उत्तराखंड के प्राचीनतम मेलों में से एक बग्वाल का आज चम्पावत के देवीधुरा में जोशीले अंदाज़ में प्रदर्शन हुआ. तकरीबन १० मिनट चली बग्वाल को दूर दूर से लोग देखने आते हैं और यकीन मानिए बग्वाल को देखना व जीना वाकई में रौंगटे खड़े कर देने वाला है, बावजूद इसके की अब बग्वाल पहले की तरह पूरी तरह से पत्थरों से नहीं खेली जाती है.
जी हां अभी हाल तक बग्वाल पूरी तरह पत्थरों से खेली जाते थी और मान्यता अनुसार जब तक एक मानव शरीर के बराबर खून ना बहे, तब तक चलती थी किन्तु अब माननीय हाईकोर्ट के आदेशानुार पिछले कुछ सालों से अब फलों से खेली जाती है.
अभी भी बग्वाल में परंपरा अनुसार पत्थर तो चलते ही है और पत्थर भी ऐसे कि आदमी को अच्छी खासी चोट पहुंचे. तो पत्थर तो आज भी चले और शायद आगे भी चलें. दाद देनी पड़ेगी बग्वाल के शूरवीरों की जो आज के डिजिटल युग में और जहां आदमी अपना बाल भी बांका ना होने दे सीना ठोक के सामने वाले से बोलता है में तैयार हूं पत्थर व फलों के चोट सहने को.
आपको अगर उत्तराखंडी खून की गर्माहट जाचनी हो तो कश्मीर के बाद शायद देवीधुरा ही सबसे प्रासंगिक जगह होगी. लमगड़िया खाम, वालिक खाम, चम्याल खाम,और गाहड़वाल खाम के शूरवीरों का पराक्रम देखते ही बनता है.
मैं बग्वाल में पिछले १५ सालों से ज्यादा समय से आ रहा हूं किंतु इस पराक्रम के मेले को जो स्वरूप मिलना चाहिए था वो शायद आज भी उपलब्ध नहीं हो पाया और न ही देश विदेश के पर्यटकों को हम यहां तक ला पाए हैं, शायद आगे आने वालों सालों में बग्वाल और विकसित हो!
अल्मोड़ा के जयमित्र बेहतरीन फोटोग्राफर होने के साथ साथ तमाम तरह की एडवेंचर गतिविधियों में मुब्तिला रहते हैं. उनका प्रतिष्ठान अल्मोड़ा किताबघर शहर के बुद्धिजीवियों का प्रिय अड्डा है. काफल ट्री के अन्तरंग सहयोगी.
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