पहाड़ और मेरा बचपन – 11
(पिछली क़िस्त : जम्मू में नदी से मछलियां पकड़ना और अर्चना वर्मा की कॉपी से नकल करना)
(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)
अपने छोटे भाई के देहांत के बारे में बताने से पहले मैं एक छोटी-सी घटना का जिक्र करना चाहता हूं, जिसने मेरे बालमन को भगवान का इम्तहान लेने को मजबूर किया. हुआ यह कि मां ने मेरे लिए एक नई चप्पल खरीदी थी. बाटा की चप्पल. उन दिनों हमारे लिए बाटा से बड़ा कोई और ब्रैंड न था, सो जाहिर है चप्पल महंगी थी. उस दिन नदी में बाढ़ आई हुई थी पर बाढ़ में भी मैं घरवालों को चकमा देकर वहीं पहुंचा हुआ था. नदी में खेलते हुए अचानक मेरे एक पैर की चप्पल फिसलकर निकल गई और वह पानी में बहती हुई मुझसे दूर जाने लगी. मुझे काटो तो खून नहीं. नई चप्पल बह जाने का मतलब था घर पर पहले मां की डांट और फिर पिता की गर्दनपकड़छाप कर्री पिटाई. यह सब मेरे बालमन के लिए बर्दाश्त से बाहर था. डर के मारे मेरा कलेजा मुंह में आ गया. मैं नदी के साथ-साथ भागने लगा. ऐसे कैसे मैं नई चप्पल को जाने दे सकता था. अब दृश्य देखें. नदी के गश मारकर बहते मटमैले पानी में एक चप्पल गोते खाती, बीच-बीच में दिखती गायब होती बही जा रही है और नदी के साथ-साथ एक बच्चा रोते हुए दौड़ रहा है. वह दौड़ते हुए मन ही मन भगवान को पुकार रहा है क्योंकि पानी के बहाव को देखते हुए उसे लग रहा है कि चप्पल उसके हाथ से निकलने वाली है. जितना वह चप्पल के बह जाने के बारे में सोचता उतना उसे माता-पिता के हाथ पिटाई का डर सताने लगता और भगवान के लिए उसके दिल में उठ रहा आर्तनाद उतना तेज हो जाता. नौबत यहां तक आ गई कि उसने भगवान के अस्तित्व को ही चुनौती दे दी- अगर तू वाकई है और इस दुनिया को चला रहा है, तो मेरी चप्पल वापस दिलाकर दिखा. अगर चप्पल बह गई तो मैं यही मानूंगा कि तू है ही नहीं. भगवान के लिए कठिन घड़ी थी. वह जैसे उस आठ साल के रोते हुए बच्चे की निराशा को बर्दाश्त नहीं कर सकता था, एक किलोमीटर दौड़ने के बाद अंतत: चप्पल बीच में आए एक बड़े पत्थर के साथ लगे एक झाड़ में अटक गई. मैंने उसे थोड़े प्रयास के बाद सफलतापूर्वक नदी के बाहर खींच लिया. मैंने आसमान की ओर नजर उठाकर डबडबायी आंखों से भगवान को धन्यवाद दिया कि तूने मुझे पिता की मार पड़ने से बचा लिया. उस दृश्य का कोई गवाह नहीं था आसपास. पर वह दृश्य, जिसमें एक बालक अपनी नदी से निकाली नई चप्पल को हाथों में भींचे आसमान की ओर देखते हुए भगवान को धन्यवाद दे रहा है, मेरी स्मृति की नदी में हमेशा सतह पर ही तिरता रहा, जब तब मुझे याद आता हुआ.
अब मैं अपने छोटे भाई भीम के बारे में बताना चाहता हूं. मैंने हाल-फिलहाल उसे याद नहीं किया, पर ऐसा बहुत बार हुआ है कि मैंने उसकी मृत्यु की बाबत मां से कई सवाल पूछे. सात-आठ साल की उम्र में वह मेरे लिए ऐसे खिलौने जैसा था जिसके बिना मैं जी नहीं सकता था. मैं उसे अक्सर अपनी पीठ पर उठाकर घूमता रहता. मुझे उसके छोटे-छोटे गालों से अपने गाल सटाने में भी बहुत आनंद आता. शाम को कई बार मैं उसे हमारे घर के पीछे ही हरी घास से पटी एक समतल जगह पर ले जाता, जहां बड़ा भाई और छोटी बहन भी होते और हम तीनों ही उसके साथ खेलते. तीनों में उसे उठाने की होड़ लगी रहती थी. ज्यादातर मेरी छोटी बहन उसे अपने सीने से चिपकाए घूमती थी. उधमपुर में भीम दो साल का था. मैं उसकी आंखों की निश्छलता कभी नहीं भूला. उसके साथ खेलने के दृश्यों के अलावा मुझे और उसकी मृत्यु के पहले का दृश्य हमेशा याद रहा. रात का समय था. मैं सोया हुआ था. पर रजाई ओढ़कर मुझे गर्मी लग रही थी शायद इसलिए मेरी नींद बीच-बीच में उचट रही थी. ऐसे ही एक बार जब नींद उचटी तो मैंने आंख खोलकर देखा, मां हीटर के सामने भीम को गोद में लेकर बैठी हुई थी. मैंने उनींदी आंखों से ही मां को देखा और फिर सो गया. अगली बार मेरी नींद मां के रुदन से खुली. मां अब भी वहीं हीटर के सामने बैठी हुई थी और भीम उसकी गोद में ही था. पर मां चीखते हुए रो रही थी और ऐसा लग रहा था कि उसे रोका न गया, तो वह भीम को लिए हुए हीटर पर गिर जाएगी. इसके बाद के सारे दृश्य बहुत बेतरतीब हो जाते हैं. आस-पड़ोसियों की भीड़. सफेद कपड़े में लपेटा गया भीम का शव. मेरा स्कूल के रास्ते पर पैदल चलते हुए सोचना कि भीम कहां चला गया. उसकी मृत्यु की खबर कक्षा के बच्चों तक भी पहुंच जाना. उनके बीच फुसफुसाहट. क्लास टीचर का मुझसे पूछना – तुम्हारा भाई क्या नहीं रहा क्या? कितने साल का था? मुझे यह याद नहीं कि उस छोटी-सी उम्र में अपने सबसे प्रिय खिलौने के खो जाने के दुख को मैंने कैसे सहा. यह जरूर याद है कि उधमपुर छोड़कर जब हम पिथौरागढ़ चले गए, तो मैंने मां से सैकड़ों बार पूछा कि भीम की मृत्यु कैसे हुई. उसने मुझे बताया कि उसे डबल निमोनिया हो गया था. पर मां की यह बात कभी मेरे गले नहीं उतरी. मुझे तब भी लगता था और आज भी लगता है कि कोई भी बीमारी हो, अगर उसका ठीक से इलाज किया जाए, तो वह ठीक हो जाती है. अब मैं तर्कसंगत होकर सोचता हूं तो समझ आता है कि भीम की मृत्यु में हमारी गरीबी की भी भूमिका थी.
उधमपुर हमारे परिवार के लिए बहुत अच्छी जगह नहीं साबित हुई. सिवाय इसके कि मैं नदी-नाले में जाकर मछलियां पकड़ लाता था, वहां हमारा जीवन कष्टदायक था. कष्टदायक इसलिए क्यों माता-पिता बहुत तकलीफ में थे. मेरे पिताजी सेना में हवलदार यानी एक नॉन कमिशंड ऑफिसर थे, पर शुरू से उनकी कोशिश रही थी कि वे ऑफिसर बनें. इसके लिए उन्होंने सात बार सर्विस सेलेक्शन बोर्ड की लिखित परीक्षा पास भी की, पर सातों बार वे इंटरव्यू में रह गए. अफसर बनने की उनकी इतनी जबरदस्त इच्छा थी कि जब उन्हें लगा कि उनकी इच्छा कभी हकीकत में नहीं बदल पाएगी, तो उनका मानसिक संतुलन गड़बड़ाने लगा. उधमपुर में ही पहले पहल उन्होंने दीवारों से बातें करना शुरू किया. वे अपने में ज्यादा खोए रहने लगे. वे थोड़ा कम सांसारिक हो गए. बच्चों से भी वे बातें नहीं करते थे. उनकी दोस्ती सिर्फ और सिर्फ शराब से थी. आज समझ आता है कि भाई भीम की मृत्यु के लिए पिताजी की मानसिक स्थिति भी कुछ हद तक जरूर जिम्मेदार रही होगी नहीं तो निमोनिया इतनी घातक बीमारी भी नहीं कि उससे किसी को बचाया न जा सके. मुझे तब तो कभी समझ में नहीं आया जब मैं पिताजी को दीवारों से अकेले ही बात करते हुए देखता था, पर बड़े होने के बाद मैंने सड़कों, चौराहों पर बहुत सारे पागलों को अकेले बातें करते हुए सुना, तो मुझे पिता याद आए. यह मेरे लिए कम हैरानी की बात नहीं थी कि उस तरह घंटों दीवारों से बात करने वाले पिता, जिन्होंने बच्चों की परवाह किए बिना फौज की जमी-जमाई नौकरी छोड़ दी और परिवार को बिना किसी योजना के सीधे पिथौरागढ़ उठाकर ले आए और फिर अगले दो साल तक बेरोजगार रहे, वे पागल हुए क्यों नहीं? यह सब लिखते हुए इस संयोग पर भी ध्यान जा रहा है कि उनके पुत्र के रूप में मैंने अंतत: उनकी सेना में अफसर बनने की इच्छा पूरी की और इस पर आप क्या कहेंगे कि मैंने भी उनकी तरह ही बिना किसी योजना के अचानक सेना की नौकरी छोड़ दी. और यह संयोग भी कि पिता की तरह ही मेरी आखरी पोस्टिंग भी उधमपुर ही थी.
(जारी)
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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नदी से बाटा की रिकवरी होने पर ईश्वर के धन्यवाद ज्ञापन का बहुत सुंदर बिम्ब खींचा है।
आगे छोटे भाई को श्रद्धांजलि, परिवार की दारुण-स्थिति वैसे ही आई है जैसी स्मृति-पटल पर रह गई हो। सही मायने में संस्मरण ।