रक्षा अनुसंधान संस्थान देहरादून में वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत डी पी त्रिपाठी का शौक अलग है, सपने भी और सपनों को अमली जामा पहनाने का अंदाज़ भी. तभी तो वो धनतेरस के दिन देहरादून से श्रीनगर जाते हैं. एक ढोल खरीदने के लिए. विडंबना देखिए कि प्रदेश की राजधानी में राज्यवाद्य उपलब्ध कराने वाली कोई दुकान ही नहीं. शायद हल्द्वानी में भी नहीं होगी. अलमोड़े में शायद मिल जाएंगे. (Pahadi Music Lover and Dhanteras)
त्रिपाठी बताते हैं कि “सोचा था कि जब भी कभी नौकरी लगेगी तो ढोल दमाउँ और मसकबीन जरूर लूँगा. ढोल की आवाज मुझे बचपन से ही सम्मोहित करती आयी है. बाकी आगे का ज्यादा तो नहीं पता सर बस ये पता है कि इस क्षेत्र में मुझे “डी आर पुरोहित” बनना है. ये भी कि उन्होंने अपनी शादी में बैण्ड भी नहीं रखा. बैण्ड के बजट से एक अतिरिक्त ढोल-दमाऊं-मसकबीन जरूर मंगवा ली.
कुछ ग्रामीणों का कहना है कि दमाऊँ को गले में मत लटकाओ और बजाने के बाद उसे गौशाला में टांको बल, पंडित कुल में जन्मे हो ये बाजगियों वाला काम तुम्हें शोभा नहीं देता. फिलहाल तो मेरी स्थिति, सात समोदर पार च जाण ब्वे, जाज मा जौंलु कि ना…. लोकगीत के नायक जैसी हो रही है.” (Pahadi Music Lover and Dhanteras)
चोपड़ा (रुद्रप्रयाग) के डीपी त्रिपाठी ने पिछले से पिछले धनतेरस पर हुड़का, डौंर और कांसे की थकुली खरीदे थे. लोकवाद्यों के प्रति ऐसी दीवानगी देखकर लगता है बंदा अविवाहित होगा. पर आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उनकी पत्नी रेखा भी एक्जीक्यूटिव इंजीनियर हैं, उत्तराखण्ड जलविद्युत निगम लिमिटेड में. और इस दीवानगी में भी त्रिपाठी की सच्ची हमसफ़र हैं.
त्रिपाठी, एक अच्छे कवि भी हैं जिनकी धाक सहपाठियों पर प्रशिक्षण के समय से ही है. महाभारत इनका प्रिय ग्रंथ है. न सिर्फ़ स्वयं महाभारत के गंभीर अध्येता हैं बल्कि 5 साल के बेटे को भी शिव तांडव स्तोत्र, गीता के श्लोक सहित बहुत सारी कविताएँ याद हैं. छोटा बेटा डेढ़ साल का है और उसका रुझान भी परिजनों की तरह ही है. त्रिपाठी दम्पति अपने बच्चों का जन्मदिन भी मानसिक चैलेंज्ड बच्चों के संस्थान में मनाते हैं.
त्रिपाठी के पिता भी साहित्यानुरागी थे, फ़क़त नागपुरी के नाम से बेबाक रचनाएँ करते थे. ईमानदारी और निष्ठा से सरकारी नौकरी की. कर्मकांड से दूर ज्ञान और कर्म के पुजारी रहे. उनका मानना था पूजा तो उस पर्या (दही बिलोने का लकड़ी का बर्तन) की होनी चाहिए जिसके दम पर परिवार को पोषण मिल रहा है.
एक बेहतरीन फोटो में डीपी त्रिपाठी ढोल बजा रहे हैं, पत्नी मसकबीन संभाले हुए हैं और पुत्र अक्षज दमाऊं पर हाथ आजमा रहे हैं. ये एक संस्कृतिप्रेमी प्रगतिशील परिवार की तस्वीर है. इस तस्वीर के मायने बड़े हैं और संदेश व्यापक. ये तस्वीर शब्दों को इसलिए भी विराम देती है क्योंकि ये स्वांग नहीं संकल्प है. और सबसे बड़ी बात ये कि इसमें दूर से सुनायी पड़ने और दिखायी देने वाला सुहावना ढोल नहीं है. ये ढोल धनतेरस के दिन एक वैज्ञानिक द्वारा खरीदा गया है पूरे 9000 रुपए चुकाकर. (Pahadi Music Lover and Dhanteras)
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी शिक्षा में स्नातक और अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). इस्कर अलावा उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनसे 9411352197 और devesh.joshi67@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. देवेश जोशी पहाड़ से सम्बंधित विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं. काफल ट्री उन्हें नियमित छापेगा.
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