पहाड़ और मेरा बचपन – 9
(पिछली क़िस्त : कंचों के खेल ने साबित किया कि मैं कृष्ण जैसा अवतार था)
(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)
दिल्ली में हमारे बीच एक और बड़ा लोकप्रिय खेल था लट्टू चलाने का. जिन दिनों इस खेल का फितूर चढ़ता था, तो सब लट्टूमय हो जाता. मुझे लट्टुओं के अलग-अलग रंग बहुत अच्छे लगते थे. वे बहुत ही चटख रंग होते थे. लट्टू का खेल ऐसा होता था कि उसमें अपने लट्टू से दूसरे के लट्टू पर प्रहार करना पड़ता था, इस उद्देश्य से कि हमारे प्रहार से दूसरे का लट्टू फट जाए और चलाने के काबिल न रहे. इसलिए हर खिलाड़ी अपने लट्टुओं में नीचे लगी कील को पैना करता. पर उसे ज्यादा पैना करने पर डर यह रहता कि कहीं लट्टू घूमना कम न कर दे. वह लट्टू ही क्या जो घूमे ना. हम लट्टू घुमाने के एक से बढ़कर एक करतब दिखाते थे. नीचे चलते हुए लट्टु को दो उंगलियों के बीच के रास्ते से हाथ में ले लेते. लट्टू को रस्सी से छोड़ने के बाद उसके जमीन छूने से पहले ही उसे वापस उठाकर अपनी हथेली में ले लेते. किसका लट्टू कितनी देर घूमता है, इस स्पर्धा के लिए सीमेंट वाला चिकना फर्श तलाश किया जाता और घंटों तक यह स्पर्धा चलती रहती. लट्टू तो आज के बच्चों के पास भी दिखे मुझे, पर उनमें पुराने लट्टुओं सी बात नहीं मिली. वे बहुत ज्यादा चमकीले और शहरी टाइप लगे, जबकि हमारे टाइम के लट्टू रंगबिरंगे होते हुए भी गांव वाले अक्खड़ ज्यादा लगते थे.
लट्टुओं के अलावा हमारे बीच उन दिनों टायर चलाने का खेल भी हुआ करता था. इसमें साइकल के टायर से लेकर स्कूटर, बाइक, कार, किसी का भी पुराना टायर चल जाता. लेकिन सबसे ज्यादा मजा साइकल के पुराने टायर चलाने में आता था. टायर जितना पुराना हो और जितना लचक लेता हो उसे चलाना उतना ही चुनौतीपूर्ण होता था.
अक्सर जब मेरी बारी आती तो साथ के लड़के तरह-तरह से मुझे डिस्टर्ब करने की कोशिश करते, पर कैसे भी ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर आ जाऊं, मैं टायर को गिरने नहीं देता और ऐसा करते हुए मुझे खूब मजा आता. अक्सर टायर चलाते हुए मुझे अपनी फटी कमीज एक ओर होने से उघड़ पड़े पेट को ढंकने के लिए एक हाथ से कमीज का छोर पकड़ना पड़ता था. बचपन में मेरी नाक भी बहुत ज्यादा बहती थी. तो यदा-कदा बाहर निकल आई नाक को ऊपर खींचने पर भी मुझे ध्यान लगाकर रखना होता था क्योंकि एक निश्चित दूरी तक पहुंच जाने के बाद उसे वापस भीतर खींच पाना मुमकिन नहीं रह जाता. यह नाक बहने वाली चुनौती बहुत लंबे समय तक मेरे जीवन में रही. मुझे लगता था कि यह मेरे जीवन का अविभाज्य हिस्सा है. चूंकि वह लगभग साल भर ही मुसलसल बहती थी, मैं उसके नियंत्रण के मामले में बहुत एक्सपर्ट हो गया था और जानने लग गया था कि कब मुझे उसे ऊर्ध्वतर खींचने की बजाय धरती मां के हवाले कर देना है.
यह अभ्यास खास तौर पर तब मेरे बहुत काम आता था, जबकि मैंने नई कमीज पहनी होती. नई कमीज साल में एक या दो बार ही मिला करती थी और पहले कुछ दिनों तक मां की उस पर नजर रहती थी कि खेलते हुए ज्यादा गंदी तो नहीं कर लाया. यह मेरे बचपन में इस तरह साइकल के पुराने फटे टायर चलाने की वजह से ही था कि बड़े होने के बाद मैंने जब भी मेरी तरह पुराने टायर चलाते बच्चे देखे, मेरे मन में उनके लिए अगाध प्रेम और सद्भावना उमड़ती रही. मैंने कम से कम उन्हें कभी इस तरह नहीं देखा कि जैसे वे गरीबों के बच्चे हैं और उनका कोई भविष्य नहीं. जिस देश का प्रधानमंत्री ही कभी चाय बेचने वाला रहा हो, जैसा कि दावा किया जाता रहा है, तब गरीब परिवार से आने वाले किसी भी बच्चे के भविष्य को लेकर कुछ भी तो तय नहीं माना जा सकता. वे अमीर अंकल लोग, जिन्होंने मुझे गरीब-बेबस मानकर ही चवन्नी-अठन्नी की खैरात दी, उन्होंने कौन-सा सोच लिया होगा कि यह लड़का बड़ा होकर भारतीय सेना में अफसर बनेगा और बाद में हिंदी का छोटा-मोटा साहित्यकार और एक राष्ट्रीय दैनिक का संपादक. मुझे पता नहीं क्यों बच्चों को देखकर लगता है कि कोई भी बच्चा, वह चाहे कितने ही गरीब परिवार से क्यों न आया हो, कुछ भी बन सकता है. वह मंगल ग्रह पर कदम रखने वाला पहला एस्ट्रोनॉट भी हो सकता है.
दिल्ली में अपने बचपन की जो एक और बहुत गहरी स्मृति है, वह रद्दी अखबार के लिफाफे बनाकर बेचने की है. घर पर ही मैं आटे को गीला कर उसकी लेई बना लेता और घंटों घंटों तक उसके अलग-अलग साइज के लिफाफे बनाता. ये लिफाफे मैं किसी भी परचून की दुकान वाले को बेचकर अच्छे पैसे कमा लेता था. पैसे कमाने का एक और सुनहरा मौका लोहड़ी के त्योहार में आता था. हम इस त्योहार के बहाने दो-चार लड़के इकट्ठा होकर किसी के भी घर में घुस जाते और फिर हमारा सामूहिक ‘सुंदरी-मुंदरी होय, तेरा कौन बिचारा होय, दूल्हा भट्टी वाला हेाय’ गान होता. मैं लाइनें बोलता और लड़के होय करते. आप खुद ही कल्पना कर सकते हैं कि मैंने इस गाने को कितनी बार गाकर कितने-कितने घरों से पैसा मांगा होगा कि यह गाना मुझे आज तक भी याद है. इस तरह देखा जाए तो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने की इच्छा बचपन में ही मुझ में धर कर गई थी, जो ग्यारहवीं तक आते-आते इतनी मजबूत हो गई कि मैं ट्यूशन पढ़ाकर अच्छा-खासा पैसा कमाने लगा. खैर, वे सब बातें बाद में. यहां एक और बचपन की नादानी के बारे में बताऊं – मैंने किसी से सुन लिया कि उड़ती हुई चील की परछाईं को अगर पैर के नीचे दबा दिया जाए, तो वहां खजाना मिलता है. आप खुद ही कल्पना कीजिए कि अठन्नी के लिए जो अमीर अंकलों को झूठ बोलकर उनसे पैसे मांग सकता है, उसने खजाना पाने के लिए उड़ती चील की परछाईं को अपने पैर के नीचे दबाने की कितनी कोशिश की होगी. कोशिश नाकाम होनी ही थी क्योंकि खुद मुझे कभी पता नहीं चला कि मैं परछाईं को पैर से छू भी पाया या नहीं. अब सोचता हूं कि इतनी कोशिश की थी तो कभी तो परछाई पैर के नीचे आई ही होगी, लेकिन ये खेल ही गरीब बच्चों के अमीर बनने की मंशा का मजा लेने वाला खेल था, इसका परछाईं पैर के नीचे आने से कोई वास्ता नहीं था.
बावजूद इसके कि दिल्ली के जीवन को लेकर स्मृति में अब भी बहुत कुछ है – मेरे दादाजी का देहांत और कुछ दिनों तक मेरा हमारे घर के ठीक सामने वाले घर में रहने वाली एक मां-बेटी के साथ रहना, इस दौरान एक दिन लड़की की मां को सिगरेट पीते हुए देख लेना और अगले कई दिनों तक अपने उसे ऐसा करते हुए देख लेने के अपराध-बोध से भरे रहना, मेरी गर्भवती मां का टैक्सी में बैठकर अस्पताल जाना और लौटते हुए साथ में एकदम छोटी-सी बहन को लाना- बहुत कुछ है, पर ऐसे तो कहानी दिल्ली में ही अटकी रह जाएगी, जबकि मुझे आप लोगों को पहाड़ लेकर जाना है, इसलिए यहीं इति करता हूं. अगले सप्ताह आपको जम्मू लेकर जाऊंगा, जहां, जैसा कि मैं बता चुका हूं मुझे अपने छोटे भाई को खोने का आघात लगा था, जो मुझे लंबे समय तक जब-तब भावुक करता रहा और जिसने बड़े होने पर मुझे यह समझने में मदद की कि आदमी के प्राणों का रखवाला हमेशा ऊपरवाला ही नहीं होता, कई बार इलाज कराने लायक पैसों की उपलब्धता भी जान बचाती है.
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