पिता-पुत्री का घर नीलामी की भेंट चढ़ जाता है. वे नायक के यहाँ शरण लेते हैं, जिसके खुद के हालात शरणार्थी जैसे रहते हैं. झेंप के भाव, क्षमाप्रार्थी की सी भंगिमा. जैसे ही उसके मालिकान की नजर नवयुवती पर पड़ती है, वे उससे विवाह करने को उतावले से हो उठते हैं. फिल्म का कथासूत्र इतना सा है.
रामप्रसाद, मास्टर जी के बुलावे पर गाँव लौटता है. राह चलते हुए महाजन उसे पहचान लेता है और उसे मास्टर जी के परिवार पर आई मुसीबतों की खबर देता है. उन्हें बीमारी में घर तक गिरवी रखना पड़ा, जैसी खबर सुनाता है. फिर लाचार होकर कहता है- “दस-पंद्रह दिन और देख लेता हूँ. फिर डिक्री करा लूँगा.“
कुसुम (स्वरूप संपत) उसे रास्ते में ही पहचान लेती है और उसे मास्टर जी के घर का रास्ता दिखाती है.
रामप्रसाद हाथ-मुँह धोने जाता है, तो उस दौरान वह उसका उधड़ा हुआ कुर्ता सिल लेती है. उसके पास एक ही कुर्ता है. भोजन के समय मास्टर जी उसे घर की व्यथा बताते हैं. उनका एक ही लड़का है बिरजू, जो पढ़ा लिखा तो नहीं, लेकिन नाटक कंपनी में भर्ती हो गया है. मास्टर जी उससे बुरी तरह नाराज नजर आते हैं और उसे घर में नहीं घुसने देते. बिरजू, बहन से छुपकर मिलता है. मास्टर जी को कुसुम की चिंता है. वह पढ़ी-लिखी है, सुशील और गुणवान है, इसीलिए उन्होंने रामप्रसाद को बुलावा भेजा है. शादी की बात सुनते ही रामप्रसाद सीधे हाथ खड़े कर देता है- “एक सौ चालीस रूपये की नौकरी और उस पर रहने का कोई ठिकाना नहीं. मैं इस जिम्मेदारी को कैसे निभा सकता हूँ.”
गाँव में आकर उसे बड़ा मीठा सा लगता है. वह कुसुम से कहता है, “करेला, कपड़ा और मकान मिल जाए, तो फिर चिंता किस बात की.“ तभी उन्हें स्मरण हो आता है कि, मकान तो महाजन के पास गिरवी पड़ा है.
बड़े मालिक यानी भवानी शंकर (उत्पल दत्त) ड्राइवर से चलती हुई गाड़ी रोकने को कहते हैं, रास्ते में ही राहु कालम् शुरू हो जाता है. वे वहीं से बबुआ के गेराज में चलने को कहते हैं.
छोटे मालिक यानी बबुआ (शत्रुघ्न सिन्हा) गाड़ी के नीचे लेटकर गाड़ी रिपेयर कर रहे होते हैं. वह असिस्टेंट मैकेनिक को डाँट-डपटकर औजार माँगते हैं, तभी भवानी शंकर चुपचाप असिस्टेंट का जिम्मा संभाल लेते हैं और बबुआ को पाना की जगह स्क्रू-ड्राइवर थमाते हैं, तो कभी हथौड़ी. यह देखकर बबुआ आपे से बाहर हो जाता है. वह स्वभाव से गुस्सैल है. ‘अबे घोंचू’ जुमले से बात शुरू करता है. वह बिना देखे-समझे भवानी शंकर के साथ भी वैसा ही बर्ताव कर बैठता है. इस पर भवानी उसे आड़े हाथों ले लेते हैं, “बाजपेई खानदान का लड़का होकर घोंचू साला.. कहता है.
भवानी शंकर ज्योतिषी से बाग वाली कोठी का मामला डिस्कस करके आते हैं. ज्योतिषी की भविष्यवाणी है कि इस बार वे केस पक्का जीतेंगे.
बबुआ की शादी की बात चलती है, लेकिन बबुआ शादी के सख्त खिलाफ हैं. उसकी राय है कि रानी पद्मिनी और झांसी की रानी जैसी वीरांगनाएँ अब कहाँ रहीं.
बड़े मालिक मैनेजर का घपला पकड़ लेते हैं, हालांकि वे हमेशा दस रुपये बीस पैसे के गबन को बीस रुपये दस पैसे कह बैठते हैं. मैनेजर को इस बाबत वे डाँट-फटकार लगाते रहते हैं. रामप्रसाद काम पर देरी से पहुँचता है, तो बड़े मालिक उसे घड़ी दिखाते हुए कहते हैं, “घड़ी देखी.”
रामप्रसाद सहज भाव से कहता है, “हाँ सर, अच्छी है, इंपोर्टेड है.”
वे उसके देर से आने पर गरजते हैं, तो वह फौरन बहाना गढ़ लेता है, “मालिक, मैं तो मुहूर्त देखकर निकला था. पंडित जी ने कहा, थोड़ा देर से जाना, राहुकालम के बाद.”
मालिक उससे केस की चर्चा करते हैं और आशा जताते हैं कि “ये केस किसी-न-किसी तरह जीतना है. यह केस तिरेपन साल से चल रहा है. इमारत दो लाख कीमत की है, मुकदमे पर अब तक सवा चार लाख रुपया खर्च हो गया है. यह केस हमारे खानदान की इज्जत का सवाल है.”
शास्त्री जी ने जजमान को बताया है कि वकील का नाम ‘र’ से शुरू होना चाहिए. इस पर रामप्रसाद, वकील नारायण पांडे का नाम, राज नारायण पांडे बताता है. भवानी शंकर उसे विशेष सूचना देते हुए बताते हैं कि, उस दिन मंगल-गुरु का योग बन रहा है. केस ढाई बजे लगना चाहिए. इस पर राम प्रसाद कहता है, “काम हो जाएगा मालिक. बस बीस-पच्चीस रुपये ज्यादा लगेंगे.”
रामप्रसाद मैनेजर से केस- खर्च लेता है और उसे आश्वस्त करता है कि “एक गिलास पानी भी पीऊँगा, तो उसकी भी रसीद ले आऊँगा.”
उधर भवानी शंकर की सास उन्हें डाँटती है, तो भवानी कहते हैं, “यह सब शनि की शरारत है माँजी.” वे नाराज होते हुए कहती है “साधु संतों की चौखट की धूल तुम्हारे लिए नशा हो गई.” वे उनसे पुत्री की जिम्मेदारी उठाने को कहती हैं, तो भवानी लाचारी सी दिखाते है, “इस समय शनि की दशा ठीक नहीं चल रही है, मैं कुछ नहीं कर सकता.”
कॉजलिस्ट में उनका केस पहले नंबर पर लगता है, फिर भी रामप्रसाद वकील को इस बात पर राजी कर लेता है कि, वे मालिक को चिठ्ठी में ढाई बजे ही लिखेंगे और अपना नारायण पांडे नहीं, वरन् राज नारायण पांडे लिखेंगे.
रामप्रसाद दौड़ते हुए आता है और बड़े मालिक के चरणों में दंडवत हो जाता है. भवानी शंकर को जब यह व्यवहार कुछ भी समझ में नहीं आता, तो वे कहते हैं, “साँस तो ले लो, फिर बताना.”
“ये खुशखबरी बताकर मैं मर भी जाऊँ, तो समझूँगा कि मेरी जिंदगी सफल हो गई.” भवानी शंकर जीत की खबर सुनकर उछल पड़ते हैं. वे “हम जीत गए, हम जीत गए” कहते हुए बच्चों की तरह उत्साह में उछलते हुए दिखाई देते हैं. खुशी के मौके पर वे रामप्रसाद को लड्डू खिलाना चाहते हैं लेकिन फिर अकस्मात उन्हें याद हो आता है कि ये मुकदमा उनके स्वर्गीय दादा ने दायर किया था, तो स्वर्गीय दादा के नाम पर एक लड्डू तो बनता ही है. राम प्रसाद स्वर्गीय पिताजी के नाम पर भी उन्हें एक लड्डू खिलाकर मानता है. इस केस में राम प्रसाद की दौड़-धूप देखकर वे उससे बड़े प्रसन्न नजर आते हैं, जिसके एवज में उसे बहुत बड़ी तरक्की दे डालते हैं, पूरे पाँच रुपये का इंक्रीमेंट. इतना ही नहीं, वे उसे बागवाली कोठी का इंचार्ज भी बना डालते हैं, उसकी मरम्मत और रंगरोगन की जिम्मेदारी सौंप देते हैं.
बबुआ बड़े भाई की अनुपस्थिति में इस खुशी में कोई जश्न करना चाहता है. इस पर इस्टेट मैनेजर अगर-मगर करता है, तो बबुआ उसे डाँट देता है, “जो बात मगर से शुरू होती हो, उसूलन वो बात गलत होती है.” रामप्रसाद रानी पद्मिनी, झांसी की रानी, सीता-हरण जैसे नाटकों के मंचन का सुझाव देता है.
सीता-हरण का मंचन शुरू होता हैः बबुआ भंग छानता रहता है और नाटक के दृश्य में तल्लीन होता चला जाता है. वह नाटक में इतना डूब जाता है कि, मंचन के दौरान वह रावण की पिटाई कर बैठता है और लक्ष्मण से उठक-बैठक करवाकर ही मानता है.
रामप्रसाद कुसुम की भेजी हुई चिट्ठी पढ़ता है. वह उस पर जवाब लिखता है, “तुम्हारा भेजा हुआ रुमाल मिला. इसमें तुमने जो फूल बनाया है.. मेरी जिंदगी के फूल ही सूखे पड़े हैं, जिसमें फूल तो छोड़ो, पत्ते तक नहीं आने वाले.”
बड़े मालिक बागवाली कोठी में पहुँचते हैं. रामप्रसाद उन्हें अंदर आने को कहता है, तो वे बिना गृह प्रवेश के अंदर जाने से साफ इनकार कर देते हैं. साथ ही राम प्रसाद को ताकीद कर जाते हैं कि शास्त्रीजी वाली बात का जिक्र नानी से मत करना.
राम प्रसाद जैसे ही बागवाली कोठी पर पहुँचता है, वहाँ उसे मास्टरजी और उनकी बेटी कुसुम के पहुँचने की खबर मिलती है. मास्टर जी बताते हैं कि महाजन ने डिक्री करवा ली और हमें मजबूरी में मकान खाली करना पड़ा. रामप्रसाद के लिए नई मुसीबत खड़ी हो जाती है. वह जानता है कि बड़े मालिक किराएदार के नाम से ही उखड़ जाएँगे. तिरेपन साल की मुकदमेबाजी के बाद बड़ी मुश्किल से उस किराएदार से पिंड छुड़ाया है. फिर से किराएदार.
मास्टर जी और उनकी बेटी की मजबूरी समझकर वह उन्हें कुछ दिन के लिए रोक लेता है. टोटल अपने रिस्क पर. फिर वही आम आदमी की आशा और विश्वास, कोई-ना-कोई रास्ता निकल ही आएगा.
कुसुम, रामप्रसाद के अस्त-व्यस्त, गोदामनुमा कमरे को ठीक करती है. वह उसकी सफाई करती है. उसे सुसज्जित करती है. ‘इसमें रहते कैसे थे’ के सवाल पर रामप्रसाद अपनी कथा-व्यथा कह डालता है- “अपनी हालत भी तो ऐसी ही है. मुँह पर बोझ की परछाइयाँ पड़ी रहती हैं.” वह आमजन का जीवन सार बताते हुए कहता है “मुसीबत तो गरीब की किस्मत में ही लिखी रहती है.”
वह कुसुम के प्रति कोमल भाव रखता है, लेकिन मजबूरी जताते हुए कहता है, “कैसी अजीब उलझन में हूँ, जिंदगी मुझे ललचा रही है, लेकिन मेरी शादी करने की न तो हालत है, न ही हिम्मत…. मैं तो इस सपने को तक बर्दाश्त नहीं कर पाता.” कुसुम को पहली बार उसके मुख से कोई सकारात्मक संकेत सुनने को मिलता है.
वह ‘हमें रास्तों की जरूरत नहीं है.. हमें तेरे पाँव के निशाँ मिल गए हैं..गीत गाती हैं.
मुनीम की शिकायत पर इस्टेट मैनेजर पिता-पुत्री को कोठी से निकाल बाहर करने को कोठी में आ धमकता है, लेकिन कुसुम को देखते ही वह उस पर घनघोर रूप से आसक्त हो जाता है. लोक-लाज का कोई अवरोध माने बिना वह ढीठ आदमी की तरह मास्टर जी के सामने मैंनेजरी का रूआब दिखाता है और सीधे-सीधे कुसुम से विवाह का प्रस्ताव रख देता है.
कुसुम, रामप्रसाद को इस संकट की खबर देती है, तो इस मौके पर भी वह उससे चुहल करता है. वह उसे मैंनेजरी के ठाठ- बाट और ऊपरी आमदनी की कथा सुनाता है. इस पर कुसुम कुढ़कर रह जाती है. वह कहती है, “कैसे आदमी हो तुम.”
“आदमी और मैं. किसने कहा तुमसे कि मैं आदमी हूँ. मैं तो गरीब हूँ.” फिर वही किस्सा. वह उससे कोई रास्ता निकालने को कहती है.
रामप्रसाद, इस आफत की खबर छोटे मालिक को देता है. वह इस एपीसोड में थोड़ा सा फैब्रिकेशन कर डालता है. वह कोठी में पिता-पुत्री के जबरन घुसने की शिकायत तो करता ही है, लेकिन इसका सारा-का-सारा दोष इस्टेट मैनेजर पर मढ़ देता है. वह उसकी कलाई खोलकर रख देता है और छोटे मालिक से कहता है कि, लड़की बड़ी स्वाभिमानी है. इस अपमान पर वह पद्मिनी की तरह जौहर कर देगी. कुल मिलाकर, वह छोटे मालिक को मैनेजर के विरुद्ध उकसाने में पूरी तरह कामयाब हो जाता है.
छोटे मालिक ताव खा बैठते हैं. वे मैनेजर के कार्बोरेटर का कचरा तो साफ करते ही हैं, उसका इंजन भी बंद कर जाते हैं.
इस वाकये के बाद मुसीबतजदा परिवार पर एक नई मुसीबत आ खड़ी होती है. रामप्रसाद दौड़ा-दौड़ा उन्हें खबर देता है, “केंचुआ खोदने गया था, साँप निकल आया.”
“छोटे मालिक आ रहे हैं” की पूर्व सूचना देकर, उनके स्वागत- सत्कार के लिए वह भीगे हुए चना-गुड़ थमाना नहीं भूलता. विशेष तौर पर उन्हें यह नोट कराना नहीं भूलता कि, ये जरूर कहना कि हम गुड़-चना से ही मुँह मीठा करते-कराते हैं.
छोटे मालिक, ट्रेसपासर बुजुर्ग पिता के साथ बड़ी बेअदबी से पेश आता है. इस पर कुसुम का स्वाभिमान जाग उठता है. वह छोटे मालिक को खरी-खोटी सुनाती है. उसके तेज और ओज को देखते हुए बबुआ उसे पद्मिनी के रूप में देखता है. पश्चाताप में वह इस ज्यादती के लिए क्रमशः पिता-पुत्री से माफी माँगते हुए नजर आता है.
मास्टर जी, पुत्री के बारे में अक्सर जिक्र कर बैठते हैं, “गले का काँटा है, ना उगलते बनता है, ना निगलते.” छोटे मालिक का स्वागत चना- गुड़ से होता है. तो वे पुत्री के रूप-गुण पर बुरी तरह से मोहित होकर रह जाते हैं.
वह राम प्रसाद को इस घटनाक्रम की खबर देती है. यह सुनकर राम प्रसाद ठंडे स्वर में कहता है, “छोटे मालिक भी गए काम से. चमकते-गरजते आए थे. बिना बरसे ही चले गए.” वह कुसुम के साथ दिल्लगी करने का मौका नहीं चूकता. वह उसके रुप की प्रशंसा करते हुए कहता है, “तुमने साँप को केंचुआ बना दिया.”
अगले दृश्य में बबुआ, खुली जीप में बेसुध पड़ा हुआ दिखाई देता है. ‘दिल का खिलौना कोई टूट गया.. कोई लुटेरा आके लूट गया..’ वह रेडियो पर गाना सुनते हुए नजर आता है. वह बुरी तरह इश्क की चपेट में नजर आता है. उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. वह अपने असिस्टेंट को कहता हैं, “अब तो भाँग भी अच्छी नहीं लगती, चंदू. कुछ भी अच्छा नहीं लगता. अब तो बस यही अच्छा लगता है कि कुछ भी अच्छा न लगे.” छोटे मालिक की दशा देखकर असिस्टेंट आपस में बात करते हुए नजर आते हैं, “छोटे मालिक की बैटरी एकदम डाउन हो गई.”
बबुआ कुसुम के बहाने कोठी पर नजर आता है, “इधर से गुजर रहा था. सोचा आपसे कुछ वार्तालाप कर लूँ.” वह कुसुम से सीधे सवाल दाग बैठता है, “स्वयंवर के बारे में आपके क्या विचार हैं.” कुसुम उसे भीष्म और पृथ्वीराज चौहान के स्वयंवर में मूल अंतर बताते हुई नजरिया स्पष्ट करती है. तब तक मास्टर जी पहुँच जाते हैं. बबुआ उनसे कहता है,” दामाद के रूप में, मैं आपको कैसा लगता हूँ.”
इस घटनाक्रम को सुनकर रामप्रसाद, अजीब मुसीबत में फँस जाता है. वह गुणा-गणित लगाते हुए कहता है,”केंचुए के लिए साँप लाया था. अब साँप के लिए शेर को लाना पड़ेगा, लेकिन शेर तो गया है बनारस.”
बनारस में शास्त्री जी (ओम प्रकाश) के ठीए पर कोई यजमान दिखाई पड़ता है. शास्त्री जी पहले तो उससे प्रायश्चित की दक्षिणा लेते हैं और फिर पाप की. तत्पश्चात् उसे सुपर डीलक्स श्रेणी का बगुलामुखी यंत्र बेचते हुए हैं. तभी भवानी शंकर की दृश्य में एंट्री होती है. शास्त्री जी उन्हें बताते हैं, “तुम्हारी शनि की दशा समाप्त होने जा रही है, लेकिन मंगल की परछाई का कुछ उपाय करना पड़ेगा.” वह उन्हें उपाय सुझाते हुए कहता है, “लग्नेश और सहजेश षष्ठ में बैठा हो, धन अधिपति का योग तो बनता ही है, द्विभार्या योग भी बनता है. ये मैं नहीं कह रहा हूँ, ऋषि पाराशर कह गए हैं.” वे उन्हें अतिरिक्त सूचना भी दे जाते हैं “उसका नाम ‘क’ अक्षर से शुरू होगा.”
तभी रामप्रसाद दौड़ते हुए शास्त्री जी के दरबार में हाजिर होता है. खास बात यह है कि वह बक्सा-पेटी, दरी-सुराही परमानेंट बगल में दाबे रखता है. वह बड़े मालिक को कोठी के हालिया समाचार देता है, “पिता-पुत्री कोठी में जबरदस्ती घुस आए. छोटे मालिक तुरंत वहाँ गए और अब उसकी बेटी से शादी करने वाले हैं.“ यह खबर सुनकर भवानी शंकर चीख उठते हैं, “बबुआ पर बेटी छोड़ दी उसने.” वे शास्त्री जी से “इमरजेंसी आ गई” कहकर विदा लेते हैं. इस पर शास्त्री जी मुँह बनाकर कहते हैं, “इमरजेंसी फिर से आ गई.”
भवानी शंकर सीधे बबुआ के कमरे में आ धमकते हैं. बबुआ, बुरी तरह से ख्यालों में खोया रहता है. उसे बड़े भाई के आने की खबर ही नहीं लगती. इस पर भवानी, उसके पहनावे पर तंज कसते हुए कहते हैं, “बड़ा नक्शीम कुर्ता पहना है. अच्छा… अब तो तुम्हें कपड़े पहने की तमीज भी आ गई.”
जब बबुआ कहता है कि उसने तो शादी के लिए जुबान दे दी, तो भवानी शंकर हत्थे से उखड़ जाते हैं. “तुम होते कौन हो जुबान देने वाले. इस खानदान की कोई भी चीज तुम मुझसे पूछे बिना कैसे दे सकते हो.“ वे उससे अपने सिर पर हाथ रखवाकर सौगंध धरवा लेते हैं, “मैं उस बागवाली कोठी की तरफ सिर करके भी नहीं सोऊँगा…” उसके कसम उठा लेने पर वे उसे ‘आदर्श भ्राता’ का तमगा दे डालते हैं.
रामप्रसाद दौड़ता हुआ बाग वाली कोठी में जा पहुँचता है. फौरन उन्हें नारियल की मिठाई सौंपते हुए वह कहता है, “हमें मारने शेर खुद आ रहा है.“ वह कुसुम को मौके की सलाह देता है, “बंदूक की आवाज सुनते ही गाना शुरू कर देना.“ अब तक बेचारी इन बातों से इतनी अजीज आ चुकी है कि वह झल्लाते हुए कहती है, “कैसा गाना.”
रामप्रसाद समाधान देते हुए कहता है, “भजन-कीर्तन, टप्पा-ठुमरी कोई भी.”
फायर होते ही, वह भजन शुरू कर देती है, “मेरे आँगन आया रे, घनश्याम आया रे”
भवानी शंकर रामप्रसाद से पूछते हैं, “क्या घुसपैठिए की लड़की गा रही है.” लेकिन विवश होकर उन्हें उसकी प्रशंसा करनी पड़ती है, “वाह वाह.. अच्छा गाती है.”
भवानी शंकर उन्हें कोठी से बाहर निकालने पर आमादा हो उठते हैं. तभी कुसुम नारियल की मिठाई लेकर हाजिर होती है. उसे देखते ही भवानी शंकर के मनोमस्तिष्क में पंडितजी की भविष्यवाणी कौंध जाती है, “उसका नाम ‘क’ अक्षर से शुरू होगा.”
जिज्ञासा में वे उसका नाम पूछ बैठते हैं. जब वह अपना नाम कुसुम बताती है, तो उनके मुख से बरबस ही निकल पड़ता है, “कुसुम भी तो ‘क’ अक्षर से शुरू होता है.”
रामप्रसाद उनका भरोसेमंद आदमी है. वे अकेले में उससे निजी अनुभव बताते हैं, “ठीक साढ़े नौ बजे शनि की दशा खत्म हुई और वह मेरे सामने आकर खड़ी हो गई. मेरी स्वर्गीय पत्नी, कुसुम के रूप में. तभी कोयल बोल उठी.” भवानी शंकर बाकायदा कूककर बताते हैं. वे ज्योतिष पकड़कर बैठ जाते हैं, “लग्न का अधिपति, तीसरे-छठे भाव में हो, तो धन-संपत्ति तो मिलती ही है द्विभार्या योग भी बनता है.”
वे फिर जोर देकर कहते हैं, “ऋषि वाक्य विफल नहीं हो सकता. ये तो भाग्य में लिखा है.”
मजबूरी जताते हुए कहते हैं, “भाग्य के आगे तो मनुष्य विवश है.”
वे रामप्रसाद को इस रिश्ते के लिए मध्यस्थ की जिम्मेदारी सौंपते हैं.
यह सुनकर कुसुम आपे से बाहर हो जाती है. मौके पर फिर से राम प्रसाद से विवाह का प्रश्न उठ खड़ा होता है, तो वह हथियार डालते हुए कहता है, “रहेंगे कहाँ, पेड़ के नीचे! खाएँगे क्या, पत्ते!”
भवानी शंकर, रिकॉर्ड प्लेयर पर लेटेस्ट गीत सुनते हुए पाए जाते हैं, ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू..” वे एकदम तरंग में नजर आते हैं. खुद पर इत्र-फुलेल-स्प्रे छिड़कते हुए नजर आते हैं. आदमकद आईने के सामने खड़े नजर आते हैं. एकदम आत्ममुग्ध. कुल मिलाकर, उन्हें अच्छे-खासे पंख लग आते हैं.
वे प्रसन्नता में हाथ मलते हुए नजर आते हैं. उनकी खुशी रोके नहीं रुकती. वे कुसुम की राय जानना चाहते हैं. पूछे जाने पर कुसुम पिता की इच्छा को सर्वोपरि बताती है, तो भवानी शंकर रौ में बहते नजर आते हैं, “इतना पवित्र वातावरण..इतनी पवित्र भाषा… पवित्र विचार.. वाह वाह..
यह संवाद ‘गोलमाल’ में भी है. राम प्रसाद के घर पर वे यही विचार व्यक्त करते हुए नजर आते हैं, हालांकि वहाँ पर पुत्री के रिश्ते के प्रसंग में वे अभिभूत होकर इन भावनाओं को व्यक्त करते हैं.
वे नितांत एकांत में कुसुम से बात करना चाहते हैं और प्रवाह में कह जाते हैं, “कुसी बेटी..”
फिर ई..ई..कहकर किसी तरह अपनी जुबान को लगाम देते हैं. मास्टर जी के आते ही, वे अपने स्थान से उठ खड़े होते हैं. भावी रिश्ते की पूरी मर्यादा निभाते हुए बोल बैठते हैं, “आप बुजुर्ग हैं. मैं आपके सामने कैसे बैठ सकता हूँ.”
मजे की बात यह है कि दोनों की उम्र में छह महीने से ज्यादा का अंतर नहीं बताया जाता. वे सात दिन बाद का कोई अच्छा सा मुहूर्त निकलवाकर आए हैं. एक तरह से वे मास्टर जी को शादी का अल्टीमेटम दे जाते हैं.
दर्जी वाला दृश्य भी खासा रोचक है. भवानी, शादी का जोड़ा सिलवाना चाहते हैं. दर्जी खानदानी है, जिसके पुरखों ने कभी वाजिद अली शाह के खानदान के शादी के जोड़े सिले थे. वह माशाअल्लाह.. चश्मेबद्दूर.. कहकर उनका नाप लेने की कोशिश करता है. कमर की नाप लेते हुए इंचटेप छोटा पड़ जाता है, तो दर्जी कहता है, मेरे पास दूसरा भी है. फिर वह जमीन नापने वाले फीते से भवानी शंकर की नापजोख करता है. वह नाप लेकर होशियारी से नोट लेता है, तोंद छप्पन इंच. इस पर भवानी शंकर चौकते हैं. बाकायदा एतराज जताते हैं, तो इस पर दर्जी निहायत साफगोई से कहता है, “अब कमर कहकर अल्लाहताला की जबान की तौहीन भी तो नहीं कर सकता.”
आउटहाउस में दुहाजू दूल्हा तैयार हो रहा होता है. भवानी, शादी का जोड़ा पहने रहते हैं और विग पहनते हैं. रामप्रसाद उनका भरोसेमंद है. वे उससे अपने मन की बात कहते हैं, “न जाने क्यों घबराहट हो रही है.” इस पर रामप्रसाद उनकी हौसला अफजाई करते हुए कहता है, “आपको तो शादी का तजुर्बा है, सर.”
तभी एक गाड़ी आकर रूकती है. वे खिड़की से देखते हैं कि उनकी बेटी उतर रही है, तो वे ई..ई कहकर ओट में छुप जाते हैं. तभी राम प्रसाद आह्लादित होकर बताता है, “नानी भी आ गई.”
भवानी कहते हैं, “राम प्रसाद, दरवाजा बंद करो.”
रामप्रसाद उनका पक्ष लेते हुए कहता है, श्रेयांसि बहुविघ्नानि..
अच्छे कामों में कितने ही बिघ्न आते हैं. इस बात पर पंडित जी भी हामी भरते हुए नजर आते हैं. भवानी शंकर हैरान-परेशान से दिखाई पड़ते हैं. वे हताशा में कहते हैं, “सब गोलमाल हो गया.“
रामप्रसाद उन्हें ढ़ाढस बँधाते हुए कहता है, “शुभ काम है सर. एक-दो रिश्तेदार तो रहने ही चाहिए.“
भवानी विग उतारते हुए कहते हैं, “अब मेरी शादी नहीं, श्राद्ध होगा.“
रामप्रसाद कुसुम के लिए दया की भीख माँगता है, “इस मुहूर्त में शादी नहीं हुई, तो ब्राह्मण की लड़की है.. अरक्षणीया हो जाएगी.“ इस बात के समर्थन में वह पंडित जी से भी हामी भरवा लेता है.
भवानी शंकर परेशान होकर कहते हैं, “रामप्रसाद! तुम तो मेरे लिए जान भी दे सकते, तो ये शादी तुम कर लो.”
इस पर वह अपनी तनख्वाह का दुखड़ा रोता है. भवानी शंकर उसकी तनख्वाह ढाई सौ रुपये करने को राजी हो जाते हैं, तो रामप्रसाद कहता है, मालिक शादी के बाद तो हम एक से दो हो जाएंगे. भवानी चार सौ रुपए करने को राजी हो जाते हैं. रामप्रसाद मौके का पूरा- का-पूरा फायदा उठाता है. वह मजबूरी जताते हुए कहता है, “जब शादी हो जाएगी, तो बाल-बच्चे भी होंगे.”
वह अपनी तनख्वाह छह सौ रुपये कराने में सफल हो जाता है. रहने का मकान भी लपक लेता है. सब तय हो जाने के बाद वह रोते हुए कहता है, “अब आप कहते हैं, तो फिर तो शादी करनी ही पड़ेगी.”
भवानी शंकर की बेटी, मंचासीन भवानी को मिठाई देती है, तो राम प्रसाद को उनसे दुगनी मिठाई देती है. इस पर भवानी शंकर एतराज जताते हैं. बिटिया खुलासा करते हुए कहती है, “राम भैया की तो डबल मिठाई बनती है, क्योंकि शादी और नौटंकी का न्यौता इन्होंने ही तो दिया था.”
यह सुनते ही सारा माजरा भवानी शंकर की समझ में आ जाता है.
वे ‘एट टू ब्रूट’ कहकर उसी लैटिन फ्रेज को दोहराते हैं, जो रोमन डिक्टेटर जूलियस सीजर ने अपने दोस्त मार्कस जूनियस ब्रूटस से कहा था. इतना ही नहीं, भवानी शंकर स्पष्ट करते हुए कहते हैं, तुमने पीठ पर छुरा भोंका.
रामप्रसाद बहाना बनाकर उन्हें कन्वींस कर लेता है. भवानी शंकर भावुक होकर जलेबी खाते हुए नजर आते हैं. वे इमोशनल होकर कहते हैं, “रामप्रसाद तुमने मुझे इस महापाप से बचा लिया.”
यह स्वरूप संपत की डेब्यू फिल्म थी. वे 1979 की मिस इंडिया रह चुकी थी. फिल्म में उन्होंने परिस्थितियों से लाचार युवती के किरदार को निभाया. अभावग्रस्त जीवन की दुश्वारियाँ को कायदे से एक्सप्रेस किया.
अमोल पालेकर फिर से सीधे-साधे निम्न मध्यम वर्गीय प्रतिनिधि के रूप में है. रोजी-रोटी, परिवार के कर्ज और भयावह भविष्य की चिंता में डूबा हुआ युवक, जिसको अपनी बाल सहचरी को खोने का खतरा अंत तक बना रहता है. साधनहीन किरदार की भूमिका में भी वह परिस्थितियों के सामने हार नहीं मानता. वह अपने खास अंदाज में उनसे पार पाने के जतन करता है. उसका हल्के अंदाज में शरारत करना, सहज भाव से सरप्राइज देना दर्शकों को बाँधे रखता है. वह दिखता तो पुराने दौर का है, लेकिन है नए दौर का प्रतीक. साथ ही वह निम्न मध्यम वर्गीय चेतना में आशावादिता का संदेश भी दे जाता है.
उत्पल दत्त का किरदार में उतरने का उत्साह देखते ही बनता है. रुढियों-धारणाओं पर चलने वाले एक प्रौढ व्यक्ति के किरदार में उनकी ट्रेडमार्क झुँझलाहट, अचंभित होने की मुद्रा दर्शकों को गहराई तक प्रभावित करती है. उन्होंने जीवन के बेतुके पहलुओं और आडंबरपूर्ण जीवन का भरपूर मजाक बनाया. बुढ़ापे में उनकी दूल्हा बनने की लालसा, डार्क ह्यूमर का शानदार नमूना पेश करती है. आम जन के निराशा-हताशा और विडंबनापूर्ण जीवन पर उनके किरदार के माध्यम से सवाल उठाए गए हैं. इस फिल्म के लिए उन्हें बेस्ट कॉमेडियन कैटेगरी का फिल्मफेयर अवार्ड मिला.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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शानदार ,सर ।पढ़कर बहुत मजा आया ।मैं आश्चर्य चकित हूँ कि मेरी पसन्द आपसे किस कदर मिलती है ।एक बात और फिल्म नरम गरम की कहानी पंचतंत्र की एक कहानी पर आधारित है .......संजय कबीर.
शुक्रिया संजय कबीर जी. हाँ, नीति के मामले में पंचतंत्र बेजोड़ है. ईसप की कहानियाँ तक उससे प्रेरित हैं.