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कौन है पहाड़ों की नन्दा देवी

शिव के साथ-साथ शक्ति की उपासना भी अति प्राचीन काल से होती आई है बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि उत्तराखंड के जनमानस में शक्ति महत्त्व शिव से भी अधिक है. वह भिन्न-भिन्न नामों से भिन्न-भिन्न रूपों में पूजी जाती है. तंत्र ग्रंथों में भी शक्ति के अनेक नाम मिलते हैं. उनके अनुसार यह हिमालय में मन्दा, नन्दा, शिवानंदा शुभा-नंदा, सुनंदा तथा नंदिनी कहलाती थी. (Nanda Devi Goddess of Uttarakhand)

देवी के रूप में हिमालय में नन्दा के अनेक नाम हैं जैसे देवी, काली, कालिंक्या, नन्दा, शाकम्बरी और चन्द्रवदनी आदि. तदनुसार विभिन्न नामों से शक्ति पीठ बने हैं. इन्हीं नामों की परंपरा में पार्वती नंदा कहलाती है और हर वर्ष भाद्रपद में नन्दाष्टमी (राधाष्टमी) को नंदाजात, नन्दापाती, नन्दा देवी, आंठूँ इत्यादि नामों से उसके नाम से यात्रा, मेले, खेल, बलि, पूजा इत्यादि अनुष्ठान होते हैं. (Nanda Devi Goddess of Uttarakhand)

कुमाऊनी और गढ़वाली लोकगीतों में नन्दा द्वारा दैत्यों के संहार के अनेक वर्णन मिलते हैं. ये वर्णन देवी के तंत्रशास्त्रों में वर्णित रूपों के समान ही हैं. इनमें देवासुर संग्राम तथा देवी द्वारा असुरों के विनाश की गाथाएं भी गाई जाती हैं. भैंसे को असुर का प्रतीक मानकर देवी को भैंसों-बकरों की अठवार बलि भी चढ़ाई जाती है. दैत्य-मर्दिनी महाकाली की ही योगमाया है. पुरानों में उसके हिमालय में निवास करने का उल्लेख भी मिलता है. स्कन्द पुराण के मानस खंड के बाईसवें अध्याय में कहा गया है कि – विद्वानों ने महा-हिमालय को पश्चिमाभिमुख बतलाया है. उसके दक्षिण की तरफ नन्दगिरि है. वहां नन्दादेवी देवों से पूजित हो विराजमान है. वह देवी नंदगोप के घर जन्म लेकर कंस के द्वारा सौभाग्यशाली शिला पृष्ठ पर पटकी जाती हुई आकाश मार्ग से पुश्यात्मा नन्द पर्वत पर जा पहुँची. तब से हे ऋषिवरो! वे देवों से पूजित हो रही हैं. नंदा की पूजा कर मनुष्य अपने पापों से रहित हो जाते हैं.

महाकाली योगमाया जब नंदा के नाम से हिमालय में निवास करती है तो उसके पुनः अनेक रूप हो जाते हैं. देवी के रूप में उसके दो रूप हैं – शास्त्रीय और लोकदेवी. इसके अतिरिक्त वह नन्दाकिनी मन्दाकिनी अलकनन्दा अआदी नामों से नदियों के रूप में, नन्दा कुंड इत्यादि नामों से कुंड के रूप में और नन्दा देवी, नंदा कोट, नन्दा खाट और नन्दा घुंटी इत्यादि नामों से हिमालय के पर्वतों में विराजमान है. अर्थात हिमालय के पर्वत, नदी, कुंड, मंदिर इत्यादि प्रत्येक पवित्र स्थान में जीवन दायिनी शक्ति के रूप में नन्दा का निवास है. इस तरह नन्दा के अनेक रूपों को दो प्रकार से विभाजित किया जा सकता है. एक प्रकृति में व्याप्त नन्दा और दूसरी देवी के रूप में पूज्य नन्दा. देवी के भी दो रूप हैं – शास्त्रीय देवी और लोक या स्थानीय देवी. शास्त्रीय देवी सृष्टि की आद्यशक्ति जगज्जननी है जिसको अनेक नामों से पुकारा जाता है. देवी का लोक रूप उसे स्थानीय राजवंशों से जोड़ता है. कुमाऊं में चन्द्रवंशीय राजकुमारी नन्दा और गढ़वाल में चांदपुर नरेश की राजकन्या नंदा कालान्तर में देवी के रूप में पूजी गयी. आज भी नन्दा से सम्बद्ध पर्वोत्सवों पर विशेषतः नन्दाष्टमी के अवसर पर इन लोक देवियों पर ही देवी-स्वरूप आरोपित कर इनकी पूजा-अर्चना अदि का आयोजन होता है. नंदा की जीवन गाथाएं गई जाती हैं.

गीतों में राजा के घर जन्मी राजकुमारी में ही उसे देवी शक्तियों के आविर्भाव का वर्णन कर उसे देवी माना जाता है. चंद्रवंशी राजकुमारी नन्दा का भैंसे के साथ संघर्ष कर भैंसे को मारने के प्रसंग जोड़ कर उसे महिषासुरमर्दिनी माना जाता है. चंद्रवंशी राजा कामाक्षी देवी के उपासक थे. गढ़वाल के जूनागढ़ नामक स्थान से देवी को लाकर उन्होंने तांत्रिक पद्धति से उसकी स्थापना कुमाऊं में की थी और उसे अपनी कुलदेवी के समान स्थान दिया था. इसीलिये प्रायः दो देवियाँ साथ-साथ पूजी जाती हैं लेकिन जनमानस प्रायः राजकन्या को ही देवी का अवतार मानता है. कुमाऊं में प्रचलित नंदा की जागर के पूर्वार्ध में सृष्टि की उत्पत्ति की कथा कही गयी है और उत्तरार्ध में कुमाऊं के इतिहास संबंधी घटनाएं वर्णित हैं. इस वजह से भी राजवंशों के साथ देवी का वर्णन सम्मिश्रित हो गया है.

गढ़वाल में प्रचलित गाथा में नंदा को चांदपुर के राजा भानुप्रताप की पुत्री बताया गया है जिसका विवाह धारा नगरी के राजकुमार कनकपाल से हुआ था. इसके जीवन में अनेक चमत्कारी घटनाएं घटित हुईं इसीलिये बाद में वह नंदादेवी के रूप में स्वीकृत हुई. एक अन्य गढ़वाली गीत के अनुसार चाँदगढ़ की राजकुमारी बलंफा हिमालय पुत्री नंदा की सखी थी – दोनों धर्म-बहनें थीं. बड़ी होकर एक बार नन्दा अपने प्रति बलंफा के प्रेम की परीक्षा लेने उसके घर कन्नौज गयी और अपने प्रेम के प्रमाण स्वरूप उससे उसका आधा राज्य माँगा. यह मांग बलंफा ने अस्वीकार कर दी. नन्दा लौट आई. बाद में बलंफा ने सोचा कि नन्दा बड़ी आई थी हमारी परीक्षा लेने, हम भी उसकी परीक्षा लेकर देखें. वह अपने पति के साथ हिमालय की ओर चल पड़ी. नंदा को इस बात का पता चल गया तो उसने बहुत तेज वर्षा कर दी. बलंफा और उसके पति रास्ते में ही काल-कवलित हो गए.

लोक देवी नन्दा में दैवी शक्तियों का समावेश होने से राजकुमारी नन्दा और आद्यशक्ति नन्दा को भक्त समाज एक ही भाव से देखता है. एक और लौकिक राजकन्या पर दैवी भाव आरोपित है तो दूसरी तरफ शिव की अर्धांगिनी पार्वती पर लौकिक रूप भी आरोपित होता है. तब आद्यशक्ति शिवा भी गंवारा बनकर अनेक अभावों और कष्टों से जूझने वाली साधारण पर्वतीय नारी बन जाती है. राजजात में अनेक वस्त्राभूषणों तथा अन्य पदार्थों की भेंट-सौगातों सहित जिस नन्दा को मायके से विदाई दी जाती है वह, तथा पेड़-पौधों से अपने मायके का रास्ता पूछती हुई मायके आकर अपनी मां के दुखों की सहभागिनी बनती , या गहनों केलिए मचलती गंवरा पहाड़ी युवती की ही प्रतिच्छवि है. ऐसे अनेक प्रसंग कुमाऊनी और गढ़वाली लोकगीतों में प्राप्त होते हैं.

गीतों, गाथाओं, कथाओं, किन्वादंतियों, मंदिरों, मूर्तियों, शिखरों, नदियों और कुंडों में बसने वाली इस देवी की भक्ति और उपासना दो रूपों में ई जाती है. दूसरे शब्दों में कहें ओ इस आराध्य देवी के दो स्वरूप हैं – पहला पालक रूप और दूसरा संहारक रूप. संहार कारिणी काली, कालिंका, कंकाली, भ्रामरी या भद्रकाली को भय की दृष्टि से पूजा जाता है. कुपित होने पर वह अनिष्ट करती है इसलिए उसे बलि और पूजा द्वारा प्रसन्न रखा जाता है,

साथ ही शत्रु पर स्वयं विजय न पा सकने की स्थिति में शत्रु के अनिष्ट हेतु इसके नाम के जाप के साथ घात डाली जाती है. गढ़वाल में मैठाणा और कुमाऊं में सनीगाड़ आदि स्थानों पर घात डाली जाती हैं. द्वी देवी का यह दुष्ट विनाशक रूप है.

पालक रूप में यही देवी माता के समान प्रेम, वात्सल्य और करुणा की मूर्ति है. नैना, नन्दा, पार्वती, दुर्गा, भगवती इत्यादि इसी रूप के पर्याय हैं. यह रोग-शोक निवारण करती है. भाद्र शुक्ल अष्टमी को स्थान-स्थान पर इसका मेला होता है. इसका डोला बनाकर बाजों तथा मंगल गीतों के साथ इसको विदा किया जाता है. गंवरा के रूप में महेश्वर के साथ इसकी प्रतिमाएं बनाकर पूजी जाती हैं. इसका निवास पूरे हिमालय प्रदेश में है. यह दीन दुखियों की मदद करने शिव के साथ सर्वत्र पहुँच जाती है. प्रायः पुरुष और प्रकृति दोनों साथ-साथ हैं. पर्वतों के रूप में पुरुष तो कुंड-नदियों के रूप में प्रकृति. हिमशिखरों में नीलकंठ, त्रिशूल आदि नाम शिव से जुड़े हैं तो नाडा देवी, नन्दा घुंटी आदि शिवा से. प्रत्येक स्थल पर यह युगल सृष्टि की रक्षा करता दिखाई देता है.

फिर भी लोकसाहित्य, जनश्रुतियों, पर्वोत्सवों धार्मिक स्थानों आदि के रूप में व्याप्त लोक-विश्वास का समग्र दृष्टि से निरीक्षण करने के बाद जो तथ्य उभर कर सामने आता है उसके अनुसार शिव से अधिक शक्तिशाली और अधिक प्रवृत्तिशील शिवा है. दोनों सर्वत्र साथ होते हुए भी दैत्यों-असुरों का नाश करते हुए देवी अकेली होती है. अरुण दैत्य का नाश करती हुई काली के साथ शिव नहीं हैं. पर्वतीय नारी के अभावों और दुखों को गंवरा अकेली ही भोगती है. महेश्वर अपने आप में मस्त रहते हैं.

यह सब क्या सूचित करता है? देवी जगज्जननी है. जन्म देकर पालन करती है. पिता भी पालन करता है किन्तु दोनों की भूमिकाओं में अंतर है. माता का त्याग और प्रेम अधिक महत्वपूर्ण है. पहाड़ों में अनेक कष्टों और विपत्तियों से स्त्री अकेली जूझती है. उसके संघर्षों और कोमल भावों का प्रतिविम्ब पर्वतपुत्री नन्दा पर भी पड़ा है. तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि नन्दा पर्वतीय नारी का ही प्रतिरूप है? यदि ऐसा है तो वह सृष्टि की आद्य शक्ति कैसे हुई? इसके उत्तर में भी प्रश्न ही आता है कि देवी-देवता का निर्माण कौन करता है?

एक मत यह भी है कि मनुष्य खुद अपना भगवान बनाता है. मनुष्य के अभाव में ईश्वर की कल्पना भी नहीं की जा सकती. मनुष्य द्वारा निर्मित ईश्वर मनुष्य का ही सर्वोत्तम रूप होता है अर्थात ईश्वर मनुष्य की वह कल्पना है जिसमें वह अपने समस्त आदर्शों को केन्द्रीभूत करता है. दूसरे ढंग से देखें तो परमात्मा की आत्मशक्ति ही समग्र ब्रह्माण्ड में व्याप्त है. इस दृष्टि से भी पर्वतीय नारी और आद्यशक्ति नन्दा एक रूप हो जाते हैं.

देवी को स्वयं समर्थ और अधिक प्रवृतिशील माना गया है. इससे यह अर्थ निकलता है कि प्रकृति पुरुष से अधिक शक्तिशाली है. वस्तुतः पुरुष शांत और स्थित है. प्रकृति उसकी शक्ति की प्रवृत्तिशील रचना है. इसीलिये पुरुष निराकार है और प्रकृति साकार. साकार रूप ही कर्मरत रहता है. इसीलिये शिव स्थिर होकर तपस्या में लीन हैं. उसकी शक्ति शिवा दुष्टों का नाश और भक्तों का कल्याण करती हुई प्रवृत्तिरत है.

डॉ. दिवा जगदीश

(‘पुरवासी’ के 1992 के अंक से साभार)

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