Featured

पैंतीस के बाद प्रेम वाया और पतित होने के नारायणी नुस्खे

एक बार तो लगता है कि झपटकर कर लें, लेकिन फिर दिमाग चोक लेने लगता है. यहां तक आते-आते दिल की मोटरसाइकिल भी तीस से नीचे का एवरेज देने लगती है. गनीमत बस इतनी है कि रुक-रुककर ही सही, चलती तो है. और जैसे ही ‘आगे तीखा मोड़ है’ का बोर्ड दिखता है, मुई मोटरसाइकिल सीधे वोटरसाइकिल में बदलने लगती है. जो लगती है कि चल रही है, दिखती है कि आ रही है, लेकिन न चलती है, न आती है. घर्र-घर्र करके किसी मकैनिक की दुकान से कम से कम तीन किलोमीटर पहले ही रुक जाती है. यहां तक आते-आते दिल की ये जो मोटरसाइकिल है न, इसे चलाने में बड़ा डर भी लगता है. साठ की स्पीड पार करते ही लगता है कि एक पहिया दाहिने जा रहा है तो एक बाएं. कुछ दिन पहले टंकी फुल कराई, थोड़ी चलाई और फिर थोड़ी दौड़ाई, मगर वो स्पीड नहीं मिली जो पहले मिलती थी. सब दांए-बांए हो गया.

मोटरसाइकिल की जब ये हालत हो तो सड़क भी सूनी मिलती है. दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं दिखता कि धक्का ही लगा दे. और अगर उस सूनी सड़क पर कोई मिल भी जाए तो धक्का लगाने के लिए तैयार नहीं होता. खैर उसकी भी कोई गलती नहीं, साढ़े तीन दशक पुरानी धूल और थपेड़े खा चुकी मोटरसाइकिल यहां कोई छूना नहीं चाहता, धक्का तो बहुत दूर की बात है. फिर तहों तह जमी धूल हाथ भी तो गंदा कर देती है. वैसे कोई धक्का खाया मिल जाए तो वह धक्का लगाने में पीछे नहीं रहता है. धक्का खाए लोगों से पूरी दुनिया ही भरी-भरी है, मगर धक्का खाए लोग सड़कों पर नहीं मिलते. सूनी सड़कों पर तो बिलकुल नहीं मिलते. मोटरसाइकिल को इस उम्र में पहुंचाने के बाद जितनी जल्दी हो सके, हमें सीख लेना चाहिए कि कैसे भी करके, कम से कम एक धक्का खाया शख्स मोटरसाइकिल के पीछे बैठा लें, वरना सड़कों का तो वैसे भी कोई भरोसा नहीं है.

अभी परसों ही हैरिंग्टनगंज से मिल्कीपुर की ओर चला जा रहा था. अपने यहां सड़क सपाट तो हो नहीं सकती, पर सूनी जरूर हो जाती है. बाजार छोड़ते ही मोटरसाइकिल दाहिने-बाएं होने को हुई कि सूनी सड़क पर एक साहब मिल गए. अकेले चले जा रहे थे, और पीछे-पीछे मैं. मैंने सुना कि वो कैफी की कोई उम्मीद भरी गजल गुनगुना रहे थे, शायद किसी ताखे से उतार लाए थे. थोड़ी देर तक तो मैं पीछे-पीछे चला और जब न रहा गया तो पूछ बैठा- ‘धक्का लगाएंगे?’ इतना सुनना था कि उनका चेहरा लाल. बोले- ‘मूर्ख दिखता हूं मगर हूं नहीं.’ मैंने कहा- ‘साहब, मैंने तो सिर्फ धक्के का पूछा, न लगाना हो तो न लगाइए. आप दयालु दिखे, इसलिए पूछा.’ कहने लगे- ‘जानता हूं आप मजे ले रहे हैं.’ मैंने लाख समझाने की कोशिश की, रुकी पड़ी मोटरसाइकिल भी दिखाई, पर क्या मजाल कि वह धक्का लगा दें. हारकर मैंने पूछ ही लिया- ‘कभी धक्का खाया है आपने?’ वह बगैर बताए ही आगे बढ़ गए. जाते-जाते मैंने देखा कि इस बार उन्होंने मुंह पर रूमाल भी बांध लिया था.

 

दिल्ली में रहने वाले राहुल पाण्डेय का विट और सहज हास्यबोध से भरा विचारोत्तेजक लेखन सोशल मीडिया पर हलचल पैदा करता रहा है. नवभारत टाइम्स के लिए कार्य करते हैं. राहुल काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

3 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

6 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

2 weeks ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago