1940 के दशक में पिथौरागढ़ कस्बे और इसके आस-पास सड़क नहीं थी. इस इलाके के दूरदराज तक के गाँव संकरी पगडंडियों से आपस में जुड़े हुए थे.
उस दौर में पिथौरागढ़ की भवन निर्माण शैली महात्मा गाँधी के कथन का आदर्श रूप प्रस्तुत करती थी. महात्मा गाँधी ने कहा था ‘किसी गाँव में आदर्श घर वही कहा जायेगा जो गाँव की 5 मील की परिधि में उपलब्ध भवन निर्माण सामग्री से बनाया गया हो.’
पिथौरागढ़ के ज्यादातर घर गांधीजी के इस समझदारी भरे नजरिये के हिसाब से ही बने हुए थे. घरों में इस्तेमाल की जाने वाली, आकार व लम्बाई में काफी बड़ी, लकड़ी नजदीक से ली जाते थी. एक पूरे बड़े पेड़ का तना घर की छतों पर घूर व बल्लियों के रूप में इस्तेमाल किया जाता था. चीड़ के पिरूल के ऊपर पत्थर की पटालों को मिट्टी के गारे की मदद से बैठाया जाता था. घरों की पटालों से बनी यह ढालदार छत गर्मी के मौसम में ऊंचे तापमान, बरसात में तेज मानसूनी फुहार और जाड़ों में भारी बर्फ़बारी को झेलने में पूरी तरह सक्षम थी और पहाड़ के परिवेश के अनुकूल थी.
पहाड़ की गहरी ढलानों पर बने होने के कारण घरों को इन ढलानों के अनुरूप ही विभिन्न तलों वाला बनाया जाता था. जमीन को गैरजरूरी तरीकों से हटाने या मिट्टी को हटाने से बचा जाता था.
मकान की सबसे निचली मंजिल को गोठमाल कहा जाता था. इसकी बाहरी दीवार पर दरवाजे और खिडकियां होती थीं. यहाँ जानवरों को बाँधा जाता था और कभी-कभी इसका एक हिस्सा रसोई के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था. भण्डार गृह भी गोठमाल में ही हुआ करते थे.
गोठ के उपरी हिस्से में धूप और छांव का तालमेल बैठाते हुए बरामदे (चाख) बने होते थे. इन बरामदों में नीची मेहराबदार खिडकियां (बारखियाँ) व दरवाजे बने होते थे, जिन पर लगी लकड़ियों में बेहतरीन नक्काशी की गयी होती थी. इस चाख से ही घर के भीतर के कमरों में प्रवेश किया जाता था. यह चाख परिवार के लोगों और मेहमानों की बैठक भी हुआ करता था.
चाख में जाड़ों के मौसम में बारखियों से छनकर धूप आया करती थी और गर्मियों में छाया और ठंडी हवा. रात को जब लोग खिड़की-दरवाजे बंद करके यहाँ पर अंगीठी तापा करते थे तो पूरे घर की हवा गर्म हो जाया करती थी.
चाख से जुड़ी ऊपरी मंजिलों में बने छोटे चौकोर कमरे कम रोशनी वाले बनाये जाते थे, जो शयनकक्ष और अन्न भण्डारण के लिए इस्तेमाल किये जाते थे. इन्हीं के नीचे गोठ में पशुओं के बंधे होने की वजह से इनके भीतर गर्मी बनी रहती थी.
अक्सर गाँवों में घर एक कतार में आपस में जुड़े होते थे. दस-बारह भाई साथ में रहा करते थे और इनकी चाख एक हुआ करती थी.
घरेलू भवन निर्माण की यह तकनीक और वास्तुशैली सरल और कम खर्चीली होने के बावजूद सक्षम भी थी. भवन निर्माण का यह नुस्खा हजारों साल के अनुभव और शोध का परिणाम था. इसमें स्थानीय सामग्री व संसाधनों का ही इस्तेमाल किया जाता था. यह पारिवारिक, सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के साथ जलवायु के अनुकूल थी और प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने में पूरी तरह सक्षम भी.
(‘पहाड़’ पिथौरागढ़ चम्पावत अंक में लॉरी बेकर के लेख के ललित पंत द्वारा किये गए अनुवाद के आधार पर)
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