कला साहित्य

इस शहर के लोग उनको रोज़ जूतों से कुचल कर चले जाते है

शिखर गोयल की कविताएं

शिखर गोयल का जन्म 1993 में दिल्ली में हुआ. इनकी नज्में कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं है. कुछ के अनुवाद मराठी, कन्नड़, और अंग्रेजी में भी छप चुकें है. आज कल ये अपने पहले कविता संग्रह 1/1886, मॉडर्न शाहदरा पर काम कर रहे हैं. अंबेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली में कानून, समाज और राजनीति के छात्र हैं.

 

 

1. शहतूत

मेरे नए कॉलेज के रस्ते में
हनुमान मंदिर से थोड़ा आगे
एक शहतूत का पेड़ है.

काले, लाल, बैंगनी, मोटे-मोटे शहतूत
गिरे रहते है सड़क पर
और उन्हें कोई उठा कर खाता नहीं.

किसी को नहीं देखा मैंने
पंजो पर उचक कर, हाथ बढ़ाकर,
शहतूत तोड़ने की कोशिश करते.

कभी दूर चीन से आयीं,
इन खट्टी शीरीं बेरियों को
जिनकी पत्तियों की ख़ुराक पर जीते कीड़े तक
मख़मली मुलायम रेशम बनाते है,
इस शहर के लोग उनको रोज़
जूतों से कुचल कर चले जाते है.

2. मस्जिद में खड़ा होता हूँ जब

मस्जिद में खड़ा होता हूँ जब,

प्रार्थना में अपनी

मैं केवल फ़रियादी हूँ.

दुकान से जब सवेरे खरीदता हूँ ब्रेड,

तब ग्राहक हूँ.

फूटपाथ पे चलते वक़्त,

मैं होता हूँ एक मामूली सा पदयात्री.

मैं कविता सुनते वक़्त श्रोता,

और कहते वक़्त कवि हूँ.

शॉपफ्लोर पर आपकी मारुती में

जब बिना रुके मैं लगा रहा होता हूँ दरवाज़े

मैं मजदूर हूँ दिहाड़ी का.

डॉक्टर के आगे मैं मरीज़,

और कंडक्टर के लिए महज़ यात्री हूँ.

मैं पापा के लिए बेटा, मम्मी का नालायक

और गर्लफ्रेंड के लिए हमेशा लेट और आलसी हूँ.

मैं कितना कुछ हूँ,

और कितना कुछ और हो सकता हूँ.

तुम अपने भाषणों में मुझे,

क्यूँ केवल मुस्लमान कह के बुलाते हो?

 

3. कश्मीर, तुम यक़ीन मानो

कश्मीर, तुम यक़ीन मानो

हम तुम्हे बहुत प्यार करते है.

प्यार, जैसा बिट्टु करता था मुनिया से,

इतना प्यार की जब मुनिया नहीं मानी,

तो बिट्टु को मज़बूरन उसपे तेज़ाब फेंकना पड़ा.

प्यार, जैसे पूरे चौधरी खानदान को अपनी बिटिया मिंटी से था.

जब मिंटी ने कॉलेज में साथ पढ़ने वाले अरविंद पासवान से शादी की,

बेचारे चौधरी साहब को अपने प्यार की खातिर,

मिंटी और अरविंद दोनों को मरवाना पड़ा.

प्यार, जैसे शर्मा जी अपनी मिसिज से करते है,

बिस्तर पर, मिसिज की मर्जी के बिना भी, रोज़ रात.

तुम समझ नहीं रहे हो कश्मीर,

हम तुम्हे बहुत प्यार करते है!

 

4. पासपोर्ट सेवा केंद्र

तुम्हारे इस सख्त रौशनी वाले दफ़्तर में

मेरा महज़ हड्डी और मांस में होना,

कोई प्रमाण नहीं इस दुनिया में मेरी पैदाइश का.

मेरी मौजूदगी का सबूत तुम नहीं खोजते,

मेरी दूर दराज के इलाकों में घूम कर आने की जिंदा इच्छा में,

या टूटी फूटी बातचीत में जो मैं तुमसे करने की कोशिश करता हूँ

या मुस्कान में जो मैं पहनता हूँ, इस उम्मीद के साथ,

कि इस बार तो तुम मेरी अर्ज़ी ख़ारिज नहीं करोगे!

मेरा होना तुम्हारी नज़रों में साबित करता है एक रबर स्टाम्प,

जो मैं सौ रूपए में ख़रीदता हूँ पेड़ के नीचे बैठे वकील से.

वो बताता है कि उसने वकालत की पढाई इलाहबाद से की,

वो क़दीम शहर जो अब मशहूर है गुंडागर्दी के लिए

और रोज़ी के लिए वो रोज़ प्रमाणित करता है,

उन लोगों की ज़िंदगियाँ जिनको वो बिलकुल नहीं जानता.

मेरे पिताजी के दोस्त, के दोस्त, के दोस्त,

जो अपनी उबासी भरी सरकारी नौकरी से नाखुश हैं,

लिखते हैं एक चिट्ठी जो बेहद ज़रूरी है,

मेरे कागज़ात को खड़ा हो पाने के लिए तुम्हारी अफ़सरी नज़रों में.

ओ वह्शी स्टेट, सनकी आशिक़!

तुम देखते हो मेरी आखों में महफूज़ करने के लिए मेरा रेटिना,

और वो सारा शहद रंग जो मुझे विरसे में मिला.

अपनी धूल फांकती फाइलों में तुम थामते हो मेरा हाथ,

छूने के लिए मेरी उँगलियों की महीन गोलाकार रेखाओं को,

क्या तुम भी उसी ज्योतिषी की तरह,

जिसपर मेरी दादी को अटूट विश्वास था,

बोली लगाते हो हमारे भविष्य पर?

मुझे उम्मीद है की इन नज़दीक-ओ-नाज़ुक पलों के बावजूद,

तुम्हे पता है कि तुम मुझे एक आँख नहीं सुहाते.

मैं देखता हूँ चटक लाल सपने काली कॉफ़ी वाली रातों में

कि जब हमारी इस जबरन शादी का वजूद नहीं होगा!

और तुम्हारी न मौजूदगी में इस दुनिया में,

मेरे होने का प्रमाण महज़ मेरी मौजदगी होगा!

 

5. अकादमिक राइटिंग

फर्स्ट पर्सन का इस्तेमाल बंद करो,
काटो ये सारे आई-फाई और लिखो
अपने सारे विचार, थर्ड पर्सन में.

जो भाषा तुम बोलते हो, तुम्हारी नहीं,
तुम्हारे होने से पहले ही,
ये भरी जा चुकी है मानी से
तुम भाषा में हुए हो, भाषा तुमसे नहीं, समझे?
साइटेशन के खूंटों से, ज़रा बांधो पतंगे अपनी
इन्हें पूरा नहीं, केवल पाव भर आकाश ही दो अभी.

बहुत अनौपचारिक लिखते हो,
वाक्यों को पहनाओ कोट,
गले में कसो टाई
लेखन, पोलिश लेदर के जूते पहना होना चाहिए
यूँ कागज़ पर नंगे पाऊं, मत दौड़ा करो शिखर!

 

  1. गौरी लंकेश

वो सोचती थी

वो पढ़ती थी

वो बोलती थी

वो इसीलिए मारी गयी.

सोचना, पढ़ना, और बोलना

वो सभी चीजें जो

जानवरों से अलग

हमें इंसान बनाती थीं,

शुमार थीं हमारे वक़्त के

सबसे संगीन अपराधों में.

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