विगत लगभग तीस-चालीस वर्षों से भारत के विद्वजनों का ध्यान लोक-परम्परा की ओर आकर्षित हुआ है, विशेषकर आज के तेजी से बदलते राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों के अनुरूप लोक कला को अपनाने की समस्या के प्रति सभी चिन्तित हैं. लोक-कला को परिमार्जित करने, उसके संरक्षण उसके प्रसार तथा प्रस्तुतीकरण तथा उसके क्रियात्मक-नव-प्रयोग के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से गोष्ठियों, सभा-सोसाइटियों में वाद-विवाद होते रहे हैं. हमारी लोक परम्परा वास्तव में सभी लोगों व वर्गों के रूचि का विषय है. वाद-विवाद व चर्चाओं के अतिरिक्त लोक कला के परम्परागत गीतों व अन्य विधाओं को इकट्ठा करने तथा उसे राष्ट्रीय स्तर पर, गणतन्त्र दिवस लोक-नृत्य उत्सव या विदेशों में भारत महोत्सव के रूप में, प्रदर्शित भी किया गया है.
(Mohan Upreti Article)
इस क्षेत्र में किये गये प्रयासों को सर्वथा नया नहीं कह सकते, बल्कि इस प्रकार के प्रयास इससे पूर्व भी कई मनिषियों व कवि विद्वानों, जैसे रविन्द्र नाथ टैगोर व जाबीर चन्द मेघानी आदि ने भी किये थे. इन सभी प्रयासों ने इतना अवश्य किया कि जन मानस में अपनी प्राचीन सांस्कृतिक, लोक परम्पराओं के प्रति आकर्षण पैदा कर उस पर खोज करने की प्रवृत्ति जाग्रत हुयी. इस कार्य ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि बहुत तेजी से बदलते गाँवों के परिवेश में बहुत कुछ तो बिलकुल लुप्त हो चुका है. तथा यह तथ्य भी प्रकट हुआ कि यदि तुरन्त इसको संग्रह करने या बचाने के प्रयास न किये गये तो सम्भवतः बहुत कुछ जो बचा है, वह भी लुप्त हो जायगा.
विभिन्न व्यक्तियों व संस्थाओं द्वारा इस क्षेत्र में किये गये प्रयासों को गिनाये बिना मैं यह पूछूँगा कि इन प्रयासों के द्वारा हम अपनी प्राचीन सांस्कृतिक परम्पराओं को कितना पुर्नजाग्रत कर पाये हैं? इसका उत्तर शायद यही होगा कि हम समस्या के एक अंश को भी नहीं छू पाये हैं. वे लोग जो सही माने में लोक-कला के परम्परागत प्रवर्तक तथा उसे पैदा करने वाले हैं, स्वयं उनमें आज सृजन का आत्म-विश्वास नहीं रहा. हमने लोक कला को अभिजात्य भावना के अनुरूप ही लिया तथा उसकी जड़ तक हम कभी नहीं पहुँचे, जिससे हम लोक-कला को अध्ययन रूप के अतिरिक्त उसके मर्म को नहीं छू पाये राष्ट्रीय स्तर पर भी लोक-कला की जीवित सांस्कृतिक शक्ति का आभास भी अनुभव नहीं किया गया.
यहाँ पर मैं इन्डियन पीपुल्स ग्रेटर एशोसियसन द्वारा लोक कला के पुनः जागरण के लिये किये गये ऐतिहासिक कार्यो का भी जिक्र करना आवश्यक समझता हूं. यह पुनः जागरण का कार्य; यद्यपि बहुत कम समय तक चला यहां के उत्साही व कर्मठ कलाकारों को इकठ्ठा करने में सफल रहा, जिन्होंने इसे जन-कला का रूप देने के लिए अति उत्साह व पूरे जोश के साथ कार्य किया. यह एक जन आन्दोलन था जिसमें लोक-धुनों का प्रयोग जन आकाँक्षाओं की ओर मोड़ दिया ताकि वे साम्राज्यवाद, राजशाही, असमानता को दूर करने हेतु जन-आन्दोलन का रूप ले सके.
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अल्मोड़ा में स्थापित लोक-कलाकार संघ भी इस तरह का एक प्रयास था. इनमें कई लोक विधाओं को अपनाया गया, भले ही उनका सम्बन्ध धार्मिक रहा हो, जैसे बंगाल का कीर्तन या महाराष्ट्र का तमाशा. इन सब ने जन-चेतना को जाग्रत करने में काफी सफलता पायी. आई० पी० टी० ए० ने लोक-कला को जन-कला के रूप में लाने का प्रयास किया.
लेकिन कुछ ही समय पश्चात आई० पी० टी० ए० का विघटन हो गया जिसका कारण यह नहीं था कि उसका लोक-कला के प्रति कोई दोषपूर्ण रवैया रहा हो, उसका कारण था उसके द्वारा राजनैतिक दल के स्वार्थ को प्रतिपादित करना. यही इस संस्था में कलह व विघटन का कारण बना. कई अन्य संस्थाएँ भी इसी प्रकार के आचरण से टूट गयी. अतः लोक-कला का प्रयोग किसी पार्टी विशेष के प्रचार अथवा सरकारी कार्यों के प्रचार मात्र से विकसित नहीं हो सकता, जिसमें जन-चेतना एवं जन भावना का समावेश न हो.
हम बार-बार लोक-कला को बढ़ावा देने तथा उसके विस्तार के लिए समय-समय पर चर्चाएँ गोष्ठियां करते हैं, परन्तु अभिजात्य भावना से ग्रसित विचारों के कारण कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आते. आई० पी० टी० ए० का कार्य यद्यपि सीमित स्वार्थी व त्रुटियों से युक्त था परन्तु उसके द्वारा किये गये कार्य आज भी जन-भावना को जाग्रत करने में एक मशाल की तरह हैं.
ब्रिटिश राज के समय हमने अपनी संस्कृति विशेषकर लोक संस्कृति को हेय दृष्टि से देखा. जब मैं स्कूल में पढ़ता था, मैं भी लोकगीतों व लोक नृत्यों को शास्त्रीय संगीत से कहीं नीचे स्तर से देखता था. मुझे याद पड़ता है कि उन दिनों लोक-गीत व नृत्यों को गाने व नाचने के विरुद्ध कुछ लोगों ने अभियान चलाया था तथा लोगों को मेलों व पर्वों में गाने पर हतोत्साहित किया गया. सार्वजनिक स्थलों पर तो कहीं-कहीं शक्ति का प्रयोग कर लोगों को लोक-गीतों व नृत्य प्रदर्शन से रोका गया. उनकी दृष्टि में यह संस्कृति, मानव के पतन की सूचक थी.
इस तरह के परिवेश में रहते हुए मैं नास्तिकवाद के प्रभाव में आकर सभी इस प्रकार के कार्यों, भले ही वह धार्मिककृत हों को तुच्छ तथा प्रक्रियावाद से ग्रसित समझने लगा. इस प्रकार लोक संस्कृति के प्रति मेरी सोच नकारात्मक ही रही. सभी धार्मिक अनुष्ठान सांस्कृतिक या मांगलिक कार्यों में लोक गीत गायन के प्रति मेरी अवधारणा बनी रही. मेरे यूनिवर्सिटी शैक्षिक काल में, जब मैंने जन नाट्य संघ (आई० पी० टी० ए०) में प्रवेश किया, तब थोड़ी बहुत मेरी रूचि अपने लोक संस्कृति की ओर गयी. यही रूचि मेरी बढ़ती गयी और बाद में उसने मेरी जीवन-धारा को बदल दिया. 1955 में ग्रामों के भ्रमण के समय मेरी भेंट श्री मोहन सिंह (रीठागाढ़) से हुयी, जो अल्मोड़ा के सर्वश्रेष्ठ लोक गायक थे. उनकी गायन शैली का इतना अधिक प्रभाव मेरे ऊपर पड़ा कि मैंने लोक संस्कृति को अपने जीवन का मुख्य ध्येय ही बना लिया.
आखिर ऐसा लोक-संस्कृति में मैंने क्या पाया कि उसने मेरी जीवन शैली ही बदल दी? मैं अपनी लोक संस्कृति की मानवीय भावनाओं व न्याय अभिव्यक्ति की विचारधारा से आश्चर्य चकित रह गया. जहाँ वीर गाथाएं वंशीय गौरवमय, पौरुषिक गीतों को उजागर करती है वहीं प्रेम गाथाएँ बिना किसी जाति वंश का पक्षपात किये युगल प्रेमियों का मिलन करा देती है. उसके गीत जीवन की उत्पत्ति तथा प्रकृति के कौतूहल को दर्शाते है, जिसमें विभिन्न पौराणिक कथाओं का सहारा लेकर, अपने ही ढंग से उसका समाधान भी निहित होता है. समाज में शोषण तथा राजाओं व उनके मंत्रियों के षडयंत्र के विरुद्ध बड़े-बड़े डंडों से उन्हें पीटने अथवा भगा देने जैसी विधाओं का प्रयोग मिलता है. मैंने यह भी देखा है कि ग्रामीणों के श्रम को भी ऐसे गीत लुभावना बना देते हैं.
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राष्ट्रीय आन्दोलन में भी लोक-धुनों के प्रयोग ने नयी चेतना व जागृति पैदा की है. इन सभी बातों से, लोक संस्कृति की सार्वभौमिकता व सुन्दरता ने मेरी आंखें खोल दी. उनमें निहित मानवीय संवेदना, न्याय, उनकी शक्ति, प्रकृति के प्रति प्रेम, सामाजिक भावनाओं से ओतप्रोत विचारों से भी गीतों, प्रेम की शक्ति, मानवीय भाई चारा तथा मानव व भगवान के सहचर्य रूप में निहित लोक संस्कृति ने मुझे झकझोर दिया इससे भी अधिक लोक-गीतों को नये ढंग से नया रूप प्रदान करने की प्रचलित विधा भी मुझे काफी प्रेरित कर गयी.
मैंने लोक-धुनों का प्रकृति व समाज के प्रति कुछ प्रवृत्तियों को इंगित करने का प्रयास किया है. उक्त लोक पक्ष जो सामूहिकता के रूप में एक शक्ति है, कभी भी समूह कल्याण के विपरीत नहीं हो सकती. यह एक ऐसी कला है जिसका आधार प्रेम पर आधारित है, जो सामाजिक न्याय व भाई-चारे पर आधारित है, जो सदैव संसार की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करता है यह मानवता को विभाजित करने की ओर कभी नहीं जाता, बल्कि लोगों को जोड़कर सामूहिक सौहार्द के प्रति समर्पित है.
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– मोहन उप्रेती का यह लेख श्री लक्ष्मी भंडार अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित पुरवासी के 1992 में छपे 13वें अंक से साभार लिया गया है. अंग्रेजी में छपे इस लेख का अनुवाद पुरवासी के लिये लक्ष्मी लाल वर्मा ने किया था.
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