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धरती के युद्ध धरती पर ही लड़े जायेंगे

जिस जगह वो रहता था उस जगह के आगे कोई बस्ती नहीं थी. गाँव के छोर से आगे जाने की अघोषित मनाही थी. कई पीढीयों से. उसे पक्का विश्वास था की दुनिया के गोल होने बातें महज बकवास थी.और दुनिया का छोर इसी बस्ती से आगे ही कहीं है जहां धरती एकदम किसी तीक्ष्ण किनारे में समाप्त होकर एक बड़े और भयावह और अंतहीन कचरापात्र में समाप्त हो जाती है. और इस गाँव के लोग अंततः इसी कचरेदान में ठेल दिए जायेंगे. तमाम से निर्वासित होकर ही उन्हें यहाँ रहने कि जगह मिली है और ये निर्वासन एक सतत प्रक्रिया है जिसमें अंतिम जगह इसी महान कूड़ा लोक में मिलनी है. ये नियति और भी कई लोगों की थी. बल्कि सभ्यता सिर्फ कुछ द्वीपों में सिमट गयी थी जिसकी भित्तियां अभेद्य थी जिनसे लोग बाहर ही जा सकते थे. भीतर आने का रास्ता नहीं था. लगातार धकेल देने का प्रोसेस सभ्यता की चमक बनाये रखने के लिए ज़रूरी था. सभ्यता की चमक, जो रात को निर्जन सड़कों पर बेशुमार बिखरी रहती थी जब पांच सितारा पार्टियां लगभग अँधेरे में कोलाहल के साथ परवान चढा करतीं थीं.

उसने समंदर को कुछेक बार ही देखा था पर उसके भीतर समुद्री यात्राओं की गाढ़ी स्मृतियाँ थीं. असल में लगातार छोर की तरफ धकेले जाने के अहसास ने समुद्र के प्रति उसके मन में गहन कृतज्ञता से भर दिया था. उसे लगता था कि तमाम निर्दयताओं की बावजूद समुद्र आदमी से खेल ही करता है और जीवन के विरुद्ध तमाम संघर्षों के लिए उत्तरदायी होने के बाद भी उसमें ज़रूरी तरलता बचाए रखता है. वैसे भी अंततः किसी भी तरह के जीवन का पहला घर समुद्र ही है. समय और दिशाओं के जूनून से मुक्त समुद्र आदमी को उसकी ज़रूरी वैयक्तिकता लौटाता था. उसके अस्तित्व के प्रति सम्मान के भाव के साथ.

कई यात्राओं की प्रगाढ़ स्मृतियों के साथ,भले ही उनमें से कोई भी उसने नहीं की थी, पर जिनके बारे में महान वृत्तान्तकारों के बताए सूक्ष्म विवरण उसके सामने जीवंत थे, वो अपनी पहले समुद्री यात्रा के लिए निकला और कई दिन के बाद अब वो बीच समंदर में एक जहाज पर था. हवाएं खारेपन से लदी थी. दूर दूर तक सिर्फ समुद्र ही था. ऐसा लगता था कि जैसे ज़मीन सिर्फ एक कल्पना थी. ठोस कुछ भी नहीं था. जितना तरल बाहर था उतना ही भीतर. सब कुछ बहता हुआ. प्रवहमान. प्रेम को लेकर भी द्वंद्व का सख्त ढांचा टूट गया था. अब सिर्फ निर्द्वन्द्व प्रेम ही रह गया था. डेक पर उसने दो प्रेमियों को देखा जो समुद्र के आह्वान पर आये थे और कुछ ही देर में खारी हवाएं उनके बीच के सारे संकोच, आग्रह, झिझक, मर्यादा वगैरह को घोल चुकी थी. अब सब कुछ उनके बीच पारदर्शी था. बिलकुल भीतर के मन तक.

तमाम सरलता का वास यहीं समुद्र में था. ये तो विकास-क्रम में कुछ जीवों की महत्वाकांक्षा थी जो उन्हें ज़मीन पर ले आयी थी. एक लिप्सा आगे बढ़ने की , किसी दूसरे की कीमत पर. यूँ समंदर भी मौत के खेल में पीछे नहीं था बल्कि पल पल यहाँ यही कुछ होता आया है पर इस जल-मैदान के कुछ सरल कायदों का सम्मान करने मात्र से आपके निजी अवकाश को पूरा सम्मान मिलता है. यहाँ सब कुछ सीमाहीन है पर यूँ अपनी अपनी सीमाएं जो निजता का सुख भोगने के लिए ज़रूरी है.

शाम के ढलने का वक्त था. समुद्री आकाश जल-पक्षियों से आच्छादित था.एक अंतहीन विस्तार में प्रेम की भाषा कौंध रही थी.जीवन के संघर्ष प्रेम की प्रदीप्ति के आगे अपने ताप को अस्थायी तौर पर छोड़ चुके थे.कल उसके लौटने का दिन था. वो फिर किसी किनारे से आ लगेगा. उसे फिर विस्थापन के विरुद्ध लड़ना होगा. आखिर धरती के युद्ध धरती पर ही लड़े जायेंगे.

 

संजय व्यास
उदयपुर में रहने वाले संजय व्यास आकाशवाणी में कार्यरत हैं. अपने संवेदनशील गद्य और अनूठी विषयवस्तु के लिए जाने जाते हैं.

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