ये प्रश्न कभी न कभी सभी के समक्ष उपस्थित होते हैं और सभी इसका उत्तर खोजने का प्रयत्न करते हैं. पिछले कुछ समय में जो परिस्थितियां मेरे समक्ष उत्पन्न हुई, उनसे समझ आ गया कि ईश्वर क्या है, और ईश्वर कौन है.
एक धार्मिक व्यक्ति के रूप में मैं बहुत आलसी हूँ. हाँ मैं हिन्दू हूँ, और मुझे हिन्दू होने पर गर्व है! पर कुछ समय पूर्व मुझे पता चला कि मैं कच्चा हिन्दू था. न पूजा, न पाठ. अपने में संतुष्ट. अपने तरीके से जीवन जीता हुआ. हिन्दू वे ऑफ लाइफ. पर जब तक एक घटना घटित न हुई.
घटना ये घटित हुई कि बिटिया का दाखिला एक कॉन्वेंट स्कूल में हो गया. दाखिला बिटिया का हुआ, और धर्म मेरा जाग्रत हो गया. दूसरे का मज़हब देख कर अपना मज़हब याद आता है.
बिटिया स्कूल से आकर जीसस के किस्से बताती, और मुझे रामचन्द्र जी पर संकट के बादल मंडराते दिखते. मैंने तत्काल अपने धर्म की मात्रा बढ़ाने का निश्चय किया. सबसे पहले तय हुआ कि रोज़ मंदिर जाया जाय, और आरती में सम्मलित हुआ जाय. फिर ओम भूर्भुवः स्वहः, कराग्रे वसते लक्ष्मी- सब याद आने लगे कि अरे ये भी तो बच्चों को सिखाना है. और सबसे महत्वपूर्ण सूर्य नमस्कार.
बच्चों को ख़ास ताक़ीद दी गई कि रोज़ सुबह उठ कर सूर्य नमस्कार करना है, फ़िर नहा-धो कर सूर्य भगवान को जल अर्पित करना है. हनुमान चालीसा पढ़ने, माता-पिता के चरण स्पर्श करने और भोजन मंत्र जैसीे शिक्षाएँ अलग से. पहली बार मुझे अपना देश, अपनी संस्कृति, सब संकट में नज़र आ रहे थे और मेरे भीतर इनकी रक्षा का भाव प्रबल हो रहा था. मैं,श्रीमती जी से रोज़ पूछता – बच्चों को सूर्यनमस्कार कराया, भजन सिखाया? कहता- मैं शाम को देर से आऊँगा, तुम ऑफिस से आकर बच्चों को मंदिर ले जाना. हाँ, ढोक ज़रूर लगवाना. और एक बार गर्भगृह की परिक्रमा भी लगवा देना.
स्त्री घर की उस खूँटी की तरह है जिस पर परिवार अपनी उम्मीदें, आशाएँ, निराशाएँ, ज़िम्मेदारियां, कपड़े-लत्ते, चाबियां, चड्डी-गंजी, टिफ़िन- सब टाँग देता है. कभी-कभार एक-आध चीज़ टपक भी जाती है. और यदि बोझ अधिक बढ़ जाये तो खूँटी ही निकल कर गिर जाती है. हम फिर उसे ठोंक-ठाँक कर, कुछ दवा-दारू करवा कर लगा देते हैं, और सामान टँगना फिर से शुरू हो जाता है. और अंत में वो आख़िरी बार गिरती है, फिर कभी न लगने के लिये.
हर कार्य की तरह धर्म की ज़िम्मेदारी भी स्त्रियों ने अपने कंधों पर उठा रखी है.
धर्म के बारे में की जा रही इस चर्चा से एक चीज़ स्पष्ट है कि धर्म प्रतिस्पर्धी माहौल में अधिक फलता-फूलता है. दादी बताती थीं कि वे लोग मदरसों में पढ़ते थे. यही कारण है कि हमारे बाबा-दादी हमसे अधिक धार्मिक थे. वे स्कूल में हदीस पढ़ते होंगे, फिर घर आकर हदीस भुलाने के लिये उन्हें मानस रटाई जाती होगी. इस मान से मुसलमानों को यदि सच्चा धार्मिक बनना है, तो उन्हें अपने बच्चों को सरस्वती शिशु मंदिर में भेजना चाहिये.
इन पंक्तियों का लेखक स्वयं शिशु मंदिर का छात्र रहा है. और सम्भवतः उदार हिन्दू होने का कारण भी यही रहा. माँ-बाप संतुष्ट थे कि चलो बेटा ऐसे स्कूल में पढ़ रहा है जहाँ धर्म – संस्कृति की शिक्षा स्वतः मिल जाएगी. और यहीं उनसे गलती हो गई.
वहाँ संस्कृति तो खूब बताई और पढ़ाई गई, पर धर्म बहुत कम. यदि मैं मदरसे में पढ़ता तो शायद अधिक कट्टर हिन्दू बन कर निकलता. प्रियोस्की कहते हैं कि आदमी जैसे-जैसे अल्पसंख्यक होता जाता है, उसका अपने धर्म-संस्कृति से लगाव बढ़ता जाता है. जैसे मेरा मदरसे में पढ़ने से बढ़ता. इस बात से एक और घटना याद आई.
कुछ दिन पहले मैं ऑफिस से घर जा रहा था और बेख़याली में कुछ गुनगुना रहा था. हैय्या हिले सुलेss…हू अकबर – कुछ इस तरह का. फिर मैंने गौर किया और खुद से पूछा कि ये मैं क्या गुनगुना रहा हूँ? दरअसल मेरे ऑफिस के आसपास चार-पाँच मस्जिद हैं. तो स्वाभाविक है कि कम से कम दो बार तो अजान कानों में पड़ती ही होगी. वही अवचेतन में कहीं चुपके से बैठ गई और बेख़याली में बाहर निकल आई. अब मुझे भी धर्म की अपनी ख़ुराक बढ़ानी पड़ेगी. धर्म को, ईश्वर को -बेहतर तरीके से जानना है तो उसे मनोवैज्ञानिक नज़रिये से समझिये.
यदि आप ये समझते हैं कि इक्कीसवीं सदी में धर्म की लड़ाई बम-बारूद से लड़ी जाएगी तो ये आपकी ग़लतफ़हमी है. यह लड़ाई बम-बारूद से नहीं लड़ी जाएगी. यह, सोशल मीडिया, इंटरनेट से भी नहीं लड़ी जाएगी. लाठी-डंडों, तमंचों-तलवारों की तो बात ही दूर की है.
इक्कीसवीं सदी में धर्म की लड़ाई, लाऊड स्पीकरों से लड़ी जाएगी. यूँ समझिये- जैसे कोई कट्टर मुस्लिम दिन भर सोशल मीडिया पर सायबर जिहाद करता हो. पर यदि उसके घर के बगल में सुबह-शाम -जै अम्बे गौरी, मइया जै श्यामा गौरी बजे,तो सम्भव है कि छः-सात महीने में वह भी नमाज़ पढ़ते समय ताली बजाने लगे. कमाल की बात ये है कि इस सूक्ष्म मनोविज्ञान को धर्मगुरु अच्छे से समझते हैं. इसीलिये वे अपने पंथ के विचारों,पुस्तकों, प्रतीकों से प्यार करें-न करें, पर लाउडस्पीकर से अवश्य करते हैं.
मौलवी जी के कानों में जैसे ही भजन की आवाज़ पड़ती होगी, वे तत्काल मुअज्जिन से कहते होंगे -बढ़ाओ! बढ़ाओ! वॉल्यूम, बेस,ट्रबल, सब बढ़ाओ! मज़हब खतरे में है. इधर पण्डित जी अपने शिष्य से कहते होंगे – बेटा बाज़ार जा रहे हो तो देवी भागवत और दो बढ़िया क्वालिटी के ट्वीटर खरीद लाना. वैसे धर्म की इस चर्चा से अब मुझे समझ में आने लगा है कि ईश्वर क्या है.
ईश्वर धर्म का नेता है, और लाउडस्पीकर उसका हथियार है. जितने धर्म हैं, उनके उतने ही नेता हैं. अर्थात हर धर्म का नेतृत्व करने वाला एक ईश्वर है. मेरे धर्म का मेरा नेता, तुम्हारे धर्म का तुम्हारा नेता. और हमारे नेता ने हमें बताया है कि अपने धर्म की रक्षा करनी है. कमाल यह कि धर्मों में कितनी भी विविधताएं हों पर हथियार समान रहते हैं. और धर्म भले ही अंदर से उपजता हो, हथियार बाज़ार से ही आते हैं. ईश्वर किसी शतरंज के खेल के उस न दिखाई देने वाले राजा की तरह है, जिसकी रक्षा सबको करनी है. पर ऐसा भी नहीं है कि सारी धार्मिकता प्रतिक्रिया स्वरूप ही जन्म ले. कुछ भावनाएं अंतःकरण से भी उत्पन्न होती हैं.
प्रियोस्की कहते हैं -अनेक लोग शमशान वैराग्य की बात करते हैं. लेकिन किसी ने कभी शमशान भक्ति की चर्चा नहीं की. जबकि शमशान वैराग्य से शमशान भक्ति अधिक महत्वपूर्ण है.
हमारे पड़ोसी मौर्या जी बड़े अघोरी किस्म के व्यक्ति थे. रात में मदिरा-माँस की महासभा के बाद डेढ़-दो बजे तक सोना, और सुबह दस-साढ़े दस बजे सो कर उठना. यही उनका क्रम था. पर पिछले कुछ समय में उनकी दिनचर्या क्रांतिकारी रूप से परिवर्तित हो गई.
एक दिन मिले तो मैंने पूछा- ‘भाई चक्कर क्या है? श्रीमती जी बता रही थीं कि आप और भाभी प्रतिदिन सुबह साढ़े पाँच बजे कहीं जाते हो.’
वे एकदम सकपका गये, जैसे मैंने उनकी कोई चोरी पकड़ ली हो. फिर धीरे से बोले -‘ हम लोग सत्संग में जाते हैं.’
‘सत्संग?’ अब सकपकाने की बारी मेरी थी. आप और सत्संग? ये कैसे हुआ?’
वे शर्माते हुए बोले -अब आपसे क्या छुपाना. जॉइंट डाइरेक्टर साहब के पास मेरी दो इंक्वायरी चल रही हैं. वे छन्नू बाबा के बड़े भक्त हैं, रोज़ सुबह उनके आश्रम में सत्संग में जाते हैं. तो हम दोनों भी…’
‘ओह तो मसान की भक्ति का मामला है ये,’ मैंने चुटकी ली. ‘
‘नहीं -नहीं ऐसा नहीं है. छन्नू बाबा का वास्तव में बहुत प्रताप है. जेडी साहब कहते हैं कि बाबा हमेशा आपके साथ चलते हैं. हर संकट से बचाते हैं.’
जेडी साहब की कृपा से मौर्य जी में भी श्रद्धा उत्पन्न हो गई है. पर यहाँ भी स्त्री साथ है. यदि मौर्या जी के पाप भारी पड़े तो वे फट से पत्नी को आगे कर देंगे कि प्रभु मेरा नहीं तो इस अबला का ख़्याल करिये. पत्नी के पुण्य को भी अधिशेष मूल्य (सरप्लस वैल्यू) माना जाना चाहिये. स्त्री सौ रुपए के पुण्य कमाती है, पुरुष साठ रुपये के चुरा लेता है. पितृसत्ता बड़ी अवसरवादी होती है. मैंने बड़े-बड़े मर्दों को रेलवे स्टेशन पर ‘लेडीज़ की लाइन’ खोजते देखा है, जिससे पत्नी को उसमें लगा सकें. और लेडीज़ लाइन न हो तो हमारा ये मर्द, दूर खड़ा होकर, पत्नी को पुरुषों की लाइन में आगे घुसने के लिये उकसाता है कि तू घुज्जा! कोई कछु नई कहेगा.
मैंने उनसे कहा,’आपको जेडी साहब का शुक्रगुज़ार होना चाहिये. उनके जैसे सत्यनिष्ठ, धार्मिक व्यक्ति के कारण आप भी ईश्वर से, गुरु से जुड़ सके. ‘
वे भड़क गए, ‘काहे के सत्यनिष्ठ, और काहे के धार्मिक? उन्होंने खुद आश्रम इसलिये जाना शुरू किया, क्योंकि डायरेक्टर साहब पर उनकी तीन इंक्वायरी रखी थीं.’
‘चलिये डायरेक्टर साहब को इसका पुण्य मिलेगा,’
‘कैसा पुण्य? वो तो मंत्री जी छन्नू बाबा के शिष्य थे, तो डायरेक्टर साहब भी अपनी डायरेक्टरी बचाने के लिये जुड़ गए. ‘
‘तो मतलब मंत्री जी की प्रेरणा से यह सब सम्भव हो सका?’ मैंने निष्कर्ष की घोषणा की.
‘ख़ाक प्रेरणा! छन्नू बाबा ने ही मुख्यमंत्री से कह कर उनको मंत्री बनवाया. मुख्यमंत्री जी उनसे दीक्षा लिये हुए हैं,’ उन्होंने रहस्योद्घाटन किया.
धर्म की इस गंगोत्री की खोज मुख्यमंत्री तक पहुँच चुकी थी. मैं धर्म में अपनी आस्था बनाये रखना चाहता था,तो मुझे ये खोज स्थगित करनी पड़ी.
मैंने बात समाप्त करते हुए कहा, ‘ईश्वर करे,मतलब छन्नू बाबा करे कि आपकी भक्ति से जेडी साहब प्रभावित हों और आपको इस संकट से निकाल लें.’
‘भक्ती-फ़क्ती कुछ नहीं है, दो कमरे बनवाने को कह रहे हैं आश्रम में. चलता हूँ, जय छन्नू बाबा की!’
‘जय छन्नू बाबा की!’ मैंने उत्तर दिया.
ईश्वर ने धर्म के माध्यम से कहाँ-कहाँ पाँव पसारे हैं, आप देख सकते हैं. शब्दों में इसका वर्णन सम्भव नहीं है. हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता. वह इन्द्रियातीत है, अपरोक्षानुभूतिगम्य है. इसीलिये कहते हैं कि वह अपने होने का अहसास कराता है.
एक राजनैतिक दल नास्तिकता के मार्ग पर चल निकला और प्रभु कुपित हो गए. धीरे-धीरे वह दल पूरे देश से समाप्त होने लगा. उनकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मंथन हुआ और पता चला कि ऐसा ईश्वर के कुपित होने के कारण ऐसा हो रहा है.
निर्णय हुआ कि प्रभु को प्रसन्न करने के हर सम्भव उपाय किये जायें. नेता मंदिरों में जाएं, जप-पाठ, परिक्रमा करें. यज्ञोपवीत धारण करें. सभी ने ऐसा ही किया. उनके अध्यक्ष तो पूरे समय वस्त्रों के ऊपर यज्ञोपवीत धारण किये रहते थे. रैली में जनता से कहते – देखिये मैंने एकमुखी रुद्राक्ष धारण किया है. क्या विपक्षी पार्टी के नेता ने किया है? मैं प्रदोष का व्रत रहता हूँ. क्या विपक्षी पार्टी का नेता रहता है? क्या आप ऐसे लोगों को वोट देंगे? जनता अभिभूत होकर ताली बजाती. कहना न होगा कुछ ही समय में उनकी पार्टी की सत्ता में वापसी हो गई. प्रभु प्रसन्न हुए. हमारा भी ईश्वर में विश्वास बढ़ा.
ईश्वर क्या है? ईश्वर कौन है? – हम जान गए थे.
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मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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