इस बात से सभी इत्तेफाक रखते हैं कि आज के दिन अगर कोई अपना बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ा रहा है तो वह मज़बूरी में पढ़ा रहा है. यह बात उत्तराखंड समेत पूरे भारत में लागू होती है. आज के दिन सरकारी स्कूल शिक्षकों के वेतन आहरण के अड्डे से अधिक कुछ नहीं हैं. जाहिर है हर जगह की तरह इसके कुछ अपवाद भी होंगे.
सन 1972 तक उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में प्राइमरी शिक्षा ग्राम पंचायतों, जिला परिषदों या नगरपालिकाओं द्वारा संचालित होती थी. जैसे-जैसे शिक्षा का केन्द्रीकरण हुआ वैसे-वैसे कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली छोटे बच्चों के प्राइवेट स्कूल खुलने लगे.
जो लोग इस भ्रम में हैं कि इस दौर के सभी स्कूल सरकार ने खोले या अंग्रेजों के छोड़े हैं उन्हें पहाड़ों में जाकर देखना चाहिये कि जिस जमीन पर ये स्कूल बने हैं वो गांव में ही किसी की दान की हुई है. जिस भवन पर ये स्कूल खुले उनमें अधिकांश गांव वालों ने श्रमदान कर बनाये. सरकार ने बाद में आकर उनपर कब्ज़ा किया है.
स्कूल में काम करने वाले शिक्षकों की तनख्वा नाम मात्र होती थी. इसी वजह से इस समय अधिकांश शिक्षकों का दूसरा पेशा जजमानी हुआ करता था. गांव वाले शिक्षकों की तनख्वा के विषय में जानते थे इसलिये उनके रहने की जिम्मेदारी गांव वाले खुद लेते. स्कूल में पढ़ाने वाले मास्टरों को आज भी ग्रामीण इलाकों में बहुत प्यार और सम्मान दिया जाता है. कम से कम उत्तराखण्ड में तो ऐसा ही है.
आज पांचवी में पढ़ने वाले पब्लिक स्कूल का बच्चा विश्व का नक्शा बना सकता है, भारत का बना सकता है, पर कितने पांचवी के बच्चे ऐसे होंगे जिन्हें अपने जिले का नक्शा बनाना आता होगा? आपको ताज्जुब होगा कि 1970 से पहले पांचवी कक्षा के पेपरों में जिले का नक्शा बनाने को आता था.
करीब दो दशक पहले की बात होगी जब पांचवी का बोर्ड एक छोटा सा मानक हुआ करता था. उससे और पीछे जाने के लिए अपने घर के बुजुर्गों से बात करेंगे तो आपको पता चलेगा की एक समय पांचवी के बोर्ड का ख़ासा महत्व था. पांचवी की परीक्षा का आयोजन तक दुसरे स्कूलों में होता था.
तीन-चार गाँव के प्राइमरी स्कूल का एक सेंटर हुआ करता था. बच्चे एक गांव से दूसरे गांव जाकर परीक्षा देते. जैसे पिथौरागढ़ थल के आस-पास के पांचवी के बच्चे आमथल के प्राइमरी स्कूल में परीक्षा देते. पिथौरागढ़ मुनाकोट ब्लाक के आस-पास के गांव के प्राइमरी स्कूल के बच्चे बलुआकोट में जाकर परीक्षा देते. इन परीक्षाओं में अपने गांव का नाम रौशन करने की होड़ होती.
पांचवी की कक्षा एक दौर में वी.आई. पी कक्षा हुआ करती थी. जहां पहली से चौथी तक का हर बच्चा स्कूल में बैठने के लिये घर से बोरा लेकर आता वहीं पांचवीं के बच्चों को अक्सर स्कूल में ही दरी मिलती. उन्हें पढ़ाने का काम भी स्कूल के हैडमास्टर अपने जिम्मे लेते. जहां पहली से चौथी तक के बच्चों तक को एक साथ बैठाकर पढ़ाया जाता तो वहीं पांचवीं के लिये स्कूल की कोई सबसे शांत जगह देखी जाती.
स्कूल में दूसरी और तीसरी कक्षा तक सीधा एडमिशन मिलने में बहुत दिक्कत नहीं आती थी लेकिन उसके लिये स्कूल हैडमास्टर बच्चे की मौखिक परीक्षा जरुर ले लेते. पांचवी में सीधा प्रवेश लगभग नामुमकिन सी बात थी. पांचवीं में प्राइवेट परीक्षा तक दी जाती थी.
आज बच्चों की स्टेशनरी पर हजारों का खर्चा है. एक ज़माने में बच्चे स्लेट में लिखते. साथ में कमेट की दवात बांध ले जाते. पहली और दूसरी तक स्लेट पर कमेट से ही लिखा जाता. स्लेट को कुमाऊनी में पाटी कहते हैं. पाटी के ऊपरी हिस्से में छेदकर उसमें एक डोर बांध दी जाती और उसे टांगकर स्कूल जाया जाता.
लिखने के लिये रिंगाल की कलम बनती. पहली बार रिंगाल छिलकर कलम बनाने का काम मां-बाप या स्कूल मास्टर करते. स्याही जिन्दगी में तीसरी कक्षा में आती. होल्डर के प्रयोग पर अलग से न जाने कितने किस्से कहानियां लिखी जा सकती हैं. पहली कक्षा में अ-आ, क-ख, शब्द बनाना और छोटे-छोटे वाक्य पढ़ना सिखाया जाता.
दूसरी में सौ तक गिनती, दस तक पहाड़े, किताब पढ़ना सिखाया जाता. पांचवी तक बच्चे को 20 तक पहाड़े गणित के दैनिक प्रयोग आधारित सवाल, विज्ञान में अपने परिवेश की जानकारी, हिंदी में सुलेख निबंध, पत्र आदि पांचवी तक सिखाये जाते.
कुल मिलाकर बच्चे को अपनी पढ़ाई की सामग्री से लेकर स्कूल में पढ़ाई जाने वाली बातें अपने आस-पास से न केवल इकठ्ठा करनी पढ़ती बल्कि आये दिन वह उसका प्रयोग भी अपने दैनिक जीवन में करता.
अब आते हैं आज के दौर पर जहां बच्चों को शक्तिमान बनाया जा रहा है. होब्बिस के नाम पर माँ अपने रोते बच्चों के क्रिकेट किट बोक रही हैं, बाप डांस के लिये स्कूटर के ब्रेक घिस रहे हैं और पीस रहे हैं बच्चे, बस्तों और सपनों के बोझ तले दब रहे हैं.
सालों से शिक्षक दिवस के दिन चमकीली प्लेट में समोसा और पीली नमकीन लगे रसगुल्ले भकोसने का सिलसिला अब बंद किया जाना चाहिये और गंभीरता से इस पर विचार किया जाना चाहिये कि आज की शिक्षा पद्धति हमारे बच्चों को क्या बना रही है?
-काफल ट्री डेस्क
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
View Comments
पहले और आज की स्कूली शिक्षा पद्धति में उभयनिष्ठ गुण/अवगुण ( जो भी मान लें) यही था/है कि, चिह्नों पर आधारित ज्ञान को , बच्चों की ग्राह्यता कम होने के कारण, उन्हें रटा रटा कर उनके मनोमस्तिष्क में भरा जाता है। तदुपरांत, पुष्ट होने के लिए, उस बलारोपित ज्ञान को बच्चों की बढ़ती हुई उम्र के ऊपर छोड़ दिया जाता था/है। दुख केवल उन क्षणों का होता था/है, जब बच्चों की दुर्बल और अनुभव रहित बुद्धि के लिए गणित के सामान्य तर्काधारित प्रश्न हल करना (और अन्य विषयों के तर्कपूर्ण उत्तर लिखना), उनकी उम्र के लिहाज़ से बहुत बड़ी चुनौती बन जाता था/है।
इस समस्या की काट आजतक हमारे पीजी और पीएचडी डिग्रीधारी गुरुजन/शिक्षाधिकारी नहीं निकाल सके हैं, क्यूंकि बच्चों, और विशेषकर छोटे बच्चों द्वारा समस्याओं के उत्तरों का प्रस्तुतीकरण और इनका मूल्यांकन, गुरुओं से लेकर अधिकारियों तक, सबके लिए, चिह्न/लेखन आधारित मूल्यांकन पद्धति ही है, आखिर बच्चों को बड़ा होकर लंबी चौड़ी फाईल लिखने योग्य बाबू तो बनाना ही है 😊😊