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सिनेमा: फिल्म निर्माण में एक सफल प्रयोग की कहानी

आज जब हम इंटरनेट पर जॉन अब्राहम के नाम से खोज शुरू करते हैं तो सबसे पहले 1972 में पैदा हुए केरल के बॉलीवुड़ी अभिनेता जॉन अब्राहम के बारे में जानकारी मिलती है. थोड़ी सी मशक्कत के बाद थोड़े पुराने जॉन अब्राहम के बारे में भी पता चलता है जो 1987 में मात्र 49 साल की आयु में इस दुनिया से रुखसत कर गए. ये दूसरे जॉन अब्राहम पहले जॉन से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं और आज तक सिनेकारों और एक्टिविस्टों के आदर्श बने हुए हैं. फ़िल्म इंस्टीट्यूट पुणे से सिनेमा में प्रशिक्षित हुए जॉन अपने गुरु ऋत्विक घटक की तरह ही अपने जीवन काल में कल्ट बन गए. उनके कल्ट बनने में सबसे महत्वपूर्ण योगदान उनकी अगुवाई में चले ओडेसा फ़िल्म आन्दोलन का है जिसने ‘अम्मा अरियन’ जैसी विश्वस्तरीय फ़िल्म का निर्माण किया. प्रोडक्शन के एकदम नए माडल यानि लोगों से एक–एक रुपये हासिल करके उनका सिनेमा निर्मित करके किया.

1984 में जॉन ने अपने सिने प्रेमी दोस्तों के साथ ओडेसा फ़िल्म समूह की स्थापना की. इस समूह का मकसद सिनेमा निर्माण और वितरण को नए सिरे से परिभाषित करना था. इस समूह ने सार्थक सिनेमा को लोकप्रिय बनाने के लिए कस्बों से लेकर गावों तक विश्व सिनेमा की कालजयी फिल्मों की सघन स्क्रीनिंग करते हुए नए जिम्मेवार दर्शक बनाए. कई बार किसी फ़िल्म के मुश्किल हिस्से को समझाने के लिए ओडेसा का समूह का एक्टिविस्ट फ़िल्म को रोककर उस अंश को स्थानीय मलयाली भाषा में समझाता. 1986 में जॉन ने अपने समूह के लिए ‘अम्मा अरियन’ का निर्माण शुरू किया. यह उनका ड्रीम प्रोजक्ट था. इस फ़िल्म के जरिये वे फ़िल्म सोसाइटी आन्दोलन को एक ऐसी पारदर्शी संस्था में बदलना चाहते थे जो पूरी तरह से अपने दर्शकों के प्रति उत्तरदायी हो. इसी वजह से उन्होंने ‘अम्मा अरियन’ के निर्माण के खर्च के लिए चार्ली चैपलिन की मशहूर फ़िल्म ‘किड’ के प्रदर्शन कर चंदा इक्कठा करना शुरू किया. इसी वजह से इसकी लागत को कम करने का निर्णय लेते हुए सिर्फ वेणु और बीना पॉल जैसे प्रशिक्षित सिनेकर्मियों को टीम में शामिल किया. वेणु ने फ़िल्म का छायांकन किया जबकि बीना ने सम्पादन की जिम्मेदारी सभांली. बाकी सारा काम स्थानीय लोगों की मदद से किया गया. एक–एक रूपये के आम सहयोग से कुछ लाख रुपयों में बनी इस फ़िल्म में इसी कारण अभिनेता अभिनय करने के साथ–साथ शूटिंग की लाइटों को भी एक लोकेशन से दूसरी लोकेशन में ले जाने का काम करते थे. केरल के नक्सलवादी राजन के मशहूर पुलिस एनकाउंटर को कथानक बनाती यह फ़िल्म राजन के साथियों द्वारा उसकी लाश को लेकर उसकी मां तक पहुँचने की कहानी है. इस यात्रा में एक शहर से दूसरे शहर होते हुए जैसे-जैसे राजन के दोस्तों का कारवाँ बढ़ता है वैसे–वैसे हम उन शहरों की कहानी भी सुनते जाते हैं. एक अद्भुत नाटकीय अंत में हम इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग को फ़िल्म के भीतर एक दूसरी स्क्रीनिंग का हिस्सा बनता हुआ देखते हैं. यह नाटकीय अंत जॉन ने शायद अपने फ़िल्म आन्दोलन प्रेम के कारण ही बुना था. आज ओडेसा आन्दोलन उस तीव्रता से मौजूद नहीं है लेकिन तमाम नए सिने आंदोलनकारियों के लिए ‘अम्मा अरियन,’ ओडेसा फ़िल्म प्रयोग और जॉन आज भी आदर्श बने हुए हैं.

संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.

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Sudhir Kumar

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