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‘राम सिंह ठकुरी’ राष्ट्रभक्ति के संगीत से सरोबार पल्टन का फौजी

2/1 गोरखा राइफल्स के हवलदार दिलीप सिंह के घर 15 अगस्त 1914 को हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले के मुख्यालय धर्मशाला में स्थित सल्ला धारी गांव, जिसे पेंशनर लाइन भी कहा जाता था, में उस सपूत ने जन्म लिया, जिसके संगीत की स्वर लहरी में भाग लगाते, सहस्त्रों देशवासी आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए, तिरंगा उठाये, युद्ध भूमि की ओर कदम बढ़ाते, चलते चले, गीत गाते, चलते रहे –
(Ram Singh Thakuri)

‘कदम कदम बढ़ाए जा
ख़ुशी के गीत गाए जा
ये जिंदगी है कौम की
तू कौम पे लुटाए जा ‘

शुक्र, चंद्र, शनि अनुकूल रहे होंगे उस पल और मंगल भी प्रभावी जब नील सरस्वती के आशीर्वाद व अपनी ईष्ट दुर्गा से अभय पाया यह यशश्वी. इस शिशु का नाम रखा गया राम सिंह. राम सिंह के दादा जमनी चंद ठकुरी पिथौरागढ़ के निवासी थे.

पिता ने 2/1 गोरखा राइफल में युवा होते ही भर्ती ले ली थी. राम सिंह को पहाड़ बहुत प्यारे थे. पहाड़ की हवा उसका मन मोहती थी. उसे मतवाला बनाती थी.पहाड़ में बहने वाली सरिता उनके ह्रदय को कम्पित करती थी.पहाड़ की चिड़ियों का निनाद अपने आँगन में बैठ जंगल में गुपचुप सिमट वह घंटों सुना करता. उन आवाजों की नक़ल करता. पशु पक्षियों को पास बुलाने का जतन करता. संभवतः इसी पर्वतीय परिवेश ने उसके भीतर उस भाव-ताल-राग का स्पर्श कर ऐसी कुछ ऊर्जा भर दी जिससे मन की बात तरंगित हो. नाभि से ले कर सहस्त्र-दल-कमल तक वह तरंग संगीत बन उसके साथ चली, जीवन भर चली और अपने उत्कर्ष में रिद्धि -सिद्धि दे गई. उसने राष्ट्रभक्ति व देश प्रेम के सम्पुट से आज़ादी के मतवालों के भीतर ऐसा जोश भर दिया कि अपना सब कुछ निछावर कर देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने का संकल्प ले युध्द भूमि की ओर जाँबाज कदम बढ़ चले. ऐसी चेतना भर गई चारों ओर कि अपनी वसुंधरा की रक्षा के लिए मंगल उग्र हो गया. युद्ध भूमि विदेशी शत्रु के संहार से रक्तिम हो चली.

‘करो सब निछावर बनो सब फ़क़ीर’ का बाना पहने जन समूह उसके गीत – संगीत के साथ समवेत नाचता -गाता, आज़ादी का बिगुल बजाता बढ़ते ही गया:

तू शेरे हिन्द आगे बढ़,मरने से भी तू न डर,
उड़ा के दुश्मनों का सर जोशे वतन बढ़ाए जा.
तेरी हिम्मत बढ़ती रहे,खुदा तेरी सुनता रहे,
जो सामने तेरे अड़े,तो खाक में मिलाए जा.

(Ram Singh Thakuri)

अपने दादा से, अपने गाँव की बात सुनते पहाड़ में जंगल जाते गाय-बछिया-बछड़ा चराते, बकरे-बकरियों और उनके फुदकते मेमनों को हांकते, उनके गले में बंधी घंटियों की टन-टन, टुन-टुन की ध्वनियाँ अद्भुत रोमांच को उत्पन्न करतीं इस छोटे बालक राम सिंह को ऐसा प्रभावित कर गयीं कि वह समझ गया कि जब उसके जानवर पहाड़ी की तरफ चढ़ रहे होते तो इन घंटियों के साथ उनके खुरों का जमीं से टकराता स्वर मंद सा पड़ जाता,ठहर सा जाता और फिर चरागाह में घास चरते,मुंह उठाते, हर पशु के गले में बंधी ताम्बे की मिश्रित घातु की वह कई- कई सारी घंटिया और बैलों के गले में टनटनाट करते टुनटुने घंटों की आवाज में ऐसा कुछ जादू जग जाता जो उसे रोज सुनने को व्याकुल कर देता. उसके कुछ साथी बंसी बजाते, अलग-अलग ढंग से, मुंह में ऊँगली डाल सीटी बजाते और धाल लगाते:

ओss होss आ sss
आ ss रे sss
ले ss

पहाड़ के कई कोने ऐसे होते जिनसे उनकी आवाज टकरा कर वापस आती. दूर पहाड़ों से टकरा के वापस आतीं.पूरा पेट भर गोधूलि बेला में आराम -आराम से अपनी ठौर लौटते जानवरों के साथ राम सिंह के कंठ में रोज कुछ नए से स्वर होते.

उसके दादा की वही सोर घाटी जो अपनी दुर्गमता के साथ अद्भुत सुन्दर थी और फिर उस पार नेपाल था बीच में सुसाट-भूभाट करती लहराती बलखाती काली नदी. शिलाओं से टकराती अथाह जल लहरें. बस इस ध्वनि को सुनते रहने की इच्छा और किनारे बैठ इसे देखते रहो तो रिंगाई आ जाये. सब कुछ घूमता. बालपन से ही देखा अनोखी संस्कृति में फलता फूलता धर्मशाला का वह स्वरूप जहां ‘ओं’ का कंठ से, ‘मणि’ का ह्रदय से, ‘पद्म’ का नाभि से और ‘हुम’ का मिलन केंद्र से बताया जाता. पहाड़ की धरा से संप्रेषित होते ये बीज स्वर अवचेतन में घुल उसकी कल्पनाओं को राग-रागिनियों से सिक्त कर देते. राम सिंह का बाल मन जैसे हिमालय सीमांत की इस धरती से यह सन्देश पाता अपने अवचेतन में –

हे वीर बालक हो जातिलाई सुधार
हिम्मत गरी अधि बढ़ी बैरीलाई लगार.

जंगल में घूम, पेड़-पौधों, फलफूलों के साथ उनके बीच रह वह खूब मस्ती करता तो दशहरे में होने वाली रामलीला का तो वह दीवाना ही था.मधुर स्वर लहरियों के साथ हारमोनियम और तबले की जुगलबंदी के बीच, कितने पद कितनी चौपाई उसे कंठस्थ हो गयीं. बहुत ही भावुक था राम सिंह. स्वर संगम को सुनते उसे ग्रहण करते वह खुद भी गाने लगता. उसकी उंगलियां थिरकने लगतीं. न जाने कितनी धुनें मचल-मचल कर उसकी कल्पनाओं में प्रवेश कर जातीं. जब वह अपनी रची रागिनी औरों को सुनाता तो वह आश्चर्य करते,उसके उत्साह को बढ़ाते. वहीँ दूसरी और वह उग्र भी था, ऐसा कि कोई गलत बात सहन न करे.जो उसे न भाए उसका कठोर जवाब दे. आखिरकार वह गोरखा था. रामलीला देखते एक बार जब रावण ने सीताहरण की कोशिश की तो राम सिंह इतना क्रोधित हो पड़ा कि ले हाथ में उठा के पत्थर उस आदमी को दे मारा जो रावण बना था.

चरणों में सोने की लंका, कंठ में दरियाओं की माला.
सर पर सूंदर ताज हिमालय,जीते देश हमारा
भारत है घर बार हमारा.

कुछ गाते रहने गुनगुनाने में अलमस्त किशोर वय के राम सिंह पर मास्टर मित्र सेन की नज़र पड़ी जिन्होंने उसे संगीत की विधिवत समझ दी. समय बीतते देर न लगी और वह कुछ नई धुन गुनगुना दे. अपने मन की बात गा दे, गुनगुना दे,तराना बना कागज में उतार दे. उनके आस पास के लोग कहें कि यह तो दिल छूता है. कहीं कुछ जगाता है. राम सिंह फिर खो जाता अपने स्वरों के आरोह-अवरोह मे:

गुलाम उठ वतन के दुश्मनों से इंतकाम ले
इन अपने बाजुओं से तू खंजरों को थाम ले.
पहाड़ तक भी कांपने लगें तेरे लो खून से,
वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हों.

जज्बात भरी अपने दिल की बात के साथ कुछ और बेहतर के परिणय का तार उन्हें वायलिन में महसूस हुआ. तय किया कि जब भी हो जैसे भी हो वायलिन तो लेनी ही है उसके बगैर बहुत कुछ अधूरा सा है.

गई रात आया प्रभात हम निद्रा से जागे
जय जय जननी जन्मभूमि हम बालक अनुरागे.

तब गोरखा परिवारों में एक परंपरा थी कि गोरखा वंश के पुत्र उसी पल्टन में भर्ती लेते जिसमें उनके अभिभावक होते. अंग्रेजों के खिलाफ 1857 में लड़ी आजादी की पहली लड़ाई में गोर्खाओं ने बहुत बहादुरी दिखाई थी. 8 नवंबर 1860 को जिला कांगड़ा की ओर बढ़ती हुई गोरखा पल्टन 21 मार्च,1861 को धर्मशाला पहुँच गई थी. अंग्रेज सरकार ने 18 मार्च,1864 को धर्मशाला को पहली गोरखा रेजिमेंट का स्थायी स्थान बना दिया. 1879 तक गोर्खाओं को यहीं आबाद करने और सिर्फ पल्टन में ही नौकरी देने के आदेश भी पारित हुए. गोर्खाओं को गैर काश्तकारों की श्रेणी में रखा गया और चिलधारी या पेंशनलाइन्स में उन्हें बसा दिया गया. यह वही स्थान था जहां राम सिंह का जन्म हुआ.

अंग्रेजों को उनका हुक्म बजा लाने वाले साहसी, उसूल के पक्के जान पर खेल जाने वाले, मजबूत कदकाठी के जाबांज चाहिए थे और इसीलिए उन्होंने गोर्खाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता दी. अंग्रेज कूटनीतिज्ञ तो थे ही इसलिए उन्होंने ऐसे रेजिमेंटल स्कूल खोले जहां सिर्फ दर्जा चार तक की ही पढ़ाई होती और जब मजबूत कदकाठी के तंदरुस्त बच्चे बारह साल की आयु पार करते उन्हें ‘रंगरुट ब्वाएज’ में भर्ती कर दिया जाता. राम सिंह भी अपने पिता की 2/1 गोरखा राइफल्स में भर्ती हुए. अब भर्ती के बाद सैनिक दिनचर्या थी. कठोर नियम व अनुशासन था पर इन सब के बावजूद सुर-संगीत अपनी जगह था. उसके लिए समय मिलने ना मिलने जैसी कोई बंदिश न थी क्योंकि संगीत तो बचपन से ही पँख फैला और ऊँचे आकाश की ओर उड़ान भरने की पूरी कोशिश में रम चुका था. अभी तन्खा भले ही कम थी पर इतनी बचत तो कर ही ली कि अपना एक वायलिन खरीद सकें. बस जब भी जरा फुर्सत होती वायलिन के तारों पर चलते हाथों के साथ क्रंदन उभर जाता –

गुलामी तो वो बेजार सी आजादी दी तलबगार सी.
भारत माता रौंदी अै पई मेरा सहारा कित्थे गया.
जादू सी तकरीर बीच जोश सी शमशीर बिच्च.
सेनापति हिन्द फ़ौज दा बंगाली दुलारा कित्थे गया.

अपने पहाड़ की मिटटी की सौंधी खुसबू पहचानने वाला किशोर,उग गयी कंटीली झाड़ के चुभते काँटों से आहत युवा राम सिंह अब महसूस करने लगा कि जो अपनी जननी है अपनी जो मिटटी है,अपनी थात है वहां खुल के साँस भर सकने को अभी बहुत कुछ बलिदान बाकी है.जिसके लिए उस जज्बे को सलाम करना होगा जो चारों दिशाओं से आवाज दे रहा कि

हमने तोड़ देनी हैं ये बेड़ियाँ,हटा देने हैं ये बलात शिकंजे जो साम्राज्य की लोलुप नस्ल ने उन पर,उनके पुरखों के समय से फैला दिए हैं.अपने इस प्रतिरोध को अभी बनाये -बचाये रखना है.उस वक़्त के लिए,जब भारत माता के काम आ सकें. हम दुख की कैद से उसको छुड़ाएं,आज़ादी लें या मर जाएँ फिर सुख चैन से गाएं गीत.

संगीत से भरे अपने व्यक्तित्व ने सबका मन मोहा. बटालियन के कमांडिंग अफसर की पत्नी ने राम सिंह के स्वर सुने तो उन तरानों ने उसका मन मोह लिया. अपने पति से कह उसने राम सिंह के और बेहतर प्रशिक्षण की व्यवस्था करवा दी.उस बटालियन का बैंड मास्टर सार्जेंट हडसन था जो रामसिंह की लगन को देख उसे हर रोज चार घंटे तक का प्रशिक्षण देने लगा. अब राम सिंह के अपने बनाये बोल थे तो इनके मर्म को संगत देती वायलिन, जिसके वह मास्टर थे.
((Ram Singh Thakuri))

गोरखा खून था राम सिंह का जो फौजी सिपाही के रूप में शूरवीर होने की सारी योग्यता से लबालब भरा रहता. फ़ौज में ‘ब्यॉय’ सिपाही बनने के बाद उन्हें रेजिमेंट नंबर 6721 मिला. चौदह साल का किशोर राम सिंह 1928 में रंगरूट ब्यॉय के रूप में भर्ती पाया तो ठीक इक्कीस साल की उम्र में 1935 में वह लांस नायक बन गया. 25 वर्ष की आयु में सूबेदार मेजर. तभी शमशेर जंग जो 1/4 गोरखा राइफल्स में थे और जिला चम्बा हिमाचल के ग्राम बकलोह के निवासी थे ने अपनी सुपुत्री का विवाह राम सिंह से कर दिया. 1939 में ही दूसरा विश्व युद्ध आरम्भ हो गया और अब तक राम सिंह लांस नायक बन चुके थे.  

दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका के बढ़ते राम सिंह की प्लाटून को 3 सितम्बर 1939 को इन्फेन्ट्री बटालियन में शामिल कर दिया गया.उनके बैंड के सभी साज-सामान अब जमा हो गए रावलपिंडी के मालखाने में. वह वक़्त आ गया जब बंदूक उठा बारूद के धमाकों में बीहड़ जंगलों में हो रहे युद्ध में ब्रिटिश फौज के आदेश को मानें जिसके लिए गोरखाओं पर ब्रिटिश हुकूमत पूरा विश्वास करती थी. 1941 में उन्हें यह आर्डर मिला कि वह अपनी बैंड पार्टी के साथ मोर्चे पर जाएँ. अपनी पल्टन 2/1 गोरखा राइफल्स के साथ 23 अगस्त 1941 को बम्बई बंदरगाह से पोत पर सवार हो यह पल्टन मलाया जा रही थी. 1941 के बीतते -बीतते मित्र सेना पर जापानियों ने घेराबंदी कर आक्रामक रणनीति अपनाते युद्ध छेड़ दिया. 2/1 के गोरखा राइफल के जमादार पूर्ण सिंह ठाकुर और अनगिनत सैनिक युद्धबंदी बना लिए गए. जापानियों का शिकंजा बढ़ते ही गया. मित्र सेना इस चौतरफा आक्रमण में फँस गयी. उसके अनेक सैनिक मारे गए और कइयों को युद्ध बंदी बना लिया गया.

राम सिंह अन्य सैनिकों के साथ कैदी थे. कैदी सिर्फ शारीरिक प्रताड़ना ही नहीं झेलता. उसके मन, उसकी संवेदना को आहत किया जाता है, कुचला जाता है. ऐसे में जिस्म टूटता है छोटी छोटी बातों पर तनाव में आ,अपने ही साथियों से झगड़ बैर भाव पनप उठता है.भले ही वह थोड़ी देर का हो. ऐसे ही जब पहले पहल उनके बंदी साथियों के बीच लड़ाई -झगडे होते, तू- तू मैं -मैं होती तो राम सिंह उन्हें शांत करते गीत सुनाते जो भी हाथ पड़े बजाते, चाहे वह थाली हो या मग. उस पर थाप दे अपने साथियों से कहते कि हमें भी संगीत की तरह होना चाहिए. संगीत स्वतंत्र बजता है, सबके कानों पर पड़ता है,कोई बैर भाव नहीं करता. सबको खुश करता है. हमें भी ऐसा ही बनना है. साथी उनकी बात सुनते उनके गीतों में खो जाते और उन्हें गोरखा गाँधी कहने लगते.
((Ram Singh Thakuri))

राम सिंह गाँधी जी को भगवान की तरह मानते थे जिन पर करोड़ों भारतवासी यह विश्वास करते कि उनका सत्याग्रह ही हमें दासता से मुक्त करेगा. गाँधी जी की रामधुन और वैष्णव जन का स्मरण और गान उन्हें अद्भुत शांति देता. एक घटना और घटी जिससे गाँधी जी के प्रति उनकी आस्था और अमिट हो गई. 25 दिसंबर,1941 को युद्ध अपने उत्कर्ष पर था. जापानियों ने ब्रिटिश सेना को कुचल कर रख दिया था. साँझ ढले तीन जापानी 2/2गोरखा पल्टन के सूबेदार दिल बहादुर गुरंग को उनके युद्धबन्दी शिविर में पटक गए और उनकी देखभाल की जिम्मेदारी रामसिंह को देते बोले कि इसका ख्याल रखें. तीव्र ज्वर और कमजोरी से गुरंग थर -थर कांप रहे थे. राम सिंह ने उन्हें बिस्तर पर लिटाया. जब सूबेदार गुरंग की हालात कुछ सामान्य हुई तब उन्होंने बताया कि आज तो जापानियों ने उन्हें मार ही दिया था. उनके साथ पांच ब्रिटिश फौजी और थे जिन्हें जापानियों ने सुबह से ही रबड़ के पेड से बांध रखा था. शाम को उन्हें मारने के लिए जब रस्सी खोली तब उनका सिर फौज की गाड़ी से टकरा गया और सिर में पहना हेलमेट नीचे गिर गया. तब जापानियों ने उनसे पूछा तुम अंग्रेज हो या गाँधी? यह कह उनकी चुटिया जोर से खींची और बोले तुम तो इंडियन गाँधी हो. यू गाँधी हिंदुस्तानी. दिखता एकदम अंग्रेज के माफिक है. फेस एकदम लाल, बदन हट्टा कट्टा. हम तो तुमको अंग्रेज समझ बैठे.तुम तो गाँधी के देश के हो. सचमुच सूबेदार दिल बहादुर गुरंग अंग्रेज की माफिक दिखते थे पर आज उनके गले पर लटकी तलवार गांधीजी का देशवासी होने से बच गई. अपने फ़ौजी वाहन में बैठा जापानी इज्जत के साथ यहाँ ले आए तुम्हारे पास रामसिंह ! गांधीजी ने बचा लिया.

राम सिंह भी अब युद्ध बंदी थे. अब शरीर पर भी कष्ट अपार थे तो भावुक मन आहत. पर उन्हें क्या परवाह. वह सामान ढोते, जापानियों के कहे हर काम करते. रास्ते बनाना,सडकों का पुनर्निर्माण करना, पानी लाना सुबह से रात तक सब यही चलता. यहाँ पराधीन शरीर हर बलात काम को पूरा करने में जोत दिया गया. उस पर न तो पूरा खाना मिलता और न ही घाव पर मरहम. बीमारी में दवा भी न नसीब होती. जरा सी भी हुक्मउदूली हुई तो जापानी सीधे युद्धबंदियों को गोलियों से भून देते. पर राम सिंह के भाग्य में तो माता नील सरस्वती का अभयदान था. कृपा दृष्टि थी. तन और मन की इस बंदिश में भी उनके भीतर छुपी अद्भुत प्रतिभा का अंदाज एक जापानी अफसर को लग गया. संभवतः हर आदेश को मानते रामसिंह के होठों की थिरकन ने उसे यह सन्देश दे दिया कि यहाँ तो संदेश भरे गीतों का वास है. उस संगीत के दीवाने अफसर ने युद्ध बंदी राम सिंह को वह मौका दे दिया कि वह अपने संगीत से उसके अवसाद को दूर करे. झंकृत कर दे वह सुर जो मृत्यु के तांडव के बीच जीने की डोर मजबूत करता है. दिल की धड़कनों में बस जाता है. बारूद के इन धमाकों के बीच जिसकी प्रतिध्वनि महसूस की जा सकती है. राम सिंह जापानी फौज के अफसर को अपने संगीत और गीत से रिझा गए.

अब आया जीवन में परिवर्तन की लहर से प्रबल प्रयास का ऐसा दौर जिससे अपने देश में गुलाम पड़ी मानसिकता उनके स्वर से चेतन होने लगी और फिर उसी लय में तरंगित हो आज़ादी के नग्मे गाने लगी. संगीत में कितनी ताकत है इसका एहसास उन्हें तब हुआ जब आजाद हिन्द संघ के क्रन्तिकारी संगठन में उन्हें आज़ाद हिन्द फ़ौज की बैंड पार्टी का प्रमुख बना दिया गया. 1942 में पंद्रह सौ से अधिक अधिकारियों और सिपाहियों के साथ इसके अध्यक्ष रास बिहारी बोस ने प्रचार और प्रसार विभाग के के.पी. एस मेनन,संगठन प्रमुख एन राघवन, प्रमुख जनरल मोहन सिंह और सैनिक प्रशिक्षण के चीफ ले.क. गिलानी के साथ आजाद हिन्द फ़ौज की विधिवत स्थापना की. आज़ाद हिन्द फ़ौज में राम सिंह ठकुरी भी शामिल हुए जिनकी पदोन्नति कर उन्हें कप्तान बनाया गया. आज़ाद हिन्द रेडियो स्टेशन के संगीत निर्देशक का कार्यभार भी राम सिंह ठकुरी को मिला.
(Ram Singh Thakuri)

3 जुलाई,1943 का दिन कैप्टन राम सिंह के लिए उत्साह से भरा था जब उनने सिंगापुर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के स्वागत में,’वन्दे मातरम ‘ और मुमताज़ हुसैन की कलमबंद रचना को संगीत बद्ध कर गाया –

सुभाष जी, सुभाष जी वह जाने हिन्द आ गये
वह नाज जिनको हिन्द का वह शाने हिन्द आ गये.

युद्ध के दौरान आजाद हिन्द फौज के घायल सिपाहियों को देखने व उनकी आशल कुशल लेने रंगून अस्पताल आते थे. वहां सिपाहियों ने नेताजी से अनुरोध किया कि जब वह ठीक हो जाएँ तो उन्हें मोर्चे पार जाने की अनुमति मिले और उनके पास कप्तान राम सिंह को बार -बार भेजा जाये क्योंकि उनके गीत -संगीत से घायल सैनिकों की पीड़ा दूर होती थी.

4 जुलाई 1943 को सिंगापुर की कैथे बिल्डिंग में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने राम सिंह से देशप्रेम से भरी संगीतमय रचनाएं करने का अनुरोध किया.15 अक्टूबर,1943 को नेताजी के विशेष सचिव आबिद हुसैन ने कप्तान रामसिंह को नेताजी का विशेष सन्देश दिया कि वह 21 अक्टूबर को आजाद हिन्द अस्थायी सरकार के स्थापना दिवस पर गाने के लिए गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा विरचित राष्ट्रीय गीत जन गण मन का हिंदी अनुवाद कर संगीतबद्ध करें. इसके आरम्भिक बोल, ‘शुभ सुख चैन की बरखा बरसे, भारत भाग्य है जागा ‘ की धुन बनाने की जिम्मेदारी कप्तान राम सिंह को मिली जिसे सुन नेताजी भाव विभोर हो गये.

 23 अक्टूबर 1943 को जापान सहित विश्व के नौ राष्ट्रओं ने आजाद हिन्द की अस्थायी सरकार को मान्यता दी व 25 अक्टूबर को नेताजी ने ब्रिटेन व अमेरिका के खिलाफ युद्ध की घोषणा की. आज़ाद हिन्द फौज की बटालियनें आरा कान, मणिपुर और कोहिमा तक जा पहुंची. पर मणिपुर और कोहिमा में आज़ाद हिन्द फौज को भारी नुकसान उठाना पड़ा. नेता जी ने अब यह तय किया कि कि किसी अन्य देश से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखा जाय. कर्नल लंगनाथन को सेना की कमान सौंप अप्रैल 1945 के बीतते उन्होंने रंगून से पलायन किया.
(Ram Singh Thakuri)

कप्तान राम सिंह ठकुरी बताते हैं कि नेता जी का आदेश था कि युद्ध करते करते यदि हम सभी खत्म हो जाते हैं तो इससे हमारा अभीष्ट हमारी आजादी का लक्ष्य पूरा नहीं होगा. तब ब्रिटिश सरकार हमें और हमारे राष्ट्रीय संघर्ष को जापान का एक षड्यंत्र बता आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों को भाड़े के सैनिक की तरह पूरी दुनिया और हिंदुस्तान के सामने रख देगी और यह साबित करने की कोशिश करेगी कि हम गद्दार हैं. इस गलतफहमी से बचने के लिए यह विकल्प सही होगा कि आज़ाद हिन्द फौज के ज्यादा से ज्यादा सैनिक युद्धबंदी बन भारत की जेलों में जाएँ. तभी हमारे देशवासी और नेता यह जानेंगे कि हमारे लक्ष्य और कार्यक्रम क्या हैं तब भारत के स्वाधीनता संघर्ष को इससे मनोबल मिलेगा. 4 मई 1945 को कर्नल लंगनाथन के नेतृत्व में आज़ाद हिन्द फौज की एक टुकड़ी ने मित्र सेना के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया.कप्तान राम सिंह ठकुरी भी युद्धबंदी थे जिन्हें पहले कलकत्ता के युद्धबंदी शिविर में तो फिर दिल्ली के लालकिले में कल कोठरी में डाल दिया गया. उन पर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित होने का मुकदमा चला. उनसे आज़ाद हिन्द फौज के भेद खोलने की हर कोशिश जब नाकाम हुई तो उन्हें शारीरिक यातनाएं दीं गईं. इससे पहले मेजर दुर्गा मल्ल और कप्तान दल बहादुर थापा को फांसी पर लटका दिया गया था. अब कप्तान राम सिंह की बारी थी. आज़ाद हिन्द फौज के सेनानियों के पक्ष में मुक़दमे की पैरवी तेज बहादुर सप्रू, भोला भाई देसाई और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने की जिनके प्रयासों से वह रिहा हुए.

 युद्धबंदी से रिहा होने के साल भर बाद 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया. 9 अगस्त 1948 को उत्तरप्रदेश प्रोविँशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी के बैंड में सब इंस्पेक्टर के पद पर उन्हें नियुक्त किया गया. अगले पांच साल में वह इंस्पेक्टर बनाए गये. 1960 में उन्हें ऑनरेरी डिप्टी सुप्रिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस का पद मिला. 15 अगस्त 1972 से भारत सरकार और उत्तरप्रदेश सरकार ने उन्हें स्वाधीनता ता संग्राम सेनानी सम्मान पेंशन प्रदान की. 30 जून 1974 को उनकी सेवा निवृति हुई. कप्तान राम सिंह ठकुरी की देश के लिए की गई उल्लेखनीय सेवाओं को देखते उन्हें विविध प्रांतीय व राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित किया गया जॉर्ज षष्टम पदक उन्हें 1937 में मिल चुका था. 1943 में उन्हें आज़ाद हिन्द का नेताजी स्वर्ण पदक मिला. उत्तरप्रदेश प्रथम राज्यपाल स्वर्ण पदक उन्हें 1956 में तथा 1972 में राष्ट्रपति पुलिस पदक मिला. स्वाधीनता की पचीसवीं जयंती के अवसर पर उत्तरप्रदेश सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र प्रदान किया. 18 फरवरी 1977 को लखनऊ की ‘चित्रकूट’ संस्था ने उन्हें ‘गायक सिपाही ‘की उपाधि से सम्मानित किया तो 1978 में उत्तरप्रदेश संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें अकादमी पुरस्कार दिया.हिंदी के यशस्वी उपन्यासकार अमृत लाल नागर के संरक्षण में लखनऊ की ‘युवा परिभ्रमण एवं सांस्कृतिक समिति’ ने 1980 के वार्षिक समारोह में उन्हें सम्मानपत्र अर्पित किया तो दिल्ली की सिंफोनी सोसाइटी ने अपनी संस्था का आजीवन सदस्य बनाया.

1996 में भारतीय सेना ने सेना गीत के रूप में आज़ाद हिन्द फौज के प्रसिद्ध गीत ‘कदम कदम बढ़े जा, खुशी के गीत गाए जा, ये जिंदगी है कौम की तू कौम पे लुटाये जा ‘ को स्वीकृत किया. इसी वर्ष पश्चिम बंगाल सरकार ने उन्हें प्रथम आज़ाद हिन्द फौज पुरस्कार प्रदान किया. आल इंडिया गोरखा स्टूडेंट यूनियन ‘आगसू’ ने 14 अप्रैल 1997 को दार्जिलिंग में उनका भव्य नागरिक अभिनन्दन किया तो सिक्किम ने उन्हें प्रथम मित्रसेन स्मृति पुरस्कार प्रदान किया. स्वाधीनता की चालीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर 1987 में उत्तरप्रदेश के विधान भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्हें अपने बैंड का नेतृत्व करना था पर अस्वस्थता के कारण वा इस कार्य क्रम में सम्मिलित न हो सके.इस कार्यक्रम के संपन्न होने के कुछ महीनों के बाद उन्हें चार पंक्तियों का आदेश उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से भेजा जाता है कि अब सरकार को उनकी सेवाओं की आवश्यकता नहीं है.
(Ram Singh Thakuri)

पचास वर्षों की देश सेवा का सरकार की नौकरशाही द्वारा किए गए अपमान से संगीतकार का भावुक मन आहत हो जाता है. वह अस्वस्थ हो जाते हैं. नौकरशाही के इस व्यवहार की सर्वत्र निंदा होती है पर अधिकारियो की दलील बस यह रही किउम्र के चलते राम सिंह अब काम करने के अयोग्य हैं इसलिए सरकार को उनकी सेवाओं की जरुरत नहीं. पी.ए.सी के अधिकारी भी उन्हें सरकारी आवास खाली करने का आदेश देते हैं. अंततः पुलिस महानिदेशक के हस्तक्षेप से उन्हें बहाल किया जाता है और उनकी समस्त सुविधाऐं बनाए रखने का आदेश पारित होता है. पैर तब तक इस सिंगिंग सोल्जर की आवाज सूख चुकी होती है. आहत मन की आवाज बस खुद को बहलाती है अपनी सांसों को जीने का आरोह अवरोह समझाती है :

“दुनियां में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा,
जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा.”

अंततः 15 अप्रैल 2002 को लम्बी बीमारी के बाद लखनऊ स्थित उनके व्यक्तिगत आवास में 88 वर्ष की आयु में स्वर -संगीत पल्टन का यह सिपाही अनंत में विलीन हो गया. भारत के आजादी के मतवालों में जोश व आक्रोश जगा जिसने हर हिंदुस्तानी के ह्रदय को मंत्र मुग्ध कर दिया वह देशभक्त सरलता की प्रतिमूर्ति था. उनका संगीत लोगों तक पहुँच उन्हें असीम आनंद से भर दे ये उसकी पुरजोर कोशिश रहती थी.. इसी कारण चाहे किसी अधिकारी के आवास में कोई पारिवारिक कार्यक्रम हो या आम जन का जलसा राम सिंह का बैंड हर जगह बजा और जिस किसी ने उसे एक बार सुन लिया उसके कानों में वह स्वर आज भी गूंजते सुनायी देते हैं.

गोरखा शिखर पुरुष श्रृंखला में भारतीय राष्ट्रीय संगीत के आधार स्तम्भों में राम सिंह ठकुरी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर गंगटोक सिक्किम के सुप्रसिद्ध रचनाकार सुवास दीपक ने महत्वपूर्ण शोध की है जो गोरखा वीरों के बलिदान के विस्मृत पन्नों को हमारे सामने रख उस शौर्य व पराक्रम की गाथा का बखान है जिसने आजादी की लड़ाई में समर्थ व प्रभावी भूमिका का निर्वाह किया.
(Ram Singh Thakuri)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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  • आज़ाद हिंद फ़ौज का मार्च गीत कदम कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाए जा..लखीमपुर खीरी जनपद के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व विधायक पंडित बंशीधर शुक्ल ने लिखा है।

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