फ़िल्मों की बहार उर्फ़ जाने कहां गए वो दिन – 2

(पिछली क़िस्त से आगे)

सिनेमा की टिकटों के लिए खिड़की खुलने से काफी पहले ही लम्बी क़तार लग जाया करती थी. टिकट क्लर्क सरकारी बाबुओं की तरह कुछ देर से आकर आसन ग्रहण करता और बड़े इत्मीनान से टिकटों की गड्डियों पर तीन जगह मोहर लगाता था. उस वक़्त हम पर उसका बड़ा रुआब पड़ता था. वह भी खुद को किसी तहसीलदार से कम क्या ही समझता होगा. टिकट खिड़की के छोटे से छेद से टिकटार्थियों की तीन-चार कलाइयां अंदर घुसी रहतीं. टिकट के लिए अक्सर मारपीट हो जाया करती थी. बुकिंग क्लर्क से अगर आपकी सेटिंग है तो वह आपको ऐसी जगह टिकट दे सकता था जहां बगल में लडकियां बैठी हों. टिकटों की कालाबाजारी भी हुआ करती. तब के कई टिकट ब्लैक करने वाले आज कहाँ के कहाँ हैं. सब धंधे हैं. तब उनका धंधा टिकटों की कालाबाजारी था आज जो है वह मान्यताप्राप्त है, जिसमें पैसा और इज्ज़त है.

कभी कभार सरकार को लगता कि यार यह फिल्म तो समाज को कोई सन्देश भी दे रही है, मनोरंजन के साथ साथ दुर्घटनावश ही सही. तो वह फिल्म करमुक्त कर दी जाती. मतलब कि टिकट का दाम कुछ कम. सबसे अगली क्लास का टिकट डेढ़-पौने दो रुपये का. ऐसे में हम काफी खुश होते. मशक्कत कम करनी पड़ती थी. कई बार तो सेकेण्ड क्लास का टिकट भी हमारी पहुँच में आ जाता था. उमराव जान, दूल्हा बिकता है और गांधी जैसी फ़िल्में टैक्स फ्री थीं. यूँ तो बच्चों का पिक्चर देखना बुरा माना जाता है लेकिन कभी-कभी शिक्षा विभाग के अधिकारियों और अध्यापकों को लगता था कि यह पिक्चर बच्चों को भी देखनी चाहिए. अध्यापक सर्वज्ञाता होता है और शिक्षा विभाग का अधिकारी तो त्रिकालदर्शी होता है. तो उनको जो लगता होगा ठीक ही लगता होगा. तो जब उन्हें ऐसा लगता तो वे बच्चों को सूचित कर देते. बच्चे घर से पैसे मांग लाते टिकट के मूल दाम से शायद कुछ कम. अध्यापकों के नेतृत्व में बच्चों का जुलूस सिनेमा हॉल जा पहुँचता. बच्चे अगली कतारों में बिठा दिए जाते. मास्टर लोग काफी पीछे बालकनी में. बुद्धू बच्चे जिस तरह सबसे पीछे यानी बालकनी में बैठते हैं.

कम ही लोगों को पता होगा कि पैसे अगर कम हों तो “डबलिंग” पद्धति से भी पिक्चर देखी जाती थी. आविष्कार की पैदाइश का आरोप आवश्यकता पर लगता आया है इसलिए डबलिंग की खोज हुई. डबलिंग मतलब कि एक सीट पर बैठकर दो लोग फिल्म देखते. एक के पास टिकट के पूरे पैसे दूसरे के पास लगभग आधे. एक टिकट लिया जाता, आधे पैसे गेटकीपर को बतौर सुविधाशुल्क दिए जाते कि माई-बाप हमें डबलिंग कर लेने दे. तू हमारी सीट पर एक ही आदमी को देखना. डबलिंग के लिए लाजिमी था कि दोनों दोस्त हों. अनजान आदमी के साथ यह पद्धति कारगर नहीं हो सकती थी और यह सब फटीचर क्लास में ही हो सकता था, बालकनी वगैरह में नहीं. डबलिंग के लिए अगर पैसे न हों तो खुजली मिटाने का एक और तरीका था. हॉल के बाहर दरवाज़े से कान सटाकर भीतर चल रही पिक्चर की आवाजें सुन्ना. जैसे भूखा आदमी दूर से खाना तो देखे पर खा न पाए. यह तरीका अपने को कभी पसंद नहीं आया. क्योंकि एक तो किसी भी चीज़ के लिए अपने को एक हद से नीचे गिराना ठीक नहीं, दूसरे फिल्म देखने की चीज़ है सुनने की नहीं.

फिल्मों में कई बार धोखे भी हो जाया करते थे. खासतौर पर महिलाओं को. मान लीजिए फिल्म का नाम है – शंकर महादेव. महिलाएं शिव महिमा देखने की उम्मीद में टिकट लेकर बैठ गईं बिना देखे भाले. पिक्चर शुरू हुई तो पता लगा कि यह तो शंकर और महादेव नाम के दो डाकुओं की कहानी है. डाकू अगर शरीफ हुआ तो भी गनीमत है, वह अमीरों को लूटकर गरीबों में बांटने का सत्कर्म करेगा और जो कहीं डकैत हरामी निकला तो आंटीजी दो-एक बलात्कार तो आपको देखने ही पड़ेंगे. अब आ ही गयी हैं तो छी-छी करते देख ही लीजिए पैसे तो खर्च हो ही गए हैं. अंत बुरे का बुरा. आखिर में तो हीरो ने आकर इसकी गर्दन उतार ही लेनी है. डकैतों की फिल्म देखने से पता लगता है कि अधिकाँश डाकू भाई लोग काली के उपासक होते हैं. यही उनकी कुल देवी होती है नाम चाहे उनके शंकर हों या महादेव.

ज़्यादातर डाकू मूलतः एक ज़माने के शरीफ आदमी हुआ करते हैं जो कि साहूकार के अत्याचार सहते-सहते पले-बढे. एक साधारण से वकील को अंग्रेजों ने रेल के डिब्बे से बाहर धकेल कर महात्मा गांधी बना दिया. कुछ इसी तरह की घटना उनके जीवन में भी एक दिन घटित होती है. क्या होता है कि साहूकार उसकी बेटी या बहन पर हाथ डाल देता है. उस दिन उसका खून खौल-खौलकर आधे से ज्यादा भगौने से बह जाता है. वे जंगल की तरफ भाग जाते हैं. कुछ देर भागने के बाद हम देखते हैं कि वे घोड़े पर सवार हैं और हाथ में दुनाली है. उनके साथ पचासेक लोग आ जुटते हैं. सबके पास घोड़ा और दुनाली बन्दूक है. यकीन करिये ये सब फिल्म के अंत तक साहूकार की हवेली की ईंट से ईंट बजाकर समर्पण कर देंगे और बैकग्राउंड से घोषणा होगी – अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है. हैरानी की बात है कि सरकार ऐसी फिल्मों को माओवादी पिक्चर कहकर प्रतिबंधित नहीं करती. जबकि अगर कोई कह दे के हमारे मोहल्ले में तीन दिन से पानी नहीं आया, क्या व्यवस्था है तो वह माओवादी हो सकता है. इस आधार पर कोई अगर चाहे ओ कह सकता है सरकार डाकुओं के साथ है.

फिल्मों में मिथुन चक्रवर्ती का बाप नहीं होता और नजीर हुसैन की बीवी. मिथुन की विधवा माँ होती है और एक अदद जवान बहन जिसका अमूमन बलात्कार हो जाता है. मिथुन बलात्कारियों को चुन-चुनकर अपने हाथों मारता है. वह अक्सर मोटर मकेनिक जैसा रफ-टफ काम करता है. कभी-कभी पुलिस और मिलिट्री वाला भी होता है. एक अमीरजादी हाथ धोकर छोडिये नहा-धोकर उसके पीछे पड़ जाती है. मिथुन शुरू में हाथ नहीं धरने देता. फिर धीरे-धीरे नरम पड़ने लगता है और अंत तक लार टपकाने लगता है. बलात्कारियों को ठिकाने लगाने और मोटर रिपेयरिंग के कामों से फुर्सत निकालकर मिथुन उस अमीरजादी के साथ नाच-गा भी लेता है. मिथुन हमेशा गरीब और मजलूम के साथ है. वह मिलावटखोर बनिए की पोल सरेबाजार यूं खोलता है – ये क्या सेठ घी के डब्बे में डालडा! मिथुन जब तक ज़िंदा है कोई साला किसी के साथ अत्याचार तो करके दिखाए. मिथुन उसे चौराहे पर कुत्ते की मौत न मारे तो कुत्ता कह देना.

(जारी)

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शंभू राणा 

शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’  प्रकाशित हो चुकी  है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.

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