कथाकार पंकज बिष्ट को इस वर्ष के राजकमल चौधरी स्मृति सम्मान (Rajkamal Chaudhari Memorial Award 2019) के लिए चुना गया है.
कथा-उपन्यास के क्षेत्र में बिष्ट जी ने नए प्रयोग किए. साहित्य को उनका सबसे बड़ा अवदान यह रहा है कि उन्होंने कथ्य को नई जमीन दी.
उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘लेकिन दरवाजा’ महानगरीय जीवन और उसकी समकालीनता के परिप्रेक्ष्य में है. इस उपन्यास में महानगरीय लेखकों के जीवन का ताना-बाना, उनके आदर्श और निजी जीवन को बखूबी अभिव्यक्त किया गया है.
यथार्थ संदर्भ को कथ्य के रूप में उठाया जाना जोखिम भरा काम हो सकता था, लेकिन बिष्ट जी ने नतीजों की कभी परवाह नहीं की. इस उपन्यास में उन्होंने अभिजात्य वर्ग पर, निर्भीक और बेबाक टिप्पणियाँ की हैं.
उल्लेखनीय है कि यह उपन्यास, आमजन के बीच, प्रचलित भाषा-शैली में नई ताजगी और नयेपन के साथ पाठक-संसार में आया.
‘उस चिड़िया का नाम’ उपन्यास, इतिहास और लोक को एक अनूठे कलेवर में पेश करता है. यह उपन्यास, परंपरा और आधुनिकता के टकराव से उपजा उपन्यास है, जिसमें जीवन-मृत्यु, स्वर्ग-नरक का विमर्श तो है ही, इतिहास और लोक को एक अनूठेपन के साथ गूँथा गया है. उपन्यास की कथा-भूमि कुमायूँ के मासी, चौखुटिया डिस्ट्रिक्ट अल्मोड़ा की है, जो लेखक का पैतृक स्थान है. राम गंगा घाटी का समूचा विस्तार उपन्यास के दायरे में आता है. यह उपन्यास, बड़ी ही खूबसूरती से मनोविकारों और उनके निदान को प्रस्तुत करता है. इसमें परिवारिक संबंधों की पड़ताल तो की ही गई है, समाज और उसकी मनोदशा को समझने का भी सार्थक प्रयास हुआ है. काफल पाको और फिफिरी चिड़िया की लोक कथाएँ, हरीश, रमा और पार्वती को अपनी सी कथाएँ लगती हैं. नौजवान पीढ़ी की खोजी प्रवृत्ति, मूल्यों का संघर्ष और वृद्धों का एकाकीपन जैसे ज्वलंत मुद्दे उपन्यास में सहज रूप से आए हैं.
साहित्यकार बिष्ट जी के अन्य उपन्यासों में, ‘पंख वाली नाव’ और ‘शताब्दी से शेष’ प्रमुख हैं.
उनकी अन्य चर्चित रचनाओं में बच्चे गवाह नहीं हो सकते, पंद्रह जमा पच्चीस, टुंड्रा प्रदेश तथा अन्य कहानियाँ, खरामा-खरामा (ट्रैवलॉग) तथा शब्द के लोग (संस्मरण) प्रमुख है. सादगी पसंद कथाकार को बधाई. ईश्वर उन्हें आरोग्य रखें, ताकि पाठकों को उनकी ताजगी भरी रचनाओं का आस्वादन मिलता रहे.
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ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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