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एक आदमी जो बात करते करते मिट्टी के ढूह में बदल गया.

संजय व्यास
उदयपुर में रहने वाले संजय व्यास आकाशवाणी में कार्यरत हैं. अपने संवेदनशील गद्य और अनूठी विषयवस्तु के लिए जाने जाते हैं.

क्या कोई खिलौना ट्रांजिस्टर बज सकता है?

क्या किसी नक़ली घड़ी की सुइयां चल सकती है?

उसके लिए इसका उत्तर ‘ना’ में नहीं था. ‘हां’ में भी नहीं था. बस शक और भरोसे के बीच निलंबित सा कुछ था. बात बहुत पुरानी हो गई थी इसलिए उसे खुद इस बात का विश्वास नहीं रह गया था पर उसने एक दर्शक की हैसियत से जो देखा था उसकी धुंधली याद भी इतनी चित्रात्मक थी कि उसे वो पूरा दृश्य अपनी जगह, पृष्ठभूमि, केंद्र, परिधि, पात्रों- गौण पात्रों के साथ याद था. बस, एक जगह वो झूला पुल डगमगा रहा था. कुछ उधड़ा सा था वोपड़-चित्र. उसकी तुरपाई भी नहीं हो सकती.

वो एक लकड़ी का रेडियो था. उसके घर का छोटा आंगन था. एक पड़ौस का ‘शौकिया मिस्त्रिनुमा लड़का था जो उस रेडियो को जिज्ञासावश उलट पुलट रहा था.

आखिर उस लड़के ने रेडियो को खोल दिया. रेडियो में अंदरूनी तार और मशीनों की जगह बटन और धागे थे. सफ़ेद और रंग बिरंगे धागे जो कई सारे बड़े छोटे बटन से गुज़र रहे थे.

ये बात उसे क्यों याद थी कि रेडियो खरीद कर लाए जाने के बाद एक बार बजा था. खुद उसने उसे बजते हुए सुना था. पर बटन और धागों का जटिल आयोजन फिर किसी आवाज़ को पैदा नहीं कर पाया. उसने फिर उसे कभी सुना नहीं. उस लकड़ी के पिटारे का क्या हुआ उसे नहीं मालूम.

ऐसा ही कुछ उस घड़ी के साथ भी था.

वो घड़ी पिताजी ने ट्रेन में खरीदी थी. ट्रेन में कोई आदमी ख़ूब सारी घड़ियाँ बेच रहा था. दो-पांच घड़ियाँ वो हाथ में थामे था. दो पांच घड़ियाँ उसकी कलाई से बांह तक बंधी थी. उसके पिताजी ने एक कत्थई डायल वाली घड़ी खरीदी थी. उसके वास्ते. वो पहन कर ख़ूब इतराया था. बात ये भी पुरानी थी. वो छोटा था. उसने उस घड़ी की बाकायदा नुमाइश कर स्कूल का ग्रुप फोटो खिंचवाया था.उसकी याददाश्त के मुताबिक घड़ी चलती थी. उसकी सुइयां जैसे चिकने फर्श पर बेआवाज़ सरकती थीं. बेशक वो दीवार घड़ी की तरह शोर नहीं करती थी. दीवार घड़ी के हाथ सरकते वक़्त आवाज़ करते थे. एक लय के साथ दीवार घड़ी बोलती थी जो ‘घड़ीक्यम घड़ीक्यों टिटक टिटक’ की तरह सुनाई देता था.

कलाई घड़ी की सुइयां समय के साथ चलती थीं ये बात आज वो कैसे कह सकता था? घड़ी का पिछला ढक्कन एक दिन खुल गया और उसने देखा उसमें कोई चकरी या गिर्री नहीं थी. बस कागज़ भरा था.निरा कागज़. वो घड़ी कैसे चल सकती थी? पर… वो जो समझता था वो सच था या नहीं? यकीन की जीन पर कसकर इसे कैसे दौडाए?

उसे याद आया उसके दादाजी सुनाते थे कि पास के गाँव जाते समय उन्होंने एक आदमी को देखा था. उनसे बात करते करते वो अचानक मिट्टी के ढूह में बदल गया.

वो बहुत हंसा था दादा की बात पर. वे नहीं हँसे थे, पर उन्होंने कोई इसरार भी नहीं किया था.

वो इस समय हैंगिंग ब्रिज पर था. दो ठोस कगारों के बीच झूलता हुआ.

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