हिमालयी क्षेत्रों में वर्षों से वनाग्नि की घटनाएं होती रही हैं और इन वनाग्नियों के पीछे कुछ प्राकृतिक और अनेक मानव जनित कारण रहे हैं. हाल के कुछ वर्षों में इन घटनाओं के पीछे जो सबसे बड़ा कारण माना जाता है वो है – आछादित चीड़ वन. आम जनमानस से लेकर पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वालों और यहाँ तक कि कुछ तथाकथित वैज्ञानिकों के बीच भी चीड़ को लेकर एक सोच घर कर गयी है, जिसमें सारा का सारा दोष इस प्रजाति के पेड़ों पर डाल दिया जाता है और वनाग्नियों के पीछे के अन्य कारणों पर कोई बात नहीं करता. चीड़ के पेड़ों को लेकर भी कई भ्रांतियां हमारे बीच है, जिसके कारण हम मूल समस्या को कभी देख ही नहीं पाते. चीड़ के वनों से जुड़ी कुछ भ्रांतियाँ और उनसे जुड़ा सच एवं तथ्य निम्नवत हैं:
(Myths About Pine Tree)
तथ्य : यह सही है कि चीड़ की कुछ प्रजातियाँ जैसे कि Pinus Patula, P. Greggii and P. Elliottii हिमालयी वनों के लिए बाहरी प्रजातियाँ हैं. लेकिन हिमालयी वनों में अधिकांशतः पाये जाने वाली चीड़ की प्रजाति Pinus Roxburghii तथा साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाला ब्लू पाइन (Pinus Wallichiana) हिमालय की स्थानीय प्रजातियों में से एक है.
सोर घाटी यानी की पिथौरागढ़ के पुरातन सरोवर की मिट्टी की जांच में इसी प्रजाति के पेड़ों के कोयले पाए गए हैं, जिनकी उम्र लगभग 36 हज़ार वर्ष पायी गयी है. जिससे साबित होता है कि चीड़ की कुछ प्रजातियाँ बाहरी न हो कर स्थानीय हैं. यह तथ्य बिलकुल सही है कि एक समय में चीड़ की कुछ स्थानीय और विदेशी प्रजातियों को वन विभाग द्वारा मध्य हिमालय के कई क्षेत्रों में जरूर लगाया गया था.
तथ्य : मध्य हिमालयी क्षेत्रों में जहाँ चीड़ वनों का अधिकांश विस्तार हैं, वहां ये वन अधिकांशतया पहाड़ों के दक्षिणी ढाल में पाए जाते हैं. मध्य हिमालय के दक्षिणी ढलान इसके उत्तरी ढलानों की अपेक्षा अधिक तीक्ष्ण ढलान लिए हुए होते हैं और यहाँ आद्रता भी कम होती है. इन दक्षिणी ढलानों में मिट्टी और ह्यूमस भी काफी कम पाया जाता है जिसके कारण दक्षिणी ढलानों में वन क्षेत्र काफी कम होता है और कुछ ख़ास किस्म की वनस्पतियाँ जिनको पानी की कम जरूरत होती है सिर्फ वही उग पाती हैं. जिसमें से चीड़ के पौधे भी एक हैं. सो चीड़ वन वहीं पाए जाते हैं जो शुष्क होते हैं और जहाँ पानी की कमी होती है. कोई भी वृक्ष जमीन से कितना पानी अवशोषित करेगा यह निर्भर करता है उस पेड़ की जड़ों की गहराई और पेड़ द्वारा किये गए स्वेदन (Transpiration) के स्तर पर. जबकि चीड़ के वृक्षों की जड़ें ज्यादा गहरी नहीं जा पाती हैं और इसी कारण बर्फ़बारी और तेज हवाओं के चलने पर चीड़ के पेड़ आसानी से गिर जाते हैं.
पेड़, पत्तियों उनके तनों पर पाए जाने Stomata द्वारा स्वेदन (Transpiration) करते हैं, जिसमें वो पानी को भाप बना आस-पास के परिवेश में छोड़ते हैं जिसके कारण पेड़ों के पास ठण्ड महसूस होती है साथ ही साथ इस क्रिया से आद्रता बढती है जिससे वर्षा होने की संभावना बढती है. चीड़ के वृक्षों में ये stomata, sunken sotomata के रूप में पाए जाते हैं जो कि पेड़ों के अन्दर की आद्रता को बाहर जाने से रोकता है. शुष्क क्षेत्रों मे पाए जाने वाले Xerophytic पौधे जैसे कैक्टस आदि इन्हीं के द्वारा अपना पानी बचाते हैं. साथ ही चीड़ के पतली सुईनुमा पत्तियों में lignin की परत होती है (जिससे इनमें चमक और फिसलन आती है) जिसके कारण पानी का उत्सर्जन और कम हो जाता है.
इसलिए न तो चीड़ के पेड़ों को अधिक पानी की जरूरत होती है और न ही ये पानी को जमीन से खीच कर सुखाते हैं. बल्कि ये पेड़ वहां भी आसानी से हो जाते हैं जहाँ अन्य पेड़ बमुश्किल हो पाते हैं.
तथ्य : दरअसल इसके पीछे वनों को लेकर हमारा कुप्रबंधन जिम्मेदार है, हमने बांज के जंगलों एवं अन्य जहाँ कहीं पेड़ काटे हैं, आग लगा भूमि को शुष्क किया है नए पेड़ नहीं लगाये हैं चीड़ ठीक वहीं उगने लगा है. अधिक नमी क्षेत्रों में चीड़ के पेड़ नहीं उग पाते हैं, कारण ऊपर लिखे गए हैं. अगर हम नए पेड़ नहीं लगायेंगे और जमीन को शुष्क करते जायेंगे तो चीड़ वहां जरूर ही उग आएगा. ऐसे में वन प्रबंधन से जुड़ी संस्थाओं की भूमिका अहम् हो जाती है. जिस समय चीड़ के पेड़ों पर नए शंकु निकलते हैं, यदि उस समय lopping की जाए तो न तो इसके नए बीज बनेंगे न ही ये और अधिक फ़ैल सकेगा. और ऐसा हिमांचल के कुछ गाँवों ने किया भी है.
(Myths About Pine Tree)
तथ्य : चीड़ की नयी उगी पत्तियां यानी कि पिरूल चबाने में खट्टी होती हैं, सो वो जब जमीन पर गिरती हैं, वो जरूर ही भूमि को अम्लीय (acidic) बना देती हैं. Lignin की वजह से इन पत्तियों में एक चमक आती है जिससे ये फिसलन भरी होती है और देर से सड़ती हैं लेकिन यह कहना कि इस अम्लीय भूमि में कुछ नहीं उग सकता ख़ास कर अन्य पेड़ तो ये गलत धारणा है. चीड़ के वनों में अगर पीरुल को समय-समय पर हटाया जाए और आग न लगायी जाए तो काफल, बुरूंज, आम और यहाँ तक कि बांज के पेड़ भी उगाये जा सकते हैं और ऐसा रानीखेत के गोल्फ कोर्स के आगे देख सकते हैं. चीड़ वन का सही तरह से प्रबन्ध कर हिमाँचल प्रदेश के कुछ गाँवों में भी चीड़ के पेड़ों के साथ बांज के पेड़ अच्छे खासे फल-फूल रहे हैं. यहाँ यह भी जानें की बुरूंज यानी Rhododendron प्रजातियों के पेड़ थोड़ी सी अम्लीय भूमि में ही अच्छे पैदा होते हैं.
तथ्य : मध्य हिमालयी और घाटी क्षेत्रों में पेड़ों की कुछ प्रजातियों के ही तने इतने सीधे होते हैं कि जिनका प्रयोग फर्नीचर या घर आदि बनाने के लिए किया जा सकता है. ये पेड़ हैं : देवदार, साल, तुन, उतीस और चीड़. इनमें से देवदार को काटा नहीं जा सकता वह एक संरक्षित पेड़ है. साल महंगा है जिसे हर कोई नहीं खरीद सकता, तुन के पेड़ संख्या में काफी कम होते हैं और इसे उगने में काफी समय भी लगता है, उतीस हालांकि सीधा होता है और तेजी से उग भी जाता है, लेकिन इसकी लकड़ी फर्नीचर आदि के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती. ऐसे में इन सारे पेड़ों का बोझ चीड़ के वनों पर ही है जिसकी किफायती लकड़ी का प्रयोग ईधन से लेकर, इमारती लकड़ी और फर्नीचर बनाने में होता है. अगर चीड़ वनों को एक सीरे से सारा खत्म कर दिया जाए तो इसका सीधा असर दुसरे वनों पर पड़ेगा.
(Myths About Pine Tree)
चीड़ के पेड़ों से निकलने वाले रेसिन यानि कि लीसे से टरपेनटाइन आयल जिसे तारपीन का तेल भी कहते हैं वह निकाला जाता है. एक समय में उत्तराखंड की कई वन पंचायतों और स्थानीय ठेकेदारों द्वारा इस रेजिन के लिए टिपान कर स्थानीय स्तर पर अर्थव्यवस्था को सबल किया जाता था. इसी लीसे के औषधीय गुण भी हैं, जिसका प्रयोग ग्रामीण महिलाएं फटी एडियों को ठीक करने में किया करती हैं.
चिलगोजा एक कीमती सूखा मेवा है. यह एक प्रकार का स्यूता– बीज है जो चीड़ के कोन में पाया जाता है. यह चीड़ की ही एक प्रजाति से निकाला जाता है. इसीप्रकार से चीड़ के कोन से कई प्रकार की सजावटी चीजें भी बनायी जाती हैं जो पर्यटन स्थलों पर खूब बिकती हैं. चीड़ की पत्तियों से भी कई प्रकार की सजावटी चीजे बनायीं जाती हैं. चीड़ की इन्हीं पत्तियों यानी पीरुल से बेरीनाग में अवनी संस्था बिजली भी बना पाने में सक्षम है. इसी पीरुल का प्रयोग खाद बनाने, कागज, फिल्लर के रूप में कई चीज़ों में किया जा सकता है. इस तरह से चीड़ के पेड़ को कई व्यावसायिक प्रयोग संभव हैं.
यहाँ यह बताना भी जरूरी है, कि इस लेख का आशय ये कहीं भी नहीं है, कि चीड़ के और अधिक पेड़ों को लगाया जाए, अपितु इस लेख द्वारा चीड़ के पेड़ से जुडी भ्रांतियों, चीड़ वनों से जुड़े प्रबंधन और जंगलों में लगने वाली आग से जुड़े सही तथ्यों को उजागर करना है और सवाल करना है कि क्या चीड़ और इससे जुडी प्रजातियाँ इतनी भी खतरनाक नहीं जितना बताया जाता है? यदि चीड़ का सही तरह से प्रबंधन कर कई उपयोग संभव हैं तो फिर क्यों इस तरह का प्रचार किया जाता है?
(Myths About Pine Tree)
पिथौरागढ़ के रहने वाले मनु डफाली पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हरेला सोसायटी के संस्थापक सदस्य हैं. वर्तमान में मनु फ्रीलान्स कंसलटेंट – कन्सेर्वेसन एंड लाइवलीहुड प्रोग्राम्स, स्पीकर कम मेंटर के रूप में विश्व की के विभिन्न पर्यावरण संस्थाओं से जुड़े हैं.
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