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पहाड़ और मेरा बचपन – 3

पिछली क़िस्त पहाड़ और मेरा बचपन – 2

मां आस-पास की ऐसी औरतों को जानती थी, जिन्होंने खुद भी गाय पाली हुई थीं. ये सभी महिलाएं आपस में मिलकर घास का कोई पहाड़ खरीद लेतीं और फिर मिलकर घास काटने जातीं. वह ऐसी ही कोई मुहिम थी. करीब घंटा भर चलने के बाद हम उस पहाड़ की ढलान पर पहुंचे थे. मां के साथ तीन महिलाएं और थीं. उन्होंने घास काटना शुरू किया. मां ने मुझे घास काटने की इजाजत तो नहीं दी, पर कटी घास को इकट्टा करके उसे बांधकर गट्ठर बनाने पर सहमत हो गई.

मेरी मुख्य भूमिका घास के बड़े गट्ठर को पीठ पर बांधकर वापस ले जानी की थी. मैं कटी हुई घास को समेटकर गट्ठर बना रहा था, जब अचानक मेरे हाथ हवा में ही स्थिर हो गए. कटी हुई घास हटाते ही एक हरे रंग की चीज हवा में लहराई थी. मुझे यह समझने में कुछ क्षण लगे कि वह हरी चीज हरा सांप था और उस जालिम ने अपना पूरा मुंह खोला हुआ था. वह जैसे मुझे ही डसने को मेरी ओर लहराया था. मैं उसके साथ-साथ मैं भी हवा में लहराया और उसकी जद से दूर जाकर गिरा. मेरे मुंह से चीख निकल पड़ी – ईजा स्यांप है यहां, स्यांप! मां करीब ही थी. वह दरांती लेकर दौड़कर मेरे पास पहुंची पर सांप तब तक घास में फिसलता कहां चला गया, पता ही नहीं चला. देखते ही देखते दूसरी औरतें भी आ गईं. मैंने उन्हें सांप का हुलिया बताया कि पतला और लंबा था, हरे रंग का था. ‘अरें ये हरे वाले सांप तो ऐसे ही होने वाले ठहरे. इनमें जहर थोड़े होने वाला हुआ. खाली देखने के सांप हुए ये.’ उनमें से एक महिला ने सांप के रंग की बात सुनते ही कहा और वे वापस अपनी-अपनी जगह जाकर घास काटने में तल्लीन हो गईं. मैंने सांप को खोजने की बहुत कोशिश की, पर वह नहीं ही दिखा.

सांप से मेरी एक और दिलचस्प मुठभेड़ हुई. मैं उन दिनों पांचवीं या छठी में रहा हूंगा. वहीं ठूलीगाड़ में रहते थे. ऊपर ही एमईएस यानी मिलिट्री इंजिनियरिंग सर्विसेज वालों की बड़ी कॉलोनी थी. मैं रोज कॉलोनी के लड़कों के साथ खेलने जाता था. एक रोज शाम को खेलते हुए लड़के अचानक सांप-सांप चिल्लाने लगे. इससे पहले कि मैं सारे लड़कों को पीछे करके आगे बढ़ता मैंने देखा कि वाकई एक सांप था, जो देखते ही देखते एक बड़े बिल में समा गया. उस दिन हम सारे लड़के फुर्सत में थे. जैसा कि उन दिन होता था, मैं इन सभी लड़कों का लीडर था और चूंकि साहसी कार्यों में हमेशा लीडर को ही आगे रहना चाहिए, मैं ही सबसे आगे था. बहुत देर तक तो एक पेड़ की लंबी शाख तोड़कर उसे बिल में डालकर सांप को बाहर खुले मैदान में लाने की कोशिश की गई पर सांप जिद्दी था, नहीं निकला. तब मैंने तुरंत कुछ सुखी घास और माचिस की व्यवस्था की और बिल के मुंह से घास डाल उसमें आग लगा दी. हम टकटकी बांधे बिल को देख रहे थे कि सांप अब निकला कि तब निकला.

संभवत: सांप बहुत देर तक मुसीबत टलने के इंतजार में अंदर दम साधे बैठा रहा पर जब उसका दम घुटने लगा तो उसने अंदर से ही छलांग मारी. वह बिल से करीब पांच मीटर दूर ठीक मेरे सामने गिरा. मैंने सभी लड़कों को पत्थर लेकर तैयार रहने को कहा हुआ था. जैसे ही सांप गिरा वैसे ही वह एक ओर भागा. उसकी गति घुड़पछाड़ जैसी ही थी. लड़के पत्थर मारने को हुए तो मैंने सबको रोक दिया. रुको, पहले मैं मारूंगा. मैं चिल्लाया और तब मैंने भागते हुए सांप की ओर निशाना लेकर पत्थर मारने शुरू किए. निशानेबाजी में मैं कोई तुर्रम खान तो नहीं था पर उस रोज बाकी के लड़कों में मेरी धाक जमनी थी, तो कुछ तो खास होना ही था. मेरा पहला ही पत्थर सांप की कमर पर पड़ा और वह दोहरा हो गया.

उम्र बढ़ने के साथ सांपों समेत जानवरों के प्रति विकसित हुई अपनी मैत्रीपूर्ण भावनाओं का लिहाज रखते हुए मैं आगे के दृश्य का सजीव वर्णन नहीं करना चाहता. सिर्फ इतना ही कि एक बार एक सांप ने मेरे साथ हद दर्जे की धूर्तता दिखाई. पर यह वारदात पहाड़ में नहीं बल्कि राजस्थान में हुई जहां मैं आठवीं कक्षा में सिर्फ एक साल के लिए गया था. छुट्टियों के दिनों में मुझे समझ नहीं आता था कि समय कैसे गुजारूं. जब राजस्थान की तपती में लोग अपने-अपने घरों में सो रहे होते, मैं बाहर भटकता रहता. एक बार ऐसे ही भटकते हुए मुझे खयाल आया कि क्यों न मैं तोते का बच्चा पाल लूं. वहां नीम के बड़े-बड़े पेड़ हुआ करते थे और कई पेड़ों में कोटर होते थे, जिनमें तोते अपने बच्चे पालते. तोते का बच्चा पाने के लिहाज से मैंने एक बार ऐसे ही एक कोटर में हाथ डाला और जो चीज मेरे हाथ लगी उसे तोते का बच्चा समझ बाहर खींचा, तो देखा मेरे हाथ में एक सांप की पूंछ थी.

खैर, किस्से वाला सांप दूसरा है. एक ऐसी ही दोपहर जब मेरा वक्त काटे नहीं कट रहा था मेरे मन में विचार आया कि क्यों न मछलियां पकड़ के लाई जाएं. मुझे तार और कांटे से मछलियां पकड़ने का बहुत अभ्यास था. जम्मू में, जहां मैं करीब डेढ़ साल रहा और किसी तरह कक्षा दो और तीन वहीं से उत्तीर्ण कर पाया, एक छोटी-सी गाड़ में लगभग पूरे साल ही मैं मछलियां पकड़ने का खेल खेलता था. मैंने फटाफट आटा गूंथा ताकि कांटे के मुंह में लगाकर मछलियों को खींच सकूं और अपने औजार एक थैले में डाल पास ही स्थित एक तालाब में पहुंच गया. उस दिन मेरा क्या जो भाग्य था कि एक के बाद एक मछलियां फंसती गईं. जैसे-जैसे मछलियां फंसती मैं उन्हें अपने पैरों से कुछ दूर रखे थैले के सुपुर्द कर देता. मछलियों का साइज भी अच्छा-खासा था. सात-आठ मछलियां हो गईं, तो मुझे लगा अब घर चलना चाहिए. मैं मछलियों को समेटने लगा, तो वहां मछलियां कम दिखीं.

अभी मैं उन्हें समेटकर बैग में डाल ही रहा था कि एक बड़ा-सा काला सांप लहराता हुआ मेरी ओर आता दिखा. उसे देखते ही मैं माजरा समझ गया. तो ये जनाब कर रहे हैं मेरी मछलियों की पार्टी. मैं उससे अकेले भिड़ने की मूड में नहीं था. वह आकार में भी लंबा और हृष्ट-पुष्ट था. मैंने बैग उठाया और घर की राह जाने वाली पगडंडी पर हो लिया. जरा-सा आगे जाकर पीछे पलटा, तो देखा कि वह सांप बल खाते हुए मेरी ओर ही बढ़ा चला आ रहा है. अब जाकर मेरी भय की ग्रंथी खुली और कदमों में रफ्तार उतरी. मैंने दौड़ लगाई और घर पहुंचकर ही दम लिया. मां को मैंने मछलियों वाला थैला थमा दिया. मैं उस सांप की बाबत भूल-भाल गया. हमारा घर फौजी घर था. पिताजी तब सीआईएसएफ में थे. घर का प्रांगण खुला हुआ था और अंदर एक बहुत बड़ा कमरा था. प्रांगण में ही एक ओर मां ने चूल्हा बना लिया था. इसी प्रांगण में एक ओर नल लगा हुआ था, वहीं बर्तन वगैरह धोए जाते थे.

मेरी छोटी बहन तब सात-आठ साल की रही होगी. उसे मां के कामों में हाथ बंटाने का शौक था. वह मां के हाथ से एक-एक मछली ले अपने अंदाज में एक-एक कर उन्हें धो रही थी. एक मछली अचानक उसके हाथ से फिसल कर नाली में चली गई. यह नाली घर के बाहर मुख्य नाली में खुलती थी. मछली कहीं बीच में अटकी हुई थी. बहन हाथ डालकर उस तक पहुंचने की कोशिश कर रही थी. उसे कामयाब न होते देख मां ने मुझे आवाज लगाई.

मैंने झुककर नाली में झांका तो अचानक मुझे कोई चीज हिलती हुई दिखी. मैंने तुरंत छोटी बहन का हाथ अंदर खींचा और इतने में ही मछली मुंह में ले एक सांप ने भी नाली के रास्ते घर में प्रवेश किया. मैं उसे देखते ही पहचान गया. यह वही सांप था, जो तालाब से मेरे पीछे लगा था. सांप को देख मां उछल पड़ी. मेरे लिए सांप की ये हिमाकत कि वह घर के अंदर घुस गया बर्दाश्त से बाहर थी. मैंने बहन को अंदर बुलाया और मां को एक ओर कर दिया. अब मेरे हाथ में वहां रखी मां की दराती थी. मां इसी से सब्जी काटती थी. मैंने दराती को फर्श पर घसीटते हुए सांप की ओर जोर से फेंका. पर निशाना चूक गया. सांप अब तक मछली तो निगल ही चुका था. इतना कोलाहल सुन पड़ोस में रहने वाले अंकल फौजी डंडा लेकर आ गए. लेकिन उनके आते-आते सांप फर्श पर फिसलते हुए नाली की राह वापस घर से बाहर निकल गया. अंकल बड़ी नाली में देर तक उसे खोजते रहे. पर वह नहीं मिला. उसके बाद मैं जब तक उस घर में रहा मेरी नजर हमेशा नाली पर ही टिकी रहती कि जाने कब वह सांप शिकार की तलाश में लौटकर आ जाए.

(जारी)

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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Girish Lohani

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