जैव विविधता से समृद्ध हिमालय जीव-जंतुओं और वनस्पति से संपन्न है. हिमालय में पाई जाने वाली दस हजार से अधिक प्रजातियां सीड प्लांट की श्रेणी में आती हैं. मध्य हिमालय में बसे उत्तराखंड में वनस्पतियों की सात हजार और जंतुओं की पांच सौ से अधिक महत्वपूर्ण प्रजातियां विद्यमान हैं. यहां की सामाजिक-आर्थिक, कृषि सम्बन्धी व स्वास्थ्य व पोषण सम्बन्धी स्थितियां इन संसाधनों पर निर्भर है. स्थानीय निवासी ही इन अनुवांशिक संसाधनों के परिचायक हैं तथा यहां के सांस्कृतिक परिवेश व जैव विविधता के मध्य एक विशिष्ट सम्बन्ध है. यहां की जैव विविधता की विशेषता यह भी है कि यह एक विस्तृत, समृद्ध, गहन व सघन इको तंत्र का परिवेश प्रस्तुत करता है.
(Organic Products of Central Himalaya)
उत्तराखंड में तराई से भाबर व फिर मध्य हिमालय से लेकर हिमाद्री व ट्रांस-हिमालय तक पांच इको- क्लाइमेट जोन विद्यमान है जिसके निचले इलाकों में राजाजी नेशनल पार्क व कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व जैसा संरक्षित क्षेत्र विद्यमान है. यहां पाई जाने वाली प्रजातियों का जैविक उत्पादन की दृष्टि से व्यवसायिक महत्त्व स्वीकार करते हुए आर्गेनिक फार्मिंग को विकास नीतियों में वरीयता दी गई है जिसके अंतर्गत “श्री-अन्न” के उत्पादन व उपभोग को उच्च प्रतिमान दिया गया है.
पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित कृषि प्रणलियों और ग्रामीण खेतिहर समुदायों द्वारा परंपरागत रूप से लम्बे समय से किये जा रहे सचेत व अचेतन चयन ने भूमि प्रजातियों के रूप में आनुवांशिक विविधता के संवर्धन में प्रबल योगदान दिया है. मध्य हिमालय की पारिस्थितिकी प्रणालियों यथा यहां के बुग्याल, वन सम्पदा, तलाऊं व उपरांऊ के उपजाऊ खेतों की विविधता और स्थानिक जैव संसाधनों की समृद्धि ने हिमालय के पारिस्थितिक महत्त्व को हमेशा उच्च अधिमान पर बनाए रखा है. विशेष रूप से क्षेत्र के जंगल व चारागाह, औषधीय व जंगली खाद्य पौधे व स्थानीय रूप से उगाये खाद्यान्न, फल, मसाले व सब्जियाँ क्षेत्र के पारिस्थितिक और आर्थिक मूल्य में पर्याप्त योगदान करते हैं.
उत्तराखंड में जैविक खेती के अंतर्गत उगाई जाने वाली पारम्परिक फसल को बनाए बचाए रखने के लिए सरकार ने राज्य भौगोलिक संकेतक बोर्ड के गठन की घोषणा की है. परंपरागत फसलों में पहाड़ में जो अनाज मसाले व अन्य उत्पाद उगाये जाते रहे उनकी गुणवत्ता व पोषण के मापदंड उच्च वरीयता रखते रहे पर धीरे-धीरे इनमें से कई प्रजातियां विलुप्त होतीं गईं.
अब पहाड़ के अलग-अलग इलाकों में स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली उपज को संरक्षित करने की दिशा में एक बेहतर पहल हुई है. पारम्परिक और जैविक उत्पादों के संरक्षण और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष पहचान दिलाने के लिए उत्तराखंड सरकार ने जियोग्राफिकल इंडिकेटर या भौगोलिक संकेत दिया जाना तय किया है. यह भी माना जा रहा है कि भौगोलिक संकेतकों पर आधारित यह देश का पहला बोर्ड होगा. इस प्रयास से पारम्परिक और जैविक उत्पादों को संरक्षण तो मिलेगा ही, देश विदेश में भी उत्पाद अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने में सफल होंगे.
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जैविक राज्य बनाने की दिशा में वर्ष 2019 से उत्तराखंड जैविक कृषि विधेयक को मंजूरी दी गई जबकि इसकी पहल वर्ष 2003 से कर दी गई थी. परंपरागत कृषि विकास योजना के अधीन लगभग दो लाख एकड़ से अधिक भूमि में जैविक खेती की जाती है जिसके अंतर्गत दस ब्लॉक जैविक ब्लॉक घोषित किये गए. राज्य में शत-प्रतिशत जैविक कृषि कार्यक्रम अपना इसे जैविक राज्य बनाने की घोषणा वर्ष 2017 में प्रधान मंत्री की केदारनाथ यात्रा में की गई जिसके लिए परंपरागत कृषि विकास योजना की संस्तुति हुई. इसका उद्देश्य लघु व सीमांत श्रेणी के पर्वतीय खेतिहरों द्वारा स्थानीय परंपरागत फसलों का उत्पादन क्लस्टर मोड पर किया जाना तय हुआ.
परंपरागत कृषि विकास योजना के अंतर्गत जैविक खेती को सहभागिता प्रतिभूति प्रणाली (पार्टिसिपेट्री गारंटी सिस्टम या पी जी एस) से संबंधित किया गया जिसमें छोटी जोत के खेतिहर एक दूसरे की जैविक उत्पादन प्रक्रिया का मूल्यांकन, निरीक्षण व जाँच कर सम्मिलित रूप से पूरे समूह की कुल जोत के उत्पादन को जैविक रूप से प्रमापीकृत करने की प्रक्रिया से जुड़ जाएं . इसका श्रृंखला प्रभाव महत्वपूर्ण है तो वहीं परंपरागत कृषि विकास योजना के अधीन उद्यान व जड़ी बूटी के क्लस्टर तैयार करने, स्थानीय उत्पादों के बीज का उत्पादन व कम्पोस्ट उत्पादन हेतु सहायता व निर्देश दिए गये जिनसे विस्तार प्रभाव उपजते.
रवि व खरीफ की फसलों में परंपरागत रूप से स्थानीय प्रजातियों का प्रयोग किया जाता रहा जो अंचल विशेष की आबोहवा के साथ सिंचाई के साधनों की दशा को ध्यान में रख बोई जातीं रहीं. 1882 में एटकिंसन ने कुमाऊं में बोई जाने वाली मुख्य उपज धान की 48 किस्मों को सूचीबद्ध किया था. कैलाश चंद्र पंत और कुलदीप सिंह नेगी ने सौ वर्ष बाद अर्थात 1992 में पहाड़ में 1500 मीटर की ऊंचाई पर बोई जाने वाली 95 किस्मों व इससे ऊपर 2000 फीट की ऊंचाई पर बोई जाने वाली 25 किस्मों का नाम बताया. जगदीश चंद्र भट्ट व वीरेंद्र सिंह चौहान ने अपने शोध पत्रों में फसलों की स्थानीय किस्में व नामों की व्यूत्पत्ति को स्पष्ट किया. सामंत (1995) व तिवारी तथा दास (1996) के द्वारा भी यहां बोई अन्य किस्मों का वर्णन किया गया.
यह पाया गया कि इनका नामकरण बोये गए स्थान, तने व बीज के रंग व आकार, चावल से बनने वाले खाद्य, और यहां तक कि कुछ विशेष गुणों व व्यक्तियों के नाम पर भी रख दिए गए जैसे गोविन्द, श्याम गिरि, बामनी, बराँणी, डोटियालि, दौलतिया, जेठाणी, थापली, कपकोटी इत्यादि. व्यक्तियों के नाम पर भी धानों के नाम रखे गए जैसे धर्मानंद के नाम पर धरिधान, श्याम के नाम पर श्याम गिरि व मोतिया. महिलाओं के नाम पर पार्वती, चंपा व बसंती, शकुंतला आदि. धान की कुछ चर्चित किस्म थीं जो अपने विशेष गुणों से प्रचलित रहीं. जैसे कत्यूर खाने में स्वाद, मिठास व खुशबू वाला होता था. मांगलिक अवसरों पर परोसा जाता था. वहीं थापचीनी खूब प्रचलित किस्म रही भले ही कूटने में यह टूटता पर खाने में स्वाद भी होता. ऐसे ही चाइना फोर जो टूटता भी नहीं. लाल चावल में चम्याड़ उपरांऊ में होता जिसका भात खूब स्वाद होता. लाल रंग के धान बड़पासो से खाजा बनता. बेचने के लिए राजुली चावल बोया जाता. सेला चावल मोटा, लम्बा होता और टूटता भी नहीं, पार्थिव पूजा में इसका सबसे अधिक प्रयोग होता. ऐसे ही साल से पकवान बनते, पूजा में काम आता इसके अक्षत लगते. इससे च्युड़े बनते तथा साल के चावल से सिंगल खूब स्वाद बनते. ऐसा ही चावल जमाल भी होता.
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पहाड़ में प्रचलित किस्मों में तिलक, तिलक चन्दन, कामोद, साही, आनंदी, राजभोग थीं तो गढ़वाल में सिरमोर, अंजनी, लालधान, हंसराज, चिलमिल, मखमल खूब प्रचलित थीं. यथा नाम तथा गुण के चलते इनकी पहचान होती जैसे ‘दुध’ धान का चावल बिल्कुल सफेद हुआ तो ‘लाल नौल’ का भात लाली लिए होता है. ‘घुर’ बासमती उपरांऊ में बोया जाता है यहां ‘घुर-घुरे’ का मतलब ऊँची पहाड़ी से होता है तो ‘दल बादल’ धान का चावल बादल से हल्के काले व सफेद रंग का होता है. ऐसा धान जिसकी ऊपरी आगे की नोक काले बिंदु सी दिखे उसे ‘कलठूणिया’ कहते है. ऐसे ही च्यूड़ा बनाने के लिए धान की कई किस्में थीं. कहते हैं कि पहाड़ में हर दस कोस बोली बदल जाती कहते हैं जिसका प्रमाण धान के नामों पर भी दिखता है जैसे ‘चीना चार’, ‘चाइना फोर’, ‘चैना फोर’, ‘चिर भुड़ि’, ‘चिनाभुरी’, ‘चिड़ी भुड़ि’ इत्यादि.
कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार सौ वर्ष पहले धान की जो अनेक विविधता पूर्ण किस्में बोई जाती थी वह स्थानीय किस्में अब दुर्लभ हैं तो कई विलुप्त हो गईं हैं. अब गिनी चुनी कुछ ही प्रजातियां बीज कंपनियों के कारटेल व कृषि विश्वविद्यालयों की सिफारिश पर बिकती हैं और पहाड़ के खेतिहर इन्हें खरीदने को बेबस हैं. स्थानीय प्रजातियों का ज्ञान पुरानी पीढ़ी के साथ विलुप्त प्राय हो गया. अधिक उपज लेने के लिए किस्मों में बदलाव हुआ, मैदानी इलाकों में अधिक रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों के साथ तकनीकी रूप से समृद्ध यँत्र उपकरणों का प्रयोग बढ़ा. मध्यवर्ती तकनीक जो पहाड़ के लिए अधिक बेहतर व कारगर होती पर हरित क्रांति के दौर में कम ध्यान दिया गया. हालांकि भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के अधीन “विवेकानंद कृषि अनुसन्धान परिषद, अल्मोड़ा” (बोसी सेन द्वारा स्थापित) द्वारा धान की कई किस्में स्थानीय रूप से उपलब्ध बीजों द्वारा निकाली गईं फिर भी स्थानीय प्रजातियों का क्षरण होते रहा. पंतनगर विश्व विद्यालय की रानीचौरी इकाई व “राष्ट्रीय पादप अनुवंशिकी संसाधन ब्यूरो” के क्षेत्रीय केंद्र में स्थानीय किस्मों के संरक्षण व संवर्धन के प्रयास होते रहे.
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सत्तर के दशक में मिरतोला आश्रम पनुआनौला अल्मोड़ा में पद्म श्री स्वामी माधवाशीष ने पहाड़ के समेकित विकास से सम्बंधित अनेक प्रायोगिक उदाहरण ग्रामवासियों के सामने रखे जो स्थानीय संसाधनों पर आधारित हो अधिकतम उत्पादन व उच्च प्रतिफल का प्रदर्शन करते थे. वह योजना आयोग में कृषि सलाहकार भी रहे. उन्हीं के साथ डॉ जैक्सन ने धारक क्षमता अर्थात कैरिंग कैपेसिटी के मॉडल की रचना की जो जल-जमीन-जंगल के साथ स्थानीय निवासियों के अनुकूलन की समझ देता था. यह संकल्पना अब नई कृषि नीति में जैविक खेती व श्री अन्न की उपयोगिता व इसके अधिक उत्पादन व उपभोग को वरीयता देती प्रतीत होती है. स्वास्थ्य व पोषण की दृष्टि से स्थानीय प्रजातियों के प्रति जागरूकता भी बढ़ी है और यह विश्वास बलवती होता जा रहा है कि हिमालय उपत्यका में उगने वाली स्थानीय प्रजातियां विशिष्ट गुण व महत्व की हैं.
मध्य हिमालय में गेहूं की विविधता पूर्ण किस्में हैं इनमें लाल ग्युँ, सफेद ग्युँ मुख्य है जिन्हें ‘लाल नोयि’ व ‘सफेद नोयि’ भी कहा जाता है.जौ की बाली की तरह दिखने वाला ‘उवा गेहूं’ भी उगाया जाता है जिसकी हरी बालों को भून कर खाया जाता है.
पहाड़ में बोई गई पारम्परिक अन्य कई किस्में हैं जिनमें लाल रंग की बाली वाली किस्म ‘ठाँग ग्युँ’ कही जाती है जिसमें बिना झूस के दाने औरतों के बालों की लटी की तरह लगे दिखते हैं. ज्यादा उपज के लिए ‘लाल ग्युँ बोया जाता है जो ज्यादा स्वाद नहीं होता. स्वाद व मुलायम रोटी के लिए सफेद गेहूं का अधिक प्रचलन रहा. खूब स्वाद गेहूं ‘दौलतखानी’ हुआ तो धनिये के बीजों की तरह ‘धणि ग्युँ’ हुआ जो अच्छा स्वाद देता. ‘पिस्सू ग्युँ ‘ में चोकड़ अधिक होता तो ‘कठु ग्युँ ‘ काफी सख्त हुआ, इसे काठमांडू से आया बताते हैं. गेहूं की कुछ विकसित किस्में कल्यान, सोनहारा रहीं.
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पहाड़ में जौ जरूर बोया जाता जिसको खाने के साथ ही मांगलिक कार्यों पूजा-श्राद्ध में विशेष प्रयोग किया जाता. जौ की दो किस्में प्रचलन में रहीं जिनमें पहला ‘ठाँग जौ’ हुआ जिसकी बाल या ठाँग सीधी खड़ी रहती है और जिसमें झूंस नहीं होते. दूसरी किस्म ‘झूसि जौ’ कही जाती है जिसमें हल्का झूस होता है. इसे मड़ुए के साथ पीस कर खूब स्वाद रोटी बनती है.
मडुआ पहाड़ में काफी प्रचलित खाद्यान्न रहा जो कम पानी व हर तरह की जमीन पर आसानी से उग जाता. ये कई तरह के रंग वाला होता है. लाल दानों वाला, काला और सफेद रंग वाला जिसे ‘दुध मडुआ’ कहते हैं. मडुए की अनेक किस्में हैं जो तेमास व छैमास में तैयार हो जातीं हैं. खुली बालियों वाला मडुवा ‘झाँकरिया’ कहलाता है तो मुट्ठीनुमा बंद बालियों वाला ‘पुटक्या’ व ‘भुवखेतिया’ कहा जाता है तो अधखुली टोकरी नुमा बालियों वाला ‘टोकरिया’. वहीं खुली, बड़ी व लम्बी बाली वाली किस्म ‘गढ़वालि’ के नाम से पुकारी जाती है. पहाड़ में अधिकतर ‘नडचुण्या’ बोया जाता है जिसे नाखून से ही आसानी से तने से तोड़ा जा सकता है. मडुवे की जल्दी पकने वाली किस्म ‘लुमरयाव’ व देर से पकने वाली प्रजाति ‘घुन्याव’ है. इसके अलावा इसकी ‘गरौ पुटकी’, ‘द्विति’ और ‘गनोंली’ किस्में मिलती हैं.
रोटी, छोली रोटी बनाने के साथ भून कर खाया जाने वाला भुट्टा-मक्का तिमासा, चौमासा, व छह मासा उगता है. ज्यादातर संकर मक्का ही अब गावों में बोया जाता है. बताया जाता है कि भुट्टे की एक किस्म ‘मुरलिया’ बोई जाती थी जिस पर पांच पतले भुट्टे लगते थे व जिसका तना पतला व लम्बा होता था. खरीफ के मौसम में मिश्रित फसल के रूप में ज्वार व बाजुर या बाजरा उगाया जाता है जिसकी रोटी बनती है.
गावों में सीमित मात्रा में ‘मादिरा’ या ‘झिँगोरा’ भी बोया जाता रहा जो सफेद और लाल बाल की दो किस्मों का होता है. इसका भात और जौला बनता है तो ‘झिंगुर’ की खीर खूब पसंद की जाती है. खेतों के किनारे भात और जौला बनाने के लिए ‘कौणी’ उगाई जाती है जिसका भात ददूरे होने पर खिलाया जाता है. ऐसे ही दो माह में तैयार हो जाने वाला ‘चीना’ भी जिससे भात बनता है.
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इन अनाजों के साथ पहाड़ में उगने वाली दालें स्वास्थ्य व पोषण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रहीं है. इनमें गहत, भट्ट व राजमा मुख्य हैं जिनकी मांग लगातार बनी रहती है व इतनी पूर्ति न होने से इनकी बाजार कीमत अन्य दालों से अधिक ही रहती है. गहत काले व भूरे दो किस्म के होते हैं. इसकी दाल व रस पथरी को गलाने में भी प्रयुक्त होता है. भट्ट परंपरागत रूप से तीन तरह के उगाये जाते हैं. इनमें भूरे रंग के, ठुमरिया अर्थात छोटे पौधे वाले भट्ट ‘राता भट्ट’ कहलाते हैं.दूसरा सफेद भट्ट जिसके ठुमरिया खड़े पौधे होते हैं. सबसे अधिक पोषण वाले भट्ट काले भट होते हैं. काले भट के दाने मुख्यतः तीन किस्म के होते हैं जिनमें तिरछी बेल पर छोटे दानों वाले, बहुत छोटे, लम्बाकार दाने पतली बड़ी बेल पर उगते हैं जिन्हें अधिक पोषण वाला कहा जाता है. इसके साथ ही भट्ट गोल दानों वाले होते हैं जिनकी लम्बी बेल खेत में तिरछी फैलती है. इस तरह भट छोटे खड़े पौंधो वाले ‘ठुमरी’, बेल वाली ‘लगिली’ व एक अन्य ‘भंगराली’ कही जाती है, पर उगाये जाते रहे. पहाड़ों में भट्ट की ही सुधरी किस्म बड़े दानों व पीले छिलके वाली सोयाबीन भी बोई जाती है.
स्वाद दालों में ‘मास’ या ‘उर्द-उरद’ हर मांगलिक अवसर पर प्रयोग होती है जिससे ‘बड़े’ भी बनाए जाते हैं तो पहाड़ी ककड़ी के साथ इनसे बनी ‘बड़ी’ पहाड़ का प्रचलित व्यंजन है.सत्तर के दशक से ही उत्तराखंड सेवा निधि, अल्मोड़ा ने महिलाओं के स्वयं सहायता समूह द्वारा बड़ियों का उत्पादन आरम्भ कर इनका व्यापक प्रचार प्रसार किया. मास की तिमासा व छह मासा किस्में हैं जो ‘ठुमरिया’ या छोटे पोंधो तथा ‘लगीले’या बेल वाली किस्में होती हैं.
दाल के साथ ही औषधि प्रयोग के रूप में गुरूँस उगाई जाती रही है जो ‘राता’ या भूरे तथा सफेद रंग की छोटे पौधे ‘ठुमरिया’ में उगती है. इसी तरह बड़े दानों वाली मसूर ‘हरसुलि’ या ‘हाउसिरि’ या ‘हसूल’ कहलाती है तो छोटे दानों वाली को ‘खिरसुलि’. इन दोनों किस्मों को उगाने के तरीके भी अलग -अलग होते हैं.मसूर रवि के मौसम की मुख्य फसल है मूंग भी दो तरह की बोई जाती रही हरे रंग की और काले रंग की.
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पहाड़ में राजमा, फरास बीन की विविध किस्म रंग, आकार व स्वाद के हिसाब से भिन्नता लिए होती हैं. ये सफेद दानों वाली छोटी और मध्यम, छोटी गोल दाने वाली नानसिमि छोटी पौध वाली या ठुमरिया , बड़ी लम्बाकार दानों वाली चितकबरी, काली तथा सफेद बेल में उगती हैं.राजमा खरीफ की फसल है
जिसमें ‘रेंस’ भी बोया जाता है. दाल और सब्जी बनाने के लिए घर के आसपास ‘बाकुला’ उगाया जाता है.नकदी फसलों में सब्जी व दाल के लिए ‘मटर’ रबी के मौसम में बोई जाती है. उपरांऊ भूमि में किसान इसे गेहूं के साथ मिश्रित फसल के रूप में भी बोते हैं.
वह फसल जो धान्य और मोटे अनाज की भांति प्रयोग होती हैं में ‘उगल’ और ‘चौलाई’ खास हैं. उगल ज्यादातर अधिक ऊंचाई वाले स्थानों में खरीफ में बोया जाता है. व्रत उपवास में इसके आटे की ‘छोलिया’ रोटी बनाई जाती है साथ ही इसके पुवे व पकोड़ी खास पसंद की जाती है. ऐसे ही उच्च स्थानों में ‘चुआ’ या ‘चौलाई’ उगाई जाती है जिसकी पत्तियों की सब्जी बनती है तो बीजों से कई व्यंजन जिनमें गुड़ मिला कर बने चुए के लड्डू पाचक व स्वास्थ्य वर्धक माने जाते हैं.भूरे व काले तिल भी खास होते हैं जिनका पहाड़ की रसोई में कई तरह से प्रयोग किया जाता है. पूजा व हवन के लिए काले तिल प्रयुक्त होते हैं.
पहाड़ में बोये मसाले अपने खास स्वाद व शुद्धता से खूब पसंद किये जाते हैं. पहाड़ी मेथी, धनिया, हल्दी, लालमिर्च, अदरख, कलोंजी, बड़ी इलायची, दालचीनी व तेजपत्ता के साथ जम्बू व गंधरायण या गंधरेणी के साथ दुन, प्याज़, मोटा लहसुन या लासण पहाड़ के अलग अलग इलाकों में अपनी खासियत के साथ अलग पहचान बनाता है. इनके साथ ही चटनी व तेल के लिए भंगीरा व कई प्रयोग में आने वाली भांग उगाई जाती है.भांग के दाने भिगा कर उनका रस गडेरी, मूली, कद्दू, आलू की सब्जी को अलग स्वाद तो देता ही है सेहत के लिए भी पुष्टिकारक होता है. इसका नमक भी बनता है. रायते में डालने के लिए काली राई खास होती है तो भूत बाधा में मंतरने के लिए भी. राई की भी कई किस्में हैं जो बड़े दानों व बारीक़ दानों वाली होती है. पहाड़ में लाई, सरसों, तिल से तेल पेरा जाता है तो च्युरे व अखरोट व खुमानी के बीजों का तेल के कई उपयोग हैं.
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खाद्य अन्न, दालों, तेल बीज व मसालों के साथ परंपरागत रूप से उगाई गई सब्जियाँ पहाड़ के जैविक उत्पादन में विशेष महत्त्व की हैं. पहाड़ का आलू इनमें खास है जिसमें उच्च इलाकों के आलू का स्वाद सबसे बेहतर होता है. इनमें लम्बा, गोल, लाल आलू की अनेक प्रजातियां हैं जिनकी काफी मांग बनी रहती है. साथ ही विभिन्न मौसमी सब्जियाँ खासी लोकप्रिय हैं जो खेत में पर्याप्त गोबर की खाद व कम्पोस्ट से उगाई जाती हैं. इनमें चूल्हे की राख भी डाली जाती है जो सब्जियों में लगने वाले कीटों से बचाव कर इनकी वृद्धि में सहायक होती हैं.
पहाड़ में पिनालू की कई स्थानीय प्रजातियां हैं जिनकी पहचान उनके कंद या ‘भुड़ा’, ‘भुड़े’ या, ‘भुणों’ के साथ ‘छुनों’ अर्थात नए कंद जो भुणों पर लगते हैं से किया जाता है. साथ ही तने या ‘नौल’ के रंग व स्वाद के आधार पर भी पहचान होती है. पिनालू में सबसे स्वाद गडेरी होती है जिसके कंद मोटे, बड़े, लम्बाकार व गुलाबी लाल धारियों वाले होते हैं. गडेरी दूधिया सफेद व गुलाबी पन लिए छीँट दार होती है. यह जल्दी पक भी जाती है और लसदार बहुत स्वाद होती है. इसकी दूसरी किस्म ‘पुरयाँसी’ है जिसके तने का रंग हरा होता है व कंद लाल रंग के व गोलाकार होते हैं इसके कंद लम्बे होते हैं. यह खूब स्वाद व जल्दी गलने वाली होती है. देर से गलने वाली सफेद रंग की मोटी बड़ी व लम्बी प्रजाति ‘रड़वा’ कहलाती है जो कुकेल या कैसेली भी होती है. इसके छुने व पापड़ स्वाद होते हैं. अन्य किस्म ‘कुच्याँ’ कहलाती है जिसके कंद खूब लम्बे व भूमि में नीचे व ऊपर की ओर बढ़ते हैं. इसके नौल हरे होते हैं और स्वाद मिठास लिए होता है. खरीफ में उगने वाली गडेरी व पिनालू को इसे उबाल कर, राख में भून कर, गुटके बना या रसदार सब्जी व कई अन्य व्यंजन बनाए जाते हैं जिनमें गहत-गडेरी, गडेरी की उरद व गहत मिला बनी बड़ी, पापड़, पपटोल आदि मुख्य हैं. इसकी सब्जी की तासीर गर्म करने के लिए इसमें भांग के बीजों का रस डालते हैं.
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दैनिक उपयोग में प्रयुक्त जैविक सब्जियाँ पहाड़ में प्रचुर मात्रा में बोई जातीं हैं. इनमें बेल में उगने वाली सब्जी लौकी, कद्दू, करेला, राम करेला, तुरई, कुमिल मुख्य हैं तो सगिया मिर्च, बैगन, फरास बीन, बाकुला, मटर, टमाटर,बंद गोभी, फूल गोभी के साथ हरी सब्जियों में पहाड़ी पालक, लाई, मेथी, बेथुवा, चुवा, हरी प्याज़, उगल, मूली के साथ गडेरी के गाब, कद्दू के टुक, हालंग मुख्य हैं जो अपने खास स्वाद व गुण से स्वास्थ्य के लिए बहुत गुणकारी हैं. इनके साथ ही लिगुण, तिगुणा, तिमुल, कैरुआ की कली, पुनर्नवा की पत्ती, सिसूण की कोमल पत्ती का प्रयोग भी सब्जी बनाने हेतु किया जाता है.जंगलों में च्योँ उगता है जिसकी खाद्य किस्म पहचान कर बनाई जाती है. उचित नमी वाली जगहों में मशरूम होता है. पेड़ों में चढ़ बेल में उगी गेठी को उबाल या राख में पका कर खाते हैं जिसकी तासीर काफी गर्म होती है. पथरीली जगह पर तरुड़ उगाते हैं जिसके बड़े कंद फराल में रखे जाते हैं. यह पुष्टि कारक होते हैं. पीली ककड़ी को कोर कर इससे बड़ी तो बनती ही है, राई पीस कर दही के साथ रायता बनता है जो हर मांगलिक अवसर पर पसंद किया जाता है. बड़े कद्दू भी घर की छतों में रख सुखाए जाते हैं जो फराल में काम आते हैं.
गडेरी, पिनालु, बड़ा नीम्बू, आद या अदरख, बड़ी गोल मूली, हल्दी को छाया दार स्थानों में गड्डे बना कर मड़ुए की भूसी से ढक संरक्षित किया जाता है तो पके पीले कद्दू को छत पर व ककड़ी को डंठल सहित तोड़ लटका कर सुरक्षित करने हेतु सुखा लेते हैं. कद्दू, लौकी व मूली के पतले टुकड़े भी सुखा कर इनके सुखौट बना लिए जाते हैं. हल्दी काट इसके टुकड़े उबाल कर सुखा लेते हैं जिन्हें सुविधा नुसार पीस लिया जाता है. मसाले पीसने के परंपरागत तरीका सिल लोड़े में पीसना होता रहा जिससे मसाले की खुशबू व स्वाद स्वाभाविक रहता है. नीम्बू बड़े, दाड़िम व जामिर का रस निकाल कढ़ाई में खूब पका इनका चूक बनता है जो खट्टे व चटनी के काम आता है.
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पहाड़ में विविध फसलों व उनकी किस्मों की पहचान की एक निश्चित प्रणाली रही है. आज जिस जैविक उत्पादन को प्राथमिकता दी जा रही है उसकी सरल, तर्कसंगत व व्यवहारिक पद्धति पहाड़ में परंपरागत रूप से विद्यमान रही है जिस पर पूर्ण लोक विश्वास बना रहा है. यही कारण है कि यहां की उपज भले ही मात्रा व परिमाण की दृष्टि से वह अल्प रही हो या पर्याप्त अंतरसंरचना न होने से सुविधा से प्राप्त न हो पाती हो गुणवत्ता की दृष्टि से प्रकृति का अमूल्य उपहार है. यही कारण है कि शरीर की निरोगी क्षमता बनाए रखने व स्वस्थ रहने के लिए जिन खाद्यान्नोँ को ‘श्री अन्न’ की संज्ञा दी गई है उनका जैविक उत्पादन स्त्रोत पहाड़ हैं.
दुर्भाग्य से खेती किसानी में होने वाले परिश्रम व अंतरसंरचना की दुर्बलता से पहाड़ में कृषि लाभप्रद न होने की सोच बलवती हुई है. पहाड़ की जमीन को बटाई पर ले गढ़वाल-कुमाऊँ के अनेक सीढ़ी दार खेतों की किस्मत नेपाली श्रमिक परिवारों व अन्य ने बदल कर रख दी तो अपनी जमीन बेच कर फिर उसी पर चौकीदारी करने के उदाहरण खासे चर्चित रहे हैं. पहाड़ के अनेक कस्बे जहां पर्याप्त कृषि योग्य भूमि थी अब बेतरतीब मकान भवन दुकान से घिर पर्यावरण के लिए नए नए संकट पैदा कर चुके हैं तो हर यात्रा मार्ग पर खुलने वाले ढाबे मैगी कल्चर के शिकार हैं. पहाड़ के खेतों में गेहूं चावल न उगा उन्हें गैर आबाद करने वालों की सोच यह है कि जब सरकार सस्ता राशन दे ही रही तो हल चलाने का हाड़ तोड़ परिश्रम क्यों करें.
(Organic Products of Central Himalaya)
पहाड़ के जैविक उत्पादन पर रचनात्मक योगदान अनेक वैज्ञानिकों व लेखकों द्वारा किया गया जिससे जनसामान्य लाभान्वित हुआ. इनमें डॉ जगदीश चंद्र भट्ट, डॉ वीर सिंह, डॉ एस पी सिंह, कैलाश चंद्र पंत, कुलदीप सिंह नेगी, आर तिवारी, ए दास, पी सी पांडे,प्रमिला जोशी, देवेंद्र सिंह, उमेश चंद्र साह, कुसुम भंडारी, जी एस नयाल व शांति नयाल, दिवा भट्ट, एन एस भंडारी, जी सी जोशी, एस एस पथनी, देव सिंह पोखरिया, वीर सिंह व डॉ राम सिंह की रचनाओं का अनुभव सिद्ध अवलोकन इस लेख में वर्णित है. इसके साथ ही गांव -गांव में मौजूद लोक परंपराओं व पद्धतियों के जानकार भी हैं,जिन्होंने अपने बल पर बेहतर व कारगर मध्यवर्ती तकनीक को अपना कर जैविक उत्पादन की परम्परा को पहाड़ में बनाए बचाये रखा है.
इसे अनुकूल संयोग माना जाना चाहिए कि अब सरकारी नीतियाँ भी प्रदूषण रहित रसायन मुक्त खेती के अधिमान को अपनी अनेक योजनाओं में प्रकट कर रहीं हैं. अब यह जरुरी हो गया है कि इस दिशा में विकास सहायता के समुचित भाग को जैविक उपज परंपरा को सूची बद्ध करने तथा विलुप्त होते जा रहे बीजों व इनके संरक्षण व प्रबंधन के प्रयासों के लिए निर्देशित किया जाय . इसके लिए आंचलिक जानकारी रखने वाले सयानों व इलाके के जानकारों की पहचान व निर्दिष्टीकरण करने की प्रक्रिया को गति देनी होगी. इस प्रकार उपलब्ध संसाधनों के आवंटन व इनके सम्यक उपयोग से जैविक उत्पादों की वृद्धि के कार्यक्रम संचालित कर स्थानीय समुदाय की सलाह व मार्गदर्शन द्वारा वैज्ञानिक रूप से जैविकीय उपज को बढ़ाने की नीतियाँ तय हों. तब ही ऐसी मध्यवर्ती तकनीक व विधियां विकसित हो सकेंगी जो स्थानीय लोगों के बौद्धिक ज्ञान व जैविक संसाधनों के प्रयोग पर आधारित होंगी.संसाधनों के संरक्षण, प्रबंधन व सतत उपयोग से सम्बंधित जानकारी समूचे पहाड़ी अंचल व खेतिहर समुदाय तक पहुँचनी बहुत जरुरी है क्योंकि तेजी से पहाड़ के गांव गैर-आबाद हो रहे हैं और रोजगार के लिए प्रवास की सोच ही एकमात्र विकल्प के रूप में देखी जा रही है. पहाड़ में चली आ रही उत्पादन पद्धतियाँ व लोक में संचित परंपरागत ज्ञान का अधिकतम सम्भव उपयोग करने की सोच को विकसित करके नई पीढ़ी को वह धरोहर सौंपी जानी संभव होगी जिसके अवक्षय व विघटन से सामाजिक व तकनीकी द्वेधताऐं बढ़ती गईं हैं.बाजार में जैविक उत्पादों की बढ़ती मांग और स्वास्थ्य व पोषण के लिए जागरूकता के बढ़ने के कारक पहाड़ के खेतों की हरियाली को निश्चित रूप से बढ़ाने के लिए उत्प्रेरक सिद्ध होंगे.
(Organic Products of Central Himalaya)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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मृगेश सर की पहाड़ के विषय में जानकारी अद्वितीय है, मैं इनके लेखों का वह पाठक हूं जो पहाड़ को गहराई से जानने की कोशिश कर रहा हैं।