Featured

जाड़ इलाके की नमकीन चहा ‘ज्या’

उच्च हिमालय और सीमांत के इलाके में उत्तरकाशी से आगे गंगोत्री मार्ग में पसरी है भैरोघाटी. भैरो घाटी से ऊपर पश्चिमी इलाके कारछा, हिण्डोली और निलांग गाँव हैं. इस जिले को च्छोङ्गसा कहते हैं. स्थानीय गढ़वाली या टकनौरियों द्वारा इन्हें ‘जाड़’ या ‘जाढ़’ कहा जाता है. मुखबा गंगोत्री के स्थानीय गांवों एवं यहाँ की पंडा पुरोहित बिरादरी खुद को टकनौरी कहते हैं. नीचे इलाकों में भागीरथी नदी के किनारे बसा हुआ समुदाय गंगाड़ी कहलाता है. इसी क्रम में जाड़ गंगा के आसपास जादोङ्ग और निलाङ्ग के गाँव के निवासी जाड़ कहलाते हैं. प्रायः यह समुदाय आपस में स्वयं के लिए ‘रोङ -पा’  शब्द का प्रयोग करते हैं. परन्तु तिब्बत अथवा अन्य भोटी समाज से अपनी पहचान “च्छोङ्गसा रोङ्गबा” के रूप में चिन्हित करता है.
(Namakeen Chai Jya Salted Tea)

तिब्बती लोग और व्यापारी निलाङ्ग और जादोङ्ग में बसे लोगों और लंका तक की सीमा को च्छोङ्गसा कहते हैं. यह इस इलाके के मूल लोगों की पहचान का नाम है. इसका आशय व्यापार या व्यापारी से भी है क्योंकि इस इलाके के लोग पशु चारण के साथ व्यापार करते रहे.यह इलाका महाभारत काल से ही व्यापार और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा. यात्री भी यहीं के रास्ते कैलास मानसरोवर जाते व इसी मार्ग से बौद्ध मठ थोलिङ्ग की रह पकड़ते.

जाड़ समुदाय चाय प्रेमी हैं पर दूध चीनी वाली चाय का चलन नहीं है. चाय यहाँ खूब पी जाती है बेहिसाब, यानी पेट भर के. पर यह होती है नमकीन. जी हां,यही नमक वाली चहा है, “ज्या “. इसे ‘छाजा’ भी कहते हैं,जहां ‘छा ‘का मतलब है नमक और ज्या या जा हुई नमकीन चाय. प्रोफ़ेसर सुरेश ममगई अपनी किताब “च्छोङ्सा और च्छोङ्सा रोङ्बा” में उत्तराखंड की भैरो घाटी का व्यापक सर्वेक्षण कर लिखा कि यहाँ घरों में नमकीन चहा ज्या हमेशा बनती रहती है. जब कोई मेहमान या जान पहचान का मित्र-सम्बन्धी आ जाये तब तो उसकी बहार हो जाती है. उसके जाने तक वह उसे चाय पिलाते रहते हैं.

इस नमकीन चहा ज्या को बनाने के साथ इसके पीने-पिलाने के रोचक नियम कायदे होते हैं. नमकीन चहा खेर या थुनेर पेड़ की छाल के चूरे को नमक और याक के मक्खन या घी के साथ उबाल कर बनाई जाती है. थुनेर का पेड़ “टेक्सस वेलीचियाना बक्काटा” है जिसके बारे में यह मान्यता है कि यह कैंसर के उपचार हेतु प्रभावी भेषज है. इसकी चाय बनाने के लिए इसमें स्थानीय रूप से पाई जाने वाली कुछ घास व पत्तियों को खमीर दे तैयार कर फुलाया व फिर सुखाया जाता है. यही चाय पत्ती है. पानी को उबाल उसमें सूखे हुए मट्ठे का चूरा मिलाते हैं जिसे ‘छयूरा’ कहते हैं. अब उबलते पानी में खेर का चूरा मिला, उसे उबाल फिर छयूरा मिला उसे बांस से बने पात्र जिसे ‘दोङबू’ कहा जाता है,में मथा जाता है. दोङबू लकड़ी का साढ़े तीन फुट लम्बा और डेढ़ फुट की गोलाई वाला बर्तन होता है जिसमें गरम चाय का पानी डाल कर मक्खन को फेंटा जाता है. चाय बनाने का बर्तन ‘चादोँग’ कहा जाता है. चहा उबालने के लिए उपलों की आग सुलगाई जाती है, लकड़ी या ‘सिङ’ का प्रयोग कम होता है. चूल्हे को ‘घीबू’ कहते हैं.
(Namakeen Chai Jya Salted Tea)

दूसरी तरफ परंपरागत चाय का भी प्रयोग होता है. इस ज्या को बनाने के लिए जो चाय की पत्ती पहले -पहल प्रयोग में लाई जाती थी उसे ज्या के ‘दुम’ कहा जाता था अर्थात चीनी चाय की ईंटों का पैकेट. इस में सिकी हुई तैयार चाय की पत्ती रहती थी. ज्या बनाने का तरीका और स्वाद चीनी-दूध वाली से अलग है. चाय की पत्ती वाली नमकीन चाय को बनाने के लिए उसे पानी के साथ खूब उबाल कर उसमें डले वाला नमक या लूंण मिलाते हैं. तिब्बत के इलाके में नमक की खानें है जहां लेंचा नमक मिलता है. इसके डले ज्यादा प्रयोग होते हैं. लूंण के साथ थोड़ा खाने का सोडा भी मिलाते हैं. कहते हैं कि ‘फुल्दो’ नामक सोडा डालने से चहा में गहरी बढ़िया रंगत आ जाती है और इसमें मिलाया गया मक्खन भी एकसार घुल जाता है. इस मिश्रण को छान लिया जाता है और खूब मथ लेते हैं.अब इसे छान कर लकड़ी के बने हुए चोंगों में डालते हैं जो चार से छह अंगुल व्यास के होते हैं. इन्हें ‘डोड़मो’ कहते हैं. इसमें मक्खन डाल कर खूब मथा जाता है. चहा पीते समय डोड़मो से निकाल धातु या मिट्टी की कितली में रख खूब गरम या चुड़कन कर लेते हैं. अक्सर ये कितलियाँ अंगीठी के पास ही रखी रहतीं हैं ताकि जब चाहो उतनी चहा सुड़की जा सके.

मजेदार बात ये है कि च्छोड़सा में घरों में चहा हर समय बनी तैयार रहती. कोई भी घर में आये तो स्वागत के साथ सत्कार के लिए चहा सामने. ये चहा तब तक पिलाई जाती जब तक मेहमान चला न जाये.

चहा पीने पिलाने के कुछ नियम भी होते जैसे चहा पीते समय कटोरी में थोड़ी बची रहनी चहिये. अगर सब पी दी और कटोरी खाली कर दी तो इसका मतलब यह कि मेहमान गंवार है या वह अब पीना ही नहीं चाहता. कटोरी में अगर आधी चहा बचा दी तो इसका मतलब यह कि चहा अच्छी नहीं बनी है. चहा पीने का ऐसा चलन या फितूर कि हर कोई दिन भर में करीब बीस ‘कांसी’ मतलब कटोरे नमकीन चाय सुड़का जाता.

चाय पीने की कटोरी या प्याली कांसी नेपाल की सीमा के पास लीमी नामक प्रदेश से आती. यह एक पेड़ की गांठ से बनी होती. छील खुरच इन्हें कटोरी, प्याली का आकार दे मुलायम चिकना करा जाता. फिर इनमें मेहंदी का तेल चुपड़ा जाता और एक विशेष तरकीब से इनको रंगा जाता. इस ‘लीमी’ नामक पात्र की खासियत यह होती कि इनमें कितनी बार चहा पियो या और कोई गरम चीज परोसो इनकी पोलिश लम्बे समय तक नहीं उखड़ती. इन कटोरियों के भीतरी भाग में चांदी के पत्तर भी मढ़े जाते. गरीब से गरीब के घर में भी दो-चार ऐसे कटोरे होते ही. हैसियत वालों के पास सभी चांदी की पत्तर वाले व ऐसे और अधिक महंगे पात्र भी होते जो ज्यादा कीमत वाले पत्थरों से बनते या पूरे ही चांदी के होते.यहाँ ऐसे बर्तनों का चलन तिब्बत के लोगों को देख कर बढ़ा.

चहा को पेश करने का भी अंदाज़ भी निराला हुआ. चहा की कांसी या प्याली को घर की बैठक के सामने एक मुड़ने वाली छोटी या नक्काशी की हुई चौकी पर रखा जाता. यह चौकी नुमा मेज “चौकसे” कहलाती. च्छोङ्गसा के निवासी जाड़ बड़े कलाप्रेमी और शौकीन हुए इस कारण सामान्य हैसियत वाले घर में भी कुछ रंगबिरंगे चौकसे और चांदी के बर्तन होते ही.
(Namakeen Chai Jya Salted Tea)

घर में विशेष मेहमान आ जाये तो चहा के साथ तस्तरी में सूखा मांस पेश किया जाता. मांस काटने के लिए चाकू भी रखा जाता जिसे ‘टी’ कहते. यहाँ सूखा मांस पका हुआ ही माना जाता. च्छोङ्गसा इलाके में ज्यादातर कच्चा और सूखा मांस ही खाने का चलन रहा.

चाय में प्रयोग भी होते रहते जैसे गेहूं और जौ को भून कर पीस लिया जाता इसे ‘सामा’ कहते. सामा को भी गरम चहा के प्याले में डाल पिया जाता. च्छोङ्गसा की नमकीन चाय का चलन इस कारण भी अधिक रहा क्योंकि यहाँ बारहों मास दुधारू जानवर पालने की बेहतर दशाएं नहीं रहीं सो ताजे दूध की उपलब्धता न हो पाती. कई इलाकों में ऊबड़ खाबड़ जमीन के कारण गाय चर नहीं पातीं थीं और उनके लायक घास व चारा नहीं होता था.पर इसका मतलब यह नहीं कि चाय पीना छूट जाय. जब भी दूध खूब होता उसके दही, पनीर, मट्ठे को अपने तरीके से सुखा कर संरक्षित कर साल भर चाय पीने का हिसाब बरोबर रखा जाता. निलांङ में घास लकड़ी की कमी के कारण जो गाय पाली जाती थी उसे ‘जिमो’ या ‘जुमू’ कहा जाता. इससे काफी मात्रा में दूध या ‘वां’ मिलता इससे दही या ‘शू’ निकाला जाता. घी बनने के साथ मट्ठा बनता. मट्ठे को सूखा कर उसका चूर्ण या पाउडर सुरक्षित रखा जाता जो नमकीन ज्या में मुख्य तौर पर काम आता. दूध के लिए जिमो टकनौर के आठ गावों-मुखबा, धराली, बगोरी, छोलमी, हर्षिल, झाला, जसपुर और पूरल में पाली जाती.

यहाँ भेंसे नहीं पाली जातीं. भेड़ बकरी पालते जिसमें बकरी के दूध का बना पनीर जिसे ‘छोरेई ‘कहते बहुत स्वाद होता. याक या जोवा प्रायः निलांग और बगोरी में पाले जाते. याक के दूध का भी बढ़िया पनीर बनता. कहीं कहीं दही को बकरी की खाल में डाल कर कम से कम आधे घंटे तक खूब हिलाते तो मक्खन बनता. यह मक्खन भेड़ की आंत की बनी थैली में रखा जाता जिससे यह लम्बे समय तक टिका रहता. दूध, दही मलाई मट्ठा और मट्ठे का फटा हुआ पनीर वर्षा काल में खूब बनता.मट्ठे को ‘तारा’ कहा जाता. इसे लकड़ी के ठेके में फेंट कर बनाते हैं. जो भी दूध या मट्ठा बचता उसे फाड़ कर ऊनी थैलियों में डाल देते और पनीर को छान कर सुखा देते. बकरी के दूध से जो पनीर बनता उसे ‘छोरेई’ कहते.ऐसे बने पनीर के डलों को फिर छोटे छोटे टुकड़ों में काट कर सुरक्षित रख लेते. इसे ‘छुरा’ कहा जाता. छुरे को चूर कर जब यह खूब बारीक हो जाता तो इसमें मक्खन और गुड़ मिला का गूंथा जाता. जब सब एकसार हो जाये तो इसकी एक अंगुल भर मोटी रोटी सी बेल देते. यह मिठाई बन जाती जिसे ‘थू ‘ कहा जाता. नमकीन चहा के साथ इसको भी पेश किया जाता. सुरक्षित रखने के लिए इसे चमड़े में बांध कर रखा जाता. जाड़ों के दिनों में दूध से दही बनाने के लिए इसे बर्तन में रख जमूण डाल बर्तन को कम्बलों से ढक लपेट देते. फिर दूसरे दिन सुबह घर की औरतें इसे बर्तन से मोटे मोटे चोंगियों में डाल ठीक उसी तरह खूब मथती जैसे चहा को मथा जाता है. फिर इस तैयार मक्खन को चमड़े में बांध रख दिया जाता. मक्खन से घर के मंदिर में दिया भी जलाते व हवन में भी डालते. मक्खन की डली खाने पीने के हर बर्तन और चहा के कटोरे या प्याली में भी धर दिया जाता. यह शुभ शकुन का प्रतीक होता.
(Namakeen Chai Jya Salted Tea)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें : सीमांत हिमालय के अनवाल

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago