शताब्दी के 40 के दशक में फ्रेंच चित्रकार डुबुफे ने, शास्त्रीय रूप से अप्रशिक्षित प्रतिभासम्पन्न कलाकारों को सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाने हेतु आर्ट ब्रट या आउटसाइडर आर्ट का अत्यंत लोकप्रिय कांसेप्ट प्रस्तुत किया था. हमारे अज़ीज बी. मोहन नेगी जी इस कॉंसेप्ट के सच्चे उदाहरण और उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं.
(B. Mohan Negi)
पता नहीं ये कितना संभव है पर अभिलाषा है कि डाक विभाग अपने इस विलक्षण कलाकार-कार्मिक पर एक डाक टिकट जारी करे. उनके रचना-संसार को संरक्षित संग्रहालय के रूप में विकसित करके ही हम अपने अज़ीज साथी को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं.
26 अगस्त 1949 को पौड़ी जिले के पुंडोरी गाँव में जन्मे बी. मोहन नेगी का परिवार बाद में देहरादून के चुक्खूवाला में बस गया था. पहाड़ों से अतिशय लगाव के चलते वे पूरे सेवाकाल में, पहाड़ों में ही कार्य रत रहे. 26 अक्टूबर 2017 को उनका निधन हो गया था.
एक चित्रकार मित्र को श्रद्धांजलि देते हुए आपने उसे सौंदर्य का उपासक और देवता कहा था. आपके लिए तो मेरे पास आड़े-तिरछे शब्द भी नहीं. बस यादें हैं, बहुत प्यारी-प्यारी. कुछ रंगीन, कुछ ब्लैक-व्हाइट. उनके सहारे ही आपको अपने आसपास गार्डियन स्प्रिट के रूप में हमेशा महसूस करता रहूंगा. अलविदा साथी.
(B. Mohan Negi)
1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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