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निर्धनता पर नोबल पुरस्कार

दुनिया में गरीबी है. सत्तर करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें पेट भर भोजन आज भी नहीं मिलता. कंगाली उनका पीछा करती है. बदहाली उन्हें जीने नहीं  देती. भूख उनकी सांसों में है, बीमारी तन में. मुफलिसी तंगहाली बदनसीबी की तरह अक्सर ऊपर वाले के रहमोकरम पर छोड़ दी जाती है. यह एक बहुत बड़ा सवाल है जो निर्धनता रेखा के वार या पार रहने वालों चेहरों पर दीनता या कुछ  ना कर कर पाने की रेखाएं अक्सर छोड़ती रहती है. फैज कहते हैं, “तुम नाहक टुकड़े चुन चुन के दामन में छुपाये बैठे हो. शीशों का मसीहा कोई नहीं क्या आस लगाए बैठे हो? (Nobel Winner Abhijit Banerjee)

गरीबी को बहुत बड़ा सवाल बना इससे निजात पाने पर बहुत कुछ लिखा गया. कथा कहानी उपन्यास वृत्त चित्र. रोटी की जद्दोजेहद में तड़फ रहे चेहरों, पीठ से चिपके पेटों के फोटो खींच कई फोटो स्ट्रीट फोटोग्राफी में व फ़िल्में फैशन परस्त  समारोहों में पदक और पुरस्कार नाम और  दाम पा गयीं. गंभीर अध्ययन भी हुए, शोधपत्र छपे व पुस्तकालयों की शोभा खूब बढ़ी. चुनाव जीतने  के नारों में गरीबी हटाओ की मांग बढ़ी. चार से ले कर बीस सूत्री कार्यक्रमों की रेलमपेल मची. कई किसम  की टोपियों ने गरीबों की बदहाल जिंदगी सुधारने  के नाम पर पंचवर्षीय योजनाओं के खाके में निर्धनता और स्वावलम्बन का पिठ्या लगाया. पर विषमता और गरीबी तो सुरसा का मुंह थी जो नेताओं व देश के पहरेदारों की जुबान पे उतर जाने में हास्य -व्यंग रचने लगी थी.  इस पर से ध्यान हटाने के जतन हुए. कई मिलियन -ट्रिलियन इकॉनमी का मुखौटा विसंगतियों से जूझते चेहरों पर पहनाया गया. पर वह झीना पर्दा नमूदार होते ही  ही रहा जिसे मेहबूब -उल हक़ ने अपनी किताब  “द  पावर्टी कर्टेन ” में लटका दिया था और गावं से ले कर राज्य -देश व विश्व स्तर पर इसे हटाए जाने के प्लान दिये थे. फिर आये अमर्त्य सेन जिन्होंने सूखा -बाढ़ -अकाल -बेकारी और गरीबी की समस्याओं को ग्रास रुट लेवल पर अपने चेले ज्या ड्रीज़ के साथ पुरजोर आवाज  दी . अर्थ शास्त्री अमर्त्य सेन के बाद अभिजीत विनायक बनर्जी भारतीय मूल के अमेरिकन अर्थशास्त्री हैं, जिन्हें पिछले ढाई दशक से गरीबी पर  किये अपने अनुसन्धान का वाजिब नाम व दाम मिला है. अपनी पत्नी एस्थेर दफेलो व माइकल क्रेमर के साथ अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार. (Nobel Winner Abhijit Banerjee)

नोबल समिति ने कहा कि प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी का शोध विश्व स्तर पर गरीबी का निवारण करने की कोशिशों को मजबूत आधार देता है. पिछले दो दशकों में उनकी सोच, उनके नज़रिये ने विकास के अर्थशास्त्र को पूरी तरह से बदल दिया है. दुनिया में सत्तर करोड़ गरीब हैं. उनके अनुसन्धान “एक्सपेरिमेंटल एप्रोच टु एलीवेटिंग ग्लोबल पावर्टी “से समाधान के क्रियात्मक रास्ते खुले हैं. उनकी किताब “पुअर  इकोनॉमिक्स “सिद्धांत,नीति, व्यवहार की कसौटी पर खरी उतरती है. जिसके 17 भाषाओँ में अनुवाद हो चुके हैं.

अभिजीत बनर्जी के काम और उनके चिंतन की खूबी है कि निर्धनता को उन्होंने बहुत बड़े सवालों के घेरे में नहीं रखा. उन्होंने इसकी पीस मील एप्रोच को ध्यान में रखा. माइक्रो या सूक्ष्म स्तर पर गरीबी के कारकों की  जाँच परख की. एक छोटे हिस्से में उस स्थल विशेष की समस्या कैसे सुलझेगी, इस बात पर फोकस किया गया. गरीबी की चपेट में घिरे लोग व समूह जीवन यापन में आखिर कौन सी बाधाओं का अनुभव करते हैं? कैसे इन्हें सुलझाते हैं? ऐसा क्या बचा रह जाता है जो इनकी सामर्थ्य से बाहर है? स्थानीय तंत्र और शासन ने इनको सुलझाने के लिए क्या कुछ किया है और क्या कितना बाकी रह गया? वंचितों से उनकी परेशानियों को लेकर की गई बातचीत ही उनकी समस्यों का लेखा बना जाता है. इन्हें क्रमबद्ध करना है, सूचीबद्ध करना है तब गरीबी अपने कई पक्षों का तालमेल रच देती है. अन्न की कमी, भुखमरी, भोजन का अभाव और पोषण की सीमाएं बुरा और बहुत ही शोचनीय स्वास्थ्य सब एक दूसरे से जुड़े  दिखते हैं. प्योर  साइंस और क्लीनिकल ड्रग ट्रायल में ऐसी  विचार प्रक्रिया, क्रियाविधि को अपनाते हुए रैंडमायज कण्ट्रोल ट्रायल किये जाते हैं. गरीबी के कारण और इसके प्रभाव को समझने के लिए सामाजिक विज्ञान में अभिजीत बनर्जी ने इसी विधि को अपनाया.

जो नतीजे सामने आये वह गरीबी के कारकों और उनको पैदा करने वाली शक्तियों के मैकेनिज्म को बहुत साफ तरीके के साथ सामने रखते थे. इस सिलसिले में कहीं ना कहीं बाजार की अपूर्णता और सरकारी नीतियों के अधकचरे होने की दशा बुनियादी मुद्दा बना जाती है.इसीलिए गरीबी के घेरे को तोड़ने  के लिए सबसे पहले तो उन दशाओं की पहचान जरुरी है जिनमें लोग रह रहे हैं. फिर उन कमजोरियों की जाँच करनी होगी जो सिस्टम में मौजूद हैं. इन्हें समझे बिना गरीबी हटाओ के कार्यक्रम महज लफ्फाजी बने रहेंगे. कम विकसित देशों के अनुभव सिद्ध अवलोकन इसी  कमजोरी से ग्रस्त रहे हैं. नियोजित विकास की प्रक्रिया में भारत में भी गरीबी दूर करने के स्लोगन और विविध सूत्री कार्यक्रमों की घोषणाएं सत्ता प्राप्ति का आसान झुनझुना  बन कर रह गयीं. विकेन्द्रीकृत व नीचे  से नियोजन की रणनीति को अपनाने के दिखलावटी मॉडल  से उत्पादन व आय की विषमताएं बढ़ती गयीं.

नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पालिसी के निदेशक तथा प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के पूर्व सदस्य रथिन रॉय कहते हैं की अभिजीत व उसकी टीम को मिला पुरस्कार वास्तव में उस तकनीक को दिया गया है जो बुनियादी  तरीके से समस्या की  चीर -फाड़ करती है. यह सिर्फ गरीबी ही नहीं शिक्षा की कमजोरियों को भी सामने लती है. ढाई दशकों से चला उनका यह अनुसन्धान बुनियादी मुद्दों की बात करता है. जहां छोटे छोटे हज़ारों सवाल हैं. उनके जवाब उन्होंने दिये हैं जो इन्हें भोग रहे हैं. इसलिए समस्या का समाधान भी व्यवहारिक है. वांछित फल तब प्राप्त होता है जब इन सवालों को मापन के लिए रैंडमाइज कण्ट्रोल ट्रायल से गुजारा जाता है.

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड के वाईस चांसलर व जे एन यू के पूर्व प्रोफेसर मनोज पंत के अनुसार आय की असमानता और आय की विसंगतियां वर्तमान की आर्थिक सामाजिक समस्याओं में विकराल हो चुकी हैं. जिसका फीजेबल  या दृश्य हल देने के लिए अभिजीत व उनकी टीम उन नीतियों व कार्यक्रमों को डिज़ाइन करते हैं जिससे उनके जीवनस्तर में अपेक्षित सुधार लाये जा सकें.

अभिजीत बनर्जी का क्रियात्मक विश्लेषण उनके सामयिक सन्दर्भों में किये गए लेखन व अनुसन्धान का नतीजा है. गरीब तबके को मदद पर 2007 में छपी उनकी किताब “मेकिंग ऐड नेटवर्क,” 2011में “पुअर इकोनॉमिक्स” व 2019 में “व्हाट द  इकॉनमी नीड्स नाउ “तथा  दो डाक्यूमेंट्री फ़िल्म का निर्देशन इसी सिलसिले की कड़ियाँ हैं. सार्वजनिक नीति को वैज्ञानिक व अनुभवसिद्ध प्रमाणों के द्वारा सम्पुष्ट करने के उद्देश्य से 2003 में ही उन्होंने एस्थर डुप्लो व संधिल मुलाइनायक के साथ मिल अब्दुल लतीफ जमील पावर्टी एक्शन लैब (जे -पीए एल ) की स्थापना की. ऍम आई टी की प्रोफेसर इकोनॉमिक्स एस्टर डूफलों  के साथ संयुक्त रूप से लिखी उनकी किताब “पुअर इकोनॉमिक्स “को गोल्डमैन सेस बिजनेस बुक ऑफ दि  ईयर का ख़िताब मिल चुका  है.

अभिजीत बनर्जी ब्यूरो फॉर  दि रिसर्च इन द अमेरिकन एनालिसिस ऑफ डेवलपमेंट  के पूर्व अध्यक्ष, अमेरिकी अकादमी ऑफ आर्ट्स एंड साइंसेज तथा द इकोनोमेट्रिक्स सोसाइटी के रिसर्च एसोसिएट व काइल इंस्टिट्यूट के फेलो भी रहे हैं. अभी वह संयुक्त राष्ट्र संघद्वारा 2015 के बाद के विकास एजेंडा की उच्चस्तरीय समिति के सचिव हैं. भारत की आर्थिक नीतियों विशेषतः माइक्रो फाइनेंस व वित्तीय समस्याओं पर उन्होंने काम किया है. 2019 के चुनाव में कांग्रेस की न्याय स्कीम के सलाहकार भी रहे. उन्होंने सरकार की करेंसी के विमुद्रीकरण नीति का समर्थन इस आधार पर नहीं  किया  कि इससे पैदा हुए तनाव और परेशानियां उस सीमा से ज्यादा हो गईं जितनी सोची जा रही थीं. उनका मानना है कि आज भी देश में जो अनिश्तिताएं व दबाव दिख रहे हैं उनकी जड़ में विमुद्रीकरण ही है. इससे आर्थिक क्रियाएं सुस्त पड़ीं और लेनदेन मंद पड़ गया. इसका खामियाजा सबसे ज्यादा इनफॉर्मल सेक्टर ने भोगा जहाँ देश की श्रम शक्ति का 85 प्रतिशत कामधंधे में लगा था. फिर परंपरागत रूप से सारे लेनदेन नकद में ही होते रहे. हॉवर्ड  विश्वविद्यालय की नम्रता काला के साथ लिखे लेख में बनर्जी ने यह मंतव्य जाहिर किया था. साथ ही सरकार ने भृष्टाचार को कम करने के लिए विमुद्रीकरण की नीति को अपनाने की बात करी और एक हज़ार के बदले दो हज़ार का नोट निर्गमित कर दिया. इससे काले धन को जमा करने की सुविधा और बढ़ी.

अक्टूबर 2019 में एमिली ब्रीजा, सिंथिया कीनन और दृफलो के साथ लिखे शोधपत्र में बनर्जी ने भारत के सूक्ष्म वित्त के अनुभवों की समीक्षा की है. उन्होंने कहा कि  एक छोटी  अवधि में प्राप्त होने वाली साख के उपलब्ध रहने से कुशल उपक्रमी को अपना व्यवसाय बड़े पैमाने पर फैलाने का अवसर मिलता है. लघु वित्त से कुछ व्यक्तियों को काफ़ी अधिक लाभ मिलते हैं. पर इन लाभों को एकत्रित संचित होने में समय लगता है. उनके ये निष्कर्ष हैदराबाद में किये गए अनुभवसिद्ध अवलोकन  पर आधारित है जहां एन बी एफ सी को 2010में एक आर्डिनेंस के द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था. ऐसे ही निर्धनता की विसंगतियों पर उन्होंने कुछ बुनियादी सवाल उठाये. जैसे एक नागरिक जिसके पास खाने को पर्याप्त नहीं है वह एक टेलीविज़न क्यों खरीदता है? ऐसे ही गरीब इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए पढ़ना सीखना कठिन क्यों बना जाता है जबकि वह स्कूल में जाते हैं.

अभिजीत के साथ उनकी कार्य सहयोगी पत्नी एस्थेर डूफ्लॉ व साथी मिशेल क्रेमर ने आर्थिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग गरीबी मुफलिसी बेकारी और इससे पैदा तमाम असमंजस पर किया. स्कूलों की शोचनीय दशा, स्वास्थ्य के  बुनियादी दुर्बल ढांचे के पीछे निवेश का अभाव और खेती के पिछड़ेपन में निहित उर्वरकों की हिस्सेदारी जैसी समस्याओं का दृश्य हल वह तलाश करते रहे. जयपुर में स्थपित पावर्टी एक्शन लैब में असमानता व विकास के आपसी संबंधों पर काफ़ी काम हुआ, जहां वह निदेशक हैं. वह किसी राजनीतिक दल  से जुड़े नहीं. उनकी छवि उदारवादी व डेमोक्रेट की बनीं है. सरकार की डाटा नीति पर पिटीशन देने वाले 108 अर्थशास्त्रियों में वह भी शामिल थे.

उनका नाम जे एन यू से जुडा है. तो जे एन यू को राष्ट्रविरोधी कहना उन्हें बिलकुल नहीं भाता. 1981 में उनका चयन दिल्लीस्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स व जे एन यू दोनों में हुआ पर अपने पिता दीपक बनर्जी जो कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष व माँ निर्मला बनर्जी प्रोफेसर अर्थशास्त्र, सेंटर फार स्टडीज इन सोसियल साइंस की सलाह पर उन्होंने जे एन यू चुना. कोलकाता विश्वविद्यालय से उन्होंने बी एस सी की तो हॉवर्ड विश्वविद्यालय से पी एच डी. वह हमेशा पढ़ाकू, खुशदिल, संगीत प्रेमी, खानेपीने के शौक़ीन, मोटे चश्मे के भीतर झांकती पनीली आँखों वाले हीरो रहे. जे एन यू में उनके वरिष्ठ रहे टी के वरुण लिख़ते हैं कि  वह किसी दल या संगठन के सदस्य नहीं रहे पर राजनीतिक रूप से संवेदनशील, लेफ्ट की ओर झुकाव बना रहा. 1983 में जे एन यू कैंपस में तत्कालीन वाईस चांसलर पी एन श्रीवास्तव के आवास के बाहर कई छात्रों के साथ धरने पर बैठे तो बंदी बने और वैन में ठूंस जेल पहुंचा दिये गए. जेल में बंद विद्यार्थियों को यह छूट मिली की वह अपना खाना खुद बना सकते हैं. जेल में मिली नपी तुली रसद से विद्यार्थियों ने खुद खाना बनाया और अभिजीत ने संभवतः पहली बार गरीबों के मुंह लगी रोटी का टुकड़ा तोड़ा.

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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