मोबाइल फोन की गिरफ्त में मासूमों का बचपन

रेस्टोरेन्ट में बैठे थाली का ऑर्डर दिया ही था कि सामने स्कूल से वापस आते दो लड़के टेबल पर बैठे. मुश्किल से सातवीं-आठवीं में पढ़ने वाले दोनों लड़के स्कूल की ड्रेस में पीठ पर बस्ता लादे हुए थे. एक ने दो प्लेट छोले ऑर्डर किये. जब तक छोले टेबल पर आते इतनी देर में दूसरे लड़के ने बैग से मोबाइल निकाला और अपनी ऑंखें उसमें गड़ा दी. अब दोनों उत्सुकता भरी नजरों से मोबाइल को निहारने लगे. एक स्क्रोलिंग करता और दूसरा सामने से बैठा स्क्रोल होते कंटेंट को देखकर मुस्कुराता रहता. छोले टेबल पर आ चुके थे लेकिन छोले और उसकी खुशबू की क्या बिसात जो लड़कों का ध्यान मोबाइल से डिगा सकें.

सामने बैठे लड़के को मोबाइल स्क्रीन उल्टी नजर आ रही थी जिस वजह से उसका मोह थोड़ी देर के लिए भंग हुआ और उसने अचानक अपना ध्यान मोबाइल से डायवर्ट कर छोले की प्लेट पर टिका दिया. लेकिन 2-3 मिनट बाद भी दूसरे लड़के ने मोबाइल में ऑंखें झोंके हुए ही अपनी छठी इंद्रिय की मदद से बिना पलकें उठाए टेबल पर रखी प्लेट को अपनी ओर खिसकाया. वह मोबाइल में इस कदर खोया हुआ था कि उसने यह जहमत तक नहीं उठाई कि एक बार प्लेट की तरफ देख ले कि असल में उसे परोसा क्या गया है. मेरी उत्सुकता इस बात को लेकर बढ़ने लगी थी कि आखिर कब उस लड़के की नजर मोबाइल से हटकर अपनी प्लेट पर टिकेगी? लेकिन मेरी उत्सुकता पर पानी फेरते हुए लड़का मोबाइल पर ही टिका रहा और बिना प्लेट की तरफ देखे एक-एक चम्मच कर छोले खाने लगा. उसका प्लेट, छोले, चम्मच व मुँह के बीच का संतुलन देखकर मैं हैरान हो गया. इस तरह का संतुलन बिना पूर्वाभ्यास के संभव ही नही था. शायद उस लड़के की बिना प्लेट की तरफ देखे खाना खाने व मोबाइल इस्तेमाल करने की आदत परवान चढ़ चुकी थी और वह इसका आदी हो चुका था.

पंद्रह मिनट के इस अंतराल में न तो उन दोनों लड़कों ने आपस में कोई बात की और न ही एक दूसरे की तरफ देखा. छोले की प्लेट पर ध्यान टिकाए लड़के ने जल्द ही प्लेट सफाचट कर दी लेकिन मोबाइल पर आँख  गड़ाए लड़के को अभी कुछ और समय की दरकार थी. अंतिम चम्मच के साथ ही जब छोले समाप्त हुए तो लड़के ने बिना पलकें उठाए प्लेट को साइड किया और मोबाइल को दोनों हाथों में ले लिया. सामने बैठे लड़के की तलब पिछले पंद्रह मिनट से मोबाइल के हाथ में आने का इंतजार कर रही थी. उसने अपने दोस्त से बिल चुकाने की बात बोलकर मोबाइल अपने हाथ में लिया और बिल चुकाए जाने तक अपनी इच्छाओं की तृप्ति करता रहा. अब जाने का समय आ चुका था. मोबाइल बैग में रखकर दोनों वहां से रुखसत हो गए.

सोचने वाली बात यह कि ऐसा कोई स्कूल अभी तक तो देश में स्थापित नही हुआ जहां बारहवीं तक के बच्चों का मोबाइल लेकर जाना स्वीकार्य हो. बात साफ थी कि ये बच्चे चोरी-छिपे मोबाइल लेकर स्कूल जाते होंगे. ऊपर से इतनी छोटी उम्र के बच्चों के पास स्मार्ट फोन का होना कहीं न कहीं माता-पिता की लापरवाही की वजह जान पड़ता था. दसवीं से बारहवीं तक के कई बच्चों को आपने चोरी से मोबाइल स्कूल ले जाते देखा होगा लेकिन यह आदत अब सातवीं-आठवीं के बच्चों तक पहुँच चुकी है यह हकीकत वास्तव में मेरे लिए बैचेन करने वाली थी. हो सकता है पाँचवी-छठी के बच्चे भी अपने सीनियरों की देखादेखी स्कूल में मोबाइल ले जाने लगे हों.

तकनीक का ईजाद तो मनुष्य की सहायता, बोझ कम करने व समय बचाने के लिए किया गया लेकिन वर्तमान में मनुष्य उसका गुलाम होता चला गया. मोबाइल आज घर-घर की बात हो गया है. घर-घर से भी ज्यादा वह व्यक्ति विशेष की बात हो गया है. बच्चे अब कम्प्यूटर या लैपटॉप की मांग करने से पहले मोबाइल की मांग करने लगे हैं. मोबाइल आज हर समस्या का हल जान पड़ता है. बोर हो रहे हो-मोबाइल उठा लो, घर में अनबन हुई हो-दरवाजा बंद करो और मोबाइल में लग जाओ, बस या मैट्रो में सफर कर रहे हो -जेब से मोबाइल निकाल लो. बाकी सब तो छोड़ो हालत आज यहां तक आन पड़ी है कि टॉयलेट जा रहे हो -मोबाइल साथ ले चलो. यत्र तत्र सर्वत्र सिर्फ मोबाइल ही नजर आता है. अभी कुछ दिन बीते दिल्ली मैट्रो में सफर कर रहा था तो देखा सामने वाली सीट पर बैठे सात लोगों के हाथ में आठ मोबाइल थे जिनका बाकायदा भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा था. एक आदमी तो मोबाइल में ऐसा खोया हुआ था कि उसे दो स्टेशन आगे पहुँचने के बाद ध्यान आया कि वह अपने गंतव्य से दो स्टेशन आगे आ चुका है.

सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक हर 10-15 मिनट में मोबाइल चैक करना लोगों की एक दैनिक क्रिया सी हो गई है. व्हाट्सएप में लोगों के स्टेटस चेक करने से शुरू हुआ अभियान फेसबुक, ट्विटर से होता हुआ इन्स्टाग्राम में जाकर खत्म होता है. इसके बाद भी अगर मन नहीं भरता तो यूट्यूब ज़िंदाबाद है ही. अधिकांश लोगों ने तो पावर बैंक ही इसलिए लिया हुआ है ताकि स्विच बोर्ड तक जाने की जहमत न उठानी पड़े और बिस्तर पर लेटे-लेटे मोबाइल चार्जिंग और सोशल मीडिया का आनंद ले सकें. मोबाइल के बिना आज बच्चे तो छोड़ो वयस्क तक चंद घंटे नहीं रह सकते. मोबाइल के खुद से दूर हो जाने या कुछ समय के लिए न मिलने से इंसान के मन में एक डर पैदा होने लगता है और इसी डर को कहा जाता है ‘नोमोफोबिया’ Nomophobia). यह एक तरह की बिमारी ही है जो धीरे-धीरे महामारी का रूप ले रही है और हर कोई जाने अनजाने इस महामारी की गिरफ्त में आने लगा है. इसे एक तरह का स्लो पॉयजन भी कहा जा सकता है.

छोटे बच्चों में मोबाइल की लत का पूरा श्रेय परिवार और परिवार में भी माँ-बाप को जाता है. बच्चा रो रहा हो -मोबाइल पकड़ा दो, किचन में काम करना हो -मोबाइल में कार्टून चला दो, बच्चा दूसरे की गोद में न जा रहा हो-मोबाइल का लालच दे दो, बच्चा खेलने को कहे-मोबाइल में गेम लगा दो, बच्चा घुमाने की जिद्द करे-मोबाइल में गाने चला दो. बच्चे से जुड़े हर मसले का समाधान मोबाइल में ही खोजा जाने लगा है. बचपन से ही मोबाइल के साथ बड़े होने वाले बच्चे उसके इतने आदी होने लगे हैं कि खेलकूद व किताबों से ज्यादा उनका ध्यान मोबाइल पर रहने लगा है. यही सबसे बड़ा कारण है कि सातवी-आठवीं में पढ़ने वाले बच्चे भी आज स्कूल में चोरी छुपे मोबाइल ले जाने लगे हैं. आईटी युग में जी रहे माता-पिता को यह बात समझनी चाहिये कि बच्चों की बदलती परवरिश के इस माहौल में उन्हें किस तरह तकनीक का आदी व गुलाम होने से बचाया जाए और तकनीक का बेहतर इस्तेमाल सिखाया जाए वरना नोमोफोबिया का स्लो पॉयजन नन्हें बच्चों को भी देर-सबेर अपनी गिरफ्त में ले ही लेगा.

नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.

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Sudhir Kumar

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