हमारे यहां गांव बहुत छोटे-छोटे हैं. कहीं-कहीं तो बहुत ही छोटे, दस-बीस घर से लेकर पांच-छह घर तक और बहुत पास-पास. एक गांव पहाड़ की तलछटी में है तो दूसरा उसकी ढलान पर. (Phoolo Ka Kurta Yashpal)
बंकू साह की छप्पर से छायी दुकान गांव की सभी आवश्कताएं पूरी कर देती है. उनकी दुकान का बरामदा ही गांव की चौपाल या क्लब है. बरामदे के सामने दालान में पीपल के नीचे बच्चे खेलते हैं और ढोर बैठकर जुगाली भी करते रहते हैं.
सुबह से जारी बारिश थमकर कुछ धूप निकल आई थी. घर में दवाई के लिए कुछ अजवायन की जरूरत थी. घर से निकल पड़ा कि बंकू साह के यहां से ले आऊं.
बंकू साह की दुकान के बरामदे में पांच-सात भले आदमी बैठे थे. हुक्का चल रहा था. सामने गांव के बच्चे कीड़ा-कीड़ी का खेल खेल रहे थे. साह की पांच बरस की लड़की फूलो भी उन्हीं में थी.
पांच बरस की लड़की का पहनना और ओढ़ना क्या. एक कुर्ता कंधे से लटका था. फूलो की सगाई गांव से फर्लांग भर दूर चूला गांव में संतू से हो गई थी. संतू की उम्र रही होगी, यही सात बरस. सात बरस का लड़का क्या करेगा. घर में दो भैंसें, एक गाय और दो बैल थे. ढोर चरने जाते तो संतू छड़ी लेकर उन्हें देखता और खेलता भी रहता, ढोर काहे को किसी के खेत में जाएं. सांझ को उन्हें घर हांक लाता.
बारिश थमने पर संतू अपने ढोरों को ढलवान की हरियाली में हांक कर ले जा रहा था. बंकू साह की दुकान के सामने पीपल के नीचे बच्चों को खेलते देखा, तो उधर ही आ गया.
संतू को खेल में आया देखकर सुनार का छह बरस का लड़का हरिया चिल्ला उठा. आहा! फूलो का दूल्हा आया है. दूसरे बच्चे भी उसी तरह चिल्लाने लगे.
बच्चे बड़े-बूढ़ों को देखकर बिना बताए-समझाए भी सब कुछ सीख और जान जाते हैं. फूलो पांच बरस की बच्ची थी तो क्या, वह जानती थी, दूल्हे से लज्जा करनी चाहिए. उसने अपनी मां को, गांव की सभी भली स्त्रियों को लज्जा से घूंघट और पर्दा करते देखा था. उसके संस्कारों ने उसे समझा दिया, लज्जा से मुंह ढक लेना उचित है. बच्चों के चिल्लाने से फूलो लजा गई थी, परंतु वह करती तो क्या. एक कुरता ही तो उसके कंधों से लटक रहा था. उसने दोनों हाथों से कुरते का आंचल उठाकर अपना मुख छिपा लिया.
छप्पर के सामने हुक्के को घेरकर बैठे प्रौढ़ आदमी फूलो की इस लज्जा को देखकर कहकहा लगाकर हंस पड़े. काका रामसिंह ने फूलो को प्यार से धमकाकर कुरता नीचे करने के लिए समझाया. शरारती लड़के मजाक समझकर हो-हो करने लगे.
बंकू साह के यहां दवाई के लिए थोड़ी अजवायन लेने आया था, परंतु फूलो की सरलता से मन चुटिया गया. यों ही लौट चला. बदली परिस्थिति में भी परंपरागत संस्कार से ही नैतिकता और लज्जा की रक्षा करने के प्रयत्न में क्या से क्या हो जाता है.
शैलेश मटियानी की कहानी : बित्ता भर सुख
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