आंचलिक भाषा में
मांगलिक गीत गाते हुए
वे रोपती हैं
ज़िदगी की जड़ें पानी में
रंग-बिरंगी पोशाकें
माटी में सने हाथ
जैसे
पिघले सोने में सने हाथ
ज़मीन को दिन भर नमन करती कमर
शाम को चूल्हे से होते हुए
बिस्तर तक पहुँचती है जब
गीली लकड़ी की आग-सी
धुआँ-धुआँ हो जाती है
पृथ्वी की गोलाई समेटे
नथनी झूलती है
भविष्य-सा
कई जंगल हैं सीने में
मगर ढूँढ़ती है गीत
पूरी शिवालिक शृंखला का नाम है औरत
औरत पहाड़ का नाम है
अस्सी के दशक में समकालीन कविता में जिन महत्वपूर्ण कवियों ने पहचान बनायी उसमें हरीश चन्द्र पाण्डे का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है. समकालीन हिन्दी कविता में हरीश चन्द्र पाण्डे एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं. अल्मोड़ा के एक गांव में 28 दिसम्बर 1952 में जन्मे हरीश चन्द्र पाण्डे इलाहाबाद में महालेखाकार कार्यालय से सेवानिवृत्त हुए. उनके संग्रह ‘कुछ भी मिथ्या नहीं है’ के लिए उन्हें 1995 का सोमदत्त सम्मान दिया गया. कविताओं की उनकी पहली किताब ‘एक बुरूँश कहीं खिलता है’ थी.
हिन्दी साहित्य जगत में इसे काफ़ी चर्चित पुस्तकों में गिना जाता है. यह पुस्तक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के सर्जना पुरुस्कार से सम्मानित हुई. प्रतिष्ठित केदार सम्मान और ऋतुराज सम्मान भी इस कवि को मिल चुके हैं. हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है यथा – अंग्रेजी, बांग्ला, उड़िया, पंजाबी तथा उर्दू. वर्ष 2006 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उनका संग्रह ‘भूमिकाएं ख़त्म नहीं होतीं’ प्रकाशित हुआ.
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