समाज

डॉ. शेर सिंह पांगती: पुण्यतिथि विशेष

किसी भी अनजान क्षेत्र में जब आप घूमने जाते हैं तो पहले पहल लोग आपसे घुलते मिलते नहीं. ऐसे ही जोहार क्षेत्र में जब भी हम ट्रेकिंग पर जाते तो लोग शुरू में हमसे एक उचित दूरी बना कर बात करते. पर जब हम उन्हें बताते कि पांगती जी हमारे अच्छे परिचित हैं तो बातों में अपनत्व आ जाता और खुलकर बातें होने लगतीं. कदाचित बड़े पद और बड़े पैसे वाला न होने पर भी शेर सिंह पांगती जोहार क्षेत्र के इस दौर की सबसे ज्यादा सम्मानित शख्सियत थे और ये आदर, ये सम्मान, ये ख्याति उनके कार्यों से हासिल हुई थी. शेरी मास्साब लोगों के दिल के करीब इसलिए भी आये, क्योंकि वे वास्तव में वे एक निष्काम योगी जैसे थे. अच्छे काम कर दो और मान-सम्मान की मत सोचो.
(Dr. Sher Singh Pangti)

1 फरवरी 1937 मल्ला भैंसकोट में तेज सिंह और मंदोदरी देवी के घर जन्मे शेर सिंह पांगती एक नायाब व्यक्तित्व थे. कई पीढ़ियों को उन्होंने औपचारिक शिक्षा दी, क्योंकि वे पहले प्राइमरी फिर उच्चतर माध्यमिक और उसके बाद इंटर के अध्यापक रहे और जन-जन के ‘शेरी मास्साब’ बन गए. ये पेशा भी उन्होंने पूरी मेहनत और ईमानदारी से किया. जब बच्चों को पी.टी. सिखाने का जिम्मा उन्हें दिया गया तो उन्होंने पाया कि कुछ बच्चे चप्पल पहन कर आते हैं तो कुछ पाजामा पहन कर. सो वे अल्मोड़ा गए (तब मुनस्यारी एक गाँव जैसा था) और वहाँ से बच्चों के लिए पी.टी. शूज और निक्कर खरीद कर लाये. इस घटना को उनके शिष्य आज भी याद करते हैं. वे उन शिक्षकों में नहीं थे, जो ये समझें कि जितना पढ़ना था पढ़ लिया, अब जितना हो सका पढ़ा देंगे. बल्कि उनके पढ़ने और जानने-सीखने की हौस कभी खतम नहीं हुई.

जब रिटायरमेंट के चंद ही वर्ष रह गए तो वे प्रोफेसर शेखर पाठक के पास आये और बोले मुझे आपके निर्देशन में शोध करना है. पाठक जी ने कहा कि ये हो नहीं सकता आप हिंदी से एम.ए. हैं, इसलिए नियमानुसार आप हिंदी में ही रिसर्च कर सकते हैं. तो भी पांगती जी निराश नहीं हुए. उन्होंने दो साल लगा कर इतिहास में स्नातकोत्तर किया और फिर प्रो. शेखर पाठक के अधीन शोध कार्य शुरू किया. उनकी थीसिस ‘जोहार के शौका’ पुस्तक रूप में जब आयी तो बहुत चर्चित हुई और आज जोहार के इतिहास की एक मानक पुस्तक है.

कई बार जब हम यूनिवर्सिटी के अध्यापकों को देखते हैं तो लगता है कि इन्हें यहाँ नहीं होना चाहिए था. उन्हें कुछ और करना चाहिए था, मसलन ठेकेदारी, परचून की दुकान, पुलिस की नौकरी या बाबूगिरी और इसी तरह प्राइमरी, हाई स्कूल या इण्टर में ऐसे टीचर मिल जाते हैं, जो ऐसा लगता है कि इन्हें प्रोफेसर होना चाहिए थे. आचार्य शिव प्रसाद डबराल, शरत चन्द्र अवस्थी और ताराचंद्र त्रिपाठी के साथ-साथ ऐसा ही एक नाम शेर सिंह पांगती जी का भी याद आ रहा है.
(Dr. Sher Singh Pangti)

1998 में हिमांचल प्रदेश के केलोंग में एक संग्रहालय विधा (म्यूजियमोलोजी) में एक राष्ट्रीय वर्कशॉप आयोजित की गयी. इसमें उत्तराखंड से सात सरकारी प्रतिभागियों के साथ 8वें पांगती जी थे. लौट कर बाकी सात तो सरकारी तंत्र के मकड़जाल में फँस कर रूटीन जॉब में आ गए, पर शेर सिंह मास्साब ने अपने घर के एक हिस्से को संग्रहालय का रूप देना शुरू कर दिया. एक छोटी सी शुरूआत जो आज एक भव्य इमारत है और इसकी असली भव्यता इसके अन्दर है जो शौका समाज के इतिहास, संस्कृति की जीवंत झलक देता है.

शेर सिंह पांगती ने दस से ज्यादा पुस्तकों की रचना, संपादन, अनुवाद किया. मास्साब जोहार के इतिहास और संस्कृति के एक चलते-फिरते इनसाइक्लोपीडिया थे. तिब्बत व्यापार का इतिहास, इसके तौर तरीके हों या इसके चढ़ाव-उतार, जब वे बोलते तो सामने एक डॉक्युमेंट्री फिल्म चलने लगती. कला का कोई रूप स्थानीय है, तिब्बत के प्रभाव से जन्मा या शेष भारत से जोहार में आया, पांगती जी ऐसी बातों को सोदाहरण बता सकते थे. इसी तरह वे समझा सकते थे कि ढूस्का किस तरह झोड़ा जैसा होते हुए भी उस से कैसे अलग है कि पांडव किस तरह समाज में आज छोटी समझी जाने वाली जातियों के पास अनुनय विनय करने पहुँचे. लोक कथाओं, गाथाओं का खजाना उनके पास था मगर उन्होंने इसको लुका-छुपा कर नहीं रखा.

संस्कृति के क्षेत्र में पांगती जी का एक बेहद महत्वपूर्ण योगदान रामलीला आयोजन के रूप में रहा. ब्रजेन्द्र लाल साह जी ने उत्तराखंड के लोक संगीत के साथ जिस कुमाऊंनी रामलीला की रचना की, पांगती जी ने उसे मंच पर उतार दिया. उनका यह आयोजन जबर्दस्त ढंग से कामयाब रहा. दूर-दूर से लोग इस रामलीला को देखने आने लगे. जब रामलीला चलती तो भीड़ इतनी हो जाती कि तिल रखने की जगह शेष नहीं रहती. जोहार के लोग कहते हैं कि ये एक बेमिसाल आयोजन साबित हुआ, जिसने इलाके में एक नयी सांस्कृतिक चेतना जगाई.
(Dr. Sher Singh Pangti)

पांगती जी पीपुल्स लिंगुइस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण) जैसे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक राष्ट्रीय कार्यक्रम से भी जुड़े. इसमें और फिर इसके बाद उत्तराखंड की लोक भाषाओं पर बने शब्दकोष के निर्माण में जोहारी शब्दों के चयन में उनका योगदान रहा.

शौका होने के कारण हिमालय इनके मानस पर छाया होना स्वाभाविक था. सो वे एक जबर्दस्त घुम्मकड़ भी साबित हुए. अपने इलाके के चप्पे-चप्पे को छानने के अलावा एवरेस्ट बेस कैम्प, मिलम से मलारी, कैलास मानसरोवर, लद्दाख और उत्तरपूर्वी भारत और न्यूजीलैंड की यात्रा उन्होंने की. 1994 में ट्रेल्स पास अभियान, जो एक दुष्कर अभियान था, में वे सबसे उम्रदार प्रतिभागी थे. अस्कोट आराकोट अभियान 1994-2004-2014 का दल जब जब मुनस्यारी पहुँचा, दल की आवाभगत, रहने की व्यवस्था, सभा और जुलूस का आयोजन उन्होंने किया.

चेहरे पर हमेशा रहने वाली हल्की सी मुस्कान और आवाज में एक नैसर्गिक विनम्रता पांगती जी की पहचान थी. जब उनको पहाड़ संस्था ने ‘पहाड़ रजत सम्मान’ से नवाजने का प्रस्ताव उनके सामने रखा तो उन्होंने बड़ी ही मासूमियत से कहा- मुझ से ज्यादा काबिल तो और लोग हैं. उन्हें दीजिये न ये पुरस्कार… और जब 6 दिसम्बर 2008 को पिथौरागढ़ के नगरपालिका सभागार में उनका सम्मान पत्र पढ़ा गया तो उन्होंने आयोजक के कान में धीरे से कहा- क्या ये कुछ ज्यादा नहीं हो गया?
(Dr. Sher Singh Pangti)

प्रदीप पांडे का यह लेख नैनीताल समाचार से साभार लिया गया है.

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