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छिपलाकोट अंतरयात्रा : चल उड़ जा रे पंछी

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अंतरयात्रा : वो भूली दास्तां, लो फिर याद आ गई

सुबह हो गई है. मौसम बिलकुल साफ है. सब लोग उठ गये हैँ. कोने में नाक पर उंगलियां हटाते दबाते भगवती बाबू सांस ऊपर नीचे कर प्राण साधना में लगे हैँ.फिर उनका जप शुरू होगा. उनकी जलाई अगरबत्ती का धुंवा ऊपर को उठ रहा है और चट्टान के किसी छिद्र से धूप की एक रेखा धुँवें से मिलती उस पर हावी होने की कोशिश कर रही है.

भगवती बाबू से एक बार मैंने कहा भी कि प्राणायाम करते धूप – अगरबत्ती मत सुलगाया करिये,वो भी इतने ऊँचे शिखर में जहाँ वैसे ही ऑक्सीजन की कमी है तो बोले, “हाँ, बात तो बिलकुल सही कही, मेरी भी सांस कई बार बुजती है पर देबता के आगे आते ही जोत जगाने धूप जलाने की आदत जो पड़ गई. अब्ब क्या करूँ फिर “

“जमाने के साथ जी भगवत डिअर. ये धों -फौँ कर,धूप बत्ती के आसरे, बर्त उपवास कर क्यों प्राण सुखाता है? वैसे भी बाकी कुछ है नहीं एक करंट के सिवा, वह निकली तो सब हलचल, ध्यान योग खतम. इहलोक न रहा तो परलोक कहाँ?” रेंजर साब न जाने किस कोने से सुन रहे थे सो तुरत बोले.

भगवती बाबू बड़ी देर चुप रहे. उँगलियों में लपेटी जनेऊ वापस कंधे में बराबर करते बोले फिर,

“इस टुक में आके चिता रहा कि सब मन का खेल हुआ. हवा जैसा डोलता है मन-‘यत्र पवनस्तत्र मनः’. मन क्या हुआ? कुछ संकल्प – कुछ विकल्प. अब की आदत पड़ गई इसी शिव के भरोसे रहने की तो चलते रहे. कभी बीते दिनों में गये तो कभी कल की सोची. चड़क हुई तो शिव चसक पड़ी तो शिव.

अब ये जो चिताक है जिसमें जी रहे तो उसके लिए तो बस चिताना पड़ता है. इसे चेतना का जोग कह लो. ये न बहती है, न ठहरी हुई मानो. मन भी ऐसा ही हुआ. चाल भरा -कपटी.जितने हों -उतने उकाव हुलार इसके, ये इथें -उथें चाने वाला. कबै ठाठ से भरा. कभी कुछ कसैक, कभी कोई क्वीड़ में उलझा. कुदास से भरा, कुनसठ रचने वाला, कभी चौड़-छलबलाट से भरा., कभी छि- कभी छितरयाट. इसीलिए जाग जरुरी है रेंजर साब.”

“जोत जरुरी है. झक्क होना पड़ता है कोई झस- झसाट नहीं.तुम कभी ठिठाठ लगाओ ,कभी ढिल पड़ जाओ, कभै तौल्याट करो? क्या मिला खाल्ली थरथराट ना? द! दलिदर ही रहे जैss के कुनी दालदरीयोव- द्वेराट. खाल्ली किs दोँकार हुई. केss होल, कब जैss होल? अब बीड़ी – सिगरेटे कि फूक लगाला, दारू सपोड़ला-हकाहाक करला? चुड़भुड़ाट नि होल ठीक.”

“तबै कुनीss महराज, अमन चैँ बरमांडपन, चंचल मन त छितराटsए करोल रेंजर सैबौ , सुण नौ छा”?

“अंsss.चै चिते बेर पहुंची भया भगवती पंडित. भली के समझ गयीं मैं. बटुक भैरव जस ध्यान लाग रौ आज तुमी कें. अब हमार त उई किस्स भै भगवत ज्यू कि शिब ज्यू आफी उताण, वर कि द्याल?किले हो दीप बाबू, तुम के चितूँण लाग रौछा? मेरि त खाल्ली बलबलाट भै.

बड़ी देर दीप रेंजर साहब का सवाल सुन आंखे मूँद पसरा रहा फिर उनकी ओर देख बोला,

“मैंss, मैं क्या कहूं? बस ये जिस शिव की बात हो रही वह क्या ऐसी स्थिति नहीं जहाँ सिर्फ और सिर्फ खालीपन है. सब शून्य. फिजिक्स से आगे जो मैं पढ़ता- पढ़ाता हूं. उसमें यह शून्य तो “मैं” के मिट जाने से पैदा होता है”.

“जो अचेत न करे वो कैसा देवता”? ये बात मेरे बाबू भी कहते हैँ.

शिव शिव शिव शिव सदाशिवा….
महा महा महा महा महादेवा….

बाबू समझाते कि शिव का अर्थ है -‘ वह जो नहीं है’ और दूसरी ओर सृष्टि है -‘जो है ‘. अब सृष्टि के पार, सृष्टि का स्रोत वही हुआ ना! ‘ जो नहीं है ‘.

 “फिजिक्स पढ़ते – पढ़ाते यह समझ में आता है कि भौतिक से आगे जाएँ तो सब शून्य हो जाता है -ऐसा खालीपन जहाँ फिजिकल कुछ भी नहीं है. अब जब भौतिक कुछ है ही नहीं तो हमारे सारे सेंस -सारी ज्ञान इन्द्रियां भी बेकाम हुईं”.

 “मेटा फिजिक्स कहता है कि जो नहीं है उसका अस्तित्व भी नहीं है. शिव शब्द का अर्थ तो यही हुआ कि जो नहीं है पर शब्द के अर्थ से परे इस शब्द की शक्ति, इसके उच्चारण की ध्वनि को समझने में बड़े -बड़े साधक लगे रहे”.

सबके यही प्रयास रहे कि ध्वनि और आकार के मध्य के सम्बन्ध को जाना जाय. इसके जोग से कुछ ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि ‘शि’ की ध्वनि जो नहीं है, रूप रहित है, निराकार के सबसे नजदीक है.तो इसके सही उच्चारण से ही अंतर्मन में उथल पुथल – विस्फोट होना संभव है जिसे नियंत्रित करने समायोजित करने को वाम से निकला शब्द ‘व’ है.जिसका अर्थ है दक्षता. ‘शि’ की शक्ति को संतुलित करने के लिए ‘व’ का योग जरुरी है.

फिर जो भक्त को अचेत न करे वह देवता ही कैसा?

शिव.

शिव जो यहाँ है सृष्टि के आरम्भ से. वेदों के रूद्र, पुराणों के शिव.

सब के भैरव – भोले शंकर, कभी वैरागी कभी शिकारी, कभी तांडव तो कभी नटराज. इस समूची सृष्टि को यम – नियम में सूत्र बद्ध करने वाले, नियम के लिए विध्वँस करने वाले. सदा जीवित सदा शिव. कैलाश में, शमशान में. छिपला केदार में. हर हर हर महादेव.

भगवती बाबू अब केदार देबता की कथा सुनाने लगे. बोले कि केदार देबता के पिता कोडिया नाग हुए तो माता मैंणा बाई. इनके दो बड़े भाई हुए उदैण और मुदैण. बाकी सात बहनें हुईं जिनमें होकरा देवी का मंदिर नीचे खेला गांव में हुआ तो सबसे छोटी बहिन कोकिला देवी का थान कनार गांव में हुआ जो छिपला श्रृंखला के बीचों बीच स्थित है. केदार देवता की अन्य पांच बहनें नंदा देवी,कालिका देवी, चानुला देवी, व कोडि गाड़ी देवी हुईं.

लोक विश्वास हुआ कि छिपला केदार का बचपन पत्थर कोट में बीता जिसे खलछाना भी कहा गया.ये जगह नेपाल में काठमांडू के पास नुवाकोट में ठेहरी.इस काथ में बासुकीनाग की नौ सन्तानों में केदार देव सबसे छोटे हुए. इनके बड़े भाई बुड़ केदार, थल केदार, ध्वज केदार, बाल केदार, उदायन और मुदायन हुए. अब सबसे छोटे हुए छिपला केदार तो अपने भरे पूरे परिवार में सबके लाडले हुए खास कर अपनी भाभियों के. ऐसी प्रीत देख भाइयों के बीच भैम पड़ गया. बिख भर गया ऐसा कि बिखिल हो गये.सबसे जेठा तो ऐसा निठुर,इतना बैच्याल हुआ कि अपने भाई की घात लगा पटकताल की तैयारी कर गया पर कौन भाई अपने भाई के पराण हरे?

अब शुरू हुई केदार की पिताई, फ़ौतारी से मरवाने की चाल, बदौव चुलबुलाट. बखतक फेर कि उसके भाई उसे तराई के जंगल में छोड़ आए बागुण के साथ कि आएं जंगली जानवर और उसे नोच खाएं. कुछ टैम बीत गया केदार नहीं फरका तो सब भाई समझे कि बला टली. पर कहाँ? ऐसी होनी हुई कि सकुशल केदार गोठ के द्वार पर जा खड़ा हुआ. तराई के जानवर, वहां के डाकू भी कुछ न बिगाड़ पाए. फिर-फिर उसे बहादुर जता खुद के बौल्याट से बागुणों के साथ काली नदी के पास के इलाके में भजौँण दिया,जहाँ बड़ा बेरहम राजा नाजुरीकोट का यार्मी-चार्मी रहता था. उसके बारह तो औलादें थीं. पूरे बड़े कुनबे के साथ बारह बीसी यानी दो सौ जंगली शिकारी कुत्ते जो उसकी सरहद पर किसी को घुसने नहीं देते थे.

अब केदार भी हुआ चालाक, उसके इलाके को भेद बामन के भेस में उसके महल में जा पहुंचा. चार्मी की घरवाली ने उसे देखा और साफ चेताया कि जैसे ही उसके पति और बेटे अपने खूंखार कुत्तों के साथ लौटेंगे तो फिर वह बच न पायेगा.इसलिए उनके फरकने से पहले ही अपना पिंड बचा ले.

अब सब शिकार मार लौटे तो भूखे थे.आते ही महल की पाण में सीढ़ी से चढ़ गये. अंदेशा हो गया कि उनकी गैरहाजिरी में कोई महल में घुसा है,तभी कुत्ते इतना बल्बला रहे हैं. सबने तय किया कि भूखे हैं अभी. पहले जम कर भोजन जीमें फिर देखें कौन आया हमारे हाथ अपनी मौत मरने.

जब सब खा पी पौण यानी सीढ़ी से नीचे उतरने लगे तो केदार ने सीढ़ी पलट दी. एक- एक कर सबको निबटा दिया. कोहराम मच गया. च्यार्मी की सबसे छोटी ब्वारी गर्भ से दी तभी इस हड़कंप में उसका शिशु जन्मा और केदार से चिपटी गया. कैसे भजौण हो इसकी, कैसे भनकाउँ पीठ से, सोचता ही रह गया. कहते हैं पूरे बारह दिन वह उससे केकड़े के माफिक चिपटा रहा. उधर केदार की बोज्यू को ग्यारहवें दिन स्वेण आया कि छिपला केदार बड़ी भूभामीण में है. अब उन्होंने काग को यानी कौवे को भेज यह बताया कि,’ के भूलि रौछे छिपला केदारा, छोलिंगा बिजौरा’ यानी निम्बू वाला फल बिजौरा किस्से छिलता है? तू भूल गया क्या?. तब छिपला केदार को ध्यान आया कि उसकी पीठ में चक्खू बंधा है अटक- बटक के लिए, जिससे उस चिपट गये शिशु को छुड़ाया जा सकता है. फिर क्या था शिशु को चक्खू से छवाड़ दिया. उससे जो खुन्योल हुई उसके निशान आज भी राता पौड़ में लाल पड़ी शिला में दिखते हैं. उस बालक की जीभ तवाघाट से नारायण आश्रम जाने वाली चट्टान पर है बिलकुल जीबड़ी जैसी. लोग बाग कहते हैं कि अमूस को ये एक अंगुल से हिलाने पर ही हिल जाती है, वैसे तो शिला हुई.

छिपला केदार के इस कारनामें से यार्मी-चार्मी का आतंक इस इलाके से निबटा दूसरी मान्यता ये पड़ी हो! कि छिपला केदार का वास नाजुरी कोट हुआ. इसी के चलते छिपला केदार जात में स्थानीय ग्रामवासी पहले अपने गाँवो से नाजुरी कोट पहुँचते हैं जहाँ छिपला कुंड हुआ. यहाँ अनेक कर्मकांड होने वाले हुए. इस कुंड का जल बड़ा पवित्र हुआ जिसे सब प्रसाद रूप में भर अपने घर लाते हैं. जब भी गांव पूजा अर्चना के बाद फरकते हैं तो वहां मेले सा भव्य आयोजन हो जाता है.छिपला केदार की छया निराली हुई. जस हुआ, ज्यून हुआ. तभी त्यूर हुआ इस जाग में शिब का.

क्यों हो पंत ज्यू? क्या कहते हो?

भगवती बाबू की ओर देख अपनी धीमी आवाज में दीप ने बोलना शुरू किया.

“सुनते आये हैं कि शिव शब्द के उच्चारण से वह सब जो हमारे भीतर है अंतरमन में, सारी संरचना जो हमारे कर्मों से बनी, भावना से जुड़ी, जीवन में एकत्रित हुईं, मानस में उपजी, उन सबको शिव ध्वनि के उच्चारण से शून्य में बदला जा सकता है. स्वयं को हर पुरानी चीज से स्वतंत्रता देता है ये शिव.

चलो हम भी उड़ लें.

सुबह से पूरा आकाश बादलों से घिरा पड़ा था. हयात दा को चिंता थी कि अगर ये बरसना शुरू हुए तो हमारा नीचे उतरना मुश्किल हो जायगा. सोबन ने बताया कि अगर मौसम सही रहे और बारिश से कीचड़ न हो तब भी तवाघाट तक पहुँचते हमें कम से कम नौ दस घंटे तो लगेंगे ही.

बादल हम पर मेहरबान न हुए. अचानक ही हल्की झुमझुमी शुरू हुई. सब फिर पिंगू उडियार के भीतर खोसिने को विवश हुए. भीतर चूल्हा सुलगा था. कुण्डल दा और भगवती बाबू कढ़ाई में आटे को घी में भून हलवा बना रहे थे. मेरे वहां तक पहुँचते उसमें डेग भर पानी डाल दिया गया और पण्यूँ से कुण्डल दा उसे तेजी से चलाने लगे. अब वह भूदकने लगा तो भगवती बाबू ने पूरे सेर भर की गुड़ की भेली को चाकू से भेदना शुरू किया और उसके टुकड़े कढ़ाई में खित दिये. मैं आग के पास ही खड़ा यह विधि देखता रहा जिसमें कुण्डल दा बड़ी तेजी से तेज आंच में सारा ठोस द्रव एकसार कर रहे थे जो भुदकने लगा था. मैंने अपने ठन्डे हाथों को सेकने के लिए जैसे ही चूल्हे के पास किया वैसे ही भुदकने से छिटकी छलकी गर्म बूंद हाथ पर पड़ी और जोर की चस्स कर गयी.

पीछे ही रहो अभी बहुत घुटेगा यह, खूब छींटे मारता है आटे – गुड़ का ल्योट.

रे सोबन, चाय चढ़ा रे. यहाँ की खुर बुर हो गयी.

आगे क्या करें हो हयात दा? उतर पाएंगे क्या?

धैँ! देखि रौलि. बरख आज ज्यादा ही होलि. उ मंथिल ग्वार तक सबे ढकी छोपी छ.

तस्स! दिनेकि खाण पिनेकि खुरबुरि ले कर दिनु पैss.

अंss.

उडयॉर के मुख पर एक शिला पर बैठा मैं अपने हाथ को देख रहा था जहाँ हलवे उर्फ़ ल्योट की भुदकती छीँट ने लाली के साथ जलन मचा दी थी.

दूसरे सिरे पर रेंजर साब बैठे थे और बड़े चैन से सिगरेट धोंक रहे थे. मुझे देख अपने हाथ का इशारा एक कोने की ओर किया. मैंने देखा शिला के उस कोने के झुरमुट में सिमटे सिकुड़े कौवे बैठे थे. शायद उनको भी आटे के हलवे की खुशबू चिता गयी थी. अपने हाथ की जलन भूल तुरंत मैं बैग से कैमरा निकालने बढ़ा. हयात सिंह जी भी वहीं बैठे थे. कुड़कुड़ाए कउवों का मैंने जब क्लोज अप खींच लिया तो बोले.

“ये बढ़िया शौक हुआ जो बीता उसकी यादगार”.

उनके इतना कहने तक उनके भी दो क्लोज अप मैंने खींच दिये और कैमरे को पोछता उनके समीप ही चौखा मोड़ कर बैठ गया.

बसोs, यां. अराम से.

बाहर द्यो और तेज हो गया था. इतने बादल कहाँ कहाँ से उठ जमा थे कि लगने लगा अंधेरा होने वाला है. कौवे भी अपनी जगह से हमें टूँग रहे थे और दीप अपने झोले से उनके लिए बिस्कुट निकाल रहा था.

ये सही किया आपने दीप बाबू, अब जब बिस्कुट दो तो काले कउवा का मंत्र भी पढ़ दो

“ले कउवा पुलेणी, मेंके दे भल भल धुलेणी”. रेंजर साब का मौन टूटा.

दीप ने पार्ले बिस्कुट का पैकेट खोला ही था कि कौवों में हलचल हुई. उसने झुरमुट के सामने ही बिस्कुट रखे तो उनमें से एक ने अपने तौरान भीगे पँख फटफटाए और सामने आ गया. वह उनका नायक होगा. कुछ ही मिनट में सबने पैकेट साफ कर दिया और फिर भीग भाग तिनपट्ट हो अपने घोल में जा बैठे.

बाहर तौड़ाट जारी था.

हयात सिंह ने मेरे कंधे में हाथ रखा और बोले

“काग हर जगह पहुँच जाता है. ऊपर भी आपने देक्खा ही होगा.

इस इलाके में “रं” समाज में खास कर पौराणिक धरोहर कि तरह एक प्रथा प्रचलित है माट्साब!जिसे ‘ग्वन’ कहा जाता है. जैसा आपके वहां गरुड़ पुराण हुआ, वैसा ही इस ग्वन संस्कार में होता है इसमें भी काक यानी कौवे की भागीदारी हुई.

अब आप सुण ही रहे हो तो बताऊँ कि ‘रं’ बोली में ग्वन का मतलब मृत्यु संस्कार से हुआ. सबसे पहले तो आपको यह बता दूँ के ये सब उस पौराणिक चली आ रही धरोहर का हिस्सा है जिसे हमारे बुजुर्गों ने संजो कर रक्खा.

रं समाज में आदि पुरुष तिलथिन हुए. तिलथिन के मियर मिसरू त्रिकाल दर्शी कौवा का तिते मतलब कौवे से दीक्षित जाने गये. जब उनके एक ही बेटे की अचानक मौत हो गई तो उन्होंने दीक्षा ली गई इसी विधि से उसका अंतिम संस्कार और करम कांड किया. इसमें मृत शरीर से निकली आत्मा का तर्पण किया जाता है.

अब आपुँ को बताऊँ एक पोथी के बारे में जिसका नाम ‘सैहयामो’ रहा इसको लिख गये श्रीमान जगत सिंह नबियाल जी. इसमें अनेक कर्मकांड और रीतियों का निचोड़ हुआ. दूसरी पोथी हुई, ‘खा मंगला स्यीस्यो फ्यूता’ जो पूरी तरह से कागपुराण पर हुई.

अजमतकाव लिख गये ठहरे दोनों खुकुरिटुक पूरी रायशुमारी से, आबदेव के बारे में. दोनों पोथीयाँ पढ़ गुन लियो त साफ पत्त लाग जां कि जो यो ग्वन संस्कार भै, उमें पुरि रं संस्कृति चिताई जै सके भलीके.पुरि चाण चितौण हुई, इलाके की रीत की, रहने ज्यून रहने के ढंग की. ताथ के साथ संजो गये परंपरा -रिवाज को. उसकी दैण हुई, पोथी परसिद्द कर गये.”

मतलब यहाँ की परम्परा, रीति – रिवाज, जीने का ढंग, समाज में उठने – बैठने का चलन सब इन दोनों किताबों में लिखा है? मैंने पूछा.

“हाँ हो. ये आत्मा के तरपण का जो तरीका हुआ जो संस्कार हुआ उसको ‘सयामो ‘ या ‘अमरीमो’ से ‘सयक्छा’ या ‘अमरीचा ‘ की खाप से सुनाया जाता है जिससे प्राण कहो या आत्मा इस लौकिक जगत से पार लौकिक जगत में तृप्त हो जाये. अमरीचा ग्वन की पोथी में लिखे का पाठ करता है. ऐसे पाठों को ‘हंगाओ’ कहा जाता है. इनमें यही कहा गया महराज कि हमारी – तुमारी देह यहाँ जो भोग रही वह तो बस माया हुई भरम का जाल हुई. इससे ऊपर जब उठे उस जगत में जिसे पार लौकिक कहना हुआ तो मृत काया से उठी आत्मा वहां पूरे विश्राम में आ जाने वाली हुई. इस गति में वह पितर हुई देव तुल्य हुई.

ग्वन के पाठ में कई कथाऐं हैँ.

हयात सिंह जी बताये जा रहे थे.

ग्वन के पाठ से येह चिताया जाता है कि सभी कुछ साध देने वाली शक्ति की पूजा का विधान क्या है. चौंदास में जिसे बम्बा भी कहा जाता है में, ‘स्यँसै ‘ और ‘स्यँस’ की पुज हुई. अमरीमो में यह बताया है कि ये तो पूजनीय आदि काल से हुए.

इसके लिए एक काथ कही गई.

अब ये संजोग ही हुआ माट्साब कि छिपला की इस जमीन पर, केदार के दरबार पर ये काथ मैं बाँच रहा हूं. तो सुनोss फिर.

तो काथ में कहा गया कि जब ये धरती बनी, अकास दिखा तब लायर कुटे नामक एक जाग हुई जहाँ दो भाइयों के साथ उनकी बेंणी मतलब बहन रहती थी. एक दिन उनमें से जेठा भाई जंगल में शिकार करने गया तो छोटा भाई नदी से माछ पकड़ने चला गया. बेंणी अपने घर में चूल्हे की आग के पास भिमे बैठ लाल मूंगे की माला को गछाने के काम में लगी रही. मूंगा गछाते- गछाते कब एक मूंगे का दाना आग में गिर गया उसने चिताया ही नहीं,पता ही न चला उसे. अब महराज जब मूंगे की माला पूरी गछी गई तो आगे चूल्हे की ओर देखती है कि उसमें आग तो छोड़ चिणुका भी नहीं है. वो लाल लाल जो दिख रहा वो तो गलती से छिटक गया मूंगा हुआ.

अब चूल्हे में आग जलानी तो जरुरी हुई. उसने राख खचोरी, क्या मालूम कोयले का कोई टुकड़ा मिल जाए. पर ना. चूल्हे में तो बस छारा था. अब पहले कोई माचिस तो होती नहीं थी कि फट्ट से आग पाड़ लो. वो तो खानपिंन करने के बाद जलते क्वेलों को छारे से छोप देते थे. अगली बार उनमें ही लकड़ी डाल फू फू कर आग सुलगाई जाती. या फिर सूखी घास और टहनियो के ऊपर डांसी पत्थर रगड़ते. इससे चिंगारी निकलती जिससे घास आग पकड़ लेती.

अब आज तो न कोई चिणुका और न उसके पास डांसी पत्थर. क्या जो करे वह?

अचानचक उसके दिमाग में आया कि कही मिले न मिले, कोई बताये न बताए बस सब दुख पीड़ हरने वाला कौवा का तीते तो जता ही देगा कि चूल्हा सुलगाने को आग कहाँ से जुटेगी.

अब उसने कौवे के तिते से पूछा कि बता आग कहां मिलेगी.

कौवे के तिते ने सुनी उसकी बात और बोला, मैं बताता हूं पर इसके बदले तू मुझे क्या देगी?

बहन बोली कि हे काक तिते, जब भी हम ‘बम्बा स्यँसै’ की पूजा कर उन्हें खुश करने के लिए तिब्बती बकरे की बलि देंगे तो उसमें आपका भाग होगा. आपको बकरे की दायीं टांग का हिस्सा भेंट किया जायेगा. और जब ‘स्यँठ’ की पूजा होगी तो भात का भोग सबसे पहले आपको ही लागेगा.

रं संस्कृति में वर्णित इस काथ को हयात सिंह जी के मुख से सुन मुझे कुमाऊं और गढ़वाल में मनाये गये त्यारों, सराद के पितृ पक्ष और खास कर्म कांड में कौवे की भूमिका याद आ गई.खास कर मकर संक्रांति के दिन काले कउवा मनाते दिन याद आ गये जब सारा मोहल्ला, सब बच्चे अपने गले में खजूरे की माला लटकाए अपने घर की छत आँगन से कौवे को धाल लगाती. छोटी लड़कियां धाल लगाती.

‘ले कउवा पूss लौ! मैं के दे भल भल धूलौss!

सराद में भी काव के लिए भात बड़ा अलग अलग रखा जाता.

दीप ने बिस्कुट का दूसरा पैकेट खोल दिया था. पैकेट खुला भी न था कि सारे कौवे अपने झुरमुट से निकल उसके बिलकुल पास आ गये थे.

कागपुराण सुना हयात सिंह जी ने अपनी खुकरी सिगरेट जला ली थी. ये काथ सुन मैं सोच रहा था कि अलग अलग परिवेश में एक ही तरह के रिवाज दिखाई देते हैँ, मिलती जुलती प्रथाओं का प्रचलन दिखता है. भले ही इनका आरम्भ कुछ भिन्न तरीके से क्यों न हुआ हो.

उडियार से बाहर मेघ जोरों से बरस रहे थे.

बैछाँट.

अब तो बातचीत करने,कुछ कहने के लिए भी जोर से बोलना पड़ रहा था. उकडूँ बैठे बैठे पीठ भी दर्द करने लगी थी और टांगे भी.

मन की मुराद पूरी करता सोबन गिलास भर चाय सामने टिका गया.

आज तो निकलना होगा नहीं सर. नीचे सब कच्यार हो गया होगा. रेस्ट डे हो गया आज.

मुझे सोच पड़ गए.उन्हीं में सिमट गया.

कितनी कथाऐं हैँ पहाड़ में, वही जो अपने गाँव घर में सुनी.सब कहीं न कहीं पलट के सुनाई दे जा रही हैँ. इस काग पुराण को ही ले लो जो अभी अभी हयात सिंह जी ने सुनाई , मैंने दीप से कहा जो मेरे बगल ही शिला पर पीठ टिकाए कौवों को बिस्कुट खाता देख भाव मुग्ध था.

“हाँ, सुन लिया. फिर सोच भी पड़े. मन में उथल पुथल भी हुई. संदेह भी हुआ कि क्या कुछ ऐसा ही हुआ होगा या कल्पना के तार जोड़ बस वह रचा गया, कहा गया जिस पर भरोसा कर सब खुश रहें, कोई अशांति न उपजे, जो करने को कहा गया वह कर दिया, उसकी एक विधि पनपी, सयाने ने कहा ऐसा करना है तो किया, ऐसे ही रिवाज पनपे. माने गये, अपनाये गये.संदेह भी होता है, शंका भी होती है. न जाने कितने आवरण भेद चीरता है. ये जो मन है ना, तर्क में भी उलझता है. वही द्वन्द फिर फिर. अब अविश्वास करो तो कुछ भी नहीं है. विश्वास करो, आस्था रखो तो उसकी अपनी चुनौतियाँ हैँ. सोचा तो यही जाता है कि ऐसा प्रकट अधिमान तय करें जो विवेक पूर्ण हो. जो भावनाओं से तुष्टिकरण भी पा सके. इसी मौज में द्वन्द से परे तो छिटकें. माना कि वह सब है देखना होगा न कि वह सब यहीं है. भीतर ही भीतर यही सब सिद्ध करने की प्रक्रिया चलती रहती है.”

लम्बे समय तक भौतिक वैज्ञानिक अपना दीप पंत, मेरी ही तरह दाढ़ी वाला चुप्पी साध गया. मौन गहरा. बाहर मेघ गरज रहे तड़तड़ाट हो रही. इतनी तेज बारिश कि आपस में कुछ बोलो भी तो दुबारा कहने के लिए हैँss हैँ ss कहना पड़ रहा.

सोच पड़ गये.

कैसा है ये पहाड़. कितना विशाल जितना देखा उससे आगे और आगे कितने आगे तक विस्तार लिए. ये छिपला कोट… ये छिपला केदार.

कुछ ही दिनों में इसने अपने कई रूप दिखा दिये हैँ. कई रंग मचलते हुए दिखे हैँ यहाँ की हिम में. यहाँ की बर्फ से ढकी पूरी नज़र घुमा के भी खत्म न होती. दिखती चोटियों को देखते निहारते मन न भरता. मन के भीतर की परत के भीतर इसका अवकलन -समाकलन लगातार चलता रहता. स्मृतियों को टटोलता क्या कुछ सिखा रहा, क्या कुछ रोप रहा और ऐसे एहसास को बल दे ही रहा कि हम आ ही गये इस शिखर पर.

ऐसे ही टुक, ऐसी ही चोटी पर चढ़ जाने की अपनी हसरत. बचपन से उभार ली हुई इच्छा. बड़ा संतोष मिल रहा उस छिपला कोट की धरती का हमसफर बनते जिसके बारे बोलते, वहां हो आये लोगों के चेहरों पर असीम तुष्टि का भाव दिखता. अब अपनी आँखों से उसे देख लिया. अपनी काया यहाँ तक पहुँच ही गई ऐसा संतोष घुल गया. संगी साथियों के साथ,ऐसे लोगों से मेल हो गया जो यहाँ के इतिहास,यहाँ के भूगोल के बारे में बहुत कुछ जता गये बता दिये. इस पूरे भू भाग में अपने सीमांत के इस शिखर पर तो बस यही लगा कि यहां है वास इस सृष्टि के कर्ता धर्ता का.

भगवती बाबू कहते हैं यहीं है शिव-शक्ति. यहीं हिमालय के असीम विस्तार में शिव-पार्वती का विचरण है. जिनकी कोई शरीरी संतान नहीं. बस यहाँ तो बस शिव हैं जो अपनी शक्ति पार्वती को अपने साथ नहीं अपने भीतर रखते हैँ.

तेरह हजार पांच सौ फीट की ऊंचाइयों पर स्थित वह दर्रा जहाँ है खुला खुला सा मैदान और यत्र-तत्र बिखरे छोटे छोटे मंदिर.यही तो था वह स्थल जहाँ आने की साध मन में मचलते रही. मेरे भीतर ही नहीं अपने इन सारे साथियों के भीतर भी कि कब जाना हो खाम्पादरज्यू जिसे छिपला धूरा का नाम भी दिया गया और इसके फैले मैदान को घुड़दाय. ठीक सामने नंदा देवी का शिखर और पंचचूली की विस्तृत श्रृंखला जो पूरी बाहैं फैलाये हमसे कह रहीं आओ और करीब आओ.अब इसी के बाएँ फैली दारमा घाटी भी दिख रही. जब यहाँ से नीचे उतरे तो तीखी खड़ी तिलथिन धार पार करने के बाद दिखाई देने लगा तवाघाट -पांगू का रास्ता जिस पर मैं कई बार चलते रहा.

तिलथिन धार के नीचे पसरा वह बुग्याल. जहाँ उसकी घास पर चलते और अनगिनत वनस्पतियों, छोटे बड़े पुष्पों को देख सम्मोहित होते रास्ता कब कट गया पता ही न चला. वहीं नीचे करीब बारह हजार फीट की ऊंचाई पर एक विचित्र सा उड़ियार भी देखा था जो बिलकुल टेंट की तरह था यानी कि दो ओर से खुला, दोनों तरफ से छेद वाला जिससे उसका नाम ही ‘दो छिन्या ‘उडियार’ पड़ गया था. यहाँ ठहरा जा सकता था पर आसपास कहीं पानी नहीं था. इससे और नीचे उतर फिर एक कुंड दिखा था जो सूखा था और इसे ‘ढंग ढंग कुंड ‘ के नाम से जाना जाता रहा.

उतरते हुए जब प्यास से गला खुसक हो गया तो उस ऊंचाई से नीचे घास के मैदान के बीच रेंजर साब ने कैमरा फोकस करने को कहा. दो सौ मि मी लेंस का कमाल कि उसने नजर टिका दी उस गोलाकार कुंड पर जिसे ‘बरम कुंड’ कहा जाता है. माना जाता है कि छिपला देव के बड़े पुत्र बरम देव के नाम पर इसका नाम बरम कुंड पड़ा.

छिपला जहाँ तेरह हजार तीन सौ फीट की ऊंचाई पर है तो वहां से करीब तीन घंटे नीचे ग्यारह हजार फीट पर उतर बरम कुंड है जिसमें आराम करने रात काटने के लिए एक काफी बड़ी उडयार थी.

रेंजर साब ने बताया था कि नीचे आस पास की बसासतों से जब स्थानीय जन जात ले कर आते रहे तो इसी बरम कुंड से ऊपर चढ़ केदार दौ हो कर विधि पूर्वक पूजा कर उसी दिन यहाँ फरक भी आते.

 असुविधा यही कि बीच में कहीं पानी नहीं और रास्ता भी बहुत लम्बा और ऊपर चढ़ने में तीखे ढाल वाला. बरमकुण्ड से पहले शुरू होने वाला बुग्याल और फिर नीचे उतरने में गणभूस धूरा से घने पेड़ और जंगल शुरू हो जाता जिसपर चलते उतरते सारी थकान मिट जाती.

फिर नीचे गणभूसधूरा को उतरता वह रास्ता जहाँ वन अपने पूरे युवा पन से स्वागत करते नजर आते. यहाँ चिड़ियों का शोर भी खूब और अलग -अलग किसम का भी. पशु पक्षियों से भरा, उनकी आवाजों से गूँजता. इसी के निकट आता मंथिल ग्वार जहाँ स्थानीय निवासी अपने जानवर खूब फैली इस वादी में चराते दिखते. यहाँ उनके लिए घास और जड़ी बूटी की कोई कमी नहीं.

लगातार पशुवों की आवत-जावत और उस पर बीच बीच में बरस गये बदरा इस अच्छे से रस्ते को खूब गोबर-कीचड़ से भर भी देते.बागुण इसी बाटे चढ़ते उतरते.यहाँ से आगे धार पर फिर उतार पर कठिन नहीं. यहाँ रस्ते में पड़ने वाली कंटीली झाड़ियां रास्ता खूब रोकती पिंखू उड़ियार तक. पिंखू उडियार खूब बड़ी पर उबड़ खाबड़. इसी समुद्र तल से दस हज़ार फीट की ऊंचाई पर स्थित इस उडियार ने आज खूब बरसते मेघों के रहते हमें पूरे दिन विश्रान्ति दी.पिंखू से नीचे घास और पेड़ पौँधों से भरा ग्वार दिखाई दे रहा.

ऊपर भेँक ताल की उडयार भी जहाँ रात को रुक सकते थे पर वह स्थान ऐसी जगह पर था जहाँ से छिपला धूरा और उसके नीचे पसरे बुग्याल और सघन वन आवरण नीचे तक पसरा दिखाई दे गया. यहीं से पुलोमा यानी दारमा – व्याँस पर्वत श्रेणी भी साफ दिखाई दी.

अगली सुबह आश्चर्य कि मौसम बिलकुल साफ, खुला खुला आसमान. उडयार से बाहर आते ही धूप के दर्शन.

बीते दिन तो बदाबद बारिश पाणि के तहाड़ों से बचने के लिए बस बैठे – सिकुड़े ही रहे.

कुण्डल दा बार बार कहते रहे

“आज के बुत धाणि नी हुँ पै! दिन धोपरि कस रातै ब्याव कस चितैई जाणे.यस्से लटड़ पतड में कटेलि.

बस्स. आड़-लाकड़ पातड इफरात में छन. धुणी पाणी ज़लै राखणी भै”.

“यो लौंड मौँड साव पाद पाद फुड़फुड़ाट करनई. बम पटाक. सब्बे लदौड़ पन ठंसी छ. लिसणयाट कर मरयांन. कस गुवैँन लूलैन उणे इनन थें”.

उडयार बड़ा असजिला था. ऐसी गुफा जो टेढ़ी -मेढ़ी तो थी ही असमतल भी जिसकी वजह से जहाँ कहीं बदन की टेक लगाओ, वहां कुछ चुभने-बुड़ने लगता. गुफा के भीतर की सीलन और चूल्हे की आग के धुवें से अलग मचमचाट होती. दीप की पीठ का मुआयना करते पाया की उसमें जगह-जगह नील पड़ गई है. पीठ सीधी करते हड्डियों की चट-चट अलग सुनाई दे रही थी. ल्वात पड़ गये.

टेक लो तो बुडनी ढुँग.

अब क्या जो करो?

इसी सुबह का इंतज़ार था. मौसम बिलकुल साफ, बयाल खूब ठंडी. नीला आसमान और पर्वत शिखरों पर चांदी सी परतों पर मुस्कुराती डोलती लहराती पीली-गुलाबी किरण.

जाग हो गई है और हर कोई अपना बदन सीधा करते, कउवा स्नान करते,दांत साफ करते दिखाई दे रहा है.

 हमेशा की तरह बड़ी थाली में धरे गिलासों में कुण्डल दा के हाथों बनी खूब मीठी चाय सोबन बाँट रहा है. बाकी जवान आलू पूरी के नाश्ते की खुर बुर में लगे हैं.अब नीचे तवाघाट लौटने की बेला है. इन ऊंचाइयों से नीचे फिर घाटी की ओर, अपनी रहगुजर, उसी नियमित दिनचर्या की ओर अपने घोंसले पर.

बटिन्यक तैयारी.

चल उड़ जा रे पंछी!

रेंजर साब चेता चुके हैं कि भले ही अभी धूप खिल गई है पर आगे ग्वार में पंक -कच्यार से बच कर निकलना. रड़ी गये तो गुम चोट दुखाते रहेगी.

पिंगू उड़ियार जिसे कोई पिंखू भी बोल रहे से लौट अब मंथिल ग्वार का पथ पकड़ना है. इधर को लौटते फिर फिर पुलोमा की खूब फैली पर्वत श्रृंखलाओं को देखने से मन नहीं भर रहा. कुछ ही कदम आगे चढ़ते किसी मोड़ को पार करते इनका स्वरुप बदला बदला लग रहा. ये सामने आपी की पहाड़ियां,नाम्या, नमचूंग के शिखर और इनके नीचे पसरा हुआ दारमा और व्यास घाटी का खूब विस्तृत फैलाव.

सब समेट रेंजर साब उडयार के आगे पीछे की साफ सफाई करवा संतुष्ट दिखे. भारी समान पकडे साथी आगे चल पड़े.

छोटे छोटे मोड़ से भरा रास्ता.

बजीण खतम.

हरियाली भरा जिसमें घास के ऊपर बढ़ते सब आगे बढ़े जा रहे हैं.

जहाँ मिट्टी वाला रास्ता है उसमें फिसलन बहुत है.

हयात दा फौरन बहौण यानी छोटी कुल्हाड़ी निकाल सामने पेड़ों से काट खुरच हमारे लिए फाँगे यानी टेक लगा आगे बढ़ने वाले डंडे थमा दे रहे हैं. सबसे पीछे मैं, दीप और हयात सिंह जी रह गये हैं.

मंगथिल ग्वार से आगे दम्फयाधार लग जाता है जिसे उतरते रास्ता अच्छा है, रड़ने फिसलने का जोखिम नहीं है. यहाँ ढलान काफी ज्यादा है. ढलान उतरते काफी समय लग रहा है. पर चलते चलते अब ऐसे रास्तों के हम बाणिक बन गये हैं.जब इस ढाल के आखिरी से चरण पर पहुँचते हैं तो ठीक नीचे अचानक ही एक सपाट मैदान दिखाई दे रहा है हयात सिंह जी बता रहे कि इस जगह का नाम ‘दस हजार ‘ है क्योंकि ये समुद्र तल से दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है.

जैसे-जैसे हम नीचे को उतर रहे, जंगल और घना होते जा रहा और उसका सौंदर्य भी. अनजानी सी लता, बेल, जंगली फूल और उनकी सुवास. पेड़ों से चीँ – चीँ, टिर्र-टिट्ट, क्रिँ-क्रिँ कुत्टss की आवाजेंअपने तय आरोह-अवरोह सुर ताल के साथ सुनाई दे रहीं. कभी झाड़ियों के पीछे सरसराहट तो कभी किसी पेड़ की टहनी में हलचल. जमीन तो बस घास और अनगिनत वनस्पति से भरी हुई.

मेरे आगे अगर और लोग नहीं होते तो मैं तो अंदाज भी नहीं लगा पाता कि उतरना किधर को है. यहाँ कोई बना बनाया रास्ता नहीं. यहाँ तो बस घास का गलीचा है जिसको चर्र -मर्र की संगत देते पेड़ों से झड़े बेहिसाब सूखे पत्ते.

सबसे बड़ी बात तो यह कि अब यहाँ पहुँच कर सांस बहुत साफ हो गई है और ठंडी हवा का स्पर्श कहीं भीतर फेफड़ों तक महसूस हो रहा है. रह रह कर छीँक आई पहले. पर कुछ ही देर हांफने के बाद तो जैसे दिमाग के दरवाजे खुल गये.

मेरे पीछे हयात दा हैं आगे दीप और सोबन. हयात दा बता रहे कि ये बयाल बहुत तेज हो जाती है बाज बखत.

“ये धार यस भै हो जमेँ भौते तेज हौ लागें होss , जै यस चिताला त मोखछोप लिया नंतर ख्वार पीड़ है जालि.”

वाकई हवा के थपेड़े बड़े तेज हैं और उसका शोर भी कान बुजा रहा. कभी कभी तो अगल बगल के बोट उसके फंगे टूट कर हम पर गिर न जाएँ का अंदेशा हो रहा. यह हवा की तेजी ही है जो पेड़ों से इतनी पत्तियां टूट उड़ कर धरती पर लोट लगा गईं हैं. कदमों तले बिछ गईं हैं.

हयात सिंह ने हाथ में लम्बा डंडा पकड़ा है जिसे कभी वह जमीन पर टकटका देते हैं तो कभी अपने कंधे की ओर गर्दन पर टिका उसके आजू – बाजू अपनी उंगलियों से पकड़ बना लेते हैं. जैसे ही नीचे की ओर उतरना होता है ये डंडा खट से उनके हाथ में आ जमीन को टटोलने लगता.

इतनी घास पत्ती कि कदम तले कि जूता भी उनमें धँस धप्प कर रहा.

नीचे घास पत्ती का बिछावन जो गुदगुदा जरूर पर कदम जरा ढीले पड़े तो बस फिसले.

दो बार तो में रड़ीते-रड़ीते बचा, खुद क्या बचा हयात दा ने थाम दिया. फिर वो मेरे आगे हो लिए और बोले, ” बस जरा भी गड़बड़ चिताओ तो मुझे थाम लेना हो गुरूजी”.

नेपाल की नमच्युँग और आपी-नाम्या चोटियां अभी भी दिखाई दे रहीं हैं.

नीचे उतरते बहुत थकान लग गई. कुछ मोड़ पार कर पाया कि खूब सारे वृक्षों से घिरी समतल सी जगह पर आगे बढ़ गये सब साथी अलग अलग मुद्राओं में लधरे पड़े दिख रहे. हम भी घने पेड़ों की छाँव में पैर पसार दिये. जहाँ हम सब सुस्ता रहे वहां एक छोटा सा तालाब भी जिसका नाम ‘मोताड़ ताल ‘ है. इसका पानी बहुत गंदला सा जिसका कारण ऊपर ढलानों से रिस्ता हुआ मटियाला कीचड़ और पेड़ों से झरती सूखी पत्तियाँ रहीं जो सब इस ताल की सतह पर जमा होती रहीं.

आराम से लधरे थे बस कि नाक में धुंए की धुपेंण आयी.दिमाग ने खट से संकेत दे दिया कि कुण्डल दा खाली आराम फरमाने वालों में नहीं, जरूर चाय पानी का बंदोबस्त हो रहा होगा. रह रह कर अपने चेलों को हड़का भी रहे थे कि वो झोला टीपो, अब गिलास निकालो.

बिना दूध वाली चाय मिली, काली मिर्च कुछ ज्यादा पड़ गई थी पर कुण्डल दा चीनी हमेशा ही खुले हाथ से डालते हैं इसलिए हम भी गटका गये. साथ में सूजी का हलवा भी था. कुण्डल दा सूजी भून उसमें चीनी मिला स्टॉक में रख लेते थे. बस जहाँ जरुरत पड़े उसमें गरम पानी मिला थोड़ी आग दिखानी हुई. हलू तैयार.

घंटे भर के आराम के बाद अब फिर उतराई शुरू हुई.नीचे उतरते हुए अब ढलान कम हो गई है. जंगल अभी खूब घने हैं और इनमें उड़ते फुदकते पंछी अपनी तरह तरह की आवाजों से हमारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहे. चलना बहुत संभल के है क्योंकि नीचे की मिट्टी काफी चिकनी व काली पड़ी दिखी. जूते के सोल पर चिपक उसे बहुत वजन दार बना दे रही. बार बार घास और पत्थर पर रगड़ उसे छुटाना पड़ रहा. ऐसे में चाल बहुत सुस्त पड़ गई. नीचे फिसलने का खतरा तो पेड़ों से झुक आई टहनियां बार – बार टकरा रहीं सिर से.

पेड़ की ये टहनियाँ फांग हुईँ. इनके बारे में आमा कहती थी, ‘जब नौ फांङ हाथ हाल तब एक फाँङ हाथ ऊंछ ‘ मतलब कि जब पकड़ने के लिए नौ टहनियों में हाथ डालो तब एक टहनी हाथ आए.पर आमा, एक को पीछे करो तो ये नौ झपक रहीं.

जैसे जैसे आगे बढ़ रहे पेड़ों की पत्तेदार पतली  टहनियों या ‘स्योँव ‘और लता -बेलों, ‘हांग -फांग ‘ से रास्ता रुका हुआ दिखता. लगातार एक हाथ से इनको हटाते हुए फिर आगे बढ़ना हुआ. कई फाँगे तो इतनी लचीली हैं कि मुख के सामने आगे से हटा जब छोड़ो तो पलट कर झपाका मार दे रहीं , वार कर रहीं. इनमें से कई रुख बड़े कंटीले भी , पकड़ कर हटाने की कोशिश में हाथ में चुभ रहे, बुड़ रहे. रेंजर साब बता रहे कि ऐसे तेज नुकीले काँटों का नाम ही ‘ भुत ‘ और ‘भुत्ति ‘ पड़ने वाला हुआ.

अब दमप्याधार से नीचे के इस ढालू रस्ते पर आगे बढ़ते मोताड़ ताल से आगे जंगल में भूड़ बहुत हुए. ऊपर जंगल से सोख -सोख यहाँ नीचे ढलान के ओने -कोने से पानी रिस रहा. जगह जगह सिमार इकट्ठा हरी रंगत लिए. इसमें अगर फिसल गये तो असली भतणम्म हुई. हड्डी पसली हड़ -जोड़ जो जाए वह अलग. मिट्टी बिलकुल लिसलिसी जिसके ऊपर नरम- नर्म घास भी उगी दिख रही और बीच -बीच से उभर आए सिनक और सिणुके. आगे चलती कितनी ही जगह पर घनी झाड़ियों का समूह जिनको ‘घाडि’ कहा जाता. इनको साफ किये बिना कई ठौर आगे बढ़ना भी मुश्किल हुआ तो अब कुण्डल दा ने भी बड़याट थाम लिया, हयात दा के पास बहाण है ही.

दस हजारी का थॉड़ आने तक सब ऊबड़-खाबड़, फिसलन भरा है. चले सब बहुत संभल कर. खास कर वो सब जिनके पास बोझ बहुत था. मेरे पास तो बस पिट्ठू ही था, झोला भी सोबन ने अपने गले डाल लिया था.यह रास्ता उतर तो गये पर चलने की इतनी अटक बटक कि बहुत थकाई लग गई.अब दस हजारी पहुँच समतल जमीन दिखी. घास से भरी. खुली खुली सी इस जगह पर एक के बाद एक सब विश्राम की मुद्रा में आ गये. कोई अपना घुन सहला रहा,कोई पीठ सीधी कर रहा. इतने कपडे लादे रखने के बाद भी हाथ पैर पीठ और चेहरे पर बुड़ गये घाव साफ उभर गये,नील भी पड़ गई.

दस हज़ारी से नीचे उतरते करीब तीन सौ फीट नीचे एक और ताल दिखा जो ‘छिनश्या मिनश्या’ ताल था. इससे करीब और दो सौ फीट नीचे जिसमें कई छोटे ताल -तालाब दिखाई पड़े वह उसे गोरा पानी था. यहाँ भी तालाबों में काई – सिमार, सूखी पत्तियाँ जमा दिखी. गोरा पानी की ऊंचाई समुद्र तल से नौ हजार पांच सौ फिट ऊपर. इससे नीचे उतरते हुए सेकंड कुमाऊं रेजिमेंट का देवालय दिखा. यहाँ प्रणाम कर फिर हमें उन बंकरों के अवशेष दिखाई दिये जो १९६२ में भारत -चीन के बीच हुई तनातनी के समय बने. पंचशील के सिद्धांत और हिंदी -चीनी भाई भाई की भावना को किस तरह अपनी धौंस में चीन निगल गया उसकी याद दिला गये ये, हमारे लिए वीरखम्ब हुए.

युद्ध के बाद इस इलाके की आर्थिकी ने भारत तिब्बत के परंपरागत व्यापार की रीत को ही विनिष्ट कर दिया और यहाँ की जनजाति के सामने नये आर्थिक व सामाजिक संक्रमण की चुनौतियाँ खड़ी हो गईं. सही मायनों में इस इलाके में अंतरसंरचना की आरंभिक बुनियाद की शुरुवात भी तब से ही हुई. अवस्थापना स्थापित करने को सरकार बाध्य हुई और रं व शौका जनजाति भी यह समझ गई कि विकास की मुख्य धारा में शामिल होने के लिए अब शिक्षा और उपक्रम के सोपान ही सर्वाधिक उच्च प्रतिमान की वरीयता रखते हैं.तब से अब तक बहुत कुछ बदलते जा रहा है. सीमांत का यह इलाका जहाँ अपने मूल वासियों की मेहनत, प्रकृति के साथ सामंजस्य और नवप्रवर्तन की भावना से उन्नति के नये शिखर छूने लगा वहीँ विकट व दूरूह भौगोलिक संरचना व प्राकृतिक आपदाओं से लगातार सुर्खियों में बना रहा. हर बारिश यहाँ नई आपदा ले कर आयी. भूगर्भ शास्त्री चेताते रहे कि इस संवेदनशील इलाके में कोई भी निर्माण कोई भी हलचल कहर बरपा सकती है.

घंटाकरण में अपने घर आए प्रोफेसर खड़ग सिंह वल्दिया जी ने उस लम्बी बातचीत में बताया था कि सड़क बनाने में अब जिस जल्दबाजी और विस्फोटकों का प्रयोग लागत बचाने के फेर में बढ़ता जा रहा है यह इस इलाके पर तो कहर बरपाएगा ही खासा जान माल का नुकसान का जिम्मेदार भी होगा.

1977 में जब में अल्मोड़ा महाविद्यालय में था तब इसी इलाके जहाँ से हम खेला पलपला की तरफ गुजरे, जान-माल की क्षति का भयावह मंजर देखने को मिला था. राहत सामग्री बाँटने व आपदा ग्रस्त लोगों के पुनरावास का खाका बनाने अल्मोड़ा के काबिल जिलाधिकारी मुकुल सनवाल ने महाविद्यालय से एन एस एस की टीम रवाना की थी. बाद में कई परिवार सरकार ने सितारगंज बसाये जो कुछ समय बाद वापस अपने उजड़े आशियानों में ही आ बसे.

अब हम कुमाऊं रेजिमेंट के देवालय व युद्ध की स्मृति जगाते बंकरों के नीचे उतरते जा रहे हैं. तीखे ढाल वाली बुँगा की धार लग गई है. चाल बहुत ढीली -ढाली और सुस्त हो गई है. ऊपर आसमान को निहारो तो दूर दूर तक फैली हिम श्रृंखलाऐं अपने सामने सरकते काले पर्वतों के पीछे छुपती चली जा रहीं हैं. नीचे धौली गंगा अपने सर्पिल आकार में बहती दिखाई दे रही है. दूर कहीं पांगू और नारायण आश्रम का इलाका अब साफ पहचान में आने लगा है. सुबह से चलते उतरते दोपहर बीतते अब खेला गांव की सीमा में पहुँच गये हैं. खेला के पोस्ट ऑफिस में भगवती बाबू के दगड़ू और मातहत अगवानी को तैयार हैं तो रेंजर साब अपने वन विभाग के कर्मचारियों की क्लास लेने व हंसी ठट्ठे में मगशूल हैं. फिर एलान होता है कि आज रात यही रुकेंगे खेला गांव में क्योंकि नीचे तवा घाट से आगे धारचूला की तंग सड़क पर बोल्डर गिर गये हैं. वन विभाग की दोनों जीपें अभी तवा घाट ही सुस्ता रहीं हैं और तवा घाट हमारे रुकने की कोई व्यवस्था नहीं है.

हयात सिंह ने मेरा, दीप व सोबन का झोला पिट्ठू अपने परिचित जसोदसिंह के पटांगण डाल दिया है. पटै बिशूण. पणाण की मुद्रा. फौसेन हो गई.

भीतर रसोई से रोटी बनने की खुसबू आ रही है.साथ में कई किसम की खडक -मडक. कुछ देर में थाली में स्टील के मग में चाय लिए दो लड़कियां शरमाते घबराते चाय ले आयीं हैं. वहां कोई मेज नहीं तो दूसरी तुरंत रसोई में जा एक कंटर ला उसके ऊपर चाय का कप बड़े सऊर से रख देतीं हैं.

तुम दोनों तो बिलकुल बराबर दिख रही हो, लग भी एक जैसी रही हो.

दीप पूछता है.

“जौँल्या हैं!” उनमें से एक जवाब देती है.

अरे! तभी जो. नाम क्या हैं.

बिमला -कमला.

दोनों पलट भीतर रसोई की तरफ शरमाते हुऐ भाग जाती हैं.दोनों की चुटिया में बंधे रिब्बन की फांक पांख से डोल रही.

खेला को यहीं खिड़की से तकते रहा. करीब दो मील के ढाल में फैला हुआ गांव. समुद्र तल से पांच हजार फीट की ऊंचाई पर पसरा. ऊपर मुंगसार है जहाँ जानवर छोड़े हुऐ दिखते, तो नीचे की ओर तिकोनी काट के मकानों के शिखर दिखाई दे रहे जिन्हें घूरि कहा गया.

“नजीक ही गाँव के बिचौ बिच होस्कर मंदिर है. रोटी- सोटी खा थोड़ा लधर लो. थक गये होंगे. इत्ती बड़ी दूरी नाप आए. छिपला के दर्शन कर आए.” जसोदसिंह जी कह रहे हैं.

इसी होस्कर मंदिर से खेला गांव की छिपला जात शुरू होती तो जसोदसिंह यह भी बताते कि होस्कर छिपला देव के पुत्र हुए. छिपला को यहाँ गुप्त कैलास भी कहते. नीचे के जो बयालिस गांव हुए उनके मवासे ढ़ोल, भँकोर बजाते हुड़के की थाप के साथ ऊपर छिपला तक की कठिन यात्रा पूरी करते. सब बिरादरी के साथ निसान, ध्वज व नेजा लहराते बढ़ते. ऐसा माना जाता की हर दो साल में शिब ज्यू कुछ समय के लिए छिपला केदार में निवास करते हैं. इस समय को सयाने धामी वार -पैट देख तय करते. धामी ही इन यात्राओं का समय और इनके दिन बताता.

सोलह दिन में हम मध्यहिमालय व शिवालिक के बीच बारह हज़ार फीट और पंद्रह हज़ार फीट की ऊंचाई चढ़ गये. पंचचूली का विस्तार कई बार देखा जिसके दाहिनी ओर था छिपला पर्वत. जब नारायण नगर डीडीहाट के साथ असकोट और सिंघाली से इसे देखा तो बिलकुल नजर के सामने था. मुंशियारी से इसकी दिशा दक्षिण पूर्व की ओर थी तो छिपला कोट का जो उत्तर -दक्षिणी ढलान हुआ उसके नीचे बिलकुल नीचे गोरी नदी बहती दिखी. कई बार तो यह चांदी की तरह चमकी. पारे सी मचली. उत्तरी ओर मंदाकिनी के भी दर्शन हुए वहीं पूर्वी ढाल पर कलकल करती शोर करती गरजती धौली जो अपने सुसाट – भूभाट से थरथराट तो कर ही गई. छिपला का विस्तार मुंसियारी से नीचे घाटी में मदकोट -शेरा घाट से होते गोरी नदी के किनारे बरम और फिर जौलजीबी, बलुआ कोट व धारचूला से ऊपर तवाघाट से गरजती लरजती काली नदी तक देखा जिसकी लहरें अपने चौड़े पाट की विशाल शिलाओं व चट्टानों से टकरा जगरिये डंगरिये की जुगलबंदी से हुआ कंप कर देतीं हैं.उससे होता है तीव्र निनाद कि थरथराण हो गया.

छिपला की चढाई का एहसास हो गया था बरम से जो जौलजीबी से मुंशियारी जाने वाले रस्ते से कटा. जब हम कनार से चले तो गुसी गाड़ से सट कर चले. तभी से करीब पंद्रह किलोमीटर की चढाई शुरू हुई. ढाल कभी एकदम खड़ा हो जाता और कहीं ऐसे भ्योल कि नीचे देखते रिंगाई आ जाये चक्कर आ जाएँ. बरम से कनार के इस थकाने वाले पथ में तबियत खुश कर देने वाले छीण याने जल प्रपात दिखे. इसी गांव में कनार देवी का थान हुआ जो केदार देबता की बहिन मानी गईं.

कनार गांव से पिथौरागढ़ की असुरसुला के साथ ध्वज और अर्जुनेश्वर की पहाड़ियां साफ पहचान में आयीं. यहाँ इस गांव में खड़ंजे -पडंजे खूब बिछे दिखे तो कनार से आगे ‘चैरिम -पूजणा’ जगह आती है जहाँ से वनों से गुजरता रास्ता दो फाड़ हो गया. इनमें पहला गया ‘भेमण की गुफा’ की ओर जिसमें खूब चकाल चढ़ाई मिली.घुरिने -फरकिणे, घुसड़ी जाने की पूरी झसक और दूर दिखती थीं चांट. इन खड़ी चट्टानों से गुजरने की कल्पना से हो मन चिताक हो गया. आगे चिफल पथ भी दिखा, वर्षा के बाद जमीन से रिसने वाले जल को छलकाता. जिसे छोय फुटण भी कहते,पतेल पात भरा. दूसरा रास्ता भेमण से कुछ ऊपर भटिया खान को गया जिसमें पहले डान घने जंगल से हो तिरछा रास्ता ढूंगैंण, थड़ ही थड़ है तो फिर खड़ी चढ़ाई द्वेराट भरी, फ़्यार लिए. सत्तर डिग्री से ऊपर के खड़े ढाल.कहीं पिलखाई तो कहीं वीरखम्ब, रास्ता जताते.

इस खड़ी चढाई के बाद तो छिपला अपना नया रूप दिखा गया मलमली घास और रंगबिरंगे फूलों से भरा विशाल बुग्याल जहाँ से दूर के जंगलों में हरीतिमा ने अलग अलग रंग की पट्टी दिखानी शुरू कर दीं थीं. भटिया खान की लगभग ग्यारह हजार फीट की ऊंचाई से धारचूला से पहले कालिका का ऊँचा शिखर – टुक साफ दिखाई दे रहा था तो सोर घाटी भी.

भैमण की गुफा व भटिया खान से आगे छिपला कोट की सरहद पर नंगे पैर ही जाया गया. अनूठा अनुभव जिसे कहते हैं टैंण यानी बरफ और खांकर पर नंगे पैर चलने की ठसक. चढाई पर असजिला पथ भी तो बुग्याल की हरी घास का गलीचा भी. चढ़ाई के बाद तो दर्रे की संकरी गली पार करनी हुई. इस संकरे मार्ग से आगे भेड़ बकरी नहीं ले जाई जातीं. यहीं दर्रा समाप्त हो गया , उस स्थान के टुक पर जो ग्यारह हज़ार आठ सौ फीट से अधिक की ऊंचाई पर था और बस यहीं पास छिपला केदार की पहली पूजा की गई इसी दानू के मंदिर में. दानू के मंदिर से सब दुग्ध धवल चोटियां दिखाई देतीं हैं ऊपर की ओर जिनकी पहचान होती है मैक्तोली, पंवाली द्वार, नंदा घुँटी, नंदा कोट और नंदा देवी से तो नीचे की ओर खलिया टॉप व कालामुनी के साथ पसरी मुंशियारी.

ऊपर चढ़ते अब बड़ी मुश्किल चढ़ाई रही नंदा देवी के मंदिर तक, जो घांघलों के बीच है यहाँ अनियमित कुंड भी दिखे. यह पूरा गल इलाका है. तेरह हज़ार चार सौ फिट की इस ऊंचाई से से राजरम्भा और पंचचूली का पाट दिखाई देता है.सामने है नाजुरी कोट का ऊँचा शिखर.यह ऐसा स्थल जहाँ हवा अपना पूरा जोर लगा बहती है. ये खया बयाल था. जिससे ऊपर चढ़ते तेरह हज़ार नौ सौ फिट की ऊंचाई पर घांघलों के बीच बना एक विशाल कुंड जो काकरेओल कुंड है. जनश्रुति है कि काकरेओल छिपला केदार के पुत्र रहे.

इससे लगभग पांच सौ फिट नीचे एक बड़ी चट्टान जिसके पार्श्व में बना ज्यूँली का मंदिर. ज्यूँली के मंदिर से पूरी विस्तृत पंचचूली दिखाई देती है तो इसके उत्तरपूर्व दारमा की अनेक उपत्यकाऐं व पूर्व में नेपाल का आपी चोटी.

प्रकृति की अनोखी लीला कि कुंड को देखते चलते घांघलों के बीच एक बड़ा फैला मैदान पसरा दिखता है. यह इतना बड़ा है कि इसमें घोड़े दौड़ाए जा सकते हैं. इसीलिए इसका नाम घुड़दाय पड़ा.इसे पार कर तेरह हज़ार छह सौ फिट पर केदार कुंड या केदार दौ है जहाँ एक तरफ कनार के निवासी भैमण होते हुए, शेराघाट व मदकोट वाले इलाके के ग्रामीण जन चेरती ग्वार वाला रास्ता पकड़ व खेला,रांथी, जुम्मा जात ले कर बरम कुंड होते यहाँ आते हैं.

केदार ताल में पड़ी बर्फ पर परिक्रमा करने की रीत पूरी की थी जो यहाँ की कड़कड़ती ठंड में स्नान कर शुद्धि के बाद सम्पन्न की गई.

अब वापसी के लिए हमने खेला तवा घाट का रास्ता पकड़ा डान वाला. दूसरा विकल्प चेरती ग्वार के रस्ते शेराघाट उतर मुंसियारी पहुँच जाना था. खेला गांव तक पहुँचने के लिए अब जिस पथ पर हम उतरे उसमें गड्डे ही गड्डे खुदे,पत्थर खाणी. जो जड़ी बूटी माफियाओं ने एक बहुत बड़े इलाके में खोद डाले तो दूसरी ओर घांघलों के बीच बेहिसाब कुंड थे कुछ पानी से लबालब, कई उथले और सूखे. दर्रे को पार करते समुद्वारी देवता के दर्शन जो समुद्र तल से तेरह हज़ार आठ सौ फिट की ऊंचाइयों पर स्थित था. यहाँ से फिर उतार मिला हुरहुरी घाट तक. ज्यूँली से नीचे उतरते तेरह हज़ार पांच सौ फिट पर छप्पन भेंक ताल दिखी तो फिर उससे कुछ दूरी पर हुस्कर ताल. घांघलों की तो पूरी बस्ती मिली. उनमें से कुछ तो कई किलोमीटर के विस्तार में फैले ऐसे जैसे कि पत्थरों की नदी पसर गई हो.नीचे तेरह हजार तीन सौ फिट के दर्रे पर हुआ छिपला धूरा जिसे खम्पादरज्यू के नाम से जाना जाता है. इसके ठीक सामने दायीं ओर का उच्च शिखर ही छिपला कोट है जिसे छिपला केदार भी कहा जाता है.

कदम फरक गये हैं, अब तीखा ढाल है तिलथिन धार का, ग्यारह हजार आठ सौ फिट की ऊंचाई पर दो छिन्या उडयार है, इसके नीचे सूखा पड़ा ढंग ढंग कुंड मिलता हैतो और नीचे पानी से भरा बरम कुंड जो समुद्र तल से ग्यारह हजार फिट की ऊंचाई पर है. बरम कुंड नाम छिपला केदार के बड़े बेटे बरम देव के नाम पर रखा गया है. बरम कुंड से काफी पहले से ही बुग्याल लग जाते हैं जो काफी विस्तृत क्षेत्र तक फैले हैं तो इसके नीचे के भाग में खूब वन उपवन हैं जिसे गणभूस धूरा के नाम से जाना जाता है. फिर उतरते चलते हैं उस विशाल तप्पड़ पर जहाँ मंथिल ग्वार है. गाय भैंस चरते दिखाई देते हैं,तो कहीं उनके बौरा जाने दुमकण पर काबू करते लौंडे,जो इस हरे मैदान में खुद भी धिरक रहे. कई जगह दौण यानी चौपायों को बाँधने वाली जगह भी, थ्वाप से लतपत बाट. सामने दिखती छोटी चोटी टिपुड़ी.

नीचे उतरे तो फिर झासि झिकड़ झाड़. यह छीत भी खतम होती है तो आती है पिंखू उडियार जिसके ठीक सामने खूब फैला जंगव झक्क हवा.धाडिदार वन. धाल लगाओ तो धुर से आवाज फरक लौटे.बहुत नीचे तलाऊं से गोठ की धूरि और अगल-बगल से निकलता धुँग. भिसार की कतार.न्यारै छवि.दिखते लूटाणि. कहीं कहीं लगे वड.

पिंखू उड़ियार से मंथिल ग्वार का रास्ता जिस पर चलते फिर फिर दिखतीं हैं पुलोमा की पर्वत श्रेणीयां यानी दारमा और व्यास के टुक. इससे आगे फिर दम्प्याधार का भ्योल, रिवाड़ भरा. जगह जगह रोक फिर दिखती सूखे पातों से भरी मोताड़ ताल तो और आगे बिलकुल हरे काया रंग की छिनश्या मिनश्या ताल. नीचे उतरते फिर बुँगा की धार और तब खेला.

खेला गांव में होस्कर मंदिर के सैँण में बैठे हैं. होस्कर जी को छिपला केदार का पुत्र बताया जाता है.

भगवती बाबू ने संध्या काल धूप दीप जला दिये हैं.मंदिर के सामने हवन कुंड से धूप गुगुल का धुंवा ऊपर आसमान की ओर छिपला केदार की ओर जाता और अनंत में विलीन होता दिखाई दे रहा है.

कल हम भी तवाघाट होते अपने घरोंदे की तरफ फरक जाएंगे…

चल उड़ जा रे पंछी!

फिर आएंगे नेपाल हिमालय की ओर.

समाप्त

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

इसे भी पढ़ें : छिपलाकोट अंतरयात्रा : वो भूली दास्तां, लो फिर याद आ गई

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